मथुरा कांड : सवालों का दौर अभी बाकी है!
ऋतुपर्ण दवे
अब उसे कंस कहें या नृशंस, कोई फायदा नहीं। पूरे देश के सामने जो सच सामने आया, उसने राज्य और केन्द्र के खुफिया तंत्र की कलई खोलकर रख दी। सवाल तो सुलगेगा, लंबे समय तक सियासत भी होगी, होनी भी चाहिए क्योंकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की आहट के ऐन पहले इस हकीकत ने पूरे देश को सन्न कर दिया है। अभी तो प्रश्नों की बौछार आनी शुरू हुई है। लगातार झड़ी बाकी है।
मथुरा कई दृष्टिकोण से बेहद संवेदनशील है। धार्मिक नगरी के रूप में आस्था और श्रद्धा का केंद्र है, यहीं बड़ी तेल रिफायनरी भी है। लगभग 1085 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन के जरिए यहां तेल शोधन के लिए लाया जाता है। ऐसे में मथुरा राज्य और केन्द्र, दोनों के खुफिया तंत्र के राडार पर होना चाहिए। बड़ा सवाल, ऐसा क्यों नहीं हुआ?
हैरानी की बात है कि सत्याग्रह के नाम पर दो दिनों के लिए पनाह की खातिर मिली 270 एकड़ जमीन पर अपनी समानान्तर सरकार चलाने वाले कंस रूपी नृशंस रामवृक्ष पर दो वर्षों में ही 10 से ज्यादा मुकदमे कायम किए गए, लेकिन उसका कुछ भी नहीं बिगड़ पाया। जाहिर है यह सब केवल कागजी खानापूर्ति की रस्म अदायगी थी।
भूखे, बेरोजगार, गरीब और मुसीबत के मारों को मिलाकर बना संगठन, किस खूबी से मथुरा में काम कर रहा था और प्रशासन किस कदर नाकाम था! आजाद हिन्दुस्तान के इतिहास में शायद ही ऐसा उदाहरण कहीं मिले कि प्रशासन की नाक के नीचे, खुले आम किसी की बादशाहत चलती रहे और पास में ही जिले के मुखिया पंगु बने बैठे रहें। उससे बड़ी शर्मनाक और खुफियातंत्र को धता बताने वाली घटना यह रही कि हथियार, गोला बारूद, बम और न जाने क्या-क्या इकट्ठे होते रहे और खुफिया तंत्र को कानों कान खबर तक नहीं हुई।
इसे चूक कहना नाइंसाफी होगा। निश्चित रूप से यह बिना राजनीतिक शह के संभव नहीं है। लेकिन सवाल फिर भी यही कि मथुरा की सुरक्षा की जवाबदेही जितनी राज्य सरकार की बनती है, उतनी ही केन्द्र की भी। प्रशासन की नाक के नीचे कोई इतना बड़ा अपराधी बन जाए, यह रातोंरात संभव नहीं है। अहम यह कि लाखों की आबादी के बीच, शहर में सरकार के लिए चुनौती बना मुखिया देशद्रोह, विद्रोह, एकता-अखण्डता खण्डित करने की हुंकार भरे, पुलिस पर हमला करे सरकारी सम्पत्ति हथियाए और उस पर मामूली अपराधों के तहत मामले दर्ज हों!
पूछने वाले जरूर पूछेंगे कि हार्दिक पटेल, कन्हैया कुमार और न जाने कितने वे जो जब-तब देशद्रोह के कटघरे में आ जाते हैं, उनसे कैसे अलग था रामवृक्ष यादव?
अब तो रामवृक्ष यादव के नक्सलियों से तार जुड़े होने के सूबत भी मिल रहे हैं। जवाहर बाग की फैक्ट्री में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और पश्चिम बंगाल से आतंक फैलाने का कच्चा माल आता था। इतना ही नहीं जरूरत के हिसाब से उपयोग के बाद ये गोला-बारूद वापस भी किया जाता था। सैकड़ों किलोमीटर दूर से आकर दो साल तक तबाही का यह बाजार सजता रहा और समूचा सुरक्षा तंत्र कुछ सूंघ तक नहीं पाया?
रामवृक्ष यादव का अतीत सबके सामने है। इटावा के ही तुलसीदास यादव यानी जय गुरुदेव का चेला था। उन्हीं की तर्ज पर ये भी सुभाषचंद्र बोस के नाम का इस्तेमाल करता था। 18 मई 2012 को जय गुरुदेव की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति पर तमाम लोगों की निगाहें थी। रामवृक्ष यादव सहित तीन प्रमुख दावेदार थे। दो अन्य उनका ड्राइवर पंकज यादव और एक अन्य चेला उमाकान्त तिवारी थे। सम्पत्ति कब्जाने में पंकज यादव सफल रहा जिसने रामवृक्ष को आश्रम से बाहर का रास्ता दिखाया।
रामवृक्ष के शातिर दिमाग ने राजनीति की ओर रुख किया और 2014 में फिरोजाबाद सीट पर जबरदस्त सक्रिय रहकर उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता रामगोपाल यादव के पुत्र अक्षय यादव के लिए अपने 3 हजार से ज्यादा समर्थकों के साथ खूब काम किया और चुनाव में जीत भी हासिल हुई। इससे उसकी हैसियत बढ़ी। कहते हैं तभी इसके मन में मथुरा के जवाहरबाग का सपना पला और दो दिन के लिए धरने के नाम पर आसानी से अनुमति ले ली (राजनैतिक निकटता के चलते मिलनी ही थी) और अपनी कथित फौज के साथ रामवृक्ष यादव ने वहां जो अपना डेरा डमाया, उसका अंत कैसे हुआ, यह सबके सामने है। कहते हैं कि उसने मथुरा में कभी भी तेज तर्रार अधिकारियों की अपने राजनैतिक रसूख के दम पर नियुक्ति नहीं होने दी।
मथुरा कांड सोशल मीडिया पर भी खूब वायरल हो रहा है। उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ आईपीएस अमिताभ ठाकुर की फेसबुक वाल खूब सुर्खियों और चर्चा में है, जिसमें लिखा है 'मथुरा की घटना गलत पैसे को हासिल करने की हवस और अनैतिक राजनैतिक शह का ज्वलंत उदाहरण है। हम शीघ्र ही मथुरा जाकर व्यक्तिगत स्तर पर पूरे प्रकरण की जांच करेंगे ताकि इस मामले में असली गुनाहगारों के खिलाफ कार्रवाई कराने में योगदान दे सकें।'
ठाकुर ने पोस्ट में मांग की है कि 'डीएसपी जिया उल हक के परिवार की तरह एसपी सिटी और एसओ के परिवार को भी 50 लाख रुपए और 2 नौकरी का मुआवजा दिया जाए।' लेकिन, उन्होंने सबसे ज्यादा गंभीर आरोप उत्तर प्रदेश के एक मंत्री का नाम लेकर, प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सहयोग का आरोप लगाते हुए जांच की मांग कर सनसनी फैला दी जो कि सत्ताधारी दल समाजवादी पार्टी सुप्रीमो के रक्त संबंधी हैं।
हैरानी वाली बात, रामवृक्ष यादव इतना सब कुछ करता रहा और प्रशासन नाकाम और पंगु कैसे बना रहा! अचरज जरूर होता है, पर बिना शह कैसे संभव है यह?
