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'वाट्सएप' महज किताब नहीं, लेखक के जीवन का अंश

रीतू तोमर
नई दिल्ली, 17 मई (आईएएनएस)। हिंदी साहित्य में कहानी विधा हमेशा से पाठक वर्ग पर एक अलग छाप छोड़ती आई है। कहानियां कभी गुदगुदाती तो कभी अंतर्मन को झकझोरती रही हैं। कथाकार रामनाथ राजेश का सद्य: प्रकाशित कहानी संग्रह 'वाट्सएप' की कहानियां भी मन को गहराई तक छू लेने की क्षमता रखती हैं, बल्कि ये तो लेखक के जीवन का अंश ही हैं।

पेशे से पत्रकार रामनाथ राजेश की किताब 'वाट्सएप' ऐसे समय में पाठकों के बीच आई है, जब वाट्सएप लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है। इस कहानी संग्रह में कुल 11 कहानियां हैं, जिन्हें बड़े कायदे से एक सूत्र में पिरोकर पेश किया गया है। पुस्तक का नाम भी 21वीं सदी के युवाओं को ध्यान में रखकर बिल्कुल सटीक रखा गया है।

इस पुस्तक में युवाओं सहित हर उम्र के पाठक वर्ग के लिए कुछ न कुछ संदेश है। रामनाथ राजेश की लेखनी ने यह सिद्ध कर दिया है कि जब एक अध्ययनशील पत्रकार लेखक की भूमिका में आता है तो तथ्यों एवं विश्लेषणों का अद्भुत समायोजन पेश करता है।

ये कहानियां बदलते सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश का आईना हैं। 'वाट्सएप' की प्रत्येक कहानी का कथानक एक-दूसरे से कमोबेश भिन्न है, लेकिन ये कहानियां एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी पाठकों को अंत तक बांधे रखने में कामयाब हुई हैं।

पुस्तक की खास बात यह कि लेखक ने अपने जीवन के कुछ निजी अनुभवों को कहानियों के रूप में पेश किया है।

कुछ प्रमुख कहानियों की बात करें तो पहली कहानी 'बंद के आगे का रास्ता' में शहर में बंद के बीच अपने पति की जिंदगी के लिए जूझती महिला की करुणा झकझोरने वाली है।

'रिपोर्टर' कहानी में पेशेवर और निजी जिंदगी के बीच चक्की में पिसते एक रिपोर्टर की भावनाओं को बड़े ही सलीके से पेश किया गया है। कहानी का नायक रिपोर्टर फ्लैशबैक में अपने प्यार के साथ बिताए पलों को याद करता है। इस कहानी का एकडायलॉग 'मेरी किरण जिंदा है' जैसे आपको अंदर तक झकझोर देने के लिए काफी है।

पुस्तक की एक अन्य कहानी 'हरमिया' को इस पुस्तक की प्राणवायु माना जा सकता है। आईएएस बनने की चाह रखने वाला युवा बिचौलियों के बीच फंसते हुए किस तरह हरमिया बनने को मजबूर होता है। अपने सपनों को अपनी आंखों के सामने टूटते देखना किस कदर कष्टदायी होता है, लेखक इसके अपनी लेखनी से पन्नों पर उतारने में सफल रहे हैं।

इसी तरह 'वाट्सएप' कहानी में वाट्सएप से पिता-बेटी के जिंदगी में आए बदलावों और उन बदलावों से रिश्तों में उतार-चढ़ाव से पाठक वर्ग अछूता नहीं रह पाएगा।

कुल मिलाकर जिंदगी के उत्साह, उम्मीद, निराशा, तनाव आदि विविध गाढ़े-फीके रंगों और उन पर मनुष्य की प्रतिक्रियाओं का बखूबी चित्रण इन कहानियों में किया गया है।

इसी तरह अन्य कहानियों में 'केंचुल', 'कटनिहार', 'फेनुस', 'एक अनजाने गांव' जैसी कहानियां कहीं आपको रोने, कहीं हंसने और कहीं-कहीं सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं।

कहानियों की भाषा-शैली की बात करें तो रामनाथ राजेश की भाषा काफी लचीली है, जिसमें वे बातचीत के अंदाज में ही अपनी बातें बड़ी सहजता से कहने में सक्षम हैं।

