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"मानव उथला हो गया"

नैना शर्मा

आज इंसान से इंसानियत निकल कर,
आदम ही रह गया,
सागर की गहराई को छोड़कर,
तालाब का उथलापन ही,
शेष रह गया।।

क्यूँ आज लोग भौतिकता में,
इतना रम गए,
इंसानियत है उनकी क़ौम,
क्यूँ ये बिसार गए,
ईर्ष्या, लोभ, लालच के संग,
इस क़दर बह गया,
इंसान होकर,
इंसानियत की जात भूल गया।।

क्यूँ चन्द नोटों के लिए,
ईमान अपना बेचते हैं,
क्यूँ बाहरी दिखाबे को,
अंदर से मैला हो गया,
इंसानियत को बेच दिया,
दुष्टता के बाजार में,
आज ख़ुद के लोभ में,
मानव ख़ुद से ही बाग़ी हो गया।।

क्यूँ भूल गया गहराई,
गम्भीरता नदी की वो,
आधुनिकता की होड़ में,
आज इंसान छिछला हो गया।।

त्यागी है उसने गम्भीरता समुद्र सी,
क्यूँ धन के नशे में,
वो तालाब सा उथला हो गया।।

About Author

नैना शर्मा

नैना शर्मा युवा स्तंभकार है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ में आपके लेख प्रकाशित होते रहते है।

Latest from नैना शर्मा

  • पोल खोल गया
  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 अ का विवाहित पुरुषों के खिलाफ दुरूपयोग
  • हम एक हैं

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  • पोल खोल गया

    नैना शर्मा

    आज फिर से इंसाफ का तराजू डोल गया,
    भारतीय न्याय व्यवस्था की पोल खोल गया,
    एक मासूम ज्योति से निर्भया बन गई,
    आरोपी नाबालिग किशोर,
    ये कैसा तेरा इंसाफ है,
    आज फिर इंसान का ईमान डोल गया,
    न्यायव्यवस्था की पोल खोल गया।।

    क्या विश्वास था हमारा,
    कितना विश्वास था तुम्हारा,
    एक आसरा था माँ का,
    न्याय उम्मीद थी पिता की,
    आज सर्व सत्ता का सिंघासन डोल गया,
    न्यायव्यवस्था की पोल खोल गया।।

    किसने सुनी वो दर्द भरी चीखें,
    किसने सुनी वो वेदना भरी पुकार,
    सिसकती वो जाड़े की रात,
    बीच सड़क पर वो ज़िंदा चन्द सांसों से भरी लाश,
    वो सर्दी में ऎंठने को छोड़ गया,
    न्यायव्यवस्था की पोल खोल गया।।

    आज फिर देश में उबाल है,
    करोङो की ज़ुबाँ पर एक ही सवाल है,
    क्या है तेरा न्याय,
    ये न्याय नही,ये है सच के साथ अन्याय,
    क्यूँ तू सच देख न सका,
    क्यूँ तू सच सुन न सका,
    क्यूँ तू ग़लत का साथ देकर,
    गुनहगारों की कतार में जा मिला,
    तू उस मासूम को किसके सहारे छोड़ गया,
    न्यायव्यवस्था की पोल खोल गया।।

    है इतिहास गवाह इस सभ्य समाज का,
    जो नारी का सम्मान न कर सका,
    वो अपमानित तिरस्कारित हर कहीं हुआ,
    फिर न जाने कैसे वो हिम्मत जोड़ गया,
    उसकी आबरू से खेलकर,
    वो कैसे ज़िंदा बच गया,
    न्यायव्यवस्था की पोल खोल गया।।

    आज फिर  इंसाफ का तराजू डोल गया,
    न्यायव्यवस्था की पोल खोल गया।।

  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 अ का विवाहित पुरुषों के खिलाफ दुरूपयोग