इस घटना के बाद लोकतंत्र की दुहाई देने वालों के चेहरे भी अचानक लोगों को खुद-ब-खुद याद आने लगे हैं। विशेषकर वे, जो न्यायपालिका-कार्यपालिका-विधायिका की बातें करते हैं। कई मौकों पर न्यायपालिका को उसकी औकात जताने की कोशिश भी करते हैं, नसीहतें देते हैं। मथुरा में सपोला और भी बड़ा भक्षी बनता, उसके पहले ही न्यायपालिका ने तथ्यों से अवगत होते ही दो साल में ही आतंक का साम्राज्य बन चुके रामवृक्ष यादव के आतंक रूपी अतिक्रमण को हटाने के आदेश जारी कर दिए।
भला हो याचिकाकर्ता अधिवक्ता विजयपाल तोमर का जिनकी वजह से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के संज्ञान में पूरा मामला लाया। अगर विधायिका और कार्यपालिका पर सवाल उठते हैं तो क्या गलत? लगता नहीं कि इतना बड़ा मामला शुरू होते ही प्रशासन की जानकारी में न आया हो। बस जवाब इतना ही चाहिए कि प्रशासन, सरकार और सुरक्षा तंत्र नाकाम क्यों रहा? इसका जवाब मिलेगा या नहीं, यह तो पता नहीं पर इतना जरूर पता है कि भला हो भारत की न्यायपालिका का जो कई मौकों पर खुद आगे आकर लोकतंत्र के लिए कड़े फैसले लेती है। भला ये लोकतंत्र के शहंशाहों को क्यों अच्छा लगेगा?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)
--आईएएनएस
मथुरा हिंसा और सत्याग्रह की केंचुल
मथुरा मंे सत्याग्रह की आड़ में कानून हाथ में लिया गया। 'सत्याग्रहियों' ने हिंसा का रास्ता अपनाया और बेगुनाह पुलिस अफसरों को पीटकर और गोलियों से भून डाला। क्या कसूर था उन पुलिस अफसरों का? क्यों की गई उनकी हत्या ? रामवृक्ष के बेतुकी और सनकी मांगों को दो सालों तक क्यों दिया गया संरक्षण?
रामवृक्ष के सत्याग्रह केंचुल ने कई सवाल पैदा किए हैं।
गाजीपुर के एक गांव से दो साल पूर्व पलायन कर मथुरा पहुंचने वाले रामवृक्ष का कुनबा और उसकी विचाराधारा इतनी अतिवादी और हिंसक हो जाएगी, यह किसी की कल्पना में नहीं था। आखिर यह कैसा सत्याग्रह था जिसका मकसद ही हिंसा और अतिवाद पर आधारित था। यह सत्याग्रह की मूल आत्मा को आघात पहुंचाने वाला है।
अतिवाद पर आधारित हिंसा ने सत्याग्रह को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत पैदा की है। गांधीजी और विनोबा जी के सत्याग्रह और उसकी आत्मा को चोट पहुंचाई गई है। लोकतंत्र में विचारों का स्थान है, न कि विकारों और हिंसा का। देश में धर्म, जाति, संप्रदाय, विचाराधारा के नाम पर लाखों एकड़ सार्वजनिक जमीनों पर कब्जा जमाया गया है जहां सरकार, सफेदपोश और अधिकारी जाकर खुद माथा टेकते हैं। धर्म और संप्रदाय की आड़ मंे इस तरह की संस्थाएं फलती-फूलती हैं।
आशाराम और रामपाल, राधे मां और अन्य तमाम धर्मो में वैचारिक पाखंडियों ने इस तरह का विलासिता का साम्राज्य खड़ा किया है। इसका वास्तविक धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है। इस तरह के लोग सिर्फ धर्म और उसकी आत्मा को बदनाम करते हैं और आघात पहुंचाते हैं। धर्म की आड़ में सार्वजनिक जमीनों पर कब्जा किया गया है। हरियाणा में संत रामपाल को सलाखों के पीछे भेजने के लिए पुलिस को हिंसक दौर से गुजरना पड़ा, यह किसी से छुपा नहीं है। इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? किसकी शह पर इन्हें सरकारी जमीनें उपलब्ध कराई जातीं हैं?
धर्म की आड़ में कानूनों, भू-कानूनों का दुरुपयोग जग जाहिर है। यह सब सरकारों के लचर रुख के कारण होता है। रामवृक्ष यादव और उसके अनुयायियों को जिस तरह राजनीतिक संरक्षण दिया गया, वह बिल्कुल गलत था।
लोकतंत्र में गलत परंपराओं की शुरुआत पूरी व्यवस्था का गला घोंट रही है। अभिव्यक्ति की आजादी का अतिवाद लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर रहा है। देश में बढ़ता आतंकवाद, नक्सलवाद और अलगाववाद अभिव्यक्ति की स्वच्छंदता का ही परिणाम है।
मथुरा हिंसा से पुलिस अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती है। प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा रहा कि भगवान कृष्ण की नगरी में रामवृक्ष सरीखे कंस ने खूनी खेल खेला। सत्याग्रह के नाम पर उसके सनकी विचारों को जिस तरह प्रशासनिक संरक्षण दिया गया, आज वही प्रशासन और सरकार की गले की फांस बन गया। दो साल में सत्याग्रह की आड़ में रामवृक्ष ने अपना पूरा साम्राज्य खड़ा कर लिया लेकिन पुलिस उसका कुछ नहीं कर पाई।
सत्याग्रह के लिए महज दो दिन का वक्त लेने वाले रामवृक्ष के संगठन को दो साल का समय कैसे मिल गया? पुलिस विभाग का खुफिया तंत्र क्या कर रहा था? निश्चित रूप से इस मामले में पुलिस विभाग ने जरूरत से अधिक लापरवाही बरती। मथुरा जिला प्रशासन और सरकार ने रामवृक्ष की बढ़ती अतिवादी मांगों पर गौर नहीं किया। खुफिया विभाग ने अगर उसकी तैयारियों और नक्सलवादी विचाराधारा के बारे में जानकारियां जुटाईं होतीं तो आज यह स्थिति नहीं आती। दो पुलिस अफसरों के साथ 28 लोग हिंसक सत्याग्रह की बलि नहीं चढ़ते।
सरकार और जिला प्रशासन ने समय रहते कदम नहीं उठाया। जयगुरुदेव आश्रम में मारपीट करने के बाद उस और समर्थकों पर मुकदमा भी हुआ। उस पर इस दौरान 10 मुकदमे हुए। लेकिन, पुलिस ने यह जांच कभी नहीं कराई कि रामवृक्ष के आजाद हिंद विचाराधारा से कौन, कैसे और कहां के लोग जुड़ रहे हैं और क्यों जुड़ रहे हैं? वह लोगों को अपनी सनक और बेतुकी मांगों से कैसे प्रभावित कर रहा है? इसकी वजह क्या है? जवाहरबाग में जमा ढाई हजार से अधिक लोग और युवा कहां से हैं? संगठन में शामिल इन लोगों की पृष्ठभूमि क्या है? समय रहते पुलिस ने अगर इस तरह की पड़ताल और आवश्यक खुफिया जानकारी जुटाई होती तो आज उसे अपने ही जाबांज पुलिस अफसरों को न खोना पड़ता। लेकिन, दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ।
