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व्यंग्य: हरेक बात पर कहते हो घर छोड़ो Featured

आरिफा एविस

घर के मुखिया ने कहा यह वक्त छोटी-छोटी बातों को दिमाग से सोचने का नहीं है. यह वक्त दिल से सोचने का समय है, क्योंकि छोटी-छोटी बातें ही आगे चलकर बड़ी हो जाती हैं. मैंने घर में सफाई अभियान चला रखा है और यह किसी भी स्तर पर भारत छोड़ो आन्दोलन से कम नहीं है. यह बापू का नारा था जिनके साथ देश की अवाम ने हुकूमत के खिलाफ चलाया. इसलिए आज फिर से इस अभियान को अपने घर से शुरू करने की जरूरत महसूस हो रही है.

मैं इस घर का मुखिया हूँ अपने पिता की आलोचना देशद्रोह से कम नहीं होती, यह प्राचीन परम्परा के खिलाफ है. इसलिए घर में रहने वाले तमाम लोगों के खिलाफ मुझे स्वच्छता अभियान और घर छोड़ो आन्दोलन जैसे विश्व व्यापी अभियान को फिर से पुनर्जीवित करना पड़ेगा वैसे भी हमारे देश में तो पुनर्जन्म की हजारों सालों पुरानी परम्परा है. किसी ने ठीक ही कहा है कि जब जब धरती पर पाप होंगे तब तब कोई न कोई अवतार जन्म लेगा. इस बार मैंने शिवअवतार के रूप में घर की हुकूमत संभाली है. मेरी तीसरी आँख से एकदम साफ दिखाई देता है कि किस को घर से निकलना है और किस को घर में पनाह देनी है.

बापू के सबसे लोकप्रिय, विश्व-प्रसिद्ध विचार “सफाई अभियान” जन-जन तक, जन-जन के लिए घर-घर लागू कर दिया जाना चाहिए. मैंने उसी विचार को घर छोड़ो आन्दोलन के रूप चला रखा है. मेरे घर में किसी को भी अपने विचार रखने की आजादी बिलकुल भी नहीं है जो लोग इस घर में रहते हैं जिसका खाते हैं उसके बारे में तो वैसे भी कुछ नहीं बोलना चाहिए. जैसे जो लोग घर के दामाद हैं वो कभी नहीं बोलते. जिस जगह रहते हो उसी की बुराई करते हो, इस बात का भी ख्याल नहीं रखा जाता कि पास पड़ोस वाले क्या बोलेंगे? यही कि आप के तो सारे बच्चे नालायक निकले, जो आपने बाप की भी नहीं सुनते.

मैं मुखिया इसलिए ही बना हूँ. क्योंकि कोई था ही नहीं इस घर में, जो मुखिया बन सके. घर की व्यवस्था ठीक-ठाक चलती रहे. अब इसकी पूरी जिम्मेदारी मेरी है. जो लोग मेरे निर्णयों में सहयोगी नहीं बनेंगे उनको अपना नया घर ढूंढ़ना पड़ेगा. मुझे यह अहसास हो गया है कि सफाई अभियान या घर छोड़ो आन्दोलन को चलाये बिना काम नहीं चलेगा.

भूल के भी पड़ोसी के घर के पक्ष में बात कही तो आपको घर छोड़ना पड़ेगा. अगर पास पड़ोस से प्यार मोहब्बत और एकता की बात की तो उसको भी घर छोड़ना पड़ेगा. मेरी कमियां न निकालो, चुपचाप रहो, बस गुजर बसर कतरे रहो वरना घर छोड़ो . मैं कहीं भी जा सकता हूँ मन हो तो बिना बताएं पड़ोसी के घर शादी में जाऊंगा तोहफे भी दूंगा लेकिन अपने घर में पड़ोसी का पैर भी नहीं पड़ना चाहिए.

समय समय पर आपने मेरी तारीफ नहीं की और काम में अड़चने डाली तो भी आपको घर छोड़ना पड़ेगा. हमारे गांव में सैकड़ों जातियां और कई मजहब हैं लेकिन सर्वश्रेष्ठ तो एक ही है. तुम लोगों की बीवी कहे कि इस घर में रहने पर डर लग रहा है तो सीधे बिना वीजा के दूसरी घर के रास्ते आप लोगों के लिए हमेशा के लिए खुले हुए हैं.आप नहीं जाओगे तो चिंता न करे मेरे भाई इस काम को जल्द ही कर देंगे.

माना कि मैंने तुम लोगों को खेतीबाड़ी करने लायक नहीं छोड़ा है. घर के सारे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी दूसरे लोग कर रहे हैं . फिर भी घर तो घर है अगर घास-फूस नहीं खा सकते तो आपको यहाँ रहने की कोई जरूरत नहीं.

मेरे घर का एक ही उसूल है कि यह घर में मांसाहार नहीं होना चाहिए. मेरी तो नाक में भी फिल्टर लगा है ताकि कोई जीवाणु न मर जाये और मांसाहारी की श्रेणी में न आ जाऊं. वो बात अलग है कि बेल्ट, जूते, बैग और जैकिट लैदर की ही पहनते हैं. दूध-दही हम यूँही पीते हैं.

