विकेक दत्त मथुरिया
कालाधन ला नहीं सके, महंगाई है कि वह किसी की सुनती ही नहीं है। पड़ोसी हर वक्त टेंशन देता रहता वहां से फुर्सत मिले तो रोजगार की बात की जाए। दुनिया में विकास का ढिंढोरा पिट रहा पर जनता और विरोधियों के कानों में आवाज ही नहीं पहंच रही । ऐसे मे विकास के चाचा राम नाम का सहारा न लें तो भला क्या करें? मजबूरी में हर कोई राम नाम का सहारी लेता है। फिर विकास के चाचा से एतराज कियों ?
अच्छे दिनों को भी नहीं पता था कि सिसासी फेर में बुरे दिन गुजारने को मजबूर होना पड़ेगा और मजबूरी में राम जी की शरण में जाना पडेगा। भला सियासत ने जनता को अच्छे दिन दिखाए भी हैं? अब तो विकास के चाचा भी राम नाम जपने को मजबूर हैं। आजादी के बाद से लेकर आज तक नेता सपने ही दिखाते रहे हैं। अब नेताओं को सपनों का सौदागर कहना ज्यादा ठीक रहेगा । सपनों के सौदागर दूसरा समानार्थी शब्द है ठग जो नेताओं के आचार-विचार की दृष्टि से ज्यादा व्यावहारिक है।
देश में सियासी प्रदूषण बढ़ गया है। सियासी प्रदूषण में जनता का सांस लेना दूभर हो रहा है। सियासी प्रदूषण से मुक्ति के लिए देश की जनता अॉड-इवन हर बार में चुनाव में लागू करती हैं, पर व्यवस्थागत सियासी प्रदूषण कम होने की बजाय और अधिक बढ़ जाता है। सियासी प्रदूषण कम करने में जनता असफल ही रही है। हारे का हरि नाम ही एकमात्र सहारा रह जाता है। सियासी प्रदूषण के सामने अच्छे दिन हार मानते नजर आ रहे हैं। अच्छे दिन भी अब राम नाम में अपनी मुक्ति खोज रहे हैं।
अच्छे दिनों की दुर्गति देखकर जनता वीते हुए बुरे दिनों में अतीत के सुखद अहसास को तलाशती देखी जा सकती है। वैसे भी हम अतीतजीवी हैं । कृष्ण का गीता संदेश भी बिसरा दिया कि अतीत का पश्चाताप मत करो, भविष्य की चिंता मत करो, वर्तमान चल रहा है। वर्तमान तो सियासी पाटों के बीच फसा करहा रहा है। विकास के चाचा को अब अच्छे दिनों का सियासी समाधान राम नाम में दिखाई दे रहा है। यूपी में राम नाम की पुकार चुनावी बिगुल का काम करने लगा है। इसे कहते राजनीतिक परिपक्वता। अच्छे दिनों की बेबसी देखकर तो यह याद आ ता है कि ' राम नाम के पटतरे देबे कू कछु नाय... ।'