रामवृक्ष किसी विचारधारा का पोषक नहीं था। वह विचाराधारा की आड़ में जयगुरुदेव का उत्तराधिकारी बन अकूत संपत्ति पर कब्जा करना चाहता था। उसकी तरफ से यह बेतुकी अफवाह फैलाई गई थी कि जयगुरुदेव नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नए अवतार हैं। वह अपने अनुयायियों की एक फौज खड़ी करना चाहता था जिसके लिए उसने नेताजी के विचारों को आगे लाकर गरीब युवाओं को अपना शिकार बनाया।
मथुरा जिला प्रशासन ने वन विभाग की शिकायत पर उसे कई बार जवाहरबाग से बेदखल करने की कोशिश की लेकिन कोशिश नाकाम रही। उसके समर्थक इतने उग्र थे कि अधिकारियों को बंधक बना लेते और हिंसा पर उतर आते। पुलिस पीछे हट जाती। उसी का नतीजा है कि उसने बाग की 270 एकड़ जमीन पर कब्जा जमा लिया था। इसे खाली कराने के लिए पुलिस को अपने दो जांबाज अफसरों एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी और एसएचओ फरह संतोष यादव को खोना पड़ा।
सरकार प्रतिपक्ष के निशाने पर है क्योंकि अगले साल राजनीतिक लिहाज से सबसे बड़े राज्य में आम चुनाव होने हैं। लिहाजा भाजपा, बसपा और कांग्रेस जैसे दल चुप कहां बैठने वाले हैं। भाजपा के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं है। उसे सरकार को घेरने का अच्छा मौका मिल गया है। हलांकि, यह वक्त राजनीति का नहीं है। सत्ता किसी के भी हाथ में हो, होनी को नहीं रोका जा सकता है। लेकिन, आवश्यक कदम उठा कर इसकी भयावहता कम की जा सकती थी।
रामवृक्ष यादव को प्रदेश सरकार की तरफ से 15 हजार पेंशन भी दी जाती रही।
इस आंदोलन के पीछे किसी राष्ट्रविरोधी संगठन की साठ-गांठ हो सकती है। कथित सत्याग्रहियों की पूरी कार्यप्रणाली नक्सलियों के तरीकों पर आधारित रही। नक्सलवाद, आतंकवाद आज इसी तरह की संस्थाओं और संगठनों का अतिवाद है। इसकी पीड़ा देश को अलग-अलग हिस्सों में झेलनी पड़ रही है।
लोकतंत्र में अपने अधिकारों के लिए सभी को समान अवसर उपलब्ध हैं। लेकिन, अधिकारों की आड़ में संबंधित आंदोलन की दिशा क्या है, इस पर भी विचार होना चाहिए। इस तरह के संगठन, संस्थाओं और संप्रदायों पर प्रतिबंध लगना चाहिए जो विचाराधारा और धर्म की आड़ में कानून को हाथ में लेकर खूनी खेल खेलते हैं। सरकारों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए जिससे मथुरा जैसी कंसलीला पर प्रतिबंध लगाया जा सके। यह समय की मांग है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। आईएएनएस/आईपीएन)
--आईएएनएस
मप्र : राज्यसभा चुनाव ने शिवराज को धर्मसंकट में डाला
भोपाल, 5 जून (आईएएनएस)। सियासत में जीत हर दल और नेता के लिए अहम होती है, मगर ऐसे मौके कम ही आते हैं, जब किसी दल के मुख्यमंत्री के लिए विरोधी दल के नेता के खिलाफ अपने ही दल के सदस्य की उम्मीदवारी धर्मसंकट में डालने वाली हो। यह स्थिति चाहे किसी और के लिए बनी हो या नहीं, परंतु मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए जरूर बन गई है।
राज्य से राज्यसभा के लिए तीन सदस्यों का चुनाव होना है, मगर मैदान में चार उम्मीदवार हैं, लिहाजा 11 जून को मतदान होगा, इसमें भाजपा के दो उम्मीदवारों अनिल माधव दवे और एम. जे. अकबर का चुना जाना तय है, क्योंकि जीत के लिए जरूरी विधायक उनके पास हैं, वहीं पार्टी के पदाधिकारी विनोद गोटिया को बतौर निर्दलीय उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस के उम्मीदवार विवेक तन्खा की राह में कांटे बिछाने की कोशिश की गई है।
राज्य में भाजपा के कई नेताओं से तन्खा की नजदीकी के चलते पार्टी की राज्य इकाई से लेकर मुख्यमंत्री चौहान तक तीसरा उम्मीदवार उतारने के पक्ष में नहीं थे, इतना ही नहीं दो भाजपा नेताओं ने तो निर्दलीय चुनाव लड़ने से ही इंकार कर दिया, मगर हाईकमान के निर्देश पर गोटिया को निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतारना पड़ा है।
वरिष्ठ पत्रकार एल.एस. हरदेनिया कहते हैं कि बीते 10 वर्षो में पहली बार ऐसा हुआ है, जब मुख्यमंत्री चौहान की इच्छा को नजरअंदाज कर राज्यसभा में तीसरे उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतारा गया हो। पिछले राज्यसभा चुनाव में तो चौहान ने तन्खा को भाजपा का उम्मीदवार बनाने की कोशिश की थी, मगर सफल नहीं हुए थे। तन्खा की चौहान से करीबी किसी से छुपी हुई नहीं है।
हरदेनिया का कहना है कि राज्य में अब तक वही हुआ है जो चौहान ने चाहा है। चाहे मंत्री बनाने की बात हो, निगम व मंडलों की नियुक्तियां हो या पार्टी का प्रदेशाध्यक्ष के चयन का मामला, सभी फैसले चौहान की मर्जी की मुताबिक हुए हैं। राज्यसभा में तीसरे उम्मीदवार को मैदान में उतारा जाना चौहान को अस्थिर करने का भी संकेत दे रहा है। इस चुनाव में तन्खा की हार या जीत दोनों ही चौहान पर असर डालेंगी, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि तन्खा जीते तो पार्टी की इच्छा हारेगी और गोटिया जीते तो मित्र हारेगा।
वहीं वरिष्ठ पत्रकार गिरिजा शंकर का मानना है कि भाजपा द्वारा मध्य प्रदेश की तरह अन्य स्थानों पर भी निर्दलीय उम्मीदवार उतारने का प्रयोग किया गया है। इसके उसे तीन लाभ हैं। विधायकों की खरीद-फरोख्त होती है तो उस पर आरोप नहीं लगेगा, हार से पार्टी के मनोबल पर कोई असर नहीं हेागा और जो विधायक अपने दल के उम्मीदवार को वोट नहीं करना चाहेंगे वे निर्दलीय को वोट कर सकेंगे।
उनका कहना है कि अगर सिर्फ मध्य प्रदेश में निर्दलीय उम्मीदवार को उतारा गया होता तो जरूर चौहान पर असर होता, मगर निर्दलीय उम्मीदवार का फैसला राज्य स्तर पर नहीं केंद्रीय स्तर पर हुआ है, इसलिए निर्दलीय को जिताने की सारी रणनीति केंद्रीय स्तर पर ही बनाई जा रही है। लिहाजा चौहान पर तीसरे उम्मीदवार की हार-जीत का कोई असर नहीं पड़ेगा।
राजनीति के जानकारों की मानें तो तन्खा व चौहान दोनों के रिश्ते मधुर हैं, यह बात मौके बेमौके पर सामने आती भी रही हैं। यही कारण है कि पिछले राज्यसभा के चुनाव में चौहान ने तन्खा को उम्मीदवार बनाने का हरसंभव प्रयास किया था, मगर पार्टी की सदस्यता के मुद्दे पर मामला गड़बड़ा गया था।