इस घर में उठने वाली हर आवाज को बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं लगेगी. समस्या को सहन करो पर चूं न करो. गर चूं करी तो बिना लिए दिए आपको दूसरे घर की नागरिकता मिल जाएगी. इसीलिए घर छोड़ो अभियान चलाने के लिए पूरी टीम बना दी गई है जो घर का भक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

मेरे घर में एक इंसान का दूसरे इंसान के प्रति प्रेम हो या न हो पर घर की दीवारों, खिड़की, छत और साज सज्जा के प्रति प्रेम होना बहुत जरूरी है.पड़ोसियों से घर जब तक नहीं बच सकता जब तक कि एक दूसरे के प्रति गुस्सा बरकरार न हो. मुखिया की सियासत के प्रति गुस्सा हरगिज नहीं बढ़ने देना चाहिए. जब आप एक गुलाम घर में रहते हो तो गुलामों की तरह रहो, घर के मुखिया की तारीफ करके अपने कर्तव्यों का पालन करो और खुश रहो. फिर कोई आपको घर से नहीं निकलेगा. हाँ समय समय पर घर भक्ति की परीक्षा के लिए भीड़ उन्माद का सहारा लेना कोई जुर्म तो नहीं. अगर डर बरकरार रहेगा तभी तो मुखियागिरी चलेगी वरना आज के ज़माने में, घर जैसी पुरानी व्यवस्था बचना मुश्किल है.

About Author

आरिफा एविस

लेखिका हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार में  स्नातक हैं और जन सरोकारों को लेकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लिखती हैं. कई पुस्तकों की समीक्षा के साथ ही आरिफा एविस कवितायें भी लिखती हैं.

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  • पानी नहीं है तो क्या हुआ कोका कोला पियो

    आरिफा एविस

    देखो भाई बात एकदम साफ है, क्रिकेट ज्यादा जरूरी है या खेती-किसानी? जाहिर है क्रिकेट ही ज्यादा जरूरी है क्योंकि ये तो राष्ट्रीय महत्व का खेल बन चुका है जो हमारे देश की आन बान शान है. यह सिर्फ देशभक्ति पैदा करने के लिए खेला जाता है. महानायक से लेकर नायक तक सिर्फ देश के लिए बिके हैं, कम्पनी के लिए नहीं. देश के लिए बिकना हर किसी के बस की बात नहीं. जिसकी कीमत होती है वही तो बिक सकता है. बिके हुए देश भक्त ही सरकार की तमाम समस्याओं का एक मात्र समाधान हैं जब देश आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्या में फंसे तभी मैच करा देने से समस्या का समाधान हो जाता है.

    जब देशभक्ति की बात हो तो बाकी सब मुद्दे एक दम छोटे हो जाते हैं. क्रिकेट देशभक्ति का उच्चतम प्रतीक है तो हमें पानी खेतों को देना चाहिए या क्रिकेट मैदान को ठीक करने के लिए? देशभक्ति के लिए पहले भी जाने कितने नौजवानों, किसानों ने अपनी जान तक दी थी. अगर देशभक्ति के लिए किसानों को पानी नहीं मिला तो ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? कुछ किसान बदहाल हो जायेंगे, कुछ आत्महत्या कर लेंगे, वैसे भी इस साल 2 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं. देशभक्ति की खातिर अगर किसान इतना सा भी त्याग नहीं कर सकते तो लानत है जय जवान जय किसान कहने पर.

    लोग पानी के लिये यहां-वहां जहां-तहां आपस में मर रहे हैं लेकिन हमारी वर्तमान सरकार भी पिछली सरकारों की तरह देशभक्त ही निकली जिसने देशभक्ति को जिन्दा रखने के लिए क्रिकेट की देशभक्ति पर कोई आंच नहीं आनी दी. क्योंकि ये महानायक ही तो अपने को बेच कर ही देशभक्ति को बचाने की आखिरी उम्मीद बन कर आये हैं. यही तो पूरी दुनिया में देश का नाम रोशन कर रहे हैं. आपको याद रखना होगा कि क्रिकेट और फिल्मों ने ही भारत को सबसे ज्यादा महानायक पैदा किये हैं. ये दोनों क्षेत्र ही सबसे ज्यादा देशभक्ति को मजबूत करने में सहायक हुए हैं. आज के महानायक ने एक किसान बनने का कितना प्रयास किया, अच्छा ही हुआ किसान नहीं बने वरना पनामा जैसी सम्मानजनक लिस्ट में नाम कैसे आता?

    भला किसान क्या देते हैं साल भर दिन-रात मेहनत मजदूरी करके कुछ मन अनाज! और तो और सब्सिडी भी कम्पनी को चली जाती है. जैसे ही फसल तैयार हो जाये बाहर देश से खेती किसानी की वस्तुएं मंगाकर देश की जनता को सस्ती वस्तुएं मुहैया कराई जाती है ताकि किसान अपनी फसल को किसी सड़क किनारे फेंक सके और अगले दिन बिना किसी बड़ी खबर के दुनिया से विदा ले सकें. किसानों को इस बार अच्छा मौका मिला है देशभक्ति दिखाने के लिए. खेती किसानी के लिए नहीं आईपीएल के लिए जिए या मरे.


