वीरेन्द्र जैन
यह, वह कठिन समय है जब लेखक बढ रहे हैं और पाठक कम हो रहे हैं। पुस्तकें समुचित संख्या में छप रही है किंतु उनके खरीददार कम होते जाते हैं। पुस्तक मेलों में काफी भीड़ उमड़ती है पुस्तकों की प्रदर्शनी को निहारती है, ढेर में रखी पुस्तकों को पलटती है और जाकर चाट-पकोड़ी फास्ट फूड खाती है, स्वेटर मफलर जैकिट खरीदती है, मित्रों परिचितों से गले मिलती है, सैल्फी लेती देती है और दिन सफल करके लौट आती है। वहाँ से मिले सूची पत्र रद्दी के ढेर में रख देती है।
इस कठिन समय को मैं भिन्न समय कहना चाहता हूं। प्रकाशक पुस्तकें इसलिए छाप रहे हैं, क्योंकि वे बिक रही हैं, उन्हें सरकारी पुस्तकालय और शिक्षा विभाग समेत रेल, रक्षा, व विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थान खरीद रहे हैं। उनकी कीमतें ऊंची रखी जा रही हैं और सम्बन्धित अधिकारियों को खरीद पर भरपूर कमीशन दिया जा रहा है, जो बहुत ऊपर तक पहुँच रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र का यह धन अंततः जनता की जेब से जा रहा है। पुस्तक प्रकाशन और इसकी खरीद बिक्री में प्रकाशक और सरकारी खरीद के लिए जिम्मेवार अधिकारी मालामाल हो रहे हैं। कोई प्रकाशक गरीबी में नहीं जी रहा है, सबके पास भव्य बंगले हैं, गाड़ियां हैं, दौलत का नंगा प्रदर्शन है, वे अधिकारियों को जो पार्टियां देते हैं उनमें पैसा पानी की तरह बहाते हैं। कोई देखने वाला नहीं है कि जो पुस्तकें खरीदी गयीं उनमें से कितनी पढी गयी हैं, या पढे जाने लायक हैं? किसी को नहीं पता कि उनको खरीद किये जाने का आधार क्या है? प्रकाशित पुस्तकों के पाँच प्रतिशत लेखकों को भी रायल्टी नहीं मिलती। अधिकांश लेखक इस बात से खुश हो जाते हैं कि प्रकाशक ने कृपा करके उनकी पुस्तक छाप दी है। बहुत बड़ी संख्या में लेखक अपना पैसा लगा कर अपनी पुस्तकें छपवाते हैं और सरकारी सप्लाई की दर पर मुद्रित कीमत से अपनी लागत की पुस्तकें खरीद लेते हैं। वे खुद का पैसा खर्च करके विमोचन समारोह आयोजित करते हैं जिसमें प्रकाशक मुख्य अतिथि की तरह मंच पर बैठता है। यही कारण है कि आज ज्यादातर सम्पन्न और अतिरिक्त आय अर्जित करने वाले वर्ग के लेखक प्रकाशित हो रहे हैं।
जिस तरह किसी कुत्ते को हड्डी मिल जाती है जिसे चूसते चूसते उसकी जुबान से खून निकलने लगता है और वह अपने ही खून को हड्डी में से निकला खून समझ कर उसे और ज्यादा चूसता जाता है, उसी तरह लेखक भी अपना ही खून चूस चूस कर खुश होता रहता है। उसके अपने पैसे से किताब छपती है जो उसके ही पैसे से उसके घर पर आती है, और ‘सौजन्य भेंट’ देने के काम आती है। भेंट पाने वाला सौजन्यता में ही दो चार शब्द प्रशंसा के कह देता है भले ही उसने उसे पढी ही न हो। ऐसी पुस्तकें कम ही पढी जाती हैं। आमतौर पर पुस्तक मेलों में पाक कला, बागवानी, घर का वैद्य, या कैरियर से सम्बन्धित पुस्तकें ही बिकती हैं।