ज्ञात हो कि राज्य से राज्यसभा के तीन सदस्यों का निर्वाचन होना है, एक उम्मीदवार की जीत के लिए 58 विधायकों का समर्थन आवश्यक है। राज्य विधानसभा में कुल 230 विधायक है, इनमें से भाजपा के 166 विधायक (विधानसभाध्यक्ष सहित) हैं।
इस तरह भाजपा के दो सदस्यों अनिल माधव दवे व एम जे अकबर की जीत तय है और तीसरी सीट जीतने के लिए उसे आठ विधायकों के समर्थन की जरुरत है, वहीं कांग्रेस के पास 57 विधायक है और उसे एक वोट की जरुरत है। बसपा ने तन्खा को समर्थन देकर उनकी स्थिति को और मजबूत कर दिया है, मगर चिंता अब भी बनी हुई है क्योंकि कांग्रेस के दो विधायक बीमार है और एक जेल में है।
भाजपा को राज्यसभा की तीसरी सीट जीतना है तो उसे कांग्रेस में सेंध लगाना आवश्यक होगी, इसके लिए भाजपा द्वारा कांग्रेस की कमजोर कड़ी को खोजा भी जा रहा है। कांग्रेस के कुछ विधायक उसके संपर्क में भी हैं।
-- आईएएनएस
सौंदर्य पाठ्यक्रमों से दें करियर को पंख
एस्थेटिशियन, कॉस्मेटोलोजिस्ट और एल्प्स ब्यूटी एकैडमी एंड ग्रुप की संस्थापक निदेशक भारती तनेजा के मुताबिक, "इन दिनों सौंदर्य और मेकअप के कई पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं। ऐसे में अपने लिए एक सही पाठ्यक्रम ढूंढना आसान नहीं है।"
भारती ने सौंदर्य से जुड़े कुछ पाठ्यक्रमों के बारे में जानकारी दी है :
मेकअप की कला : इस पाठ्यक्रम से चेहरे की वे सभी समस्याएं दूर करने में मदद मिलती है, जिनका लोग सामना करते हैं और जिन्हें दूर करना चाहते हैं जैसे कि डबल चिन, सपाट नाक और अन्य प्राकृतिक या चोट के निशान, मुंहासे, जले के निशान और त्वचा की अन्य समस्याएं। यह पाठ्यक्रम आपको मेकअप की कला के माध्यम से अपने चेहरे की कमियों को छिपाना सिखाता है।
यह पाठ्यक्रम पूरा करके आप किसी अच्छे मेकअप स्टूडियो में मेकअप आर्टिस्ट के रूप में काम कर सकते हैं या फिर अपना पार्लर खोलकर अच्छी कमाई कर सकते हैं।
बेसिक ब्यूटी केयर : अगर आप किसी ब्रांडिड सैलोन में सौंदर्य विशेषज्ञ के रूप में काम करना चाहते हैं या अपना सलोन खोलना चाहते हैं तो यह पाठ्यक्रम आपके लिए उपयुक्त है। इस क्षेत्र में सफल होने के लिए आपको बुनियादी बातें सीखनी होंगी। बुनियादी बातों से शुरू हुआ यह पाठ्यक्रम आपके सफल करियर की मजबूत नींव रख सकता है।
बेसिक हेयर कटिंग : बालों को सजाना-संवारना एक फलता-फूलता व्यवसाय है। एक हेयरड्रेसर बनकर आप अपने करियर में काफी आगे जा सकते हैं। यह पाठ्यक्रम करने वाले छात्रों को नियमित प्रशिक्षण दिया जाता है जिससे वे बाल काटने से जुड़ी सभी बुनियादी और उच्च ज्ञान प्राप्त कर पाते हैं।
क्रिएटिव कलरिंग : हेयर कलरिंग काफी फैशन में हैं। यह पाठ्यक्रम आपको सर्वश्रेष्ठ ब्रांड्स और नवीनतक ट्रेंड्स के साथ हेयर कलरिंग की नवीनतम तकनीकों में प्रशिक्षत करता है।
नेल आर्ट : नेल आर्टिस्ट इन दिनों अपना नेल स्टूडियो खोलकर अच्छी कमाई कर रहे हैं। अगर आपमें कला के प्रति रुझान है तो यह पाठ्यक्रम आपके लिए बिल्कुल उपयुक्त है। इसे करने के बाद आप अपना विशिष्ट नेल आर्ट स्टूडियो खोल सकते हैं या फिर विभिन्न सौंदर्य क्लिनिक्स में नेल आर्ट आर्टिस्ट के तौर पर काम कर सकते हैं।
हेयर स्टाइलिंग : यह पाठ्यक्रम आपको खास कौशल सिखाता है जो समय और अनुभव के साथ बढ़ता जाता है। इससे छात्रों को जरूरी कुशलता ही नहीं मिलती, बल्कि उन्हें बालों की प्रकृति और टेक्सचर्स के बारे में वैज्ञानिक ज्ञान भी मिलता है। इस पाठ्यक्रम में छात्रों को बालों के विभिन्न टेक्सचर्स, लंबाई, पेशे और अवसरों के अनुसार बुनियादी हेयरस्टाइल्स सिखाए जाते हैं।
--आईएएनएस
साइबर अपराध में 10 साल में 19 गुना इजाफा
भारत में पिछले 10 सालों में (2005-14) साइबर अपराध के मामलों में 19 गुना बढ़ोतरी हुई है। इंटरनेट पर 'दुर्भावनापूर्ण गतिविधियों' के मामले में भारत का अमेरिका और चीन के बाद तीसरा स्थान है।
वहीं, दुर्भावनापूर्ण कोड के निर्माण में भारत का स्थान दूसरा और वेब हमले और नेटवर्क हमले के मामले में क्रमश: चौथा और आठवां स्थान है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े के मुताबिक साइबर अपराधियों की गिरफ्तारी में 9 गुना बढ़ोतरी हुई है। साल 2005 में जहां 569 साइबर अपराधी पकड़े गए थे, वहीं 2014 में इनकी संख्या 5,752 हो गई।
वहीं, इस दौरान भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं का आंकड़ा बढ़कर 40 करोड़ हो गया, जिसके जून 2016 तक 46.2 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है।
2014 में कुल 9,622 साइबर मामले दर्ज किए गए जो कि साल 2013 से 69 फीसदी अधिक है।
इंडियास्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक पेरिस की गैर सरकारी संस्था द्वारा जारी साल 2015 की प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत का स्थान 136वां है, तुर्की का 149वां और रूस का 152वां है।
भारत में साइबर अपराधों में मुख्यत: अश्लीलता, धोखाधड़ी और यौन शोषण शामिल है। आई एक्ट के तहत अश्लीलता के कुल 758 मामले दर्ज किए गए हैं। वहीं, धोखाधड़ी के 1,115 मामले दर्ज किए गए।
2014 में वित्तीय धोखाधड़ी से जुड़े कुल 1,736 साइबर मामले दर्ज किए गए। महाराष्ट्र में सबसे अधिक साइबर मामले साल 2014 में 1,879 दर्ज किए गए, जबकि इससे पिछले साल कुल 907 मामले दर्ज किए गए थे।
उसके बाद उत्तर प्रदेश का स्थान है जहां 1,737 मामले दर्ज हुए। इनके बाद कर्नाटक (1,020), तेलंगाना (703) और राजस्थान (697) का नंबर है।
देश में साइबर अपराध के मामलों में कुल 5,752 लोगों की गिरफ्तारी की गई जिनमें से 8 विदेशी थे। इनमें से 95 फीसदी आरोपियों पर आरोप साबित हुआ, जबकि 276 आरोपी बरी हो गए।
साइबर अपराध के आरोप में उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादा कुल 1,223 गिरफ्तारियां की गई, जिसके बाद महाराष्ट्र (942), तेलंगाना (429), मध्य प्रदेश (386) और कर्नाटक (372) का नंबर है।
