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ऐसा होगा इस बार आभूषणों का चलन

नई दिल्ली, 19 जनवरी (आईएएनएस)। इस बार के पार्टी सीजन में आभूषणों में बोल्ड स्टेटमेंट ज्वेलरी का जलवा बरकरार रहेगा। अपनी ड्रेस के आकर्षण को बढ़ाने के लिए स्ट्रिंग नेकलेस, चूड़ियों और अंगूठियों का इस्तेमाल करें।

'ज्वेलसीफाई डॉट कॉम' के संस्थापक हार्दिक कपूर ने इस साल उत्सवी सजावट के लिए आभूषणों के कुछ खास चलन बताएं हैं।

स्टेटमेंट ज्वेलरी : स्ट्रिंग नेकलेस की मदद से अपनी ड्रेस को खास अंदाज दें। इस साल का खास स्टाइल रंगीन नगीने हैं, जो इस साल फैशन में बने रहेंगे।

इस बार पुरुषों के आभूषणों की मांग भी बढ़ेगी और यह चलन अगले साल तक जारी रहेगा। पुरुषों के आभूषणों में अगूंठियों से लेकर ब्रेसलेट्स, कफलिंक्स और चेन को खासतौर पर पसंद किया जाएगा।

चूड़ियां : हाथों में भरी चूड़ियां 2015 का खास चलन था और इस बार भी यह जारी रहेगा। रंगीन धातुओं की गुलाबी सुनहरे से लेकर चमकते चांदी की चूड़ियां स्टाइल स्टेटमेंट बयां करेंगी।

अंगूठियां : आकर्षक अगूंठियां इस साल आभूषणों के फैशन में फिर लौटी हैं। ये किसी भी परिधान को पूर्णता देती हैं। स्टाइलिश अंदाज के लिए हीरे की सोलिटेयर अंगूठी पहनें।

ईयर रिंग्स : कीमती और अर्धकीमती नगीनों से जड़े फैशनेबल और आधुनिक डिजाइन के ईयर रिंग्स हर महिला की पसंद होते हैं। लटकते ईयर रिंग्स किसी भी परिधान के आकर्षण को कई गुणा बढ़ा देते हैं।

इस बार के पार्टी सीजन में सबके आकर्षण का केंद्र बनने के लिए चमकते हुए लटकते झुमके और मोती जड़े ड्रॉप ईयर रिंग्स अपने आभूषणों के कलेक्शन में जरूर शामिल करें।

नेकलेस : किसी भी ड्रेस नेकलाइन के लिए ये उपयुक्त हैं। रत्न जड़ित नेकलेस आपकी पार्टी लुक को आकर्षक बनाने के लिए बेहतरीन हैं। टोपाज या मूनस्टोन जैसे नगीने जड़ित नेकलेस आने वाले सालों में भी फैशन में बने रहेंगे।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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  • पिता का अवसाद भी आने वाली संतान के लिए खतरा
    लंदन, 21 जनवरी (आईएएनएस)। मां के अवसाद और बच्चे के स्वास्थ्य में संबंध की बात लंबे समय से की जाती रही है। अब एक नए अध्ययन में पाया गया है कि पिता के अवसाद का भी होने वाली संतान के स्वास्थ्य पर असर होता है।

    अध्ययन के मुताबिक, पिता के अवसाद के कारण गर्भ में पल रहे शिशु का जन्म कई बार समय से पहले हो जाता है। यानी पिता के अवसादग्रस्त रहने से भी समय पूर्व प्रसव का जोखिम बना रहता है।

    स्वीडन की 'सेंटर फॉर हेल्थ इक्विटी स्टडीज' की डॉक्टर एंडर्स जर्न ने बताया, "हमारे निष्कर्ष बताते हैं कि अवसाद से पीड़ित माता-पिता दोनों को ही संतान के अपरिपक्व जन्म के लिए जिम्मेदार माना जाना चाहिए और उनकी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की जांच होनी चाहिए।"

    पिता के द्वारा पड़ने वाले प्रभावों के बारे में जर्न ने बताया, "साथी का अवसाद गर्भवती महिला के लिए अवसादग्रस्त होने की सबसे बड़ी वजह होती है, जिसके द्वारा संतान में समय से पहले जन्म लेने का खतरा बढ़ता है।"