बहरहाल, कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि रामनाथ राजेश की इस पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह अपनी बनावट (डिजाइन) में एकदम अनूठी है। इस एक ही पुस्तक में विभिन्न पाठक वर्गो के लिए कुछ न कुछ मौजूद है। बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक किसी को भी यह निराश नहीं करने वाली।

उम्मीद है कि इस पुस्तक से अन्य लेखकों को भी कुछ नया, बदलते जमाने को ध्यान में रखकर रचने की प्रेरणा मिलेगी।

किताब : वाट्सएप
लेखक : रामनाथ राजेश
प्रकाशक : बुकमार्ट पब्लिशर्स
पृष्ठ : 144
मूल्य : 250 रुपये

--आईएएनएस

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  • दिल, दल और दर्द
    डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
    राजनीति में अक्सर दिलचस्प रिश्ते बनते हैं। इसमें दुहाई दिल की दी जाती है लेकिन दल, दर्द और पद लिप्सा के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। एक समय था तब बेनी प्रसाद वर्मा सपा में अमर सिंह के बढ़ते प्रभाव से बहुत नाराज हुए थे। अंतत: इसी मसले पर उन्होंने सपा छोड़ दी थी। दूसरी तरफ अमर सिंह को लग रहा था कि सपा में उनकी उपेक्षा हो रही है। रामगोपाल यादव और आजम खां जैसे दिग्गज उन्हें बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे।

    उस समय अमर सिंह को सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के सहारे की बड़ी जरूरत थी, लेकिन ऐसा लगा कि मुलायम सिंह रामगोपाल और आजम पर रोक नहीं लगाना चाहते। दोनों नेताओं ने अमर के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। उस दौरान अमर भावुक हुआ करते थे। वह बीमार थे। विदेश में उनका आपरेशन हुआ। उन्होंने अपने को बीमार बना लिया। अमर के इस भावुक कथन के बावजूद मुलायम सिंह कठोर बने रहे। रामगोपाल और आजम लगातार मुखर रहे। मुलायम की खामोशी जब अमर को हद से ज्यादा अखरने लगी तो वह भी सपा से दूर हो गए।

    सियासी रिश्तों का संयोग देखिए बेनी प्रसाद वर्मा और अमर सिंह की सपा में वापसी एक साथ हुई, इतना ही नहीं राज्यसभा की सदस्यता से उनका स्वागत किया गया। कभी सपा में अमर के बढ़ते कद से बेनी खफा थे, अब बराबरी पर हुई वापसी से संतुष्ट हैं। वैसे इसके अलावा इनके सामने कोई विकल्प नहीं था। सियासत में पद ही संतुष्टि देते हैं।

    जाहिर तौर पर सपा की सियासत का यह दिलचस्प अध्याय है। सभी संबंधित किरदार वही हैं, केवल भूमिका बदल गई है। बेनी प्रसाद वर्मा को अब अमर सिंह के साथ चलने में कोई कठिनाई नहीं है। एक समय था जब उन्होंने अमर सिंह को समाजवादी मानने से इंकार कर दिया था। रामगोपाल यादव और आजम खां भी अपनी जगह पर हैं। फर्क यह हुआ कि पहले खूब डॉयलॉग बोलते थे, अब मूक भूमिका में हैं। जिस बैठक में अमर सिंह को राज्यसभा भेजने का फैसला हो रहा था उसमें आजम देर से पहुंचे और जल्दी निकल गए। मतलब छोटा सा रोल था जितना विरोध कर सकते थे किया। जब महसूस हुआ कि अब पहले जैसी बात नहीं रही, तो बैठक छोड़कर बाहर आ गए।

    चार वर्षो में पहली बार आजम को अनुभव हुआ कि उनकी हनक कमजोर पड़ गई है। पहले वह मुद्दा उछालते थे और मुलायम सिंह यादव ही नहीं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी उसका समर्थन करना पड़ता था। यह स्थिति राज्यसभा के पिछले चुनाव तक कायम थी। बताया जाता है कि दो वर्ष पहले मुलायम सिंह ने अमर सिंह को राज्यसभा में भेजने का मन बना लिया था लेकिन आजम खां अड़ गए थे। मुलायम को फैसला बदलना पड़ा। वह चाह कर भी तब अमर सिंह को राज्यसभा नहीं भेज सके थे। आजम के तेवर आज भी कमजोर नहीं हैं लेकिन मुलायम सिंह पहले जैसी भूमिका में नहीं थे। इस बार वह आजम खान की बात को अहमियत देने को तैयार नहीं थे। आजम ने हालात समझ लिए।

