आर.के. सिन्हा
देश में इंसाफ मिलने में होने वाली देरी पर बहस पुरानी है। निचली अदालतों से लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मामलों की तादाद में हर रोज इजाफा ही हो रहा है। आखिर इस मसले का हल कहां है ? देश के मुख्य न्यायाधीश श्रीमान टी एस ठाकुर ने पिछते सप्ताह इस बहस को नए सिरे से खड़ा कर दिया है। आपको पता ही है कि उऩ्होंने एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में कहा कि देश में लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। पर उस अनुपात में जजों की संख्या नहीं बढ़ाई गई। उनकी आंखें नम हो गई ये सब कहते हुए । जस्टिस ठाकुर ने कहा कि लॉ कमीशन की 1987 की रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में हर 10 लाख लोगों के लिए 10 जज है, जबकि यह संख्या 50 होनी चाहिए। ठाकुर की बात में दम है। हमारे देश में जजों के खाली पड़े पद लंबे समय से भरे नहीं जा रहे है।
पर क्या रिक्त पदों को भर देने से ही सारे लंबित मामले खत्म हो जाएँगे ? क्या लंबित मामलों से जुड़े मसले को हल करने का यही एकमात्र रास्ता है? दरअसल इस जटिल मसले के कुछ और भी पहलू है। बेहतर होता कि चीफ जस्टिस महोदय उस तरह भी गौर करते। जस्टिस ठाकुर के भाषण के बाद प्रधानमंत्री मोदी भी बोले। उन्होंने अपने भाषण में जजों की छुट्टियां कम करने और काम के घंटे बढ़ाने की बात कही। बेशक प्रधानमंत्री के सुझाव अहम है। सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट से लेकर देश की निचली अदालतों के जज अपनी छुट्टियों में कटौती करने के संबंध में क्यों नहीं विचार करते! वे केसों पर बार-बार तारीखें क्यों देते हैं।
आप देश की किसी भी अदालत में चले जाइये। आपको कोर्ट के बाहर मुवक्किलों और उनके संबंधियों की भीड़ मिल जाएगी। सबकी अपनी-अपनी व्यथा कथा है। सबकी अपनी कहानी है। सब रोते हुए ही मिलेगे, इंसाफ मिलने में देऱी के कारण। जरा सोचिए, कि 1984 में भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को 32 बरस गुजर जाने के बाद भी तारीखों पर तारीखें मिल रही हैं कोर्ट से। यही है हमारी न्याय व्यवस्था । अब किसी
दोषारोपण करने का वक्त नहीं है। भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को आज भी न्याय का इंतजार है तीन दशक से ज्यादा बीत जाने पर भी इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार मुजरिम आजाद घूम रहे हैं । दिसंबर 1984 में हजारों लोगों को अकाल मौत की नींद सुला देने वाले भोपाल गैस कांड के पीड़ितों के जख्म भरने का नाम नहीं ले रहे हैं ।
जहां एक ओर यूनियन कार्बाईड कारखाने से रिसी जहरीली गैस के दुष्प्रभाव के चलते आज भी कई औलादें तड़प रही हैं । वहीं दूसरी ओर आजाद घूमते मुजरिम इन पीड़ितों के लिए जख्मों पर नमक छिड़कने का काम करते नजर आते हैं । भोपाल गैस त्रासदी के आपराधिक मामले में एक-दो नहीं बल्कि 25 वर्ष तक मुकदमें की सुनवाई चली ।
7 जून 2010 को सीजेएम कोर्ट ने अपने फैसले में सभी सात आरोपियों को आईपीसी की धारा 304 ,336 ,337 और 338 के तहत दोषी करार दिया और अधिकतम 2-2 साल की जेल की सजा सुनाई। गैस कांड के जिन आरोपियों को कोर्ट ने मुजरिम करार देते हुए जेल की सजा सुनाई,उनमें मौत का कारखाना बने बहुराष्ट्रीय अमेरिकी कम्पनी यूसीआईएल के तत्कालीन चेयरमैन केशुब महेन्द्रा भी शामिल थे। सजा सुनाने के साथ ही ट्रायल कोर्ट ने अपने फैसले में मुचलके पर सभी मुजरिमों की जमानत पर रिहाई के आदेश भी दे दिए । जिसके चलते, एक भी गुनहगार एक दिन के लिए भी जेल नहीं गया । मुजरिमों ने एक महीने के भीतर ही ऊपरी अदालत में सीजेएम कोर्ट के फैसले को चुनौती दी । जिसमें सेशन कोर्ट ने भी सभी दोषियों को सर्शत जमानत पर रिहा कर दिया । जाहिर है,इन फैसलों के बाद गैस त्रासदी के पीड़ित खुद को ठगा सा महसूस कर रहे थे। यानी पूरे-पूरे वंश को मिटा देने वाले इस हादसे में आज भी पीड़ितों को सैशन कोर्ट के फैसले का इंतजार है, जिससे उन्हें उम्मीद है कि शायद उन्हें इस बार न्याय मिल पाएगा।