    वैसे भी कुछ दिनों की ही तो बात है पूरे भारत में पांच लाख तालाब खोदने का काम गतिमान एक्सप्रेस की तरह हो रहा है. फिर भी हरियाणा, पंजाब राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल राज्यों ने पानी के सवाल पर अपने-अपने देश बना लिए हैं. खेत, किसान,गरीब, मजदूर सब बिना पानी रह सकते हैं. हरियाणा में भी पानी के लिए खून की गंगा बहाने के लिए तैयार हैं तो कोई होली पर ज्यादा पानी इस्तेमाल करने पर हाथ तोड़ने को तैयार क्यों न हो ? देश की हितरक्षक कंपनियों को झील,तालाब, नदी बेचने के लिये कुछ तो करना ही पड़ेगा .

    इसीलिए तो पानी की बचत के लिए सूखी-होली खेलने का ऐलान किया गया ताकि देशभक्ति का महाकुम्भ आईपीएल बिना किसी बाधा के हो सके. महाराष्ट्र के कई जिले सूखा ग्रस्त घोषित कर दिये गए. अब लोगों को चिंता करने की जरूरत नहीं, अगर कोई किसान पानी के नाम पर देशभक्ति में बाधा डालने की कोशिश करेगा तो देशभक्ति को बनाये रखने में धारा 144 पूरी मदद करेगी. हमने ये फैसला किया है कि खुद प्यासे रहकर पिच की प्यास बुझाएंगे.

    अगर किसी को ज्यादा प्यास सता रही है तो कोका कोला पीलो. देश की प्यास बुझाने के लिए सभी नदियों को एक-एक कर बेचा जा रहा है जब पानी ही देश का नहीं होगा तो पानी की लड़ाई भी अपने आप खत्म हो जाएगी तब तक देशभक्ति के लिए क्रिकेट जरूरी है और उसमें तड़का लगाने के लिए फ़िल्मी सितारे होने जरूरी हैं ताकि देश की जनता कभी भी बेरोजगारी और खेती किसानी जैसी छोटी-मोटी समस्याओं की तरफ दिमाग भी न लगाए.

  • आईआईटी की फीस वृद्धि के राजनैतिक निहितार्थ

    आरिफा एविस

    आईआईटी में पढ़ने वाले छात्रों को अब दोगुना फीस देनी होगी जो 90 हजार से बढ़कर दो लाख हो जाएगी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यह फैसला आईआईटी काउंसिल के सिफारिश पर लिया है. आपको याद दिलाते चले कि कुछ दिन पहले ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई-लिखाई के लिए दुनियाभर में माने जाने वाले IIT में तकरीबन 300 फीसदी फीस बढ़ाने के सुझाव को संसदीय स्थायी समिति ने स्वीकार कर लिया था. इस सुझाव में IIT की फीस 90,000 से 3 लाख रुपये करने के लिए कहा गया था.

    सरकार ने एक तरफ तो फीस भी बढ़ा दी है तो दूसरी तरफ आलोचना से बचने के लिये कुछ की फीस माफ करने का वही पुराना पैंतरा अपनाया है जो अब तक सरकारें करती आई हैं. सरकारी दयालुता दिखाते हुए सरकार ने 3 लाख फीस बढ़ने की अनुमति न देकर जनता का पूरा ध्यान रखा है. सरकार अच्छी तरह से जानती है कि दोगुनी फीस वृद्धि का फरमान जारी करने के बाद भी ज्यादा शोर शराबा होने की कोई उम्मीद नहीं है और ऐसा ही हुआ.

    शिक्षा जगत में हो रहे इस बदलाव और रूपांतरण को समझने के लिए इसकी थोड़ी गहराई से जाँच पड़ताल करनी पड़ेगी. वैश्वीकरण के नाम पर नई शिक्षा नीति को लागू किया गया है. जिस पर सभी राजनीतिक पार्टियों की साझा सहमति बहुत पहले ही उजागर हो चुकी है अब तो केवल इन नीतियों के परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं. वैसे भी IIT की शिक्षा प्राप्त करने वाले गरीब छात्रों की संख्या लगातार घट रही है. फीस वृद्धि के इस फैसले ने अमीर और गरीब की खाई को और बढ़ा दिया है.

    शिक्षा के द्वारा राजनीतिक हित को साधने का कारोबार शासक वर्ग हमेशा करता रहा है. सरकारें जो भी शिक्षा, साहित्य, कला और संस्कृति में बदलाव करती हैं उसके दो ही अर्थ माने जाने चाहिए. पहला: वर्तमान सत्ता को किसी भी प्रकार से बनाये रखना और दूसरा: आर्थिक हितों को सुरक्षित करना.