2016 के पहले तीन महीनों में 8,000 से ज्यादा वेबसाइटों को हैक किया गया तथा 13,851 स्पैम उल्लंघन की जानकारी मिली है। राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में यह जानकारी दी गई है।
पिछले पांच सालों में फिशिंग, स्कैनिंग, दूर्भावनपूर्ण कोड का निर्माण जैसे साइबर सुरक्षा अपराधों में 76 फीसदी वृद्धि हुई है। साल 2011 में 28,127 से बढ़कर यह 2015 में 49,455 हो गया।
राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में दी गई जानकारी के मुताबिक एटीएम, क्रेडिट/डेबिट कार्ड और नेट बैंकिंग संबंधित धोखाधड़ी के 2014-15 में 13,083 मामले और 2015-16 (दिसंबर तक) में 11,997 मामले दर्ज किए गए।
पिछले तीन वित्त वर्ष, 2012-13 से 2014-15 तक एटीएम, क्रेडिट/डेबिट कार्ड और नेट बैंकिंग से कुल 226 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी की गई।
दिल्ली उच्च न्यायालय की एक समिति की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2013 मेंकुल 24,630 करोड़ रुपये के साइबर अपराध दर्ज किए गए। जबकि विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में कुल 25,12,500 करोड़ रुपये के साइबर अपराध के मामले सामने आए।
(गैर लाभकारी पत्रकारिता मंच इंडियास्पेंड के साथ एक व्यवस्था के तहत)
--आईएएनएस
विश्व तंबाकू निषेध दिवस पर विशेष: तंबाकू से देश में हर घंटे 114 लोगों की मौत
संदीप पौराणिक
भोपाल, 30 मई (आईएएनएस)। तंबाकू का सेवन मौत का कारण बनता जा रहा है। देश में हर रोज (24 घंटे) 2800 से ज्यादा लोगों की मौत तंबाकू के उत्पाद अथवा अन्य धूम्रपान का सेवन करने की वजह से हो रही है। इस तरह हर घंटे 114 लोगों की मौत का कारण तंबाकू है। इतना ही नहीं दुनिया में हर छह सेकेंड में एक व्यक्ति की मौत का कारण तंबाकू और धूम्रपान का सेवन है, यही कारण है कि जनजागृति लाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने विश्व तंबाकू निषेध दिवस (31 मई) पर तंबाकू उत्पादों पर चेतावनी को ज्यादा स्थान देने पर जोर दिया है।
तंबाकू उत्पादों और धूम्रपान से होने वाली बीमारियां और मौतों की रोकथाम के ध्यान में रखकर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लयूएचओ) द्वारा वर्ष 2016 की थीम 'तंबाकू उत्पादों पर प्लेन पैकेजिग' रखी गई है। इसका आशय यह है कि समस्त तंबाकू उत्पादों के पैकेट का निर्धारित रंग हो और उस पर 85 प्रतिशत सचित्र चेतावनी हो तथा उस पर लिखे शब्दों का साइज भी निर्धारित मात्रा में हो, इसके साथ ही इन उत्पादों पर कंपनी को केवल अपने ब्रांड का नाम लिखने की आजादी हो।
वॉयस आफ टोबेको विक्टिमस ने डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों का जिक्र करते हुए बताया कि एक सिगरेट जिदगी के 11 मिनट छीन लेता है। तंबाकू व धूम्रपान उत्पादों के सेवन से हमारे देश में प्रतिघंटा 114 लोग जान गंवा रहे है। वहीं दुनिया में प्रति छह सेकेंड में एक मौत हो रही है।
वीओटीवी ने वैश्विक वयस्क तंबाकू सर्वेक्षण (गेट्स) का हवाला देते हुए बताया कि मध्य प्रदेश के 39़ 5 फीसदी वयस्क(15 वर्ष से अधिक) आबादी तम्बाकू का किसी न किसी रूप में प्रयोग करते हैं, जिसमें 58़ 5 प्रतिशत पुरुष और 19 प्रतिशत महिलाएं हैं। वहीं देशभर में 20 प्रतिशत महिलाएं तंबाकू उत्पादों का शौक रखती हैं। सर्वे के अनुसार देश की 10 फीसदी लड़कियों ने स्वयं सिगरेट पीने की बात को स्वीकारा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट ग्लोबल टोबेको एपिडेमिक पर अगर नजर डालें तो पता चलता है कि महिलाओं में तंबाकू के सेवन का आंकड़ा निरंतर बढ़ता जा रहा है। इनमें किशोर व किशोरियां भी शामिल हैं। जो कि मध्य प्रदेश की कुल आबादी का करीब 17 फीसदी है। यह सर्वेक्षण 2010 का है। गेट्स का सर्वे भारत में 2016 में होना प्रस्तावित है।
गेट्स (भारत 2010) के अनुसार रोकी जा सकने योग्य मौतों एवं बीमारियों में सर्वाधिक मौतें एवं बीमारियां तंबाकू के सेवन से होती हैं। विश्व में प्रत्येक 10 में से एक वयस्क की मृत्यु के पीछे तंबाकू सेवन ही है। विश्व में प्रतिवर्ष 55 लाख लोगों की मौत तंबाकू सेवन के कारण होती है। विश्व में हुई कुल मौतों का लगभग पांचवां हिस्सा भारत में होता है।
वायॅस अफ टोबेको विक्टिमस के पैट्रन व मध्यप्रदेश मेडिकल आफीसर एसोसिएशन के संरक्षक डा़ ललित श्रीवास्तव ने बताया कि तंबाकू उद्योग द्वारा तंबाकू के प्रति युवकों को आकíषत करने के प्रतिदिन नए नए प्रयास किए जा रहे हैं। 'युवास्वस्था में ही उन्हें पकड़ो' उनका उद्देश्य है, तंबाकू उत्पादों को उनके समक्ष व्यस्कता, आधुनिकता, अमीरी और वर्ग मानक और श्रेष्ठता के पर्याय के रूप में पेश किया जाता है।
वायॅस आफ टोबेको विक्टिमस के मुताबिक हाल ही में प्रारंभिक शोधों में सामने आया है कि तंबाकू का सेवन करने वालों के जीन में भी आंशिक परिवर्तन होते हैं जिससे केवल उस व्यक्ति में ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों में भी कैंसर होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसके साथ ही इन उत्पादों के सेवन से जहां पुरुषों में नपुंसकता बढ़ रही है वहीं महिलाओं में प्रजनन क्षमता भी कम होती जा रही है।
डा़ श्रीवास्तव ने बताया कि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान (आईसीएमआर) की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि पुरुषों में 50 प्रतिशत और स्त्रियों में 25 प्रतिशत कैंसर की वजह तम्बाकू है। इनमें से 90 प्रतिशत में मुंह का कैंसर होता है।
वायॅस आफ टोबेको विक्टिमस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी संजय सेठ ने कहा कि सरकार को सम्पूर्ण राज्य में कोटपा एक्ट को कठोरता से लागू करना चाहिए ताकि बच्चे व युवाओं की पहुंच से इसे दूर किया जा सके। सभी आधुनिक और प्रगतिशील राज्यों को अपने नागरिकों के लिए एक स्वस्थ वातावरण प्रदान करने के लिए कोटपा कानून को कड़ाई से लागू किया जाना अतिआवश्यक है। कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों की पुलिस ने तंबाकू व अन्य धूम्रपान उत्पादों की खपत को कम करने में सराहनीय भूमिका निभाई है।