    नैना शर्मा

    कहते हैं "यत्र नारी पूज्यते,तत्र देवता निवासयति"अर्थात जहाँ  स्त्रियों की पूजा होती है उनका सम्मान किया जाता है वहाँ देवताओं का वास होता है। मनुसमृति की ये पंक्तियाँ समाज में चरितार्थ करने का प्रयास किया जा रहा है। क्योंकि वेदों के काल से ही हमारे देश में स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी नही थी,वह सदैव ही पुरुषसत्तात्मक समाज में अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए संघर्ष करती रही है और उसके इस प्रयास में हमारा संविधान,कानून सरकारी और गैर सरकारी संग़ठन भी सहयोग कर रहे हैं।

    आज हमारे समाज में महिला सशक्तिकरण के लिए विभिन्न अभियान चलाये जा रहे हैं जिससे उसे इस समाज में पुरुषों के समान सर्वाधिकार प्राप्त हों। परन्तु हम सभी लोग एक तथ्य को अनदेखा कर रहे हैं कि स्त्री और पुरुष इस समाज रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं और इनमे से यदि कोई एक असन्तुलित होता है या फिर किसी एक को विशेष ध्यान दिया जाता है और एक की अनदेखी की जाती है तो ये यह समाज की व्यवस्था को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं।यही स्थिति आज हमारे समाज की होती जा रही है क्योंकि महिला सशक्तिकरण के चलते जहाँ एक ओर महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए विभिन्न कानूनों का निर्माण किया गया है।वही कानून एक तरफ स्त्रियों का सुरक्षा कवच बना हुआ है और दूसरी तरफ कुछ औरतें इसका गलत उपयोग करती हैं। हमारे समाज में महिलाओं की सहायता  के लिये बने कानूनों में ऐसे कई मामले सामने आये हैं जिनमे इन कानूनों के द्वारा पुरुषों का उत्पीड़न हो रहा है। इन कानूनों का गलत प्रयोग करके महिलाएं पुरुषों को शारीरिक व् मानसिक रूप से प्रताड़ित करतीं हैं। फैमली काउंसलिंग बोर्ड व अन्य जो भी परामर्श केंद्र है यहाँ शिकायत करने वाले 40% पुरुष होते हैं।जिनमे 50% 35 साल से ऊपर की आयु के होते है। पुलिस का यह भी कहना है कि वो जानते हैं कि सभी शिकायतों में पुरुष दोषी नही होते हैं कुछ मामले तो ऐसे होते हैं जिनमे स्त्रियां सिर्फ अपनी भड़ास और दबदवा बनाने के लिए कानून का दुरूपयोग करती हैं और यह सब जानने के बाबजूद भी नियमों व कानून की बाध्यता के कारण उन्हें पुरुषों को ही दोषी मानना होता है और महिलाओं की बात को ही सुना जाता है।

    कानून संशोधन की प्रक्रिया के बाद नये कानून के अंतर्गत जो पुलिस वाले शिकायत नही दर्ज़ करेंगे तो उनके खिलाफ कार्यवाही की जायेगी इसलिए हमारी कानून व्यवस्था भी बिना रीढ़ की हो जाती है। हमारे समाज में कई मामले ऐसे भी आ रहे है कि जिनमे गलती महिला की होती है पर आरोपी समाज और कानून के द्वारा पुरुष को ही मानते हैं और सज़ा भी मिलती है।कभी कभी तो यह मामले इतना बढ़ जाते हैं कि पुरुष आत्महत्या करने  से ख़ुद को नही रोक पाते हैं। पारिवारिक परामर्श केंद्रों पर पिछले कुछ वर्षों में घरेलू हिंसा के शिकार पुरूषों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है जिसमे बड़ी उम्र के लोगों की संख्या अधिक है लगभग 35 से 60 के बीच की। आज के अत्याधुनिक युग में महिलाएं पुरुषों के समान अधिकार पाने की होड़ में सही और गलत के बीच का फर्क भूलकर औरतों की सहायता के लिए बनाये गए कानूनों और नियमों का उल्लंघन या गलत प्रयोग कर रहीं हैं। सेक्शन 498अ क़ानून का गलत प्रयोग पुरुषों के उत्पीड़न के लिए किया जा रहा है। अभी तक सबसे अधिक मामले दहेज़ एक्ट के अंतर्गत आते थे पर नये कानून के बनने से महिलाएं अब रेप के आरोप का ज्यादा इस्तमाल कर रहीं हैं। आज हम आधुनिक समाज में  रह रहे हैं।हम हमारी सभ्यता संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण कर रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है लिव इन रिलेशनशिप का प्रचलन।पिछले कुछ सैलून ये प्रचलन हमारे भारतीय समाज में तेजी से बढ़ा है इसके अंतर्गत दो लोग बिना शादी के एक दूसरे के साथ रहते है तथा वो समाज के द्वारा मान्य भी है पर भारत में बड़े शहरों में इसका प्रचलन अधिक है।छोटे नगरों में इसे हेय की दृष्टि से देखा जाता है।जबसे लिव इन रिलाशनशिप का प्रचलन बड़ा है तबसे रेप की शिकायतों में भी बहुत तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। जो दो लोग रिलाशनशिप में रहते हैं और उनके आपस में न बनने पर या फिर छोटी मोटी नोक झोंक पर लड़कियां लड़कों के ऊपर रेप का आरोप लगा देती हैं जबकि लिव इन रिलाशनशिप में दो लोग आपसी समझदारी और साझेदारी से रहते हैं इसमें रेप जैसे संगीन आरोप की कोई जगह नही होती है और यह बात हमारा कानून भी जनता है परन्तु भारतीय दण्ड संहिता 2013 में संशोधन के बाद संहिता 164 के अंतर्गत महिला की शिकायत पर तुरन्त प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है जिसमे आरोपी के बचने की उम्मीद और कम हो जाती है।

