स्मिता कुमारी
पिछले कुछ दिनों से भारत में बोलने की आज़ादी को लेकर काफी बहस चल रही हैl समाज दो वर्गों में बंट गया है l एक समूह कहता है बोलने की आज़ादी चाहिए, दूसरा हर उठते सवाल को राष्ट्रवाद और देशद्रोही में बाँट रहा है l यहाँ मुद्दा यह नहीं हैं कि बोलने की आज़ादी का दायरा क्या होना चाहिए, क्योंकि राजनीतिशास्त्र में यह लिखा है कि "हम वह सब करने के लिए आज़ाद हैं, जिससे दूसरों का नुकसान ना हो l” मुद्दा इस बात का है कि जो सवाल उठते हैं, वह क्यों उठते हैं, उनका समाधान बिना बोले, बिना आवाज उठाये कैसे मिले? क्या बिना जबाब ढूँढे ही जिन्दगी गुजार देना अपने आप के प्रति, देश के प्रति और विश्व के प्रति हमारा दायित्व पूरा कर देता है ?
आईये पहले समझते हैं कि सवाल कौन उठाता है ?
सवाल सभी के मस्तिष्क में उठतें हैं, मगर विशेषकर तीन तरह के लोग मस्तिष्क में उठते सवाल को आवाज़ बनाकर उसके समाधान ढूँढते और माँगते हैंl
पहला- छोटे बच्चें, जिन्हें हर सवाल का जबाब चाहिए, क्योंकि वह हर चीज को जब तक खुद समझ ना लें और जब तक जबाब से संतुष्ट ना हो जाएँ, तब तक वह सवाल पर सवाल करते रहते हैं l उनके मन में समाज और देश में लागू हर चीज को लेकर सवाल होते हैं, तो क्या वह देशद्रोही हैं ? वह जिनसे मिलते हैं उनसे सवाल करते हैं और जबाब नहीं मिलने पर हर कोशिश के बाद अपने मन को समझाकर अपने मन के सवालों को दबाकर जीना सीख जाते हैं, मगर उनके सवाल ख़त्म तो नहीं होते ?
दूसरा- वह विद्यार्थी सवाल उठाते हैं जो किताबों को समझना चाहते हैं l सच कहा जाए तो वह छात्र जो किताबों में लिखी बातों को समझकर पढना चाहता है वह हर लाईन में शब्दों के ऊपर सवाल खड़ा करके सोचता है l अब या तो उसे जबाब देकर संतुष्ट किया जाता है या दबाब देकर रटामार तोते की तरह पढाया जाता है l यह ज्ञान के लिए नहीं, एक नौकरी पाकर जिन्दगी गुजारने के लिए दवाब दिया जाता है l लेकिन सवाल यहाँ भी ख़त्म नहीं होता, बस समझौता होता है l तो क्या जो छात्र यह समझौता ना करे और मुद्दे को समझना चाहे, वह देशद्रोही है ?
तीसरा सवाल- वैज्ञानिक सोच वाले इन्सान उठाते हैं, क्योंकि विज्ञान सवालों पर ही टिका है, सवालों के बिना तो कोई अविष्कार ही संभव नहीं l तो क्या सवाल उठाने वाले सभी वैज्ञानिक देशद्रोही हैं ?
हैदराबाद यूनिवर्सिटी हो या जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी हो या विश्व का कोई और शिक्षण संस्थान हो, वहाँ वह सब बच्चें छात्र के रूप में पहुँचते हैं, जिनके सवालों का जबाब बचपन से नहीं मिला और फिर कई सवाल किताबों से उनके मस्तिष्क में उपज जाते हैं l उन्ही में कई वैज्ञानिक सोच वाले बच्चें होते हैं जो सवालों को आवाज़ बना देते हैं और इन्ही संस्थानों से वैज्ञानिक निकलते हैं l शिक्षण संस्थान के अलावा ऐसी कौन सी जगह है जहाँ सवाल के जबाब ढूँढे जाए ?
अगर जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में हर मुद्दे पर चर्चा होती है तो यह देशद्रोह का मसला कैसे हो सकता है ? चाहे वह चर्चा अफजल के फांसी को लेकर हो या किसी अन्य मुद्दे पर होl यह तो महज सवाल है जिसका सही और गलत होने पर तर्क किया जा सकता था l हाँ देशविरोधी नारा लगाना गलत है, मगर शिक्षण संस्थानों में सवाल करना, आवाज़ उठाना देशद्रोह नहीं हो सकता l अगर इस मुद्दे पर प्रतिबन्ध लग गया तो क्या मस्तिष्क का पूर्ण विकास संभव है ? और जब हमारे मस्तिष्क का पूर्ण विकास ही नहीं होगा तो हमारा या हमारे समाज, हमारे देश या विश्व का विकास संभव नहीं है l क्योंकि एक बेहतर मस्तिष्क विकास से ही हमारा सम्पूर्ण विकास संभव है l
अब निर्णय आपके हाथ में है कि हमें अपने सोचने के दायरे को कितना संकुचित कर लेना चाहिए कि आवाज़ उठाने की सोच ख़त्म हो जाए या अपने सोच के दायरे बढाकर हर मुद्दे पर चर्चा करनी चाहिए l इन बातों को समझ कर सोचने की जरुरत है कि क्या आप सवाल उठाने वाले छात्रों को देशद्रोही करार करके अन्याय नहीं कर रहे हैं ? या तो इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाईये या अपने बच्चों को शिक्षा से दूर कर दीजिये क्योंकि शिक्षा हमें सवालों के करीब लाती है और सवाल दबाए जा सकते हैं मगर उनकी उपज को रोका नहीं जा सकता l और जब हमारे मस्तिष्क को दबाव दिया जायेगा तब वह कुंठा बनकर कई मानसिक बिमारियों को जन्म देगा l