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भगत सिंह का सपना और आजादी Featured

विवेक दत्त मथुरिया

23 मार्च को पूरा देश भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को आजादी के लिए उनकी शहादत के लिए याद करता है। बड़ा सवाल यह है कि क्या हम उनकी कुर्बानी के पीछे निहित मकसद को आज तक समझ पाए हैं? बिल्कुल नहीं, क्योंकि भगत सिंह का राजनीति विचार आज उतना ही जोखिम भरा है, जो ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान था। देश में मौजूदा लोकतंत्र नव अमेरिकी साम्राज्यवाद का पोषण कर रहा है। और यही कारण है कि लोक और तंत्र के बीच स्पष्ट संघर्ष दैखा जा सकता है। भगत सिंह के राजनीति विचारों की सार्वभौमिकता आजाद भारत के अंदर हक और हकूक को लेकर एक और आजादी की बात कर रही है। देश के सत्ता प्रतिष्ठान इसी आवाज को दबाने में लगे हैं। चौकरफा लूट देखने को मिल रही है।

देश की आजादी के संघर्ष का इतिहास अनगिनत कुर्बानियों की दास्तां से भरा पडा है और हम आज आजादी का भरपूर लुत्फ उठा रहे हैं। आजादी के संघर्ष को जो धार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने दी उसने देश के युवाओं के खून में रवानी पैदा करने का काम किया। भगत सिंह का हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूमने का असल मकसद भी यही था और अपने इस मकसद में वह सफल रहे। पर आज अफसोस तो इस बात का है कि लालों? की कुर्बानी से मिली आजादीइसके  का अलली आनंद दलाल ले रहे हैं। अफसोस इस बात का भी है कि आज के युवा भगत सिंह की कुर्बानी से तो परिचित हैं,  पर उनके इंकलाब के विचार से पूरी तरह अपरिचित हैं। क्योंकि समाजवाद की पैरोकारी करने वाले शहीद भगतसिंह के साम्राज्यवादी विरोधी विचारों की प्रासांगिकता आज भी मौजू  हैं। यही वो बडी वजह है कि आजाद भारत में एक साजिश के तहत भगत सिंह के राजनैतिक विचारधारा को नेपथ्य में धकेल दिया।

साम्राज्यवाद विरोधी भगत सिंह का इंकलाब का दर्शन असल में मानवता का हिमायती हैं, जो आज भी मौजू है। आजाद भारत की सत्ता सदैव भगत सिंह के राजनीति विचारों को अपने लिए खतरा मानती रही है और मान रही है। क्योंकि भगत सिंह ने आजाद भारत के लिए शोषण मुक्त वर्गविहीन सर्वहारा के शासन का स्वप्न देखा था और उसी स्वप्न के लिए अपने प्राणों को कुर्बान कर दिया। भगत सिंह का सपना आज भी देश के हुकमरानों से सवाल करता दिखाई दे रहा है कि क्या यही है जनता का शासन, जहां तंत्र के दमन में जनता पिस रही है? तब यह आजादी बेमानी लगती है और भगत सिंह का  सपना अधुरा। भगत सिंह के सपने को लोकतंत्र के रास्ते भी पूरा किया जा सकता है। उसके लिए नेक नीयत और दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है। जिसके लिए हमें जाति और धर्म की संर्कीणता से मुक्त होना पहली और बुनियादी शर्त है। लूट से ध्यान बांटने के लिए हमारे रहनुमा जाति-धर्म विवादों में उलझाए रखती है।

धर्म को लेकर भगत सिंह ने स्पष्ट कहा था कि 'धर्म लोगों का निजी मसला है।' मतलब साफ है कि राज्य को धर्म की सियासत से दूर रहना चाहिए। भगत सिंह की इस नसीहत को हमारे सियासकदां जान बूझ कर समझना नहीं चाहते, क्योंकि यह उनकी लूट पर कुठाराघात होगा।

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विवेक दत्त मथुरिया

लेखक सामाजिक सरोकारों को लेकर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं और वर्तमान में आगरा से प्रकाशित कल्पतरु एक्सप्रेस के सह सम्पादक हैं.

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