    पिछले कुछ वर्षों में जो घटनाएं या शिकायतें सामने आ रही हैं उसमे शिकायतें आधी संपत्ति या फिर पति की आधी सैलेरी या फिर ससुराल में ख़ुद का दबदबा बनाने के लिए कानून का गलत प्रयोग करती हैं। यहां तक कि अब कई मामले ऐसे आयें हैं कि जिनमे महिलाएं पुरुषों के साथ मारपीट भी करती हैं। अभी तक घरेलू हिंसा का शिकार सिर्फ महिलाओं को ही माना जाता था पर अब महिलाओं की तरह पुरुषों का भी उत्पीड़न होता है। इसके अंतर्गत पुरुष का शोषण इस तरह होता है कि वह समाज की और खुद की नज़रों में इतना गिर जाता है की वो खुद को खत्म कर लेता है। आज हमारे प्रगतिशील समाज में महिलाओं की स्थिति जिस तरह मजबूत हो रही है उसी तरह कुछ औरते इसका गलत फायदा भी उठा रहीं हैं। घरेलू हिंसा के अंतर्गत औरत कभी बीबी तो कभी बहू बनकर कभी अपने पति तो कभी ससुर देवर जेठ या फिर बाक़ी घरवालों का शोषण करती हैं आये दिन वो औरतें  घर में तरह तरह के षड्यंत्र रचतीं हैं और सभी को परेशान करतीं हैं।

    देश में घरेलू हिंसा में पुरुषों के उत्पीड़न के मामले दिन ब दिन बढ़ते जा रहे हैं और इनका दुष्प्रभाव समाज पर बहुत बुरी तरह पद रहा है जब किसी निर्दोष पुरुष को थाने या कचहरी के चक्कर लगाने के बाद आरोपी सिद्ध किया जाता है तथा वो खुद की और समाज की नज़रों में खुद को इतना गिरा हुआ पाता है कि वो अपनी ज़िन्दगी को मौत के मुँह में झोंक देतें हैं। बढ़ती घरेलू हिंसा के कारण पुरुष आत्महत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 अ का विवाहित पुरुषों के खिलाफ दुरूपयोग करती है जिसके परिणामस्वरूप हर नौ मिनट पर एक पुरुष आत्महत्या करता है तथा यह संख्या 64000 तक प्रतिवर्ष पहुँच गई है। "ह्रदय नेस्ट ऑफ़ फैमिली हारमोनी नामक गैर सरकारी संगठन के अध्यक्ष डी.एस.रॉव की संस्था के द्वारा एक सर्वे के आंकड़ों के अनुसार विवाहित महिलाओं की तुलना में विवाहित पुरुष अधिक आत्महत्या कर रहे हैं 2012  में पुरुषों की संख्या 64000 थी तथा महिलाओं की संख्या 32000 थी जिन्होंने आत्महत्या की थी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो क आकड़ों अनुसार सेक्शन 498अ के अंतर्गत शिकायतों में प्रतिवर्ष 10% की वृद्धि हो रही है।

