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क्या औरत की गुलामी के लिए केवल पुरुषों को ही जिम्मेदार मान लेना चाहिए? Featured

स्मिता कुमारी

एक तरफ महिलायें बात करती हैं समानता की, एकता की, अधिकारों की, पुरुषों के महिलाओं के प्रति कर्तव्यों की और दूसरी तरफ उन्ही पुरुषों पर आश्रित रहना खुद की गरिमा समझती हैं। क्या सभी महिलाएं अपने आत्मसम्मान के प्रति अपना हर फ़र्ज निभाती हैं?

आज भी नौकरी का फॉर्म अपने पिता या भाई या पति से भरवा कर यह महसूस करती हैं कि यह उनके प्रति प्रेम का हिस्सा है तो मैं पूछना चाहती हूँ उन महिलाओं से क्या आप अपने पति, बड़े  भाई का हर फॉर्म खुद भरती हो? क्या आप उन्हें कॉलेज लेने -छोड़ने, परीक्षा देते समय कॉलेज के गेट के बाहर इंतजार में खड़ी रहती हो? क्या जॉब के लिए उन्हें इंटरव्यू दिलाने ले जाती हो ? क्या आप किसी पुरुष से कहती हो कि लाइये मैं आपकी बाइक निकलवाने में मदद कर दूँ जैसे वे लोग महिलाओं के गाड़ियाँ निकलवाने में मदद करते हैं?

क्या आप यात्रा के दौरान पुरुषों के बैग उतारने - चढ़ाने में खुद आगे बढ़कर मदद करती हो? सीट ना मिलने पर अपनी सीट पर पुरुष को बैठने को बोलती हो? अगर हाँ तो आप बराबरी की बात  और लड़ाई सही कर रही हो, वरना बराबरी की बात करना तब तक उचित नहीं जब तक इन मुद्दों पर आप अपनी सोच को बराबरी तक नहीं लाती हो।

एक महिला 3 -4 दिन के सफ़र में भी बड़ी सी बैग लेकर यात्रा पर जाती हैं और एक पुरुष 2 कपड़ों को पिट्ठू बैग में रख कर जाता है। कारण क्या है? वह यह है कि सदियो से महिलाओं को सजावट की वस्तु समझा गया है। ये पुरुषों को लुभाने का हथियार माना जाता है। क्या किसी पुरुष को उनके रंग रूप के निखार से ही केवल महिलाओं को लुभाते देखा है। वे एक ही कपडे 2 दिन पहने तो भी चलता है, मगर महिलाओं का एक दिन में 2-3 कपड़े बदल जाते हैं।

ये पितृसत्ता से जरूर आई है मगर पहले महिलाओं को इस व्यवस्था को बदलना होगा। उन्हें अपने काम की खूबशूरती से, अपने विचरों की खुबशूरती से पुरुषों का दिल जितना होगा, ना कि खुद को नुमाइश की वस्तु बनाकर। यह तभी संभव होगा जब महिलाएं खुद पर थोपी गयी इन प्रथाओं की बेड़ियों को खुद तोड़ेंगी। उतनी ही सक्षमता के साथ पुरुषों का मुकाबला करेंगी। अपनी यात्रा के सामान खुद ढोने से लेकर उपरोक्त सभी कार्य को खुद करने में खुद को सक्षम बनाएंगी। इसके लिए पुरुषों का विरोध करना जरुरी नहीं, बस महिलायें अपना फ़र्ज खुद के प्रति सही ढंग से निभाने लगे तो उन्हें लिंग आधारित आजादी जरूर मिलेगी। पुरुष खुद व खुद आपकी अहमियत और ताकत को समझ जायेंगे जब आप बराबरी की बात करते वक़्त खुद बराबरी वाली सोच रखें।

सभी महिलाओं से यह आग्रह है कि अपनी सोच को इतना विकसित कीजिये कि महिला दिवस मनाने के लिए 8 मार्च का इन्तजार ना करना पड़े बल्कि हर दिन आपको बराबरी और सम्मान की नजरों से देखा जाये। इस पितृसत्ता और मातृसत्ता के भाव से खुद को निकाल कर बिना सत्ता वाली व्यवस्था की स्थापना की जाये, जहाँ महिला या पुरुष एक दूसरे के विरोधी ना हो बल्कि एक दूसरे की अहमियत को जीवन में महसूस करें और एक - दूसरे का सम्मान करें।

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About Author

लेखिका पुनर्वास मनोवैज्ञानिक एवं सत्यमेव मानसिक विकास केंद्र होशंगाबाद (मध्यप्रदेश) की संचालिका हैं. स्मिता मनोविज्ञान में शोधकर्ता हैं और राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय जर्नल में उनके शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं। स्मिता कुमारी से [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.

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