    भारतीय राजनीति आज नये दौर से गुजर रही है जिसमें छात्र राजनीति का उभार साफ दिखाई दे रहा है. जिसमें देशद्रोह के आरोप में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) आईआईटी, मद्रास फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) में गजेंद्र चौहान की नियुक्ति का विवाद, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में तीन दलित छात्रों का निष्कासन और रोहित वेमूला की आत्महत्या ने तमाम बड़ी राजनीतिक पार्टियों के छात्र संगठनों को सरकार के खिलाफ लामबंद होने का मौका दिया है. इन शिक्षण संस्थाओं के राजनीतिक इतिहास को सभी अच्छी तरह से जानते हैं. इसीलिए तमाम सरकारें समय-समय पर गरीब छात्रों को शिक्षा से वंचित करने का काम फीस बढ़कर भी करती हैं.

    फीस बढ़ाते समय सरकार यह अच्छी तरह जानती थी कि 90 के दशक से ही छात्र संगठनों को पहले ही कमजोर किया जा चुका है. आज भी देश के आधे से ज्यादा विश्वविद्यालयों - हिमाचल प्रदेश, बिहार, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु में छात्रसंघ चुनाव नहीं हुए। जबकि वर्ष 2005 में लिंगदोह कमेटी ने छात्रसंघ चुनाव करवाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की तय की जा चुकी है।

    भारतीय राजनीति कल्याणकारी राज्य की संकल्पना को कभी का त्याग चुका है. सरकार शिक्षा की अपनी पूरी जिम्मेदारी जनता पर थोप रही है. यह कदम शिक्षा को देशी विदेशी संस्थानों के हाथों में सौंपने की एक सुनियोजित योजना है जिसे बहुत पहले ही दलाल राजनीति द्वारा स्वीकार किया जा चुका है. सरकारी संस्थाओं की फीस बढ़ाकर और देशी विदेशी निजी संस्थानों को शिक्षा की तमाम सुविधाएँ देकर- शिक्षा, शिक्षक और शिक्षण को बाजार के हवाले करके देशी-विदेशी निजी संस्थाओं को पैर जमाने के अवसर देना इनका असली मकसद है .

    इस सम्बन्ध में एक बात गौर करने वाली यह है कि 90 के दशक से लेकर आज तक मध्यम वर्ग को बहुत सारी सुविधाएं देकर सरकार ने अपनी ओर मिला लिया है. क्योंकि फीस की वृद्धि का सबसे ज्यादा विरोध मध्यम वर्ग से आने वाले छात्रों द्वारा ही होता था. आज यह वर्ग 2 लाख ही नहीं 10 लाख देने में सक्षम है इसीलिए ये मुद्दा देश की राजनीति को अधिक प्रभावित नहीं करेगा. लेकिन गरीब परिवार से आने वाली सभी संभावनाओं को यह जरूर समाप्त कर देगा.

    प्रबुद्ध लोगों की बड़े पैमाने पर इस तरह के सवालों पर चुप्पी और बढ़ती आर्थिक, सामाजिक गैर-बराबरी समाज को नए संघर्ष की ओर धकेल रही जिससे बच पाना संभव नहीं है.

  • पुल गिरा है कोई पहाड़ नहीं

    आरिफा एविस

    पुल गिरा है कोई पहाड़ नहीं गिरा जो इतनी आफत कर रखी है. रोज ही तो दुर्घटनाएं होती हैं. अब सबका रोना रोने लगे तो हो गया देश का विकास.और विकास तो कुरबानी मांगता है खेती का विकास बोले तो किसानों की आत्महत्या. उद्योगों का विकास बोले तो मजदूरों की छटनी, तालाबंदी. सामाजिक विकास बोले तो भीड़ उन्माद और सांस्कृतिक विकास बोले तो प्राचीन सामन्ती विचार थोपना. आधुनिकता का विकास बोले तो मुनाफे में सब कुछ तब्दील कर देना.

    भला विकास विरोधी देश विरोधी लोगों को ये बात कहाँ समझ आती है. उन्हें तो बस मुद्दा चाहिए हो हल्ला करने के लिए. भला कैसे समझाया जाये पुल और पहाड़ की त्रासदी में सरकार और कंपनियों का हाथ नहीं है, ये सब तो भगवान की मर्जी है.

    और फिर सरकार तो आती जाती है आज ये है कल वो थी. लेकिन देश का विकास कभी नहीं रुकता क्योंकि सरकार और कम्पनी में अच्छा गठजोड़ है. ये तो देश की सेवा या लोगों की सेवा बड़ी मुस्तैदी और ईमानदारी से कर रहे थे. 2 साल के प्रोजेक्ट को 7 साल बढ़ाया गया ताकि बढ़ती मंहगाई के साथ कमाई और सरकार के हिस्से से अपने अपने घर का विकास सुनिश्चित हो सके. सिर्फ यही बंटवारे के काम बड़ी ईमानदारी से नहीं होता बल्कि पुल बनाया ही इसलिए जाता है ताकि पुल बार बार बनते रहें. इस बार एक छोटी सी गलती हो गयी जो पुल हम देश के विकास के लिए सिर्फ कागजों में बनाते थे. पुनर्निर्माण के लिए पैसों का बटवारा करते थे. एक पुल दिखाने के चक्कर में, ये दिन देखने पड़ गये.

