रवीश कुमार
मई का महीना समीक्षा का होता है। भारतीय लोकतंत्र के इस रूटीन उत्सव में यही एक महीना होता है जिसमें सरकार हमेशा अच्छा करती है। दबी ज़ुबान आलोचना होती है, मुखर रूप से तारीफ़। संपादक और उद्योग जगत के कप्तान दस में आठ या सात नंबर देते हैं। नंबर देते वक्त सब यह ख़्याल रखते हैं कि छह से कम न हो। हमारे जनमानस में प्रथम श्रेणी का इतना आतंक है कि आज भी साठ प्रतिशत का मोल है। जबकि इतने नंबर पर आपको देश के किसी अच्छे कॉलेज में प्रवेश नहीं मिलता है। अगर कहीं से आंकड़ें मिल जायें तो आप मनमोहन सिंह से लेकर मोदी तक के कार्यकाल में एक निरंतरता देख सकते हैं। पता लगा सकते है कि पिछली सरकार में फलां उद्योगपति या संपादक दस में से कितना नंबर देता था, हो सकता है कि आपको मोदी सरकार में वो आदमी उतना या उससे ज्यादा नंबर देता मिल जाए। आलोचना इस तरीके से की जाएगी कि नेतृत्व को सबसे अधिक नंबर मिले और नीतियों के आधार पर मंत्रियों के नंबर काट लिय जाएं। नेता को नब्बे परसेंट और सरकार को साठ या सत्तर परसेंट!
किसी भी सरकार को हक है कि वो अपने कार्य का प्रचार करे। यह उसके तमाम मुख्य कार्यों में से एक है। इस मामले में मोदी सरकार के मंत्री काफी सक्रिय हैं। भले ही वो तमाम जनप्रदर्शनों पर ट्वीट न करते हों मगर व्यक्तिगत समस्याओं को ट्विट कर और कई बार उनका तुरंत समाधान कर जनमानस में मौजूदगी का अहसास कराते रहते हैं । सुष्मा स्वराज की इस मामले में सराहना की जानी चाहिए। दूर देश में फंसा कोई भी व्यक्ति उनसे गुहार लगाता है वो समाधान कर देती हैं। बकायदा बता देती हैं कि आप यहां जाकर इस अधिकारी से संपर्क कीजिए। इस मायने में मोदी सरकार का कोई मंत्री सचुमच जनभागीदारी कर रहा है तो वे सुषमा स्वराज हैं। मैं उनकी इस भूमिका से काफी प्रभावित हूं और इस मामले में बिना अगर-मगर लगाये उनकी तारीफ़ करता हूं। लोगों में भी उनकी ऐसी छवि बनी है कि उनके कई बार ट्वीट करने के बाद भी कि आगे से पासपोर्ट या कहीं फंसे होने पर आप विदेश राज्य मंत्री से संपर्क कर लें, लोग उन्हीं से संपर्क करते हैं और वही अभी तक जवाब दिये जा रही हैं।
क्या आपने सुषमा स्वराज को विदेश नीतियों के बारे में भी बोलते सुना है? बहुत कम । अगर विदेश नीति की दिशा में कोई बदलाव आ रहा है तो विदेश मंत्री से बेहतर कौन बता सकता है। हिन्दू अख़बार में सुहासिनी हैदर ने लिखा है कि किस तरह विदेश मंत्रालय की भूमिका गौण हो गई है। तमाम सरकारों में प्रधानमंत्री ही विदेश नीति का नेतृत्व करते हैं लेकिन आप याद कीजिए, विदेश नीतियों को लेकर विदेश मंत्री के कितने बयान आते थे। विदेश मंत्री अपने मूल कार्य पर कम बोलती हैं मुझे यह बात हैरान करती है। क्या विदेश मंत्रालय के मूल कार्य में उनकी भागीदारी नहीं है। सुहासिनी हैदर के लेख से तो यही झलक मिलती है।
अख़बारों, चैनलों और सोशल मीडिया पर नए नए आंकड़ें आ रहे हैं। ये वही आंकड़ें हैं जो साल भर से चल रहे हैं। मंत्रीगण कई अख़बारों और चैनलों पर इंटरव्यू देने लगे हैं। सब में उन्हीं आंकड़ों को दोहराया जा रहा है। इतना प्रतिशत ये हो गया उतना प्रतिशत वो गया। बीच में सुब्रमण्यिन स्वामी आ जाते हैं जो रिज़र्व बैंक के गर्वनर पर हमला करते हुए कह देते हैं कि इनकी वजह से उद्योग धंधे चौपट हो गए हैं और बेरोज़गारी बढ़ गई है। स्वामी जी के अर्थशास्त्री होने का गुणगान वित्त मंत्री राज्य सभा में भी कर देते हैं। अब जब राजन की वजह से उद्योग धंधे चौपट हो गए हैं तो फिर मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक उपलब्धियों के आंकड़ें कहां से ला रहे हैं!