    जर्न कहती हैं, "पिता के अवसादग्रस्त रहने से शुक्राणु की गुणवत्ता प्रभावित होती है। अवसादग्रस्त पिता के द्वारा संतान के डीएनए पर एपिजेनेटिक प्रभाव पड़ता है और उसका गर्भनाल का क्रियान्वयन भी बाधित होता है। हालांकि इलाज के द्वारा इस समस्या से निदान पाया जा सकता है।"

    अध्ययन के नतीजे पत्रिका 'बीजेओजी' में प्रकाशित हुए हैं।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • रास्ते भुला देती हैं चिंताएं

    लंदन, 21 जनवरी (आईएएनएस)। चिंताओं से घिरे होने पर क्या आप चलते-चलते गलत दिशा में मुड़ते हैं अगर हां तो इसके लिए कसूरवार आपका मस्तिष्क है क्योंकि तनाव के दौरान लोगों में मस्तिष्क का दायां भाग व्यक्ति को बाईं दिशा में चलने के लिए उन्मुख करता है।

    यूनिवर्सिटी ऑफ केंट की डॉक्टर मारियो वीक ने पहली बार मस्तिष्क के दो भागों (गोलार्धो) की सक्रियता को व्यक्ति की प्रक्षेप पथ के बदलावों के साथ जोड़ा है।

    इस शोध के लिए शोधार्थियों ने कुछ लोगों से आंखों पर पट्टी बांधकर एक कमरे में सीधे चलने के लिए कहा। वह पहले से ही उस कमरे से वाकिफ थे।

    शोधार्थियों को इस संबंध में सबूत मिला है कि इनमें जो प्रतिभागी असामान्य और चिंताग्रस्त स्थिति से गुजर रहे थे वह बाई दिशा में चलने के लिए उन्मुख दिखाई दिए जिसकी वजह उनके मस्तिष्क के दाएं हिस्से में अधिक सक्रियता का होना है।

    यह शोध बताता है कि मस्तिष्क के यह दो हिस्से आपस में अलग-अलग प्रेरक तंत्रों के साथ जुड़े हैं।

    इस शोध के जरिए पहली बार मानसिक अवरोध और मस्तिष्क की दाईं हिस्से की सक्रियता के बीच स्पष्ट संबंध का पता चल पाया है। इस समस्या से पीड़ित व्यक्तियों का अब पहले से अधिक कारगर इलाज किया जा सकेगा।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

  • समान कद वाले साथी की चाहत क्यों?

    लंदन, 21 जनवरी (आईएएनएस)। शोधकर्ताओं ने ऐसे जीन खोज लिए हैं, जो कद निर्धारण के लिए जिम्मेदार होते हैं और वे इस मनोभाव को भी प्रभावित करते हैं कि लोग अपने समान कद वाला साथी क्यों चुनते हैं।

    यह शोध जीनोम बॉयोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। इसमें कहा गया है कि रूमानी साथी की हमारी पसंद, हमारी अपेक्षा से अधिक जीन द्वारा निर्धारित हो सकती है।

    स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से संबद्ध मुख्य शोधकर्ता अल्बर्ट टेनेसा ने कहा, "हम अपने साथी का चुनाव जिस तरह करते हैं, उसका मानव आबादी पर महत्वपूर्ण जैविक प्रभाव होता है। यह अध्ययन यौनाकर्षण की जटिल प्रकृति और मानवीय विविधता के लिए जिम्मेदार तंत्र को समझने में हमें करीब लाता है।"

    इस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने 13,000 से अधिक विषमलैंगिक जोड़ों के जीन संबंधित जानकारी का विश्लेषण किया।

    उन्होंने पाया कि 89 प्रतिशत जीन संबंधित विविधता जो किसी व्यक्ति के कद का निर्धारण करती है, वह किसी साथी के चयन में उसके कद को महत्व देने की सोच को भी प्रभावित करती है।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

