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मुझे नहीं है भरोसा न्याय व्यवस्था और सरकारों पर...! Featured

ममता यादव

मैं बहुत आशान्वित नहीं हूं न ही भरोसा कर पाती हूं इस देश की न्याय व्यवस्था और सरकारों को लेकर। मन बहुत कचोटता है, वितृष्णा से भरा रहता है जब समाचार पढ़ती हूं सुनती हूं कि 12-13 साल की बच्ची को प्रसव वेदना झेलना पड़ी क्योंकि उसके साथ उसके सौतेले बाप ने या किसी वहशी दरिंदे ने बलात्कार किया था। मन और ज्यादा परेशान हो जाता है जब निर्भया ज्योति की मां यह कहती सुनाई पड़ती है कि हमारा संघर्ष हार गया जुर्म जीत गया। बहुत ज्यादा गुस्सा आता है उस सिस्टम पर जो उन लोगों को खदेड़ता नजर आता है जो निर्भया ज्योति के लिये न्याय मांगने इकट्ठा होते हैं मगर उस नाबलिग दरिंदे को जो कि अब बालिग हो चुका है को बकायदा 10 हजार का इनाम देकर सुरक्षित किसी एनजीओ के संरक्षण में पहुंचा देते हैं ताकि वो उसकी बच्चों जैसी देखभाल करे।

इस देश में ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब किसी कोने से बलात्कार की खबर न आती हो और ऐसा कोई पल नहीं जाता जब जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों की तरफ से ऐसी घटनाओं पर यह प्रतिक्रिया न आती हो कि महिलायें ही जिम्मेदार हैं। क्यों ये अधिकार सबको मिल गया है महिलाओं या लड़कियों के खिलाफ कुछ भी कहने, करने का? इतिहास गवाह है स्त्री को संपत्ति की तरह प्रतिष्ठा का प्रश्न माना जाता रहा है। किसी औरत को किसी से किसी ने छीन लिया या जीत लिया तो वह विजेता कहलाता है।

ये भी सबसे बड़ा सत्य है कि इस देश में जहां यत्र नार्यस्तु रमंते तत्र देवता का मंत्र जपते लोग थकते नहीं उसी देश में दो पुरूष अपने झगड़े में एक- दूसरे को गालियां भी मां-बहन की देते हैं। हद यह हो जाती है कि टीवी पर आने वाले किसी भी कॉमेडी शो में इस तरह की गालियों को प्रतीकात्मक रूप में पेश किया जाता है और उस शो में बैठी महिला जज उस शो पर ठहाका लगा कर हंसती है।

मैं कभी नहीं भूल पाती जब दिल्ली गैंगरेप केस हुआ तो चर्चायें बहुत हुईं। चर्चा एक यह भी थी कि शायद किसी दोषी ने ही कहा था कि वो सरेंडर कर देती तो ऐसी हालत नहीं होती। किसी महानुभाव से इसी पर बात हुई तो उन्होंने अपनी अंग्रेजी झाड़ते हुये कहा कि हां सच तो है वो सरेंडर कर देती तो आज जिंदा होती। तब मैंने उनसे एक ही सवाल पूछा अगर आपकी मां-बहन के साथ यह होता तब आप उसे क्या सलाह देते? तो साहब ऐसे में कोई महिला यदि खुद को बचाने की कोशिश करती है तो भी वो गुनाहगार।  

हां मुझे नहीं है कोई उम्मीद कोई भरोसा उस देश में जहां का नेता कहता है लड़कों से गलतियां हो जाती हैं। मुझे नहीं है कोई उम्मीद इस देश की सरकारों से जिसके मुखिया तमाम बड़ी-बड़ी बातों के साथ कुर्सी तक पहुंचते हैं और ऐसे मामलों में चुप्पी साध लेते हैं। मैं उपर वाले का शुक्र अदा करती हूं जब कोई रेप या गैंगरेप पीढ़िता मर जाती है, क्योंकि वो जिंदा रहे तो ये समाज उसका एक-एक सांस लेना दूभर कर देता है। जिसने उसे तकलीफ पहुंचाई उस पर कोई बात नहीं होती लेकिन वो लड़की या म​हिला दोषियों की तरह जीवन गुजारने पर मजबूर होती है।