उन्होंने बताया कि भारत में 5500 बच्चे हर दिन तंबाकू सेवन की शुरुआत करते हैं और वयस्क होने की आयु से पहले ही तम्बाकू के आदी हो जाते हैं। तंबाकू उपयोगकर्ताओं में से केवल तीन प्रतिशत ही इस लत को छोड़ने में सक्षम हैं।
वीओटीवी की आशिमा सरीन ने बताया कि तंबाकू उत्पादों की बढ़ती खपत सभी के लिए नुकसानदायक है। इससे जहां जनमानस को शारीरिक, मानसिक और आíथक भार झेलना पड़ता है वहीं सरकार को भी आíथक भार वहन करना पड़ता है। इसलिए तंबाकू पर टैक्स बढ़ाने की नीति को निरतर बनाए रखना चाहिए या फिर इस पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।
उन्होंने बताया कि दुनियाभर में होने वाली हर पांच मौतों में से एक मौत तंबाकू की वजह से होती है तथा हर छह सेकेंड में होने वाली एक मौत तंबाकू और तंबाकू जनित उत्पादों के सेवन से होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि सन 2050 तक 2-2 अरब लोग तंबाकू या तंबाकू उत्पादों का सेवन कर रहे होंगे।
--आईएएनएस
मौत के नजदीक लाता है सिगरेट का हर कश
नई दिल्ली, 30 मई (आईएएनएस)। तंबाकू उत्पादों के डिब्बों पर इसके सेवन से होने वाले नुकसान के संदेश चाहे कितने ही डरावने क्यों न हों, इसके बावजूद महिलाओं में धूम्रपान की लत बढ़ती ही जा रही है। 21वीं सदी में सार्वजनिक स्वास्थ्य की एक सबसे बड़ी जिम्मेदारी महिलाओं को धूम्रपान की लत से बचाना होगा।
खतरे वाली बात तो यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के मुताबिक, तंबाकू के सेवन से वर्तमान में दुनिया भर में प्रत्येक साल 50 लाख लोगों की मौत होती है और अनुमान के मुताबिक, धूम्रपान से साल 2016 से 2030 के बीच की अवधि में 80 लाख लोग तथा 21वीं सदी में कुल एक अरब लोगों की मौत होगी।
दुनिया भर में साल 2010 में महिलाओं को सिगरेट के विपणन के साथ लिंग तथा तंबाकू के बीच संबंध स्थापित करने के इरादे से वर्ल्ड नो टोबैको डे शुरू किया गया। यह विषय तंबाकू से महिलाओं व लड़कियों को होने वाले नुकसान से लोगों को जागरूक करने के लिए शुरू किया गया और इसे हर साल मनाया जा रहा है।
महिलाएं/लड़कियां धूम्रपान को अभिव्यक्ति की आजादी समझने लगी हैं। यह आवश्यक है कि महिलाओं का सशक्तीकरण जारी रखना चाहिए, महिलाओं के बीच धूम्रपान की बढ़ती लत के संभावित खतरों तथा जिस प्रकार सिगरेट उद्योग कथित सामाजिक परिवर्तन के लिए महिलाओं को लक्षित कर रहा है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
किशोरावस्था में लड़कियां धूम्रपान की शुरुआत करती हैं और साल दर साल इनकी संख्या बढ़ती ही जाती है। इस बात के हालांकि सबूत हैं कि लड़कियों द्वारा धूम्रपान शुरू करने के कारण लड़कों द्वारा धूम्रपान करने के वजहों से अलग है।
बच्चों का मात-पिता से संबंध भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। किशोरों की चाहत माता-पिता, स्कूल व समुदाय से अधिक से अधिक जुड़ाव की होती है। दुर्भाग्यवश, आज के दौर में माता-पिता अपने बच्चों को समय नहीं दे पाते, जिसके कारण उनके बच्चे की उनकी गलत संगति में पड़ने की संभावना अधिक हो जाती है।
आधी सदी पहले फेफड़े के कैंसर से महिलाओं की तुलना में पांच गुना ज्यादा पुरुष मरते थे। लेकिन इस सदी के पहले दशक में यह खतरा पुरुष व महिला दोनों के लिए ही बराबर हो गया। धूम्रपान करने वाले पुरुषों व महिलाओं के फेफड़े के कैंसर से मरने का खतरा धूम्रपान न करने वालों की तुलना में 25 गुना अधिक होता है।
धूम्रपान करने वाली महिलाओं के बांझपन से जूझने की भी संभावना होती है। सिगरेट का एक कश लगाने पर सात हजार से अधिक रसायन संपूर्ण शरीर व अंगों में फैल जाते हैं। इससे अंडोत्सर्ग की समस्या, जनन अंगों का क्षतिग्रस्त होना, अंडों को क्षति पहुंचना, समय से पहले रजोनिवृत्ति व गर्भपात की समस्या पैदा होती है।
अब भी वक्त है, धूम्रपान छोड़ दीजिए। धूम्रपान छोड़ने से लंबे समय तक स्वस्थ रहने व जीने का संभावना बढ़ जाती है।
--आईएएनएस
दिल, दल और दर्द
राजनीति में अक्सर दिलचस्प रिश्ते बनते हैं। इसमें दुहाई दिल की दी जाती है लेकिन दल, दर्द और पद लिप्सा के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। एक समय था तब बेनी प्रसाद वर्मा सपा में अमर सिंह के बढ़ते प्रभाव से बहुत नाराज हुए थे। अंतत: इसी मसले पर उन्होंने सपा छोड़ दी थी। दूसरी तरफ अमर सिंह को लग रहा था कि सपा में उनकी उपेक्षा हो रही है। रामगोपाल यादव और आजम खां जैसे दिग्गज उन्हें बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे।
उस समय अमर सिंह को सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के सहारे की बड़ी जरूरत थी, लेकिन ऐसा लगा कि मुलायम सिंह रामगोपाल और आजम पर रोक नहीं लगाना चाहते। दोनों नेताओं ने अमर के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। उस दौरान अमर भावुक हुआ करते थे। वह बीमार थे। विदेश में उनका आपरेशन हुआ। उन्होंने अपने को बीमार बना लिया। अमर के इस भावुक कथन के बावजूद मुलायम सिंह कठोर बने रहे। रामगोपाल और आजम लगातार मुखर रहे। मुलायम की खामोशी जब अमर को हद से ज्यादा अखरने लगी तो वह भी सपा से दूर हो गए।
सियासी रिश्तों का संयोग देखिए बेनी प्रसाद वर्मा और अमर सिंह की सपा में वापसी एक साथ हुई, इतना ही नहीं राज्यसभा की सदस्यता से उनका स्वागत किया गया। कभी सपा में अमर के बढ़ते कद से बेनी खफा थे, अब बराबरी पर हुई वापसी से संतुष्ट हैं। वैसे इसके अलावा इनके सामने कोई विकल्प नहीं था। सियासत में पद ही संतुष्टि देते हैं।