    एक सर्वे के अनुसार 2009 में देशभर में कुल 89,546 मामले इस धारा के अंतर्गत दर्ज़ किये गए हैं, जबकि केवल 7,380  मामले यानि 2.3% मामलों में ही आरोपी का दोष सिद्ध हुआ है। 2012 के सर्वे में जो आंकड़ें निकल कर आये है उनके अनुसार कि भारतीय संविधान की दण्ड संहिता के अंतर्गत  कुल 1,97,962 लोगों की गिरफ्तारी हुई है इसमें भी एक चौथाई संख्या महिलाओं की है जो अभियोजन पक्ष की या तो सास नन्द या जेठानी हैं। वहीँ दूसरी तरफ 93.6% जमा की गईं चार्जशीट में से महज़ 15% ही कसूरवार साबित हुए हैं। घरेलू हिंसा की बढ़ती घटनाओं से हमारी सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रही है क्योंकि स्त्री और पुरुष दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं एक के बिना दूसरे का कोई वर्चस्व नही है पर आवयश्कता है दोनों को यह बात समझने की। हमारे संविधान में जो भी कानून बनाये गते हैं वो हमारी सुविधा और सुरक्षा  के लिए बनाये गए हैं न कि दूसरों को परेशान या उत्पीड़ित करने के लिए। हमे और समाज और सरकार सभी को ज़रूरत है दोषियों को सजा दिलवाने की वो दोषी जो इन कानूनों की सुविधा से खोज मिले और वे दोषी जो इन कानूनों का दुष्प्रयोग करें। तब जाकर हमारे समाज की व्यवस्था और न्याय व्यवस्था सुचारू रूप से चल पायेगी।।

  • हम एक हैं

    नैना शर्मा

    न हमारा एक अंगहै,
    न हमारा एक ढंग है,
    हम हैं उस वृक्ष के पत्ते,
    जिनका आकर तो भिन्न,
    पर रंग एक है।।

    हमारी जाति अलग,
    हमारा धर्म अलग,
    पर हम सब हैं उस माँ की संतान,
    जिनका 'इंसानियत' एक कर्म है।।

    न हमारा कोई आदि है,
    न कोई अंत है,
    हम सब है कान्हा के उस चीर की तरह,
    जरूरत पड़ने पर एक के ही कर अनंत हैं।।

    हमारी भाषाएँ भिन्न है,
    हमारी आशायें भिन्न हैं,
    हमारी उम्मीदों का दामन बहुत बड़ा है,
    पर हौसला हम में बहुत है।।

    हम रहते हैं ऐसी जगह पर,
    जहाँ की मिट्टी आज भी शहादत के नग़मे गुनगुनाती है,
    हम रहते हैं उस जगह,
    जो भक्तों के भक्ति के किस्से सुनाती है।।

    सुन कर वीर कथाएँ हम पलें हैं जहाँ,
    आज भी वीर,महान पुरुष जन्म ले रहे हैं वहाँ।।

    हम ऐसी सभ्यता,ऐसी संस्कृति से जुड़े हैं,
    हम भारत के नक़्शे के ऐतिहासिक जगह पर रह रहे हैं,
    शब्द भी कम पड़ जाते हैं गुणगान में यहाँ के,
    हम बहुत बौने से हो जाते हैं,
    गौरवगान में यहां के।।

    कुछ ऐसा है हमारी एकता में,
    जो हमे रूबरू करवा रही हमारी परम्परा इतिहास से,
    है नमन हमारे सभी बड़ों को,
    जो हम उनसे सब कुछ पाके,
    अपनी अगली पीढ़ी को देके निभा रहे हैं।।

  • बेटी

    नैना शर्मा

    आज पुनः करना तेरा इन्हें श्रृंगार है,
    क्यूँ ताक रही है मुझको ऐसे,
    तू भूल गई,
    आज नवरात्रों का त्यौहार है।।