  • भारत अब हर महीने करेगा एक प्रक्षेपण
    फकीर बालाजी
    श्रीहरिकोटा (आंध्र प्रदेश), 20 जनवरी (आईएएनएस)। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी ने अंतरिक्ष विज्ञान में अपना दबदबा बढ़ाते हुए बुधवार को कहा कि अब वह हर महीने एक उपग्रह का प्रक्षेपण करेगा।

    ट्रांसपोंडर्स तथा वैज्ञानिक उपकरणों सहित अपने अंतरिक्ष आधारित परिसंपत्तियों से बढ़ रही जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत हर महीने एक उपग्रह के प्रक्षेपण की तैयारी कर रहा है।

    अमेरिका की जीपीएस (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) जैसी क्षमता हासिल करने की दिशा में एक और कदम बढ़ाते हुए बुधवार को भारत ने अपने पांचवें नौवहन उपग्रह आईआरएनएसएस-1ई का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण कर दिया।

    भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली भारत तथा इसके आस-पास के 1500 किमी के क्षेत्र में परिशुद्ध वास्तविक-काल स्थिति तथा समय सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए भारत की अपनी क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली है।

    भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष ए.एस.कृष्ण कुमार ने यहां कहा, "इस साल की शुरुआत हमने पांचवें नौवहन उपग्रह के प्रक्षेपण के साथ की है, जो एक महत्वपूर्ण सफलता है। क्योंकि इसे सटीक तौर पर इच्छित कक्षा में स्थापित किया गया। मांग पूरी करने के लिए हम हर महीने एक उपग्रह के प्रक्षेपण की तैयारी कर रहे हैं।"

    इसरो फरवरी तथा मार्च में दो और नौवहन उपग्रहों के प्रक्षेपण की तैयारी कर रहा है। जिसके बाद, स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के साथ एक से चार टन के रॉकेट के साथ पृथ्वी अवलोकन, रिमोट सेंसिंग व संचार आधारित अंतरिक्षयान का प्रक्षेपण किया जाएगा।

    पांचवें नौवहन उपग्रह के सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित किए जाने के बाद कुमार ने मिशन नियंत्रण केंद्र में वैज्ञानिकों से कहा, "हमें लंबा फासला तय करना है, क्योंकि अगले दो महीनों में हमें नौवहन के सातों उपग्रहों (आईआरएनएसएस) में से बाकी बचे उपग्रहों का प्रक्षेपण करना है, जिसके बाद विभिन्न प्रकार के बहुद्देश्यी उपग्रहों के प्रक्षेपण को लेकर हम अन्य मिशनों पर काम करेंगे।"

    अंतरिक्ष एजेंसी ने कहा कि बाद में उपग्रह (आईआरएनएसएस-1ई) को पृथ्वी से 20,655 किलोमीटर की दूरी पर एक अंडाकार कक्षा में भूमध्य रेखा से 19.21 डिग्री के कोण पर स्थापित किया गया है।

    संगठन का मास्टर नियंत्रण केंद्र हासन में है, जो कर्नाटक से लगभग 180 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, जहां अगले दो सप्ताह के दौरान भूसमकालिक कक्षा में स्थापित करने के लिए 1,425 किलोग्राम वजनी उपग्रह के पोजीशन में चार बार परिवर्तन किया जाएगा।

    कुमार ने कहा, "इस प्रक्षेपण के साथ ही हमने यह साबित कर दिखाया है कि पीएसएलवी (ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान) एक विश्वसनीय रॉकेट है और देश की जरूरतों के लिए यह विभिन्न कार्यो वाले उपग्रहों को अंतरिक्ष तक ले जाने में पूरी तरह सक्षम है।"

    स्ट्रैप-ऑन बुस्टर के साथ पीएसएलवी-सी31का यह 33वां प्रक्षेपण मिशन था, जिसे सफलतापूर्वक पूरा किया गया। सितंबर 1993 में पहली बार पहले प्रक्षेपण के साथ इसकी सहायता से अब तक 32 सफल परीक्षण किए जा चुके हैं।