रविवार के इकोनोमिक टाइम्स में कई मंत्रियों के इंटरव्यू छपे हैं। मंत्री अपने कार्यों को गिना रहे हैं। यह भी कह रहे हैं कि इतना पूरा हुआ है और इतना इतने समय तक पूरा हो जाएगा। यह एक अच्छा बदलाव है। अब काम मीडिया और विपक्ष का है वो उन जगहों पर जाकर ज़मीन से मूल्यांकन करे। भारतीय विपक्ष प्रेस कांफ्रेंस में ही सक्रिय दिखता है। ज़मीन पर जाकर गांव गांव घूमकर वो योजनाओं का मूल्याकंन नहीं करता। उसका सारा प्रयास किसी घटना तक है। कोई घटना हो जाए बस सरकार को घेरना है लेकिन कार्यों के दावों पर कोई घेराबंदी नहीं है। बहुत से बहुत एक लाइन का बयान दे देंगे कि सरकार फेल हो गई। किसी सरकार के मूल्यांकन का यह सबसे लापरवाह तरीका है।
कई अख़बारों में पढ़ रहा हूं कि मोदी के मंत्रियों में स्वतंत्र रूप से और तीव्र गति से कोई कार्य कर रहा है तो वे हैं नितिन गडकरी। कोई मीडिया हाउस सड़कों पर जाकर, राज्यवार मूल्यांकन नहीं करता कि किस राज्य में कौन सी सड़क परियोजना पास होने के कितने दिनों के अंदर लागू होने लगी है। गडकरी के मंत्रालय में ज़मीन पर कार्यों की प्रगति क्या है। अगर अच्छा हो रहा है तो बिल्कुल बताया जाना चाहिए। इससे गडकरी की छवि और निखरेगी। ऐसा करने में बुराई क्या है। अगर गडकरी ठीक नहीं कर रहे हैं तो उन जगहों पर जाकर दिखाइये कि जो बोला जा रहा है और जो हो रहा है उसमें क्या अंतर है।
सरकार तो अपनी तरफ़ से एकतरफा संवाद करेगी ही. उस संवाद में विविधता लाने का कार्य विपक्ष और मीडिया का है। विपक्ष की भूमिका में एक किस्म का तदर्थवाद दिखता है। अब इसके लिए तो मोदी ज़िम्मेदार नहीं हैं। दरअसल विपक्ष अभी भी मौकापरस्ती के खेल में लगा हुआ है। उन्हें एक फर्क बता देता हूं। भले बीजेपी बिहार और दिल्ली हार गई लेकिन बीजेपी एक मेहनती पार्टी है। वो लगातार जगह बनाने का प्रयास कर रही है। सोशल मीडिया से लेकर अलग अलग ज़िलों में उसके सांसद, प्रवक्ता, कार्यकर्ता जूझ रहे हैं। प्रधानमंत्री सांसदों को फटकार रहे हैं कि आपके पास कौन कौन सा एप है। सोशल मीडिया पर आपकी सक्रियता क्या है। अपने क्षेत्र में क्यों नहीं रहते हैं। क्या प्रधानमंत्री ने विपक्ष को ऐसा करने से मना कर दिया है।
बीजेपी के जो सांसद प्रधानमंत्री की बात नहीं सुन रहे हैं उन्हें गुजरात में उनका पुराना रिकार्ड देखना चाहिए। गुजरात में मोदी हर चुनाव के वक्त बड़ी संख्या में विधायकों के टिकट काट देते थे। अभी जितने भी सांसद हैं उन्हें इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि अगले चुनाव में हो सकता है पार्टी का टिकट न मिले। इकोनोमिक टाइम ने बकायदा कई मंत्रियों को दस में से छह से लेकर सात नंबर दिये हैं कि वे सोशल मीडिया पर कितना सक्रिय हैं। ऐसा लगता है कि यह सरकार सोशल मीडिया के द्वारा चुनी गई है और उसके प्रति ज़िम्मेदार है। पर आप इस तरह से भी देखिये। संवाद के मामले में मोदी ने अपने सहयोगियों को कितना बदल दिया है। जिन्हें लगता है कि सिर्फ मोदी मोदी है उन्हें यह भी देखना चाहिए कि मोदी इन मंत्रियों को ट्वीट करने की कितनी आज़ादी दे रहे हैं!