    रही बात मजदूरों की तो मैंने पहले ही बता दिया कि कोई भी विकास कुरबानी मांगता है. वैसे भी मरने वाले लोग जिन्दा ही कब थे, जहाँ भी विकास होता है अपना खून-पसीना बहाने के सिवा उनके पास था ही क्या? वहीं अपनी झोपड़ी बनाकर यहां से वहां भटकते ही रहते हैं. जिन्दा रहने और बेहतर जिन्दगी की तलाश में उन्हीं सड़कों, इमारतों और पुलों पर मर जाते हैं... ये कोई अनोखी घटना तो नहीं...बच्चे भूखे मर रहे हैं.... किसान मर रहे हैं.... नौजवान मर-मार रहे हैं...संवेदनाएं मर रही हैं, जिज्ञासाएं मर रही हैं, तर्क मर रहा है. आज पुल गिरा, कल किसी ने आत्महत्या कर ली, परसो खदान गिरी. यहाँ इमारत गिरी, वहाँ छत धंसी, यह सब तो हो रहता है. ये तो प्रकृति का नियम है एक न एक दिन तो सबको जाना ही है. सबकी मौत उसके हाथ में होती है.

    हम उन मजदूरों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करेंगे. भगवान उनकी आत्मा को शांति दे. ताकि मरने के बाद वो हमें न सताएं. जीते जी तो हमें बख्शा नहीं. कभी हड़ताल तो कभी तालाबंदी तो कभी काम न मिलने का रोना. किस-किस की सुनें. बाहर कोई हादसा हो तो वहां जाओ सहानुभूति दिखाने.

    किसी के शोर मचाने का कोई तुक नहीं. अगर देश के विकास में देशी-विदेशी कंपनियों से लेकर मंत्री-संतरी तक हजारों-लाखों करोड़ों रुपये का बटवारा होता है. उसमें भी उन्हें एक दो लाख देना बहुत कठिन काम है. फिर भी उनकी क्षति पूर्ति के लिए मुआवजे तो बाँट ही दिये हैं, घरवालों को सहानुभूति दिखा दी है. लाखों मिल गए और क्या चाहिए. अरे इतना तो जिन्दगी भर भी नहीं कमा पाते. और फिर पुल ही तो गिरा है पहाड़ नहीं ...जो पूरी की पूरी आबादी तबाह हुई हो....पहाड़ पर तो हजारों कंपनियां काम कर रही थीं यहां सिर्फ एक. फर्क करो भाई सबको एक तराजू में मत तोलो... वहां की सैकड़ों कंस्ट्रक्शन कंपनियां बेकसूर निकली थीं. पुल बनाने वाली कम्पनी भी बेकसूर है. ..और कसूरवार! देखना हर बार की तरह कोई न कोई निम्न श्रेणी का ही कर्मचारी होगा. बाकी सब के सब दूध के धुले हैं. पूरा सिस्टम एक दम ऊपर से नीचे तक गंगा जल की तरह पवित्र है. अगर ऐसे में कोई घटना हो तो सिर्फ एक व्यक्ति ही दोषी होना चाहिए. सभी को दोषी ठहराया तो किसी की भी खैर नहीं.

  • शिकार करने का जन्मसिद्ध अधिकार

    आरिफा एविस

    एक बार जंगल राज्य में राजा का चुनाव होना था. अजी चुनाव क्या... बस खाना-पूर्ति तो करनी थी ताकि जंगल लोकतंत्र का भी ख्याल रखा जा सके. भला वर्षों पुरानी इस प्राचीन प्रथा को नया जंगल निजाम कैसे बदल सकता है? जंगल के राजा के चुनाव में कोई जीते या हारे ...  राजा तो नागनाथ या सापनाथ में से ही बनेगा... सो बन गया.

    नये राजा ने प्राचीन जन्मजात अधिकारों को जंगल का कानून बना दिया.  यानि शेर का बच्चा शेर और राजा का बच्चा राजा..... हाँ एक दो बार चालाक भेड़िया.... साधु  सियार और उत्पाती हाथी या नागनाथ या सापनाथ भी बारी-बारी से इस जंगल के राजा बनने का सुख प्राप्त कर चुके हैं.

     लेकिन जंगल में बस शेर और सियार तो रहते नहीं है. इस जंगल में भेड़, बकरी, हिरन, खरगोश, पक्षी और कीट-पतिंगे भी जिन्दा रहने की कोशिश करते ही रहते हैं जो कि तादाद में बहुत ज्यादा और बहुसंख्यक भी हैं. इन्होंने संगठित होकर एक-दो बार जंगलराज को जरूर चुनौती दी.  लेकिन इनमें से कोई भी कभी भी जंगल का राजा तो क्या संतरी भी न बन सका. बनते भी कैसे सबकुछ जंगल कानूनों के तहत ही तो किया जा रहा है. सब कुछ कानून के मुताबिक.. अब कोई जंगल कानूनों पर तो कोई ऊँगली उठा नहीं सकता. जो ऊँगली उठाये उसे जंगलकानून शराफत से समझा देता है.