पुस्तक आलोचना का और भी बुरा हाल है। आलोचक के नाम पर कुछ चारण पैदा हो गये हैं जो प्रत्येक प्रकाशित पुस्तक की बिना पढे प्रशंसा की कला में सिद्धहस्त हैं। प्रतिष्ठित से प्रतिष्ठित समाचार पत्र-पत्रिका में भी पुस्तक आलोचना के नाम पर जो कुछ छपता है वह प्रकाशन की सूचना और फ्लैप पर लिखी टिप्पणी से अधिक कुछ नहीं होती है। कथित आलोचक उसमें दो चार पंक्तियां और एकाध उद्धरण जोड़ कर उसे समीक्षा की तरह प्रकाशित करा देता है। ऐसा आलोचना कर्म कोई भी कर देता है। एक आलोचक को कम से कम विषय और विधा की परम्परा व समकालीन लेखन का विस्तृत अध्यन होना चाहिए जिसे वह दूसरी भाषाओं के साहित्य के साथ तुलना कर के परखता है। उसके सामाजिक प्रभाव के बारे में अपने विचार व्यक्त करता है व पुस्तक की उपयोगिता या निरर्थकता को बताता है। एक अच्छी आलोचना स्वयं में रचना होती है जिसके सहारे न केवल कृति को समझने में मदद मिलती है अपितु विधा के समकालीन लेखन और प्रवृत्तियों की जानकारी भी मिलती है। एक पुस्तक समीक्षा अनेक दूसरी पुस्तकों को पढने के प्रति जिज्ञासा पैदा कर सकती है।
पुस्तक प्रकाशन से लेकर पुस्तक मेले तक छद्म ही छद्म फैला हुआ है। प्रकाशक, लागत लगाने वाले और सरकारी खरीद में मदद कर सकने वाले महात्वाकांक्षी व्यक्ति को लेखक के रूप में अधिक प्रतिष्ठित करना चाहते हैं और ऐसे ही लोगों को छापना चाहते हैं। दूसरी ओर उनकी कृतियों को पाठक पढना नहीं चाहते, खरीदना नहीं चाहते। ऐसे ही लेखकों के व्यय की भरपाई के लिए नये नये सरकारी पुरस्कार पैदा किये जा रहे हैं, जुगाड़े जा रहे हैं। कैसी विडम्बना है कि बहुत सारे पुरस्कृत और सम्मानित लेखकों के प्रशंसक और पाठक नहीं के बराबर हैं। सामान्य पाठक के लिए ऐसा लेखन कौतुकपूर्ण वस्तु बन चुका है। सरकारी पुरस्कारों से वह भ्रमित रहता है कि जरूर इस कृति में कुछ महत्वपूर्ण होगा जो उसकी समझ में नहीं आ रहा, जबकि उसमें कुछ होता ही नहीं है। कम प्रतिभा वाले लेखक समूहों ने अपनी अपनी संस्थाएं बना ली हैं जिनके माध्यम से वे खुद पुस्तकें प्रकाशित करके एक दूसरे को आभासी पुरस्कार लेते देते रहते हैं. ‘अहो रूपम अहो ध्वनिम’ करते रहते हैं व अपना फोटो संग समाचार खुद छपवा कर खुद को धोखा देते रहते हैं।
सच तो यह है कि लेखन की दुनिया में गहरी बेचैनी, निराशा, ईर्षा, कुंठा, शोषण, धूर्तता छायी हुयी है। सृजन का संतोष या आनन्द कहीं दिखायी नहीं देता। यहाँ मसखरों से लेकर बहुरूपियों तक फैंसी ड्रैस वालों से लेकर नशाखोर तक भरे हुये हैं। कभी मुकुट बिहारी सरोज ने लिखा था-
गर्व से मुखपृष्ठ जिनको शीश धारें, आज उन पर हाशियों तक आ बनी है
क्योंकि मुद्रित कोश की उपलब्धियों से, कोठरी की पाण्डुलिपि ज्यादा धनी है
अक्षरों को अंक करके रख दिया है, तुम कसम से खूब साहूकार हो
तुम कसम से खूब रचनाकार हो।