फिर भी सरकार की उपलब्धि इतनी ही शानदार होती तो बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को उज्जैन कुंभ में दलित संतों के साथ समरसता स्नान क्यों करनी पड़ी। यूपी के चुनाव में अमित शाह ने 71 सीटें पार्टी को दिला थी। मायावती की पार्टी को ज़ीरो पर पहुंचा दिया था और समाजवादी और कांग्रेस पार्टी को परिवार तक सीमित कर दिया था। क्या अमित शाह ने इलाहाबाद कुंभ में कोई कोई समरसता स्नान किया था? लोकसभा चुनाव के पहले इलाहाबाद में भी तो कुंभ लगा था। आखिर क्या वजह है कि बीजेपी इन प्रतीकों का सहारा ले रही है। यूपी में बोद्ध यात्रा निकाली जा रही है। बुद्ध की सबसे ऊंची प्रतिमा का वादा किया जा रहा है। अगर कार्यों को लेकर कोई यात्रा निकलती तो क्या जनता स्वागत नहीं करेगी?काम के लिए ही तो जनता ने इतने खुले दिल से प्रधानमंत्री मोदी को चुना था।
सरकार भी समझ रही है। समय तेज़ी से बदल रहा है। उसने संवाद का तरीका बदला है तो मीडिया में भी समीक्षा का तरीका बदलने लगा है। इकोनोमिक टाइम्स ने एक डेटा कंपनी से करार किया है। इस कंपनी ने पंद्रह हज़ार लोगों की बातचीत को ट्रैक किया है। उसके आधार पर विश्लेषण निकाला है कि सोशल मीडिया पर बात कर रहे इन लोगों के बीच सरकार की छवि बदली है या नहीं। राजनीतिक बदलाव को समझने के पुराने पैमाने के भरोसे नहीं रहा जाता। यह और बात है कि दिल्ली और बिहार चुनाव के वक्त मीडिया और सोशल मीडिया में बीजेपी की ही चर्चा होती रही मगर उसे जीत नहीं मिली। आपको देखना चाहिए कि कैसे हमारी राजनीति ‘बिग डेटा’ के विश्लेषण पर आश्रित होती जा रही है।
इकोनोमिक टाइम्स को दिये इंटरव्यू में केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने गंगा सफाई योजना को लेकर व्यावहारिक टारगेट दिया है। एक दो साल बाद या अभी ही आप मौके पर जाकर चेक कर सकते हैं। उन्होंने कहा है कि गंगा किनारे 500 श्मशानों का पुनरोद्धार किया जा रहा है। अगर ऐसा हो रहा है तो किसी मीडिया संस्थान को जाकर दिखाना चाहिए कि वहां क्या हो रहा है। कब तक हम और आप सिर्फ अच्छे या बुरे की धारणा के सहारे जीते रहेंगे। इससे सिर्फ एक भ्रमित मतदाता ही बनकर रह जाएंगे। विरोधी या समर्थक दोनों के लिए यह अच्छा नहीं है। भ्रमित विरोधी न बनें और भ्रमित समर्थक न बनें।
अख़बार ने पीयूष गोयल को ऊर्जावान मंत्री कहा है। मंत्री ने कहा है कि दो साल में सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि हम कर सकते हैं। सोच बदल गई है। अख़बार पीयूष गोयल को लेकर उत्साहित नहीं दिखता है। हालांकि पीयूष गोयल जिस तरह से रोज़ ट्विट करते हैं कि आज इस राज्य में इतने गांवों में बिजली पहुंचा दी है मुझे यह तरीका पसंद आया है। आप जाकर चेक कर सकते हैं कि ऐसा हुआ है या नहीं। अब कोई नहीं जाएगा तो इसमें पीयूष गोयल की ग़लती नहीं है।
मैंने हाल ही एक किताब पढ़ी है। Achieving universal energy access in India by P C MAITHANI, DEEPAK GUPTA ने लिखी है और इसे सेज प्रकाशन ने छापा है। इसके पेज नंबर 52 पर लिखा है कि भारत सरकार ने 2005 में भारत निर्माण के तहत लक्ष्य तय किया था कि मार्च 2012 तक एक लाख गांवों में बिजली पहुंचाई जाएगी और पौने दो करोड़ बीपीएल परिवारों के घरों में कनेक्शन दिया जाएगा। तब उस योजना का नाम राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना था। मैथानी साहब लिखते हैं कि सेंट्रल इलेक्ट्रीसिटी एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक भारत के 593,732 गांवों में से 556,633 गांवों को बिजली से जोड़ा जा चुका था।