    बताया जाता है कि आजम ने इसीलिए अमर सिंह के मामले को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया। वह जानते हैं कि अमर सिंह के साथ जयप्रदा की भी वापसी होगी। जयप्रदा के संबंध में आजम ने जो कहा था उसके बाद शायद दोनों का एक-दूसरे से आंख मिलाना भी मुनासिब न हो लेकिन राजनीति में कुछ भी हो सकता है। मुलायम सिंह इस बार अमर सिंह के मामले में कठोर हो चुके थे। वैसे भी लुका-छिपी का खेल बहुत हो चुका था। पिछले कई वर्षो से वह सपा के मंच पर आ रहे थे।

    अमर से इस विषय में सवाल होते थे। उनका जवाब होता था कि वह समाजवादी नहीं वरन मुलायमवादी हैं। इस कथन से वह अपने अंदाज में बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खां, रामगोपाल यादव आदि विरोधियों पर भी तंज कसते थे। ये लोग अमर पर समाजवादी न होने का आरोप लगाते थे। इसीलिए अमर ने कहा कि वह मुलायमवादी हैं। अर्थात जहां मुलायम होंगे, घूमफिर कर वह भी वहीं पहुंच जाएंगे। ये बात अलग है कि यह मुलायम वाद भी सियासी ही था। अन्यथा अमर सिंह विधानसभा चुनाव में मुलायम की पार्टी को नुकसान पहुंचाने में जयप्रदा के साथ अपनी पूरी ताकत न लगा देते। इतना ही नहीं अमर ने यह भी कहा था कि वह जीते जी कभी न तो सपा में जाएंगे न मुलायम से टिकट मांगेंगे। लेकिन वक्त बलवान होता है। कभी मुलायम की जड़ खोदने में ताकत लगा दी थी आज मुलायमवादी हैं। इसी प्रकार बेनी प्रसाद वर्मा ने भी मुलायम के विरोध में कसर नहीं छोड़ी थी, अब साथ हैं।

    इस प्रकरण में दो बातें विचारणीय है। एक यह कि बेनी प्रसाद वर्मा, अमर सिंह, आजम खां, रामगोपाल यादव सभी बयानवीर हैं। ऐसे में अब कौन बाजी मारेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। दूसरा यह कि अब मुलायम सिंह की मेहरबानी किस पर अधिक होगी। रामगोपाल यादव पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं लेकिन प्रदेश से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर आजम खां बयान जारी न करें। वह अपनी बात सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से प्रारंभ करते हैं। फिर जरूरत पड़ी तो संयुक्त राष्ट्र संघ तक चले जाते हैं। कई बार लगता है कि सपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष और राष्ट्रीय प्रवक्ता के लिए कुछ करने को बचा ही नहीं है। आजम अकेले ही कसर पूरी कर देते हैं अब इस मामले में उनका सीधा मुकाबला बेनी प्रसाद वर्मा और अमर सिंह से होगा। क्योंकि ये नेता भी किसी विषय पर बिना बोले रह नहीं सकते लेकिन इस बार मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह को ही सर्वाधिक तरजीह दी है।

    पार्टी के कोर ग्रुप को इसका बखूबी एहसास भी हो गया है। बेनी प्रसाद वर्मा की वापसी और उन्हें राज्यसभा में भेजने का कोई विरोध नहीं था। इसके विपरीत अमर सिंह को रोकने के लिए बेनी प्रसाद वर्मा, आजम और रामगोपाल ने जोर लगाया था, लेकिन मुलायम ने इनके विरोध को सिरे से खारिज किया है। इसका मतलब है कि वह इन तीनों नेताओं की सीमा निर्धारित करना चाहते हैं। यह बताना चाहते हैं कि विधायकों की जीत में इनका योगदान बहुत सीमित रहा है। इन विधायकों के बल पर किसे राज्यसभा भेजना है, इसका फैसला मुलायम ही लेंगे। इस फैसले ने सपा में अमर सिंह के विरोधियों को निराश किया है। समाजवादी पार्टी में इस मुलायमवादी नेता का महत्व बढ़ेगा।