एक और उदाहरण ले लीजिए। दिल्ली में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगों में चार हजार सिखों को बेरहमी से दौरा-दौरा कर मार डाला गया। पर उन दंगों के गुनाहगार अभी भी मजे में हैं। क्या इस तरह से देश की न्याय व्यवस्था चलेगी ? सरकार और न्यायपालिका दोनों को इस तरफ गौर करना होगा। मैं जानता हूं कि कई मामले 20-20 साल गुजर जाने के बाद खुले तक नहीं है। उन पर एक बार भी सुनवाई नहीं हुई है। तारीख पर तारीख पड़ रही है। इसलिए इँसाफ की बातें करने का कोई मतलब नहीं, अगर हम अपनी न्याय व्यवस्था में लगी जंग को साफ नहीं करते।
'तारीख पर तारीख'
बेशक 'तारीख पर तारीख' के खिलाफ देश की जनता नाराज है। उससे वह छुटकारा चाहती है। कुछ समय पहले अदालतों की तारीख पर तारीख वाली कार्यप्रणाली के खिलाफ उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में न्याय संघर्ष यात्रा नाम से पैदल शांति मार्च निकाली गई थी। इसमें कोई शक नहीं है कि न्याय मिलने में देरी भी मानवाधिकारों का हनन है और इसीलिए तारीख पर तारीख का सिलसिला बंद होना चाहिए। सरकार और न्यायपालिका को सभी को एक समान, सस्ता, सही और त्वरित न्याय देने की व्यवस्था करनी होगी।
इसके साथ ही अब वक्त की मांग है कि न्यायिक पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग की जाए। इसके अलावा जजों के रिक्त पदों को भी समयबद्ध रूप से भरे जाने कि जरुरत है। यहां पर मैं चीफ जस्टिस की मांग का समर्थन करूंगा। लेकिन, जजों के कार्यों का ऑडिट भी हो तो इसमें बुराई क्या है।
जजों के पद खाली
मुझे हाल ही में विधि मंत्रालय से जानकारी मिली कि देशभर के उच्च न्यायलयों में 44 फीसदी जजों के पद खाली हैं। 24 हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के लिए स्वीकृत 1056 में से 465 पद खाली हैं। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में भी स्वीकृत 31 पदों में से छह पद पर न्यायाधीश नहीं है। ये 1 मार्च, 2016 तक जजों की संख्या का ब्यौरा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में जजों की संख्या सबसे कम है। यहां स्वीकृत पद 160 हैं जबकि यहां कार्यरत न्यायाधीश सिर्फ 72 हैं और 88 पद खाली हैं।यानी यहां करीब 55 फीसदी न्यायाधीशों की कमी है। वहीं दिल्ली हाईकोर्ट में न्यायाधीशों के
स्वीकृत 60 पदों में 21 खाली, हिमाचल में स्वीकृत 13 में से 6 पद, जम्मू और कश्मीर में स्वीकृत 17 में से 08 पद, पंजाब और हरियाणा में स्वीकृत 85 में से 37 पद, उत्तराखंड में हाईकोर्ट में स्वीकृत 11 में से 05 न्यायाधीश के पद खाली हैं।इसके अलावा त्रिपुरा इकलौता ऐसा प्रदेश है जहां हाईकोर्ट में जजों के सभी पद भरे हुए हैं, यहां 4 पद स्वीकृत हैं। वहीं सिक्किम और मणिपुर में एक-एक, मेघालय में दो और केरल में तीन जजों के पद खाली हैं।
मैं मानता हूं कि उक्त खाली पदों को तुरंत भरा जाना चाहिए। इसमें देरी करने का मतलब है कि हम देश में न्यायपालिका को लेकर गंभीर नहीं है। कोर्ट से इंसाफ मिलने में हो रही देरी के चलते फांसी की सजा का इंतजार कर रहे मुजरिमों की दया याचिकाओं पर भी फैसले वक्त रहते नहीं हो पाते। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 में फांसी की सजा का इंतजार कर रहे 15 दोषियों की फांसी की सजा उम्रकैद में बदली थी। फांसी की सजा का इंतजार करने वालों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में कहा था कि मृत्युदंड पाए अपराधियों की दया याचिका पर अनिश्चितकाल की देरी नहीं की जा सकती और देरी किए जाने की स्थिति में उनकी सजा को कम किया जा सकता है। जिन्हें राहत मिली थी उनमें से चार दोषी वीरप्पन के सहयोगी थे, जिन्हें 22 पुलिसवालों की लैंड माइन ब्लास्ट कर हत्या करने के आरोप में फांसी की सजा सुनाई गई थी। तब अदालत ने फांसी की सजा का इंतजार कर रहे बंदियों समेत किसी भी बंदी को कैदे-तन्हाई में रखने को असंवैधानिक करार देते हुए कहा था कि कारागाहों में इसकी इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने का इंतजार कर रहे मुजरियों को जीवन दान तो दे दिया, पर जरा उन परिवारों के बारे में सोचिए जिनके सगे-संबंधियों को इन अपराधइयों ने हत्या की थी। जाहिर है कि कोर्ट के फैसले से ये सबके नाराज और दुखी हुए होंगे। दरअसल देश में न्याय व्यवस्था चरमरा रही है। फैसले देर से हो रहे हैं। कोर्ट के चक्कर- लगा-लगाकर इंसान की जान निकल जाती है। न्यायपालिका में करप्शन के भी तमाम आरोप है। कुल मिलाकर इन सब सवालों के जवाब अविलंब तलाश करने होंगे। अब देरी की गुंजाइश नहीं है।
(लेखक राज्यसभा सांसद हैं)