    भेड़, बकरियों में से तो सिर्फ एक को पंच बना दिया जाता है ताकि राजा के लिए समय-समय पर भोजन मिलता रहे यह सब भी जंगल कानूनों के अनुसार बनाया गया है. वैसे सालों पुरानी इस प्राचीन प्रथा में थोडा तो परिवर्तन करना ही पड़ता है और नागनाथ और सापनाथ में एकता हो चुकी है... दोनों मिलकर जंगल कानून को पूरी इमानदारी, मेहनत और लगन से लागू करेंगे चाहे इसके लिएकितना भी खून बहाना पडे. राजा और उनके सिपाही भेड़, बकरियों और दूसने अदना जानवरों को समय-समय पर ये अहसास दिलाते रहते हैं कि यदि जंगल कानून नहीं होता तो हम कबका तुम्हें खा जाते, उनके पैर कानून की बेड़ियों से जकड़े पड़े हैं... वे तो जंगल कानून का सम्मान करते हैं, जंगल कानून ही एकमात्र सच्चाई है जिसकी बदौलत जंगल आज तक बचा है.

    यह जंगलराज के गर्व की बात है कि जन्मजात राजा ही जंगल पर राज करे. राजा ने ये एलान कर दिया कि वह जन्मजात अधिकारों को कभी भी जंगल से हटने नहीं देगा. जो भी जंगलराज के जन्मजात कानूनों को तोड़ने की कोशिश करेगा दंड का भागीदार होगा. पानी बिजली, पहाड़, नदिया, झरने, खेत-खलियान सब कानूनी तरीके से बेचे जाएं. जंगली कानूनों पर जंगलवासियों को इतना विश्वास है कि कुछ भी कर लो, 25-50 साल से पहले न्याय नहीं मिल सकता जो जंगलराज को बचाने के लिए एक बड़ी बात है ....कुछ बागी भेड़-बकरियों को तो सजा देनी जरूरी भी है ताकि कानून का सम्मान बना रहे बना रहे.

    अब जमाना बदल गया है जंगल में रहने वाले सभी जानवरों की सोच भी बदल रही है. वे बार-बार अपने लिए न्याय की मांग करते रहते हैं. इसीलिए नए राजा के सामने एक कठिन चुनौती आ रही है कि जंगल को नियंत्रित कैसे करे? लेकिन राजा तो राजा ही होता है..... राजा के पास पावर है वह सर्वशक्तिमान है....  उसका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता. प्राचीन काल से आज तक राजा की पहचान उसके न्याय से होती है. इसीलिए नये राजा को ये समझ में आ गया कि जानवरों को मनुष्य बनने से रोकने के लिए न्याय शब्द ही हटा दिया जाना चाहिए. इसीलिए जंगल के राजा ने घोषणा की है कि सत्य ही ईश्वर है, सत्य ही सुन्दर है, सत्य ही शिव है. सच बोलो, सच के साथ खड़े हो जाओ. न्याय की बात करना जंगलराज में कानूनी अपराध है.

    सारे कौवे, चील, गिद्ध इत्यादि को पूरे जंगल में सूचना देने के लिए कहा गया. उन्होंने 24 घंटे चिल्ला-चिल्ला कर सच को स्थापित किया. सच! सच! सच.... सच को नियमबद्ध कर दिया गया है.... जंगलीकानून को जन्मजात माना जाये .....शेर बकरी को खाता है, बकरी घास को खाती है.....यही सच है.... यह सदियों से चला आ रहा है. अतः इसको कोई भी राजा के रहते छीन नहीं सकता. सियार और भेड़ियों को अपने इलाके में शिकार करने का जन्मसिद्ध अधिकार है.

    जंगल के राजा शेर को अपनी परम्परा को बदलना पड़ा क्योंकि वह अच्छी तरह से जानता है कि न्याय जैसी सोच किसी भी जानवर तक नहीं पहुंचनी चाहिए वरना वे मनुष्य बनने की दिशा में बढ़ने लगेंगे. और अपने अधिकारों के लिए लड़ने पर अमादा हो जायेंगे... संगठित हो जायेंगे....  एक दिन जंगल समाप्त हो जायेगा और जंगल कानून इतिहास बन जायेगा.

  • भारत माता की जय

    आरिफा एविस

    जब सवाल देशभक्ति का हो तो कभी पीछे नहीं हटना चाहिए. हम जिस देश में रहें और उसके प्राचीन सामन्ती विचारों की कोई कदर न करें और उसके प्रति निष्ठा न रखें ये कहाँ की बात हुई. देशभक्ति को समय-समय परखते रहना चाहिए क्योंकि लोग बहुत चालाक हो गये हैं.

    मुझे तो समझ ही नहीं आता कि वो लोग कैसे होंगे जिनसे भारत माता की जय नहीं बोली जाती इसीलिए देश भक्ति के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए और भारत माता की जय बुलवाने के लिए कुछ न कुछ हथकंडे अपनाने भी पड़ें तो देश कि सेवा में ये कुछ भी नहीं.

