स्मिता कुमारी
आज अज़ीब -सी बैचैनी हुई मन में, उस ज़हर के बारे में सोचकर जिसे धर्म के ठेकेदारों ने धीरे - धीरे छोटे बच्चों के कोमल मस्तिष्क में भी भरना शुरू कर दिया।
विद्यालय में या घर में बच्चों को अगर एक तरफ समानता का बेहतरीन पाठ पढ़ाया जा रहा है तो दूसरी ओर कोई तो आस्तीन का साँप है जो धर्म और जाति के नाम पर नफ़रत का ज़हर बच्चों के मन में फैला रहा है।
जिस उम्र में केवल समानता आधारित शिक्षा की उम्मीद की जानी चाहिए, वहाँ बच्चे जब किसी दूसरे धर्म से भेद करना सीख ले तो कई सवाल शिक्षा संस्थानों और शिक्षकों पर खड़े हो जाना स्वाभाविक है, साथ ही कई सवाल परिवार के सदस्यों के विचारों पर भी खड़े होते हैं।
कच्ची मिट्टी के ढेर से होते हैं बच्चे, इन्हें जैसी सोच यानि मानसिकता के अनुसार ढालेंगे वैसे ही पक कर तैयार बर्तन के रूप में हमें मिलेंगे। अगर 6 से 16 साल तक के बच्चों की मानसिकता को कुंठित कर दिया जाये तो उनमें यह क्षमता ही कहाँ बचती है कि वह अपने विचारों को सकारात्मक मानसिकता के साथ विकसित कर सकें।
धर्म, जाति या लिंग आधारित भेदभाव या नफ़रत इन बच्चों में परिवार और विद्यायल से ही आ सकते हैं क्योंकि इसके अलावा इस उम्र के बच्चे कम ही लोगों के संपर्क में आते हैं।
आज के युवाओं को अगर इस नफ़रत के जहर से बचाना है तो मिलकर उस आस्तीन के साँप के जहर फ़ैलाने वाले दांत को जड़ से तोडना होगा। वह हमारे बीच ही छुप कर बैठे हैं, उनसे बच्चों को बचाने के लिए उन के सोच को वैज्ञानिक और तार्किक सोच के हथियार से पराजित करने के प्रति जल्द से जल्द कदम उठाना चाहिए। वरना यह नफ़रत का ज़हर भावी पीढ़ी को बर्बाद कर देगा और हम बस एक-दूसरे को इसके लिए जिम्मेवार ठहराते रहेंगे।