    पूजेंगे तुझे नौ दिन,
    करेंगे तेरा सत्कार,
    झुकाएँगे तेरे क़दमों में अपना सिर,
    तुझे झुककर करेंगे प्रणाम।।

    करेंगे वंदना तेरी,
    विनती करेंगे बारम्बार,
    आज है नवरात्रों का त्यौहार।।

    जी ले तू इन पलों को,
    संजों ले अपने मन में,
    ये पल न लौटेंगे बार बार।।

    फिर वही चीख होगी,
    कहीं कोई निर्भया लुट रही होगी,
    तो कोई तेज़ाब से झुलस रही होगी,
    फिर न कोई सुनेगा तेरी कहानी,
    लाख तू बहा ले आँखों से पानी।।

    कहीं कोई कली खिलने से पहले मसल दी जायेगी,
    तो कहीं कोई बेटी दहेज़ की लपट सिमट जायेगी,
    कहीं कोई कन्या बेआबरू हो जाती है,
    तो कहीं कोई बेटी बेमौत मारी जाती है।।

    तू मनाले आज अपनी आज़ादी का पर्व,
    आज करले ख़ुद के बेटी होने पर गर्व,
    क्योंकि कल फिर यहीं नरों के द्वारा संहार होगा,
    फिर तेरा अपमान तेरा बलिदान होगा।।

    काश! हर दिन नवरात्र हो जाये,
    मन्नत कोई पूरी हो न हो,
    कम से कम नन्ही कली खिलने से पहले न मुरझाये,
    कोई प्यारी सी परी अपने नन्हे कदमों से अपने बाबुल का आँगन खिलाये।।

  • श्राद्ध, श्रद्धा या आडम्बर

    नैना शर्मा

    भारत को सम्पूर्ण विश्व में उसकी संस्कृति, मान्यताओं, परम्पराओं के लिए ही नही बल्कि इनके निर्वाहन के लिए भी जाना जाता है। भारत विश्व में इकलौता ऐसा देश है जहाँ लोग इंसान की मृत्यु के बाद भी उसको हमेशा अपने सुख दुःख में याद ही नही करते बल्कि विधिवत् उपस्थित करते हैं। अब इसे हमारा विश्वास कहेंगे या अन्धविश्वास इसका निर्णय करना थोड़ा कठिन है।

    इस समय भारतीय हिंदी पंचांग के मुताविक पितृ पक्ष चल रहा है और मान्यता यह है कि इन 15 दिनों के समय में हमारे जो भी पूर्वज है वो हमारे घर विराजते हैं या ये भी कह सकते हैं कि इन 15 दिनों में दान पूजा की जाती है उन पूर्वजोँ को मोक्ष दिलाने के लिए जो हमारे बीच में नही है। इस दौरान हिन्दू धर्म में लोग बड़े बड़े अनुष्ठान करते हैं। दान कर्म कांड गयाजी इत्यादि करते हैं जिससे उनके पुरखों की आत्मा तृप्त हो और उन्हें मुक्ति मिल जाये।

    बड़ी अजीब सी लगती है ये बात आज के समय में क्योंकि आज हम ये पूजा मन से नही बल्कि डर से करते हैं। क्योंकि आज का मनुज इतना स्वार्थी हो गया है कि वो बिना स्वार्थ के किसी की तरफ आँख उठा कर के भी नही देखता। आज भी लोग नगरों में कस्बों में गावँ में इस परम्परा का निर्वाहन बिल्कुल उसी तरह कर रहे है जैसे वर्षों से होता आया है पर श्रद्धा से न होकर एक डर से कि अगर ये न किया तो हमारे पुरखे नाराज होकर हमे श्राप न दे दें। पर कितना अचंभित करने वाली बात है कि हमे उन लोगों के श्राप देने की इतनी चिंता है जिनके न तन का पता न आत्मा का वो सिर्फ हमारे मन में है पर उनका क्या जो हमारे बुज़ुर्ग सशरीर हमारे पास हैं और उन्हें हमे एक गिलास पानी और एक वक़्त की रोटी भी देना मुश्किल है। क्या यही परम्परा है इस देश की या ये संस्कृति। भारतीय संस्कृति में बुजुर्गों को आँगन के उस घने छायादार पेड़ के रूप में पूजते थे जिसके बिना घर की कल्पना करना भी मुश्किल था पर आज किसी भी घर में बृद्ध के होने की सम्भावना भी कम ही लगती है। क्योंकि आज की बदलती जीवन शैली ने लोगों को इस प्रकार उलझा दिया है कि वो अकेले रहना चाहता है यहाँ तक की अपने माता पिता भी उसे बोझ लगने लगे है।