जाहिर तौर पर सपा की सियासत का यह दिलचस्प अध्याय है। सभी संबंधित किरदार वही हैं, केवल भूमिका बदल गई है। बेनी प्रसाद वर्मा को अब अमर सिंह के साथ चलने में कोई कठिनाई नहीं है। एक समय था जब उन्होंने अमर सिंह को समाजवादी मानने से इंकार कर दिया था। रामगोपाल यादव और आजम खां भी अपनी जगह पर हैं। फर्क यह हुआ कि पहले खूब डॉयलॉग बोलते थे, अब मूक भूमिका में हैं। जिस बैठक में अमर सिंह को राज्यसभा भेजने का फैसला हो रहा था उसमें आजम देर से पहुंचे और जल्दी निकल गए। मतलब छोटा सा रोल था जितना विरोध कर सकते थे किया। जब महसूस हुआ कि अब पहले जैसी बात नहीं रही, तो बैठक छोड़कर बाहर आ गए।
चार वर्षो में पहली बार आजम को अनुभव हुआ कि उनकी हनक कमजोर पड़ गई है। पहले वह मुद्दा उछालते थे और मुलायम सिंह यादव ही नहीं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी उसका समर्थन करना पड़ता था। यह स्थिति राज्यसभा के पिछले चुनाव तक कायम थी। बताया जाता है कि दो वर्ष पहले मुलायम सिंह ने अमर सिंह को राज्यसभा में भेजने का मन बना लिया था लेकिन आजम खां अड़ गए थे। मुलायम को फैसला बदलना पड़ा। वह चाह कर भी तब अमर सिंह को राज्यसभा नहीं भेज सके थे। आजम के तेवर आज भी कमजोर नहीं हैं लेकिन मुलायम सिंह पहले जैसी भूमिका में नहीं थे। इस बार वह आजम खान की बात को अहमियत देने को तैयार नहीं थे। आजम ने हालात समझ लिए।
बताया जाता है कि आजम ने इसीलिए अमर सिंह के मामले को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया। वह जानते हैं कि अमर सिंह के साथ जयप्रदा की भी वापसी होगी। जयप्रदा के संबंध में आजम ने जो कहा था उसके बाद शायद दोनों का एक-दूसरे से आंख मिलाना भी मुनासिब न हो लेकिन राजनीति में कुछ भी हो सकता है। मुलायम सिंह इस बार अमर सिंह के मामले में कठोर हो चुके थे। वैसे भी लुका-छिपी का खेल बहुत हो चुका था। पिछले कई वर्षो से वह सपा के मंच पर आ रहे थे।
अमर से इस विषय में सवाल होते थे। उनका जवाब होता था कि वह समाजवादी नहीं वरन मुलायमवादी हैं। इस कथन से वह अपने अंदाज में बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खां, रामगोपाल यादव आदि विरोधियों पर भी तंज कसते थे। ये लोग अमर पर समाजवादी न होने का आरोप लगाते थे। इसीलिए अमर ने कहा कि वह मुलायमवादी हैं। अर्थात जहां मुलायम होंगे, घूमफिर कर वह भी वहीं पहुंच जाएंगे। ये बात अलग है कि यह मुलायम वाद भी सियासी ही था। अन्यथा अमर सिंह विधानसभा चुनाव में मुलायम की पार्टी को नुकसान पहुंचाने में जयप्रदा के साथ अपनी पूरी ताकत न लगा देते। इतना ही नहीं अमर ने यह भी कहा था कि वह जीते जी कभी न तो सपा में जाएंगे न मुलायम से टिकट मांगेंगे। लेकिन वक्त बलवान होता है। कभी मुलायम की जड़ खोदने में ताकत लगा दी थी आज मुलायमवादी हैं। इसी प्रकार बेनी प्रसाद वर्मा ने भी मुलायम के विरोध में कसर नहीं छोड़ी थी, अब साथ हैं।
इस प्रकरण में दो बातें विचारणीय है। एक यह कि बेनी प्रसाद वर्मा, अमर सिंह, आजम खां, रामगोपाल यादव सभी बयानवीर हैं। ऐसे में अब कौन बाजी मारेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। दूसरा यह कि अब मुलायम सिंह की मेहरबानी किस पर अधिक होगी। रामगोपाल यादव पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं लेकिन प्रदेश से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर आजम खां बयान जारी न करें। वह अपनी बात सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से प्रारंभ करते हैं। फिर जरूरत पड़ी तो संयुक्त राष्ट्र संघ तक चले जाते हैं। कई बार लगता है कि सपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष और राष्ट्रीय प्रवक्ता के लिए कुछ करने को बचा ही नहीं है। आजम अकेले ही कसर पूरी कर देते हैं अब इस मामले में उनका सीधा मुकाबला बेनी प्रसाद वर्मा और अमर सिंह से होगा। क्योंकि ये नेता भी किसी विषय पर बिना बोले रह नहीं सकते लेकिन इस बार मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह को ही सर्वाधिक तरजीह दी है।
पार्टी के कोर ग्रुप को इसका बखूबी एहसास भी हो गया है। बेनी प्रसाद वर्मा की वापसी और उन्हें राज्यसभा में भेजने का कोई विरोध नहीं था। इसके विपरीत अमर सिंह को रोकने के लिए बेनी प्रसाद वर्मा, आजम और रामगोपाल ने जोर लगाया था, लेकिन मुलायम ने इनके विरोध को सिरे से खारिज किया है। इसका मतलब है कि वह इन तीनों नेताओं की सीमा निर्धारित करना चाहते हैं। यह बताना चाहते हैं कि विधायकों की जीत में इनका योगदान बहुत सीमित रहा है। इन विधायकों के बल पर किसे राज्यसभा भेजना है, इसका फैसला मुलायम ही लेंगे। इस फैसले ने सपा में अमर सिंह के विरोधियों को निराश किया है। समाजवादी पार्टी में इस मुलायमवादी नेता का महत्व बढ़ेगा।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
--आईएएनएस
बुंदेलखंड के दूसरा राजस्थान बनने का खतरा : राजेंद्र सिंह
संदीप पौराणिक
छतरपुर (मप्र), 29 मई (आईएएनएस)। जलपुरुष के नाम से चर्चित और प्रतिष्ठित स्टॉकहोम वाटर प्राइज से सम्मानित राजेंद्र सिंह ने सूखा की मार झेल रहे बुंदेलखंड के दूसरे राजस्थान (रेगिस्तान) बनने की आशंका जताई है।
सूखा प्रभावित क्षेत्रों में चार सामाजिक संगठनों द्वारा निकाली जा रही जल-हल यात्रा में हिस्सा लेने आए राजेंद्र सिंह ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, "राजस्थान तो रेत के कारण रेगिस्तान है, मगर बुंदेलखंड हालात के चलते रेगिस्तान में बदल सकता है। यहां के खेतों की मिट्टी के ऊपर सिल्ट जमा हो रही है, जो खेतों की पैदावार को ही खत्म कर सकती है।"
सिंह ने कहा कि जल-हल यात्रा के दौरान टीकमगढ़ और छतरपुर के तीन गांव की जो तस्वीर उन्होंने देखी है, वह डरावनी है। यहां इंसान को खाने के लिए अनाज और पीने के लिए पानी आसानी से सुलभ नहीं है। जानवरों के लिए चारा और पानी नहीं है। रोजगार के अभाव में युवा पीढ़ी पलायन कर गई है। इतना ही नहीं, नदियां पत्थरों में बदलती नजर आती हैं, तो तालाब गड्ढे बन गए हैं।