    उपग्रह केंद्र के निदेशक एम.अन्नादुरई ने आईएएनएस से कहा, "हमारा अंतरिक्ष कार्यक्रम तेजी से आगे बढ़ रहा है। हमने साल 2015 में चार पीएसएलवी तथा एक जीएसएलवी (भू-समकालिक प्रक्षेपण यान) रॉकेट सहित पांच मिशन लॉन्च किए। जुलाई से लेकर अब तक हम चार मिशन लॉन्च कर चुके हैं, जिसमें पहला जुलाई, दूसरा अगस्त (जीएसएलवी), तीसरा सितंबर तथा चौथा दिसंबर में किया गया।"

    स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के साथ अगस्त 2015 में जीएसएलवी, दिसंबर 2014 में जीएसएलवी-मार्क-3 तथा जनवरी 2014 में जीएसएलवी-मार्क-2 के सफल प्रक्षेपण के साथ ही अंतरिक्ष एजेंसी की योजना इस साल अपने सबसे भारी रॉकेट जीएसएलवी-मार्क-3 के प्रक्षेपण की है, जो पृथ्वी से 36 हजार किलोमीटर दूर चार टन वजनी उपग्रह को अपने साथ ले जाएगा।

    अन्नादुरई ने कहा, "विभिन्न जरूरतों की पूर्ति के लिए देश, देश भर में अन्य उपयोगकर्ताओं तथा विदेशों में विभिन्न उपग्रहों की मांग बढ़ती ही जा रही है। संचार, प्रसारण, नौवहन, पृथ्वी अवलोकन तथा रिमोट सेंसिंग एप्लीकेशन प्रदान करने के अलावा हमें 10-12 साल पुराने अंतरिक्ष यान को भी बदलना है, जिसका जीवनकाल अब खत्म होने को है।"

    एक अनुमान के मुताबिक, अंतरिक्ष एजेंसी अगले पांच से छह वर्षो के दौरान ध्रुवीय व भूसमकालिक कक्षाओं में लगभग 80 उपग्रहों का प्रक्षेपण करेगी। इसके अलावा इसकी वाणिज्यिक शाखा एंट्रिक्स अगले दो वर्षो में लगभग 40 विदेशी उपग्रहों का प्रक्षेपण करेगी।

    अंतरिक्ष एजेंसी अगले दो वर्षो में द्वितीय चंद्र मिशन अभियान तथा सौर अवलोकन (आदित्य-1) की भी तैयारी कर रही है।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • इतिहास बन गया डोली का अस्तित्व

    घनश्याम भारतीय

    'चलो रे डोली उठाओ कहार..पिया मिलन की ऋतु आई..।' यह गीत जब भी बजता है, कानों में भावपूर्ण मिसरी सी घोल देता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इसमें छिपी है किसी बहन या बेटी के उसके परिजनों से जुदा होने की पीड़ा के साथ-साथ नव दाम्पत्य जीवन की शुरुआत की अपार खुशी!

    जुदाई की इसी पीड़ा और मिलन की खुशी के बीच की कभी अहम कड़ी रही 'डोली' आज आधुनिकता की चकाचांैध में विलुप्त सी हो गई है जो अब ढूढ़ने पर भी नहीं मिलती।

    एक समय था, जब यह डोली बादशाहों और उनकी बेगमों या राजाओं और उनकी रानियों के लिए यात्रा का प्रमुख साधन हुआ करती थी। तब जब आज की भांति न चिकनी सड़कें थीं और न ही आधुनिक साधन। तब घोड़े के अलावा डोली प्रमुख साधनों मंे शुमार थी। इसे ढोने वालों को कहार कहा जाता था।

    दो कहार आगे और दो ही कहार पीछे अपने कंधो पर रखकर डोली में बैठने वाले को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाते थे। थक जाने की स्थिति में सहयोगी कहार उनकी मदद भी करते थे। इसके लिए मिलने वाले मेहनताने व इनाम इकराम से कहारांे की जिंदगी की गाड़ी चलती थी। यह डोली आम तौर पर दो और नामों से जानी जाती रही है।

