आरिफा एविस
पिछले दिनों महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के शनि मंदिर में प्रवेश को लेकर आन्दोलनकारियों और मंदिर समिति की तमाम कार्यवाहियाँ हमारे सामने आ चुकी हैं. इन सबके बावजूद स्त्री-विमर्श के पैरोकार, लेखक-बुद्धिजीवी, कानूनविद और यहाँ तक कि समाजशास्त्री भी इस घटना को भिन्न भिन्न तरीके से देख रहे हैं किन्तु इसके कुछ पहलुओं को जानबूझ कर दरकिनार किया जा रहा है.
कुछ लोग भारतीय परम्पराओं का हवाला देकर स्त्री जाति को अपवित्र और कलंकित कर रहे हैं तो वहीँ दूसरी तरफ कुछ लोग मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के विषय को समाज में अंधविश्वास की तरफ ले जाने की कार्यवाही मान रहें हैं. हद तो तब हो गयी जब कुछ लोग इस मामले को मात्र मंदिर में प्रवेश और रजोधर्म तक ही सीमित करके अपना पिंड छुड़ाना चाहते हैं. भारतीय राज्य व्यवस्था पर विश्वास करने वाले तो सविधान और कानूनी दांवपेंच तक ही सिमट कर रह गए हैं जो इस बात का संकेत है कि इस तरह का विमर्श पुरुषवादी मानसिकता और लैंगिक पूर्वाग्रह से ग्रसित हैजिसकी जड़े बहुत गहरी हैं.
यह इस तरह का अकेला मुद्दा नहीं है क्योंकि सबसे ज्यादा प्रगतिशील कहे जाने वाले राज्य केरल में तो पिछले 20 वर्षों से महिलाओं के मंदिर में प्रवेश का आन्दोलन चल रहा है. जबकि उस राज्य में सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी महिलाएं हैं. मैं इस मुद्दे के बहाने आप लोगो बात कर रही हूँ कि हमने एक ऐसा मौका गंवा दिया जो लोगों की चेतना को उन्नत कर सकता था.
दोस्तों मामला सिर्फ अपवित्र महिलाओं को मंदिर-प्रवेश से वंचित रखने तक सीमित नहीं है. इसकी जड़ें बहुत गहराई तक हमारे समाज और मन मस्तिष्क में पैठ बनाये हुए हैं. जरा गौर कीजिए महिलाओं के प्रति यह भेदभाव किसी विशेष जाति धर्म से जुड़ा हुआ नहीं क्योंकि मुस्लिम महिलाओं का मस्जिद में प्रवेश वर्जित है. इसी तरह चर्च में भी पुरुषों का ही वर्चस्व है.
किसी भी धर्म में एक भी गाली पुरुषों पर नहीं है. सभी महिलाओं पर आधारित हैं. आज भी अपमान का बदला लेने के लिए महिलाओं को ही शिकार बनाया जाता है. स्त्रियों पर ही तेजाब डाले जाते हैं. आज भी वंचितों में वंचित स्त्री समुदाय ही है. मुझे उन लोगों से सख्त नफरत है जो कुल मिलकर दोषी महिलाओं को ठहरा रहे हैं. उनके लेखन में, राज्य व्यवस्था, पितृ सत्ता है या पुरुष समाज द्वारा महिलाओं को अपवित्र और नीचा दिखाने वाली संरक्षित भेदभाव वाली परम्पराओं को तोड़ने की तड़प नहीं दिख रही.
दोस्तो, यह घटना पुरुषवादी मानसिकता के बर्बर रूप को हमारे सामने लाती है कि स्त्री दमन, उत्पीड़न और शोषण के लिए ही है. यह घटना इस बात का इशारा कर रही है कि स्त्रियां हमेशा से पुरुषों के अधीन रही हैं और आज भी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक शक्तियों के तमाम साधन -साध्य पुरुषों के अधिकार में हैं. वे जब चाहे महिलाओं को उनकी औकात दिखा सकते हैं.
इस घटना ने वर्तमान व्यवस्था पर पुरुष प्रधान मानसिकता की व्यापकता को हमारे सामने रख दिया जो महिलाओं के आर्थिक-शोषण, उत्पीड़न और सामाजिक दमन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अपनी भूमिका निभाता है. यही वो मानसिकता है जोमहिलाओं को रोकती है, यही मानसिकताप्यार करने से रोकती है, सृजन करने से रोकती है, फतवों के जरिये रोकती है और एक मुकम्मल जहाँ बनाने से रोकती है. हमें ऐसी मानसिकता को बदलने की जरूरत है.