एन के सिंह
प्रख्यात न्यायविद फाली नारीमन ने अपने एक लेख में एक घटना का बयान किया. “कुछ साल पहले कुआलालम्पुर में अंतर्राष्ट्रीय बार एसोसिएशन के तत्वावधान में आयोजित एक कांफ्रेंस में मलेशिया के हीं एक जाने-माने रिटायर्ड जज ने देश-विदेश से आये लगभग ५०० से ज्यादा कानून के जानकारों से भरे हाल में अपनी तक़रीर की शुरुआत में कहा --- हमारे लिखित संविधान ने हमें बोलने “की” आज़ादी (फ्रीडम ऑफ़ स्पीच) दी है (तालियाँ बजीं). थोडा रुकने के बाद उन्होंने आगे कहा “लेकिन बोलने “के बाद” की आज़ादी (फ्रीडम आफ्टर स्पीच) नहीं दी है”. पूरे हाल में सन्नाटा छा गया. भारत में इस समय कुछ को बेलगाम बोलने की आज़ादी दी गयी है लेकिन कुछ का बोलना राजद्रोह बन जा रहा है.
नतीजतन सरकार का इक़बाल घट रहा है। देश में तनाव का माहौल है। जाति आरक्षण को लेकर हिंसा, गौमांस को ले कर बवाल और छात्रों में रोष इस बात की तस्दीक़ हैं।
पिछले दो हफ्ते में भारत में कुछ घटनाएँ हुई. कई वीडियो जो साफ़ नहीं है और जिनमें अँधेरे में खींचे गए दृश्य भी हैं, सोशल मीडिया में हीं नहीं औपचारिक मीडिया –न्यूज़ चैनलों और अखबारों—रिपोर्ट किये जाते हैं. इनमें जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में भारत विरोधी नारे लगते दिखाए गए हैं. और वामपंथ से जुड़े छात्र संगठनों के युवा दिखाई दे रहे हैं. विश्वविध्यालय यूनियन का अध्यक्ष कन्हैया भी कथित रूप से इसमें शामिल है. एक हफ्ते तक पूरे भारत में “राष्ट्र भक्तों” का गुस्सा फूट पड़ता है, मीडिया दिन-रात बताता है कि देश की अखंडता पर बड़ा ख़तरा है. सरकार अभूतपूर्व तत्परता दिखाते हुए कन्हैया को गिरफ्तार कर लेती है.
लेकिन वहीं दो दिन बाद भारतीय जनता पार्टी का एक विधायक अपने आधा दर्ज़न गुर्गों के साथ एक वामपंथी कार्यकर्त्ता को पटक कर मारता है. स्थान –पटियाला कोर्ट, समय दोपहर, भीड़ की संख्या एक हज़ार, कैमरे –उत्तम क्वालिटी के प्रोफेशनल और मीडिया के. बगल में कोर्ट रूम के भीतर मीडिया कर्मी जिसमें पुरुष और महिला रिपोर्टर हैं की जमकर पिटाई होती है. पीटने वाले काले कोट में होते हैं और उनका चेहरा साफ़ नज़र आता है. उनमें से सभी वकीलों के चेहरे कैमरे में आते हैं मारते हुए. लेकिन पुलिस अगले ९६ घंटे तक कोई मुकदमा नहीं करती और जब मीडिया सस्थाएं आन्दोलनात्मक रूप लेती है तो पुलिस ऍफ़ आई आर लिखती है लेकिन वह भी अनाम लोगों के खिलाफ. इस बीच घटना के अगले दो दिन यह विधायक चैनलों के कैमरे पर घूम-घूम कर कहता है “मेरे पास बन्दूक होता तो मैं गोली मार देता. भारत के खिलाफ जो भी बोलेगा उसका ऐसा हीं हश्र होगा”. पांचवें दिन वह थाने में बुलाया जाता है कुछ घंटें पूछताछ के नाम पर बैठाया जाता है और फिर थाने से हीं जमानत मिल जाती है. एक वकील अपने फेसबुक पर फरवरी ११ से १६ तक ट्वीट करके वकीलों आह्वान करता है कि “समय आ गया है इनको सबक सिखाना का”. फिर पुलिस अभिरक्षण में लाये गए कन्हैया पर भरी भीड़ में दिनदहाड़े हमला करता है. और फिर मीडिया पर बताता है कि अगर यह सब गुंडई है तो वह गुंडा है”. पुलिस खडी नपुंसकता की पराकाष्ठा तक देखती रहती है. यह वकील इसी दौरान अपने उन फोटो का मुज़ाहरा करता है जिनमें वह भारतीय जनता पार्टी के नेता और मंत्री राजनाथ सिंह, जे पी नड्डा और विजयवर्गीय के साथ नज़र आता है. विधायक भी कुछ साल पहले तक केंद्र के एक बेहद ताकतवर मंत्री का पी ए रहा है. बताया जाता है कि आज भी इस मंत्री के वरदहस्त के कारण पुलिस ने हाथ डालने की हिम्मत नहीं दिखाई.