    आम लोग इसे 'डोली' और खास लोग इसे 'पालकी' कहते थे, जबकि विद्वतजनों में इसे 'शिविका' नाम प्राप्त था। राजतंत्र में राजे रजवाड़े व जमींदार इसी पालकी से अपने इलाके के भ्रमण पर निकला करते थे। आगे आगे राजा की डोली और पीछे-पीछे उनके सैनिक व अन्य कर्मी पैदल चला करते थे।

    कालांतर मंे इसी 'डोली' का प्रयोग शादी विवाद के अवसर पर दूल्हा-दूल्हन को ढोने की प्रमुख सवारी के रूप में होने लगा। उस समय आज की भांति न तो अच्छी सड़कें थीं और न ही यातायात के संसाधन। शादी विवाह में सामान ढोने के लिए बैलगाड़ी और दूल्हा-दूल्हन के लिए 'डोली' का चलन था। शेष बाराती पैदल चला करते थे।

    कई-कई गांवों में किसी एक व्यक्ति के पास डोली हुआ करती थी, जो शान की प्रतीक भी थी। शादी विवाह के मौकों पर लोगों को पहले से बुकिंग के आधार पर डोली बगैर किसी शुल्क के मुहैया होती थी। बस ढोने वाले कहारों को ही उनका मेहनताना देना पड़ता था।

    यह 'डोली' कम वजनी लकड़ी के पटरों, पायों और लोहे के कीले के सहारे एक छोटे से कमरे के रूप में बनाई जाती थी। इसके दोनों तरफ के हिस्से खिड़की की तरह खुले होते थे। अंदर आराम के लिए गद्दे बिछाए जाते थे। ऊपर खोखले मजबूत बांस के हत्थे लगाए जाते थे, जिसे कंधों पर रखकर कहार ढोते थे।

    प्रचलित परंपरा और रश्म के अनुसार शादी के लिए बारात निकलने से पूर्व दूल्हे की सगी संबंधी महिलाएं डोल चढ़ाई रश्म के तहत बारी-बारी दूल्हे के साथ डोली में बैठती थी। इसके बदले कहारांे को यथाशक्ति दान देते हुए शादी करने जाते दूल्हे को आशीर्वाद देकर भेजती थी। दूल्हे को लेकर कहार उसकी ससुराल तक जाते थे।

    इस बीच कई जगह रुक-रुक थकान मिटाते और जलपान करते कराते थे। इसी डोली से दूल्हे की परछन रस्म के साथ अन्य रस्में निभाई जाती थी। अगले दिन बरहार के रूप में रुकी बारात जब तीसरे दिन वापस लौटती थी, तब इस डोली में मायके वालों के बिछुड़ने से दुखी होकर रोती हुई दुल्हन बैठती थी और रोते हुए काफी दूर तक चली जाती थी। उसे हंसाने व अपनी थकान मिटाने के लिए कहार तमाम तरह की चुटकी लेते हुए गीत भी गाते चलते थे।

    विदा हुई दुल्हन की डोली जब गांवों से होकर गुजरती थी, तो महिलाएं व बच्चे कौतूहलवश डोली रुकवा देते थे। घूंघट हटवाकर दुल्हन देखने और उसे पानी पिलाकर ही जाने देते थे, जिसमें अपनेपन के साथ मानवता और प्रेम भरी भारतीय संस्कृति के दर्शन होते थे। समाज में एक-दूसरे के लिए अपार प्रेम झलकता था जो अब उसी डोली के साथ समाज से विदा हो चुका है।

    डोली ढोते समय मजाक करते कहारों को राह चलती ग्रामीण महिलाएं जबाव भी खूब देती थीं, जिसे सुनकर रोती दुल्हन हंस देती थी। दुल्हन की डोली जब उसके पीहर पहुंच जाती थी, तब एक रस्म निभाने के लिए कुछ दूर पहले डोली में दुल्हन के साथ दूल्हे को भी बैठा दिया जाता था। फिर उन्हें उतारने की भी रस्म निभाई जाती थी। इस अवसर पर कहारों को फिर पुरस्कार मिलता था।