उन्होंने कहा कि इन सब स्थितियों के लिए सिर्फ प्रकृति को दोषी ठहराना उचित नहीं है। इसके लिए मानव भी कम जिम्मेदार नहीं है। ऐसा तो है नहीं कि बीते तीन वर्षो में बारिश हुई ही नहीं है। जो बारिश का पानी आया उसे भी हम रोक नहीं पाए। सरकारों का काम सिर्फ कागजों तक रहा। यही कारण है कि बीते तीन वर्षो से यहां सूखे के हालात बन रहे हैं। अब भी अगर नहीं चेते तो इस इलाके को दूसरा राजस्थान बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।
जलपुरुष का मानना है कि अब भी स्थितियों को सुधारा जा सकता है, क्योंकि मानसून करीब है। इसके लिए जरूरी है कि बारिश के ज्यादा से ज्यादा पानी को रोका जाए, नदियों को पुनर्जीवित करने का अभियान चले, तालाबों को गहरा किया जाए, नए तालाब बनाए जाएं। बारिश शुरू होने से पहले ये सारे प्रयास कर लिए गए, तो आगामी वर्ष में सूखा जैसे हालात को रोका जा सकेगा, अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर क्या होगा, यह तो ऊपर वाला ही जाने।
एक सवाल के जवाब में सिंह ने आईएएनएस से कहा, "अब तक दुष्काल का असर सीधे तौर पर गरीबों और जानवरों पर पड़ता था, मगर इस बार का असर अमीरों पर भी है। हर तरफ निराशा का भाव नजर आ रहा है, जो समाज के लिए ठीक नहीं है। वहीं मध्य प्रदेश की सरकार इससे अनजान बनी हुई है। यहां देखकर यह लगता ही नहीं है कि राज्य सरकार इस क्षेत्र के सूखे और अकाल को लेकर गंभीर भी है।"
देश के चार सामाजिक संगठनों स्वराज अभियान, एकता परिषद, नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) और जल बिरादरी ने मिलकर सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किए गए दिशा निर्देशों से हर किसी को जागृत करने और जमीनी हालात जानने के लिए जल-हल यात्रा निकाली है। यह यात्रा मराठवाड़ा के बाद बुंदेलखंड में चल रही है।
उन्होंने कहा कि मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में उन्हें ऐसा लगा ही नहीं कि राज्य सरकार सूखा के प्रतिबद्घ है। यहां न तो टैंकरों से पानी की आपूर्ति हो रही है, न तो राशन का अनाज मिल रहा है। इतना ही नहीं, जानवर मर रहे हैं। उनके लिए न तो पानी का इंतजाम किया गया है और न ही चारा शिविर शुरू हुए हैं।
उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार को आवश्यक दिशा निर्देश दिए हैं। प्रभावित क्षेत्रों के प्रति व्यक्ति को पांच किलो प्रतिमाह अनाज देने, गर्मी की छुट्टी के बावजूद विद्यालयों में मध्याह्न भोजन देने, सप्ताह में कम से कम तीन दिन अंडा या दूध देने और मनरेगा के जरिए रोजगार उपलब्ध कराने के निर्देश दिए गए हैं। ये निर्देश मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में तो सफल होते नजर नहीं आए।
उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैला हुआ है। मप्र के छह जिले और उप्र के सात जिले इस क्षेत्र में आते हैं, हर तरफ सूखे से हाहाकार मची हुई है। जल स्रोत सूख गए हैं।
--आईएएनएस
विशेष: देश में अब भी 88 हजार कुष्ठ रोगी
चारू बाहरी
उत्तर प्रदेश के एक खेतिहर मजदूर प्रदीप कुमार (24) का इलाज तीन साल से एक ऐसे रोग के लिए हो रहा है जिसे 11 साल पहले बहुत हद तक भारत से भगा दिया गया था। वह रोग कोई और नहीं, बल्कि कुष्ठ है। भारत में अभी भी कुष्ठ रोगियों की संख्या 88,833 है।
कुष्ठ मनुष्य की सबसे पुरानी बीमारियों में एक है। ईसाई धर्मग्रंथ 'बाइबिल' में इसका आमतौर पर उल्लेख किया गया है। यह रोग पीड़ित के रूप रंग खराब करने और बाद में उन्हें समाज से बहिष्कृत किए जाने के लिए कुख्यात है।
1991 में जब भारत में आर्थिक उदारीकरण शुरू किया गया तो यहां प्रति दस हजार जनसंख्या पर 26 कुष्ठ रोगी थे, लेकिन 14 वर्षो के अंदर लगातार प्रयासों और बहुऔषधि उपचार के कारण यह संख्या 25 गुना घट कर प्रति दस हजार एक हो गई।
सन् 2000 में विश्व ने कुष्ठ रोग के वैश्विक उन्मूलन के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन का लक्ष्य हासिल किया।
2001 से 2005 के दौरान जब भारत ने लक्ष्य हासिल किया तो दुनिया में कुष्ठ रोगियों की संख्या 61 प्रतिशत (763,262 से 296,499) कम हो गई। बहुत हद तक ऐसा इसलिए हुआ कि भारत में कुष्ठ रोगियों की संख्या चार गुना (615,000 से 161,457) कम हो गई थी।
विशेषज्ञों का मानना है कि इसके बाद से खास तौर पर विगत पांच साल में भारत में कुष्ठ रोग नियंत्रण के लिए नए दृष्टिकोण नहीं अपनाए जाने से इस दिशा में थोड़ा ठहराव आ गया है। कुष्ठ नियंत्रण में ठहराव के मद्देनजर सन् 2013 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस विषय पर अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन आयोजित था।
वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है कि कुष्ठ रोग सरकार के रडार से उतर गया है। भारत में हर साल पहचान किए जाने वाले 125000 कुष्ठ रोगियों में प्रदीप कुमार भी एक हैं, जबकि दुनिया भर में कुष्ठ रोग के 58 प्रतिशत नए मामले सामने आए।
हालांकि भारत में अभी कुष्ठ रोगियों की प्रचलित दर करीब प्रति दस हजार 0.69 है, अर्थात भारत में कुष्ठ रोगियों की संख्या 88,833 है।
एक गैर सरकारी संगठन भारतीय कुष्ठ मिशन ट्रस्ट के कार्यकारी निदेशक सुनील आनंद के अनुसार यह अधिकारिक आंकड़ा है, जबकि वास्तव में कुष्ठ रोगियों की संख्या दो गुना और यहां तक कि चार गुना भी अधिक हो सकती है।
इस तरह जब भारत में कुष्ठ रोग के खिलाफ लड़ाई में ठहराव आ गया है तो कुष्ठ रोग मुक्त विश्व की दिशा में भी प्रगति रुक गई है।
नए वैश्विक लक्ष्य भारत में कुष्ठ रोग के खिलाफ लड़ाई पुन: शुरू होने की उम्मीद करते हैं।
इस साल के शुरू में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2020 तक की समय सीमा के साथ कुष्ठ रोधी नई रणनीति का खुलासा किया जो भारत को कुष्ठ नियंत्रण की दिशा में आगे बढ़ने के लिए बाध्य करेगी।
--आईएएनएस
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