मैं कांप जाती हूं अंदर तक जब इसी समाज में ऐसे उदाहरण देखती हूं जब एक मॉं अपनी ढाई-तीन साल की बच्ची को भी एक पल के लिये अकेला नहीं छोड़ पाती इस डर से कि कहीं उसके साथ कोई अनिष्ट न घट जाये। मैं खुद भी चिंतित रहती हूं अपनी 10 साल की भतीजी को लेकर। एक मां बेफिक्र नहीं हो पा रही अपनी बेटी की सुरक्षा को लेकर इसलिए मुझे नहीं है भरोसा।

बच्चियों से छेड़छाड़ और बलात्कार की खबरें अब इतनी आम हो चुकी हैं कि अखबारों में भी अंदर के पन्नों पर जगह मिल गई तो ठीक वरना पॉजिटिव न्यूज के आगे ये नेगेटिविटी कहां जगह पाती है। बड़े-बड़े पैनल डिस्कशन होते हैं मगर नतीजा कुछ नहीं निकलता। किसी नेता ने एक बकवास कर दी तो उस पर दो घंटे मुर्गा लड़ाई होती है टीवी पर मगर महिलाओं की समस्याओं पर बमुश्किल बात होती है।

इस देश की संसद कठोर कानून बनाने में कभी तत्परता नहीं दिखाती और सिवाय एक रंगमंचीय अखाड़े के अलावा कुछ रह नहीं गई है। हां इसमें बैठे सांसद अपनी सैलरी अपने भत्ते बढ़वाने के प्रस्ताव को पास करवाने में एक मिनिट का भी समय नहीं लगाते। इस देश में आतंकवादियों को जेलों में पाला जाता है और मुंबई हमलों में मारे गये लोगों के दोषी को सरकारी गवाह बनाया जाता है। एजुकेशन में होनहारों के भविष्य के साथ और हेल्थ में लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ किया जाता है लेकिन सरकारों को फर्क नहीं पड़ता इसलिये नहीं है मुझे भरोसा किसी सिस्टम पर किसी सरकार पर।

मुझे नहीं है भरोसा और नहीं है आशा बड़े-बड़े कलमकारों से। क्योंकि बेफिजूल के मुद्दों पर पन्ने काले करने और बड़े-बड़ आलेख लिखने वाले ऐसे मुद्दों पर मुंह भी खोलना जरूरी नहीं समझते। जब दादरी होता है तो इस पर बात करने पर कहा जाता है अपना काम करो क्या करना तुम्हें। तब मेरे मन में आता है क्या हम इंसान भी बचे हैं कि नहीं बचे हैं। जिस बेरहमी से उस कांड को अंजाम दिया गया उसमें एक इंसान और इंसानियत की तो मौत हो गई मगर गाय और हिंदुत्व भारी पड़ गया और उसे नाम दे दिया गया एक हादसे का। क्या है ये समाज?

ये तो वो है जो सामने है। और भी बहुत कुछ ऐसा है जो बाध्य करता है ये कहने और करने के लिये कि मुझे नहीं है इस सिस्टम इस न्याय व्यवस्था पर भरोसा। यहां रोज निर्भयायें बलात्कृत होती हैं और रोज ज्योतियां बुझती हैं और ये अब आम बात हो गई। मुझे नहीं होता भरोसा क्योंकि अब इंसानियत खोती जा रही है और सिर्फ पैसा अहम होता जा रहा है।

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About Author

ममता यादव

लेखिका सागर विश्वविद्यालय से आधिुनिक इतिहास में एम ए और पत्रकारिता में  एमए करने के बाद वर्ष 2002 में नवभारत भोपाल से पत्रकारिता के सफर की शुरूआत हुई और तब से अभी तक यह सफर लगातार जारी है। विभिन्न समाचार पत्रों में राजनीतिक एवं शिक्षा के विषय पर रिपोर्टिंग करते हुये समसामयिक विषयों पर लेखन प्रिय विषय रहा है। तात्कालिक और समसामयिक मुद्दों पर निष्पक्ष और धारदार कलम चलाना ममता यादव का प्रिय शगल है। वर्तमान में मल्हार मीडिया में प्रधान संपादक के पद पर कार्यरत हैं।

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