    यह भी उल्लेखनीय है कि ससुराल से जब यही दूल्हन मायके के लिए विदा होती थी, तब बड़ी डोली के बजाय खटोली (छोटी डोली) का प्रयोग होता था। खटोली के रूप में छोटी चारपाई को रस्सी के सहारे बांस में लटकाकर परदे से ढंक दिया जाता था। दुल्हन उसी मंे बैठाई जाती थी। इसी से दुल्हन मायके जाती थी। ऐसा करके लोग अपनी शान बढ़ाते थे। जिस शादी में डोली नहीं होती थी, उसे बहुत ही हल्के में लिया जाता था।

    तेजी से बदलकर आधुनिक हुए मौजूदा परिवेश में तमाम रीति-रिवाजांे के साथ डोली का चलन भी अब पूरी तरह समाप्त हो गया। करीब तीन दशक से कहीं भी डोली देखने को नहीं मिली है। अत्याधुनिक लक्जरी गाड़ियों के आगे अब जहां एक ओर दूल्हा व दूल्हन डोली में बैठना नहीं चाहते, वहीं अब उसे ढोने वाले कहार भी नहीं मिलते।

    ऐसा शायद इसलिए, क्योंकि अब मानसिक ताकत के आगे शारीरिक तकत हार सी गई है। दिनभर के रास्ते को विज्ञान ने कुछ ही मिनटों में सुलभ कर दिया है। वह भी अत्यधिक आरामदायक ढंग से। ऐसे में डोली से कौन हिचकोले खाना चाहेगा। ..और कौन चंद इनाम व इकराम के लिए दिनभर बोझ से दबकर पसीना बहाते हुए हाफना चाहेगा।

    कभी डोली ढोने का काम करते रहे सत्तर वर्षीय सोहन, साठ वर्षीय राम आसरे, व बासठ वर्षीय मुन्नर तथा साठ वर्षीय बरखू का कहना है कि अच्छा हुआ जो डोली बंद हो गई, वरना आज ढोने वाले ही नहीं मिलते। अब के लोगों को जितनी सुख सुविधाएं मिली हैं, उतने ही वे नाजुक भी हो गए हैं।

    ऐसे में डोली ही नहीं, तमाम अन्य साधनों व परंपराओं का अस्तित्व इतिहास बनना ही है।

  • मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण, विभाग चल रहा 'दीपक' के भरोसे

    संदीप पौराणिक

    मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं में निजीकरण की शुरुआत हो गई है, और इसका पहला पड़ाव बना है, आदिवासी बहुल जिला अलिराजपुर। यहां की स्वास्थ्य सेवाओं और खासकर शिशु मृत्युदर तथा मातृ मृत्युदर कम करने के लिए गुजरात के गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) 'दीपक फाउंडेशन' के साथ स्वास्थ्य विभाग ने करार किया है।

    लेकिन अब इस करार पर ही सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि बीते वर्षो में राज्य की शिशु मृत्युदर और मातृ मृत्युदर में कोई कमी नहीं आ रही है।

    राज्य की सरकार लगातार स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार होने का दावा किए जाने के साथ अपनी कोशिशों को लेकर पीठ भी थपथपाती रही है, मगर जमीनी हकीकत इससे अलग है।

    कई अस्पतालों में चिकित्सक, स्वास्थ्य कर्मी नहीं है। नतीजतन मरीजों को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए निजी अस्पतालों का रुख करना पड़ता है। सरकारी अस्पतालों की बदहाली और लापरवाही केा हाल ही में बड़वानी और श्योपुर की घटनाआंे ने सामने ला दिया है। जहां मोतियाबिंद के ऑपरेशन आंखों को रोशनी पाने की चाहत में 65 लोग अंधेरा लेकर लौटे हैं।

    स्वास्थ्य विभाग सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों हालत में सुधार लाने की बजाय निजीकरण की दिशा में बढ़ने लगा है और इसकी शुरुआत हुई है अलिराजपुर से। नवंबर 2015 में राज्य स्वास्थ्य समिति और दीपक फाउंडेशन, बड़ोदरा (गुजरात) के बीच करार हुआ है। इस करार के मुताबिक दीपक फाउंडेशन जिला चिकित्सालय और जोबट सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में कार्य करते हुए शिशु व मातृ मृत्युदर में कमी लाने के लिए काम करेगा।