    (ये लेखक के निजी विचार हैं।)

    --आईएएनएस
  • सिंगापुर में चीनी समाचार पत्रों की प्रदर्शनी
    सिंगापुर, 29 मई (आईएएनएस/सिन्हुआ)। सिंगापुर की सांस्कृतिक, समुदाय और युवा मामलों की मंत्री ग्रेस फू ने शनिवार को सनयात सेन नानयांग मेमोरियल हॉल में पुराने चीनी समाचार पत्रों पर एक विशेष प्रदर्शनी का शुभारंभ किया।

    प्रदर्शनी का शीर्षक 'अर्ली चाइनीज न्यूजपेपर्स इन सिंगापुर (1881-1942)' है, जिसमें सिंगापुर में प्रकाशित होने वाले चीनी समाचार पत्रों का इतिहास, विकास प्रस्तुत किया गया है।

    इस प्रदर्शनी में 100 से अधिक कलाकृतियां, ऐतिहासिक दस्तावेज और तस्वीरें शामिल हैं।

    यह प्रदर्शनी आगंतुकों को चीनी समाचार-पत्रों के माध्यम से सिंगापुर के 1880 के दशक से 1942 में जापान के आक्रमण के इतिहास के बारे में बताती है। इससे लोगों को उस समय के पत्रकारिता के रूझानों आदि की भी जानकारी मिलती है।

    फू ने कहा कि सिंगापुर में प्रारंभिक चीनी समाचार पत्रों ने इस क्षेत्र में रहने वाले चीनी समुदाय को जानकारी देने, शिक्षित करने और प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन समाचार पत्रों ने सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच के रूप में काम किया।

    प्रदर्शनी के निरीक्षकों के अनुसार यह प्रदर्शनी नौ अक्टूबर तक जारी रहेगी। इस दौरान सिंगापुर में कई प्रमुख चीनी समाचार-पत्रों के समृद्ध इतिहास पर प्रकाश डालने वाली सार्वजनिक वार्ता श्रृंखला का भी आयोजन किया जाएगा।

    --आईएएनएस
  • बुंदेलखंड के दूसरा राजस्थान बनने का खतरा : राजेंद्र सिंह

    संदीप पौराणिक
    छतरपुर (मप्र), 29 मई (आईएएनएस)। जलपुरुष के नाम से चर्चित और प्रतिष्ठित स्टॉकहोम वाटर प्राइज से सम्मानित राजेंद्र सिंह ने सूखा की मार झेल रहे बुंदेलखंड के दूसरे राजस्थान (रेगिस्तान) बनने की आशंका जताई है।

    सूखा प्रभावित क्षेत्रों में चार सामाजिक संगठनों द्वारा निकाली जा रही जल-हल यात्रा में हिस्सा लेने आए राजेंद्र सिंह ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, "राजस्थान तो रेत के कारण रेगिस्तान है, मगर बुंदेलखंड हालात के चलते रेगिस्तान में बदल सकता है। यहां के खेतों की मिट्टी के ऊपर सिल्ट जमा हो रही है, जो खेतों की पैदावार को ही खत्म कर सकती है।"

    सिंह ने कहा कि जल-हल यात्रा के दौरान टीकमगढ़ और छतरपुर के तीन गांव की जो तस्वीर उन्होंने देखी है, वह डरावनी है। यहां इंसान को खाने के लिए अनाज और पीने के लिए पानी आसानी से सुलभ नहीं है। जानवरों के लिए चारा और पानी नहीं है। रोजगार के अभाव में युवा पीढ़ी पलायन कर गई है। इतना ही नहीं, नदियां पत्थरों में बदलती नजर आती हैं, तो तालाब गड्ढे बन गए हैं।

    उन्होंने कहा कि इन सब स्थितियों के लिए सिर्फ प्रकृति को दोषी ठहराना उचित नहीं है। इसके लिए मानव भी कम जिम्मेदार नहीं है। ऐसा तो है नहीं कि बीते तीन वर्षो में बारिश हुई ही नहीं है। जो बारिश का पानी आया उसे भी हम रोक नहीं पाए। सरकारों का काम सिर्फ कागजों तक रहा। यही कारण है कि बीते तीन वर्षो से यहां सूखे के हालात बन रहे हैं। अब भी अगर नहीं चेते तो इस इलाके को दूसरा राजस्थान बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।

