विवेक दत्त मथुरिया
आज देश लोकतांत्रिक आस्था और अनास्था के सवाल से जूझ रहा है। इस वक्त देश अघोषित आपातकाल जैसी स्थिति से सामना कर रहा है। जिसका संकेत सरकार के मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी ने पहले ही दे दिए थे। आज 'देशद्रोह' बनाम 'देशभक्त' की विवेकहीन बहस में लोकतांत्रिक मूल्य और कानून के राज के प्रति अनास्था को प्रतिपादित करने की कथित कोशिश को परवान चढ़ाया जा रहा है। इन कोशिशों में मीडिया का एक राग दरबारी तबका बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है, जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।
दूरदृष्टा लोगों ने इस तरह की खतरनाक प्रवृत्ति के संकेत 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त दे दिए थे, पर लोकसभा चुनाव के दौरान 'अच्छे दिनों' के जुमले से जुड़े आक्रामक प्रचार में 'खतरों की शंकाओं' को हवा हवाई कर दिया। लेकिन आज उसी खतरनाक सच से दो-चार हो रहा है। 'देशद्रोह' और 'देशभक्ति' के इस विवेकीहीन उन्माद से मोदी सरकार की बौखलाहट को आसानी से समझा जा सकता है। असल में सामाजिक मोर्चे पर सरकार 'अच्छे दिन' लाने में विफल साबित हो रही है। दूसरी ओर देश का कॉरपोरेट जमात 'अच्छे दिनों" का भरपूर आनंद ले रहा है।
हाल ही में सरकार ने एक लाख चालीस हजार करोड़ रूपए का कॉरपोरेट कर्ज माफ कर कॉरपोरेट घरानों के प्रतिबद्धता को पुष्ट किया है। रही बात जेएनयू प्रकरण की तो वह संघ के एजेंडे को लागू करने की कोशिश है। अब जेएनयू प्रकरण को लेकर केंद्र सरकार! ओर दिल्ली पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। पटियाला हाउस कोर्ट परिसर में गत 15 फरवरी को कन्हैया, पत्रकार और जेएनयू के छात्र व प्रोफेसरों पर कानून के पैरोकार वकीलों ने जिसइसके दर्जे की गुडंई की, वह माहाभारत की पटकथा लिखती दिखाई दे रही है। सवाल इस बात का है कि 'देशभक्ति के इस विवेकहीन उन्माद के बहाने सरकार देश की जनता को आखिर क्या संदेश देना चाह रही है? सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि देश की जनता को डरा-थमका कर वह अपनी विफलतओं पर पर्दा डालने की जिस तरह की कोशिश कर रही है, यह उसकी नासमझी और नादानी साबित हो रही है। रोजी-रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा के सवाल तो जस के तस बने हुए हैं। भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर मोदी सरकार की जिद किसी से छिपी नहीं है, इस जिद ने सरकार के जनविरोधी चेहरे को बेनकाब करने का काम किया।
जेएनयू प्रकरण के बहाने जनता को डराने की कथित कोशिशें कहीं सरकार के लिए आत्मघाती साबित न हो? इस तरह का के रूप में 1975 में इंदिरा गांधी ने भी किया और जिसका परिणाम भी उन्हें भोगना पड़ा। आज तर्क और असहमति को आज 'देशद्रोह' का नाम दिया जा रहा है। जबकि तर्क और असहमति स्वस्थ लोकतंत्र की प्रक्रिया का ही हिस्सा है। सवाल इस बात का है कि आज सरकार तर्क और असहमति का सामना क्यों नहीं कर पा रही है। जनता की सरकार का यह फर्ज है कि वह जनता की बात सुने, जिसके लिए सरकार तैयार नजर नहीं आ रही है। सरकार की यह प्रवृत्ति उसकी लोकतंत्र और कानून के राद के प्रति उसकी अनास्था को ही उजागर कर रही है। जेएनयू प्रकरण पर सरकार ने तथ्यों और सबूतों की जांच-पड़ताल किए बिना जिस तरह की जल्दबाजी का प्रदर्शन किया, उसने सरकार की नीयत पर ही सवाल खड़े करने का ही काम किया है।
असल में इस तरह की जोर-जबरदस्ती की कोशिशों द्वारा सरकार संवैधानिक संस्थाओं को कब्जा कर अपने हिडन एजेंडे को लागू करने की फिराक में है। सरकार को देशभक्त के रूप में किसान और मजदूर नजर नहीं आ रहे जो खामोशी के साथ अभावों संघर्ष करते हुए देश के विकास में बुनियादी योगदान देते चले आ रहे हैं।