    अरे ये तो गर्व की बात है, देश की युवा पीढ़ी देशभक्ति के उन्माद में कुछ भी कर सकती है उनको सरकारी सुरक्षा प्रदान की जाएगी.  हमारी पुरजोर कोशिश रहेगी कि लोग भारत माता की जय बोलें. राष्ट्रवाद तो हर व्यक्ति के डीएनए में होना ही चाहिए. और तो और अब पूरी दुनिया से भी कहलायेंगे यही हमारा लक्ष्य है. उन लाखों नौजवानों को जय बोलना चाहिए जिसके हाथ में डिग्री तो है पर नौकरी नहीं है, जो बिना नौकरी आत्महत्या करने को तैयार हैं. अरे भई भारत माता की जय बोलो नौकरी की समस्या तो अपने आप दूर हो जाएगी.

    किसान जो कभी सूखे से तो कभी बाढ़ से तो कभी जमाखोरी के कारण कर्ज में डूब जाते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं हमारे नेताओं को सिर्फ लात मारकर मरने के लिए ही नहीं कहना चाहिए बल्कि उसके गले में फांसी का फंदा डालकर भारत माता की जय बुलवानी चाहिए.

    वो बच्चे जिन्होंने कभी स्कूल की शक्ल नहीं देखी और वो बच्चे जो स्कूल सिर्फ एक वक्त के खाने के लिए भिखमंगे बना दिए गये है अगर वे भारतमाता कि जय नहीं बोलेंगे तो कौन बोलेगा.  

    4 माह की बच्ची से लेकर 80 वर्षीय औरतें राह चलते या कभी-कभी घरों में हवस का शिकार बन जाती हैं. भारत माता की जय बोलने पर दोषी की सजा को कम कर दिया जाना चाहिए. जो प्रेम, इश्क, मोहब्बत की बातें करें और प्राचीन परम्परा को तोड़ने की बात करें भारत माता की जय बुलवाकर उसके ऊपर तेजाब डालकर देशभक्ति को पुख्ता करना चाहिए.

    भारत माता को सबसे ज्यादा खतरा तो वैज्ञानिक सोच रखने वालों से है, तार्किक लोगों से है, साझी विरासत की बात करने वालों से है. इन लोगों से निपटे के लिए घरो पर हमला, गोली से मार देना, देशद्रोही कह देना काफी नहीं. उनको मार देने वालो को भी पैदा किया जाना चाहिए ईनाम घोषित करना चाहिए.   

    जाति व्यवस्था भारत की प्राचीन परम्परा है बस इसको तोड़ने की बात न करो, जो भी तोडने की कोशिश करे घर जलने से काम नहीं चलेगा दलितों के गाँव के गाव जलाने पड़े तो यह भारत माता की सच्ची सेवा होगी. यह सब करने वाले देशभक्त आपको जरूर मिल जायेंगे क्योंकि 20 रुपये रोज पर गुजारा वाले लोगो की कमी नहीं है. ये लोग ही भारत माता के काम आ सकते हैं.

    इससे तो अच्छे वो लोग हैं जो अपने देश के लिए सब कुछ बर्दाश्त कर सकते हैं पर देश के ख़िलाफ़ कोई बोले तो बिलकुल बर्दास्त नहीं कर सकते. देशद्रोह का आरोप लगाने में बिलकुल भी नहीं हिचकते अगर उनका बस चले तो देशनिकाला भी कर दें. भारत माता की जय को देश तक सीमित नहीं करना चाहिए. देश में तो लोग मरते ही रहते हैं हमें तो दूर देश में मरने वालो को श्रद्धांजलि देने और आपनी विश्व बन्धुत्व और विश्वगुरु होने की महिमा को फेलाने के लिए जाना चाहिए. इसीलिए तो देश में रोज तिल-तिल कर मर रहे हैं पर बाहर चंद लोग मर जाएं तो श्रद्धांजलि देने से हम नहीं चूकते.

    भारत माता की जय बोलकर देशी-विदेशी कम्पनियों को उनकी हर मांग को पूरा करते हुए किसानों की जमीन लेकर देनी चाहिए. जनता को भारत माता कहने वाले नेहरु की थ्योरी को अब बदलने का सही वक्त है. अभी नहीं तो कभी नहीं. तो बोलो भारत माता की जय. मेरा भारत महान. 

  • बिना पुरस्कार व्यक्ति का जीवन भी कुछ जीवन है?

    आरिफा एविस

    पुरस्कार किसी भी श्रेष्ठ व्यक्ति के कर्मो का फल है बिना पुरस्कार के किसी भी व्यक्ति को श्रेष्ठ नहीं माना जाना चाहिए. बिना पुरस्कार व्यक्ति का जीवन भी कुछ जीवन है? जैसे “बिन पानी सब सून.” इसलिए कम से कम जीवन में एक पुरस्कार तो बनता है जनाब. चाहे वह राष्ट्रीय, प्रदेशीय, धार्मिक, जातीय या कम से कम गली-मुहल्ले में बटने वाले पुरस्कार ही क्यों न हो. चाहे जीवन में कोई काम किया हो या न किया हो लेकिन सम्मान प्राप्त करने के लिए जी-तोड़ और जोड़-तोड़ करना पुरस्कार प्राप्त करने के लिए आसान काम नहीं है.