    जलपुरुष का मानना है कि अब भी स्थितियों को सुधारा जा सकता है, क्योंकि मानसून करीब है। इसके लिए जरूरी है कि बारिश के ज्यादा से ज्यादा पानी को रोका जाए, नदियों को पुनर्जीवित करने का अभियान चले, तालाबों को गहरा किया जाए, नए तालाब बनाए जाएं। बारिश शुरू होने से पहले ये सारे प्रयास कर लिए गए, तो आगामी वर्ष में सूखा जैसे हालात को रोका जा सकेगा, अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर क्या होगा, यह तो ऊपर वाला ही जाने।

    एक सवाल के जवाब में सिंह ने आईएएनएस से कहा, "अब तक दुष्काल का असर सीधे तौर पर गरीबों और जानवरों पर पड़ता था, मगर इस बार का असर अमीरों पर भी है। हर तरफ निराशा का भाव नजर आ रहा है, जो समाज के लिए ठीक नहीं है। वहीं मध्य प्रदेश की सरकार इससे अनजान बनी हुई है। यहां देखकर यह लगता ही नहीं है कि राज्य सरकार इस क्षेत्र के सूखे और अकाल को लेकर गंभीर भी है।"

    देश के चार सामाजिक संगठनों स्वराज अभियान, एकता परिषद, नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) और जल बिरादरी ने मिलकर सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किए गए दिशा निर्देशों से हर किसी को जागृत करने और जमीनी हालात जानने के लिए जल-हल यात्रा निकाली है। यह यात्रा मराठवाड़ा के बाद बुंदेलखंड में चल रही है।

    उन्होंने कहा कि मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में उन्हें ऐसा लगा ही नहीं कि राज्य सरकार सूखा के प्रतिबद्घ है। यहां न तो टैंकरों से पानी की आपूर्ति हो रही है, न तो राशन का अनाज मिल रहा है। इतना ही नहीं, जानवर मर रहे हैं। उनके लिए न तो पानी का इंतजाम किया गया है और न ही चारा शिविर शुरू हुए हैं।

    उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार को आवश्यक दिशा निर्देश दिए हैं। प्रभावित क्षेत्रों के प्रति व्यक्ति को पांच किलो प्रतिमाह अनाज देने, गर्मी की छुट्टी के बावजूद विद्यालयों में मध्याह्न भोजन देने, सप्ताह में कम से कम तीन दिन अंडा या दूध देने और मनरेगा के जरिए रोजगार उपलब्ध कराने के निर्देश दिए गए हैं। ये निर्देश मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में तो सफल होते नजर नहीं आए।

    उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैला हुआ है। मप्र के छह जिले और उप्र के सात जिले इस क्षेत्र में आते हैं, हर तरफ सूखे से हाहाकार मची हुई है। जल स्रोत सूख गए हैं।

    --आईएएनएस

  • विशेष: देश में अब भी 88 हजार कुष्ठ रोगी

    चारू बाहरी
    उत्तर प्रदेश के एक खेतिहर मजदूर प्रदीप कुमार (24) का इलाज तीन साल से एक ऐसे रोग के लिए हो रहा है जिसे 11 साल पहले बहुत हद तक भारत से भगा दिया गया था। वह रोग कोई और नहीं, बल्कि कुष्ठ है। भारत में अभी भी कुष्ठ रोगियों की संख्या 88,833 है।

    कुष्ठ मनुष्य की सबसे पुरानी बीमारियों में एक है। ईसाई धर्मग्रंथ 'बाइबिल' में इसका आमतौर पर उल्लेख किया गया है। यह रोग पीड़ित के रूप रंग खराब करने और बाद में उन्हें समाज से बहिष्कृत किए जाने के लिए कुख्यात है।

    1991 में जब भारत में आर्थिक उदारीकरण शुरू किया गया तो यहां प्रति दस हजार जनसंख्या पर 26 कुष्ठ रोगी थे, लेकिन 14 वर्षो के अंदर लगातार प्रयासों और बहुऔषधि उपचार के कारण यह संख्या 25 गुना घट कर प्रति दस हजार एक हो गई।