याने कन्हैया पर आरोप शक के दायरे में है और एक वर्ग का कहना है वीडिओ से छेड़ छाड की गयी है। कन्हैया मन्च पर थे लिहाज़ा ज़िम्मेदारी अपराध न्याय शास्त्र के अनुसार बनती है, लेकिन चूंकि वह छात्र नेता वाम विचारधारा से जुड़ा है इसलिए देश के लिए ख़तरा लेकिन जो अपील कर के सरेआम देश को सन्देश दे रहा है कि ऐसे “भारत-विरोधियों” (यह उसकी अपनी परिभाषा है) को मारो, वह देश भक्त.
प्रश्न यह नहीं है कि कन्हैया पर राजद्रोह का मुकदमा होना चाहिए या नहीं. राज्य को जन-व्यवस्था को बिगाड़ने वाले किसी भी कुप्रयास पर अपने दंड का इस्तेमाल करना राजधर्म है लेकिन यही दंड तब कहाँ चला जाता है जब पार्टी के विधायक या नेताओं के करीबी लम्पट सरे आम उसी व्यवस्था को भंग करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा भेजे गए प्रमुख वकीलों के जांच दल के साथ गाली गलौच करते हैं? जब गौमांस खाने के शक पर गाँव के बहुसंख्यक अख़लाक़ की हत्या करने के लिए पार्टी के स्थानीय नेताओं के संरक्षण में हमला करते हैं तो देश का एक मंत्री इसे सामान्य आपराधिक घटना बताता है और एक पार्टी विधायक कहता है कि अगर एक वर्ग विशेष अपनी आदतों से बाज नहीं आयेगा तो मुजफ्फरनगर दंगे की पुनरावृत्ति की जायेगी. इस दंगे में हुए हमले में सैकड़ों अल्पसंख्यकों को अपने घर और गाँव छोड़ कर शिविर की शरण लेनी पडी थी. आज भी वहां मुस्लिम बाहुल्य वाले गाँव उजाड़ पड़े हैं. गौमांस मुद्दे से उत्साहित लम्पट युवाओं ने देश में कम से कम एक दर्ज़न स्थानों पर ट्रकों को रोक कर ड्राइवरों का धर्म पूछ कर मार-पीट की और कुछ में हत्या तक. शायद “सब का साथ. सबका विकास” पिछले १६ महीनों के शासन में “कुछ का हाथ , कुछ के गर्दन पर” में बदल गया है.
चीनी दार्शनिक कन्फ़्यूशियस ने कहा था: “एक अच्छे राजा को तीन चीज़ों की ज़रुरत होती है--रसद, हथियार और प्रजा का विश्वास. अगर एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाये कि उसे ये तीनों उपलब्ध न हो सकें और चुनाव करना हो तो उसे पहले रसद छोड़ना चाहिए, उसके बाद हथियार और आखिर में प्रजा का विश्वास.” आज इस विश्वास का संकट साफ़ दिखाई दे रहा है.
केंद्र की वर्तमान मोदी सरकार शायद यह भूल गयी है कि जनता का विश्वास इस पर से उठता जा रहा है. उसे यह भी विश्वास हो चला है कि भारतीयता और राष्ट्रवाद के नाम पर लम्पटवाद का बोलबाला बढ़ रहा है. उधर गुंडई करने वाले विधायक या वकील को यह विश्वास ज़रूर है कि आज वह अगर दूसरे विचारधारा के लोगों को मारते है तो अगले चुनाव में उसका टिकट पक्का। इस “कु-विश्वास” का हीं प्रभाव है कि भाजपा का एक विधायक कांग्रेस के उपाध्यक्ष को चौराहे पर सजा देने की बात कहता है तो दूसरा किसानों की आत्महत्या को फैशन बताता है.
यही वजह है कि जिस दिन देश के प्रधानमंत्री बेहद अच्छी फसल बीमा योजना का आगाज़ कर रहे दे देश की मीडिया में भाजपा के इन लम्पटों द्वारा मार-पीट की खबर छाई रही. नुकसान किसका हुआ यह मोदी, भाजपा और संघ को सोचना है.