    राज्य स्वास्थ्य समिति और दीपक फाउंडेशन के करार की प्रति आईएएनएस को मिली है, उसके अनुसार फाउंडेशन जिला अस्पताल में निश्चेतन (एनेस्थेटिएस्ट) विशेषज्ञ और जोबट के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में निश्चेतन (एनेस्थेटिएस्ट), स्त्रीरोग और बाल रोग विशेषज्ञों की पदस्थापना में सहयोग करेगा।

    वैसे इन चिकित्सकों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन वेतन देता है, मगर तय वेतन से ज्यादा देने की स्थिति में शेष राशि की पूर्ति दीपक फाउंडेशन करेगा। इसके अलावा अल्टा सोनोग्राम (यूएसजी) और जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम में भी यह फाउंडेशन जरूरत पड़ने पर आर्थिक मदद करेगा।

    करारनामे के अनुसार, अलिराजपुर के अलावा झाबुआ और बड़वानी में दीपक फाउंडेशन हेल्प डेस्क भी शुरू करेगा। इसके अलावा अलिराजपुर में आशा कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देगा। यह फाउंडेशन ग्रामीण क्षेत्र की स्वास्थ्य, पोषण तथा स्वच्छता समितियों को भी प्रशिक्षण देगा। इसके लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन बजट के मुताबिक, राशि मुहैया कराएगा। यह करार तीन वर्ष के लिए है।

    सरकार और दीपक फाउंडेशन के बीच हुए करार पर ही सवाल उठ रहे हैं। जन स्वास्थ्य अभियान के डॉ. एस.आर. आजाद ने बताया है कि इस करार में सरकार ने उन सभी दिशा निर्देशों की अवहेलना की है, जो किसी गैर सरकारी संगठन के साथ करार करने के लिए आवश्यक है।

    करार से पहले न तो कोई विज्ञापन जारी किया और न ही निविदाएं आमंत्रित की गईं। स्वास्थ्य विभाग की प्रमुख सचिव गौरी सिंह से शिकायत की तो वे जांच कराने की बात कह रही है।

    जन स्वास्थ्य अभियान के अमूल्य निधि ने बताया है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत अन्य राज्यों की तरह मध्य प्रदेश को भी प्रति वर्ष बजट स्वीकृत होता है, मगर इस करार में विभाग ने 60 प्रतिशत राशि शुरुआत में ही देने पर सहमति जता दी है। इतना ही नहीं किसी अन्य संस्था को अवसर दिए बिना दीपक फाउंडेशन से करार किया।

    आदिवासी क्षेत्र में समाजसेवा कर रही शमारुख मेहरा धारा का कहना है राज्य में आशा कार्यकर्ता को प्रशिक्षण देने वाली संस्था से करार हुआ तो विभाग ने सुरक्षा निधि जमा कराई थी, मगर दीपक फाउंडेशन से सुरक्षा निधि जमा कराना तो दूर इसके उलट उसे साठ फीसदी राशि अग्रिम दी जा रही है। इसके साथ करार में यह भी खुलासा नहीं किया गया है कि फाउंडेशन को कितनी राशि दी जाएगी और फाउंडेशन कितनी राशि खर्च करेगा।

    इस करार में नियमों की अवहेलना और एक खास संस्था के प्रति लगाव को लेकर लगाए गए आरोपों को लेकर स्वास्थ्य विभाग का पक्ष जानने के लिए विभाग की प्रमुख सचिव गौरी सिंह से संपर्क किया गया, मगर वे उपलब्ध नहीं हुईं।

    सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बीते चार वर्षों के आंकड़ों के आधार पर बताया है कि राज्य की मातृ मृत्युदर 310 प्रति लाख से घटकर 227 प्रति लाख रह गई है और शिशु मृत्युदर 68 से 62 प्रति लाख है।

    वहीं राज्य के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को बेहतर कार्य के लिए वर्ष 2014-15 मंे केंद्र सरकार की ओर से पुरस्कृत किया गया है। ऐसे में शिशु और मातृ मृत्युदर कम करने के लिए किसी संस्था से समझौता करने पर सवाल उठना लाजिमी है।

खरी बात

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