    सन् 2000 में विश्व ने कुष्ठ रोग के वैश्विक उन्मूलन के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन का लक्ष्य हासिल किया।

    2001 से 2005 के दौरान जब भारत ने लक्ष्य हासिल किया तो दुनिया में कुष्ठ रोगियों की संख्या 61 प्रतिशत (763,262 से 296,499) कम हो गई। बहुत हद तक ऐसा इसलिए हुआ कि भारत में कुष्ठ रोगियों की संख्या चार गुना (615,000 से 161,457) कम हो गई थी।

    विशेषज्ञों का मानना है कि इसके बाद से खास तौर पर विगत पांच साल में भारत में कुष्ठ रोग नियंत्रण के लिए नए दृष्टिकोण नहीं अपनाए जाने से इस दिशा में थोड़ा ठहराव आ गया है। कुष्ठ नियंत्रण में ठहराव के मद्देनजर सन् 2013 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस विषय पर अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन आयोजित था।

    वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है कि कुष्ठ रोग सरकार के रडार से उतर गया है। भारत में हर साल पहचान किए जाने वाले 125000 कुष्ठ रोगियों में प्रदीप कुमार भी एक हैं, जबकि दुनिया भर में कुष्ठ रोग के 58 प्रतिशत नए मामले सामने आए।

    हालांकि भारत में अभी कुष्ठ रोगियों की प्रचलित दर करीब प्रति दस हजार 0.69 है, अर्थात भारत में कुष्ठ रोगियों की संख्या 88,833 है।

    एक गैर सरकारी संगठन भारतीय कुष्ठ मिशन ट्रस्ट के कार्यकारी निदेशक सुनील आनंद के अनुसार यह अधिकारिक आंकड़ा है, जबकि वास्तव में कुष्ठ रोगियों की संख्या दो गुना और यहां तक कि चार गुना भी अधिक हो सकती है।

    इस तरह जब भारत में कुष्ठ रोग के खिलाफ लड़ाई में ठहराव आ गया है तो कुष्ठ रोग मुक्त विश्व की दिशा में भी प्रगति रुक गई है।

    नए वैश्विक लक्ष्य भारत में कुष्ठ रोग के खिलाफ लड़ाई पुन: शुरू होने की उम्मीद करते हैं।

    इस साल के शुरू में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2020 तक की समय सीमा के साथ कुष्ठ रोधी नई रणनीति का खुलासा किया जो भारत को कुष्ठ नियंत्रण की दिशा में आगे बढ़ने के लिए बाध्य करेगी।

    --आईएएनएस

  • पीएचडी डिग्रीधारक पेट के लिए काट रहा बाल

    मनोज पाठक
    रांची, 29 मई (आईएएनएस)। एक ओर जहां देश की राजनीति में ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों की शैक्षणिक डिग्री पर सवाल उठ रहे हैं, वहीं झारखंड की राजधानी रांची में पीएचडी डिग्री धारक और कॉलेज में विजिटिंग प्रोफेसर का काम करने वाले एक व्यक्ति को अपने परिवार का पेट पालने के लिए फुटपाथ पर सैलून चलाना पड़ रहा है।

    रांची के महात्मा गांधी रोड के किनारे फुटपाथ पर अपनी सैलून चलाने वाले रामनगर निवासी अशरफ हुसैन इस दुकान पर खुद ग्राहकों की दाढ़ी और बाल काटते हैं। नाई का काम करने वाले डा. अशरफ न केवल परास्तानक (एमए) की पढ़ाई पूरी की है, बल्कि 'ए कम्परेटिव एंड एनालिटिकल स्टडी आफ साऊथ उर्दू स्टोरी रायटर इन झारखण्ड' विषय पर शोध भी कर चुके हैं।

    अशरफ आईएएनएस को बताते हैं कि वर्ष 2015 से मौलाना आजाद कलेज में बतौर 'विजिटिंग प्रोफेसर' बच्चों को पढ़ा रहे हैं, परंतु कॉलेज से मिलने वाले प्रतिमाह तीन हजार रुपये से घर नहीं चलता इसलिए पैतृक व्यवसाय हजाम का भी काम करना पड़ता है।