    भारत की लगभग जनसंख्या में से बृद्धों की संख्या 2001 की जनगणना के अनुसार 7,7 करोड़ हो गई है और इसमें भी 3.8 करोड़ महिलाएं और3.9 करोड़ पुरुष हैं और इनका आयु वर्ग 60 से 80 के बीच में है और यह आंकड़ें दिनों दिन तेजी से बढ़ते जा रहे हैं।

    जहाँ भारत को यूवाओं का देश कहा जाता था आज वहां बढ़ती बुजुर्गों की संख्या चिंतनीय है और सबसे अधिक चिंता का विषय उनकी देख रेख, स्वास्थ्य है। क्योंकि आज बड़े नगरों ही नही बल्कि छोटे छोटे गावँ में भी लोगों को बुज़ुर्ग एक बोझ की तरह लगने लगे हैं और वो उनसे पीछा छुड़वाने के लिए उन्हें"बृद्धाश्रमों" में छोड़ आते हैं और फिर दोबारा कभी उनकी तरफ मुड़ कर नही देखते हैं।

    देश नित प्रगति की ऊचाइयों को छू रहा है। रोज़ नये नये अविष्कार कर रहा है पर अफ़सोस इतना कुछ करने के बाद भी अपने जन्मदाताओं को अपने पास न रख पा रहा है बल्कि उन्हें बृद्धाश्रमों में छोड़ रहा है। इसलिए दिन प्रतिदिन old age homes की संख्या बढ़ती जा रही है। इस समय भारत में कुल 354 बृद्धाश्रम हैं जिनमे 95 NGO के द्वारा मुफ़्त में सुविधाएँ दी जा रही हैं।

    आज का समाज बहुत ही आधुनिक हो गया है उसे किसी भी प्रकार की रोक टोक पसन्द नही शायद इसी का दुष्परिणाम बुजुर्गों को बृद्धाश्रम में भेजना है। पर लोग ये भूल जाते हैं कि जो हमे विरासत में गुण मिले है हमे उनसे हमारे बच्चे अनभिज्ञ रह जायेंगे और जब कल को उनका बुढ़ापा आएगा तो वो भी old age home में ही गुज़रेगा।

    बात जब हम सभ्यता संस्कृति परम्पराओं की मान्यताओं की करते हैं  तो हमे इस बात का हमेशा ख़्याल रखना चाहिए कि जो हमारे वेदों में लिखा है जो भी विधान दिए हैं उनको तो पूरा करना ही चाहिए साथ ही जो ईश्वर का जीता जागता स्वरूप् हमारे घर में है उनका तिरस्कार नही करना चाहिए क्योंकि क्या पता किस मुसीबत के पल में इनकी कौन सी दुआ हमारे लिए सुरक्षा कवच बन जाये। पता नही स्वर्ग में बैठे पुरखे हमे आशीर्वाद देंगे या नही पर जो  हमारे बुजुर्ग हैं वो जरूर हमे हमारे अच्छे कामों के लिए दुआ देंगे। इसलिए हम कोई भी पूजा तर्पण या यज्ञ कर लें वो सब हमारे बुजुर्गों के आशीर्वाद के बिना व्यर्थ है और ये बात हमारे समाज को समझनी होगी, तभी जाकर हमारी कोई पूजा तर्पण सफल होगा।                 

  • मक्का हादसा: दोषी कौन-प्रशासन या फिर हम ख़ुद ?