अब देखना होगा कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना कब ख़त्म हुई। मैथानी साहब NEW AND RENEWABLE ENERGY मंत्रालय में निदेशक हैं और यह किताब 2015 में छपी है तब भी वे निदेशक थे। क्या पता आ ज भी निदेशक हों। मोदी सरकार के एक साल बाद एक मंत्रालय के निदेशक की किताब में यह लिखा गया है कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के खत्म होने पर 593,732 गांवों में से 556,633 गांवों को बिजली से जोड़ा जा चुका था। तो बाकी बचे 37,069 गांव जिसे बिजली से जोड़ा जाना था। अब यूपीए ने तो अपनी उपलब्धि गिनाई नहीं तो इसमें पीयूष गोयल का दोष नहीं है। इसी किताब के एक टेबल के अनुसार 31 जनवरी 2014 तक आंध्रप्रदेश, गोवा, हरियाणा, दिल्ली, केरल, पंजाब, सिक्किम, तमिलनाडू, में के शत प्रतिशत गांवों में बिजली पहुंच गई थी। गुजरात का आंकड़ा 99.8 प्रतिशत है। पश्चिम बंगाल का 99.9 प्रतिशत। बिहार का 97, मध्यप्रदेश का 97.7 और छत्तीसगढ़ का 97.4 फीसदी गांवों में बिजली पहुंचाई जा चुकी थी. 31 जनवरी 2014 तक देश का कोई भी राज्य नहीं हैं जहां 85 प्रतिशत से कम गांवों का बिजलीकरण हुआ हो। उत्तर प्रदेश का आंकड़ा था 88.9 प्रतिशत।
अगर आई ए एस अफसर मैथानी की किताब के आंकड़ें सही हैं तो फिर देखिये कि किस तरह पीयूष गोयल साहब बता रहे हैं कि कितनी मेहतन से वे 7,108 गांवों में बिजली पहुंचाई है। 97 से 100 फीसदी की उपलब्धि हासिल करने वाले हम केंद्र से लेकर राज्यों के बिजली मंत्री का नाम भी नहीं जानते होंगे। इकोनोमिक टाइम्स में ही टी के अरुण ने मंत्रियों के कार्य का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि आज भी 30 फीसदी बिजली चोरी हो रही है। बिजली उत्पादन की क्षमता 2,80,000 मेगावाट है। इसे इंस्टाल्ड कैपेसिटी कहते हैं। मगर मांग के उच्चतम स्तर पर बिजली का उत्पादन है 1,50,000 मेगावाट। यानी की हम बिजली का उत्पादन करने के लिए तैयार हैं फिर भी 1, 30,000 मेगावाट बिजली कम पैदा कर रहे हैं। इसका क्या मतलब है टी के अरुण ने नहीं लिखा है। क्या इसका मतलब है बिजली की खपत के लिए पर्याप्त मात्रा में औद्योगिक खपत नहीं है, या लोगों में बिजली ख़रीदने की क्षमता नहीं है।
मोदी सरकार ने संवाद का तरीका बदल दिया है लेकिन सरकार को देखने का नज़रिया नहीं बदला है। इतने आंकड़ें सरकार खुद ही दे रही है जिसे मीडिया जांच सकता है। मगर हकीकत यह है कि ज़्यादातर पत्रकार भी आर्थिक मुद्दों को समझने में सक्षम नहीं हैं। मैं ख़ुद इस कमज़ोरी से जूझता रहता हूं। आर्थिक मसले पल्ले ही नहीं पड़ते। मीडिया को पूछना चाहिए कि क्या हम आज के दौर में सरकारों के कार्य का सही मूल्यांकन करने में सक्षम हैं? हिन्दी में तो घोर कमी दिखती है और अंग्रेज़ी में दो चार पत्रकारों को छोड़ दें तो वहां भी यही हालत है। विपक्ष की हालत तो आप जानते ही हैं। धारणा ही तथ्य है। तथ्य का कोई परीक्षण नहीं हैं। तो मान लेने में हर्ज़ क्या है कि सरकार ने अच्छा काम किया। सत्य तो तभी विवादित होगा जब दूसरा तथ्य होगा। क्या किसी के पास दूसरा तथ्य है?