    क्षेत्र में 'डॉक्टर' के नाम से प्रसिद्घ अशरफ कहते हैं कि वह भले ही फुटपाथ पर दो कुर्सी और एक आइना लेकर दुकान चलाते हों परंतु उनके पास ग्राहकों की कोई कमी नहीं है। उनके पास इतने ग्राहक आ जाते हैं जिनसे मिले पैसे से उनके परिवार का गुजारा चल जाता है।

    अशरफ कहते हैं कि अगर वह चाहते तो उन्हें निजी कम्पनी में नौकरी मिल जाती लेकिन नौकरी में सिमट कर रह जाने के डर के कारण उन्होंने विरासत में मिले इस नाई के काम को करना पसंद किया।

    अशरफ ने कहा कि बचपन से ही उन्हें उच्च शिक्षा पाने की लालसा थी लेकिन पारिवारिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह बिना कुछ कमाए अपनी पढ़ाई कर सकते थे। इस कारण वह अपने पिता की हजामत की दुकान पर ही अपना जीवन गुजारने लगे लेकिन उनमें पढ़ाई की ललक कम नहीं हुई। काम करते हुए ही उन्होंने 2011 में पीएचडी की उपाधि हासिल की।

    इन्होंने अनवरी बेगम और सबूही तारिक जैसी झारखण्ड की महिलाओं पर किताब भी लिखी है। किताब प्रकाशित करवाने को जब उनके पास पैसे नहीं थे तब इन्होंने दोस्तों से मदद मांगी और तब जाकर इस किताब की 500 कॉपी छपवाई गई। अशरफ का दावा है कि इस विषय पर लिखी उनकी यह किताब अपने आप में पहली है।

    डी-लिट् की उपाधि हासिल करने की चाहत रखने वाले अशरफ के पिता ने कभी स्कूल का रुख नहीं किया लेकिन अपने बच्चों को अच्छी तालीम दी। 1989 में इंटर की परीक्षा के बाद अशरफ के सिर पर परिवार की जिम्मेदारी आ गई। लगभग दस सालों तक किताबों से नाता टूट गया फिर इन्होंने 2002 में स्नातक किया और फिर तमाम कठिनाइयों का सामना करते हुए पीएचडी तक की।

    अशरफ को हिन्दी भाषा से भी बहुत लगाव है। यही कारण है कि वह अपने पुत्र को हिन्दी विषय में शोध कराना चाहते हैं। उन्होंने बताया कि उनका पुत्र अभी मदरसा में रहकर पढ़ाई कर रहा है परंतु वह हिन्दी में उसे शोध कराना चाहेंगे, जिससे घर में उर्दू और हिन्दी का संगम हो सके।

    ग्राहक भी अशरफ के पास बाल बनवाकर और सेविंग कराकर खुश होते हैं। ग्राहकों का मानना है कि इतने शिक्षित व्यक्ति से सेविंग करा कर वे खुद गौरवान्वित महसूस करते हैं।

    --आईएएनएस

  • केजरीवाल ने मोदी पर निशाना साधा
    नई दिल्ली, 28 मई (आईएएनएस)। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शनिवार को कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मीडिया के बड़े हिस्से पर नियंत्रण है।

    केजरीवाल ने एक ट्वीट में कहा कि पत्रकार राणा अयूब की पुस्तक 'गुजरात फाइल्स : एनाटोमी ऑफ कवर अप' के बारे में देश की मुख्यधारा के मीडिया में कोई जगह नहीं मिल पाई है।

    केजरीवाल ने ट्वीट में कहा, "यह हमसे क्या कहता है? यह कहता है कि मीडिया के बड़े हिस्से पर, खास तौर से मालिकों पर मोदी का नियंत्रण है।"

    पत्रकार राणा अयूब ने 2001 से 2010 के दौरान गुजरात में प्रमुख पदों पर रहे नौकरशाहों और बड़े अधिकारियों से मुलाकात की। इसके बाद उन्होंने अपनी पुस्तक 'गुजरात फाइल्स : एनाटोमी ऑफ कवर अप' में गुजरात दंगों में सरकार और उसके अधिकारियों की संलिप्तता को उजागर किया है।

    पुस्तक मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में 2001 से 2010 के दौरान गुजरात में हुई फर्जी मुठभेड़ों की भी पड़ताल करती है।

    --आईएएनएस

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