    नैना शर्मा

    आये दिन किसी न किसी धार्मिक स्थल पर किसी बड़ी दुर्घटना की ख़बर आती रहती है। जिसमे हज़ारों की संख्या में लोग मरते-घायल होते हैं। आखिर इन दुर्घटनाओं का जिम्मेदार कौन है? प्रशासन या फिर हम ख़ुद। यह समझने वाली बात है कि किसी भी धार्मिक स्थल पर लोग पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ जाते हैं और वहाँ  जाकर ऐसे हादसों के शिकार हो जाते है जिससे आस्था-श्रद्धा और प्रशासन की व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा होता है।

    कई धार्मिक स्थलों पर बड़ी बड़ी दुर्घटनाएँ सुनने को मिली है इन्ही में से अभी तुरन्त का मक्का में हादसा है। ये हादसा शैतान को पत्थर मारने की होड़ में हुआ है। हज़ के दौरान यह पहला हादसा नही है मक्का में इससे पहले भी कई बार जैसे 2006,1997,1994,1987,1990 में हादसे हुए हैं जिनमे हज़ारों लोग हताहत हुए थे।

    हर साल इस पवित्र स्थान पर लोग विश्व के कोने कोने से आते हैं। लगभग 15 लाख लोग यहाँ पुण्य कमाने आते हैं और जब वो यहां आते है और यदि इस प्रकार की किसी दुर्घटना का शिकार होते हैं तो सोचने वाली बात यह हो जाती है कि इन सबमे दोषी कौन होता है प्रशासन, ख़ुदा या ख़ुद लोग।

    इस बात के दो पहलू हैं। जब भी किसी धार्मिक स्थल पर लोग जाते हैं तो श्रद्धा और आतुरता से परिपूर्ण होते हैं और इन सबमे श्रद्धालु ख़ुद प्रशासन के नियमों को तोड़ने में पीछे नही होते हैं और इस बात का ख्याल नही रखते कि यदि धक्का मुक्की करेंगे तो इसका क्या अंजाम हो सकता है।

    इसके विपरीत व्यवस्थापकों और प्रशासन की लापरवाही को भी नज़रन्दाज़ नही कर सकते हैं। जैसे मक्का में ही हज़ यात्रा की तैयारी 2 से 3 महीने पहले से शुरू हो जाती है। प्रतिवर्ष के आंकड़ों के हिसाब  और अनुभव से तैयारी करने से बहुत सहूलियत मिलती है क्योंकि इससे अंदाज़ा लग जाता है कि कितने लोग आ सकते हैं और किस प्रकार से पूरी व्यवस्था करनी है। पर शायद मक्का में इस प्रकार की कोई योजना नही बनाई गई और ऐसे हादसों का शिकार बेगुनाह हज़ यात्री हुए है।

    सबसे ज्यादा चकित कर देने वाली बात यह है कि अभी कुछ ही दिन पहले जो क्रेन हादसा हुआ शायद प्रशासन ने उससे कोई सीख नही ली जिसका खामियाज़ा इस तरह उन जायरीनों को भुगतना पड़ा जो अपने मन में हज़ करके सबाब हासिल करने की तमाम ख्वाहिशों के साथ मक्का की पवित्र धरती पर आये थे और अब उनके घर वापस वो नही उनकी लाशें जा रहीं हैं।

    ऐसी गंभीर स्थिति में भी लोग, देश और प्रशासन एक दुसरे के ऊपर पत्थर फेंकने से बाज़ नही आ रहे हैं। ईरान अरब को दोषी बता रहा है तो अरब अफ्रीका के जायरीनों को। लेकिन इन लोगों को कौन समझाये कि ये समय सहायता और बचाव का है न कि दोषारोपण का।

    ये ऐसी दिल दहला देने वाली दुर्घटना है जिसमे तमाम लोगों ने अपनों को खो दिया और अरब देश ने अपनी साख को। अगर वह अपनी बची खुची साख को बचाना चाहता है तो इस गलती और पिछली गलतियों से सीख ले। क्योंकि पूरे विश्व से लाखों लोग एक विश्वास के साथ आते हैं और यह अरब देश की ज़िम्मेदारी है उनकी पूरी हिफाज़त की।

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