    पुरस्कार तो पहले भी मिलते आयें हैं और आगे भी मिलते रहेंगे. देखो भाई, जो समाज के लिए विभिन्न क्षेत्रों में श्रेष्ठ कार्य करें, जिनका नाम हो, दाम हो, काम हो, भाई बिना बात हर पुरस्कार पर अपनी नाक भोह सिकोड़ते रहना कोई अच्छी बात नहीं है.

    हमे गर्व होना चाहिए कि हर बार की तरह इस बार भी उनको सम्मान मिला जिन्होंने भारतीय संस्कृति की प्राचीनता को इतिहास से बाहर लाकर व्यापार सुलभ बना दिया. जिन्होंने सरकारी न्याय को उचित ठहराने के लिए सरकार का हर समय साथ देकर अपनी देश भक्ति का परिचय दिया. जिन्होंने देश की तरक्की के लिए बेंको में जनता का जमा पैसा सरकार से लेकर निजी हित में सुरक्षित रख लिया ताकि जब भी देने की बारी आये मौका मिलते ही विदेश जाने से न चूके.    

    तुम्हें क्या लगता है, पुरस्कार तुम्हारे गाँवो के किसानों को मिलेगा जो रात-दिन अपना खून पसीना बहाकर देश को अनाज, फल और सब्जियां मुहैया कराते हैं? जो खुद भूखे पेट रहकर देश की भूख मिटाते हैं और जब कर्ज न जुटा पाएं तो आत्महत्या कर लेते हैं.

    या फिर पुरस्कार उन मजदूरों को मिलना चाहिए जो 14-16 घंटे अपने परिवार का जीवन चलाने के लिए कम्पनी के मुनाफे लिए खपे रहते हैं. जो जानवरों की तरह अपना जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर हैं. जो सिर्फ सड़क, भवन, कपडा बनाने में ही अपना जीवन बिता देते हैं.   

    या उन महिलाओं को पुरस्कार मिलना चाहिए जो बिना किसी वेतन के दिन रात खटकर देश की अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए अवैतनिक रूप से काम करती हैं. क्या उन महिलाओं को मिलना चाहिए जो अपने हक़ हकूक के लिए बलात्कार का शिकार होती है या उनको जो सामन्ती सोच के खिलाफ आवाज उठाने पर एसिड का शिकार होती होती हैं. या उस महिला को मिलना चाहिए जो पछले १५ वर्षों से भूख हड़ताल पर बैठी है जिसकी सिर्फ एक ही मांग है कि राज्य से अंग्रेजों द्वारा बनाया सही कानून हटाया जाये.

    पुरस्कार क्या उन नौजवानों को मिलना चाहिए जो बेहतर जीवन के लिए अंधी प्रतियोगिता में झोंख दिया जाते हैं और अंत में अपनी योग्यता से कम पर गुजरा करते हैं. जिनकी ऊर्जा का इस्तेमाल धार्मिक उन्माद के लिए किया जाता है.

    क्या उन बाल श्रमिकों को मिलना चाहिए जो ढाबों, दुकानों और फेक्ट्रियों में अपना बचपन गवां कर जवान होने से पहले ही बूढ़े हो जाते हैं.

    क्या उन आदिवासी लोगों को मिलना चाहिए जो देश भक्त बहुराष्ट्रिय कम्पनियों का विरोध जल, जंगल और जमीन के नाम पर करते हैं. जो दशकों से देशद्रोह के मामले में जेल की हवा खा रहे हैं.

    भई पुरस्कार तो उन्हें ही मिलना चाहिए जो श्रेष्ठ हो, धनवान हो यानि की हर तरह से सक्षम हो, जो पुरस्कार प्राप्त करने की क्षमता रखता हो, जो सम्मान को संभाल कर रख सके ताकि पुरस्कार से सरकारी या गैर-सरकारी फायदा उठाया जा सके. न कि उनको मिले जो पुरस्कार की राशि को भी सिर्फ अपने जीवन को बचाने में लगा दे और समय आने पर पुरस्कार को वापस भी नहीं लौटा सके.

    पुरस्कार की अपनी महत्ता होती है. यह  सर्फ उन्हीं भारतीय नागरिकों को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि समाज-सेवा, कला, खेल, चिकित्सा, विज्ञान,साहित्य, शिक्षा और सार्वजनिक जीवन आदि में विशिष्ट योगदान को मान्यता प्रदान करने के लिए दिया जाता है।  किसानों, मजदूरों, महिलाओं और आदिवासियों ने कोई बड़ा काम तो किया नहीं इसीलिए इस परम्परा को तब तक बनाये रखना पड़ेगा जब तक कि कोई नई व्यवस्था न आ जाये. तब तक इस सम्मान को एक-दम सही सरकारी काम और देशभक्ति के उत्सव के रूप मनाया जाये

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