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जन्मदिन : 4 मार्च- फणीश्वरनाथ 'रेणु', जिन्होंने 1975 में लौटाया था 'पद्मश्री' सम्मान Featured

ममता अग्रवाल 

'बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही' शमशेर बहादुर के इन शब्दों में ही अपने लिखे शब्दों का मर्म समेटते हुए आंचलिक कथाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' कहने को आतुर होते हैं कि रचना स्वयं ही काफी कुछ कह जाती है, उसकी मौखिक व्याख्या की कोई दरकार नहीं होती।

रेणु ने स्वयं को न केवल लोकप्रिय कथाकार के रूप में स्थापित किया, बल्कि हर जोर-जुल्म की टक्कर में सड़कों पर भी उतरते रहे, भारत से नेपाल तक। उन्होंने वर्ष 1975 में आपातकाल का विरोध करते हुए अपना 'पद्मश्री' सम्मान लौटा दिया था।

निस्संदेह, 'तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम', 'मैला आंचल', 'परती परिकथा' जैसी कृतियों के शिल्पी रेणु ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सहज रूप में काफी कुछ कह दिया है।

रेणु ऊपर से जितने सरल, मृदुल थे, अंदर से उतने ही जटिल भी। उन्होंने अपनी कहानियों, उपन्यासों में ऐसे पात्रों को गढ़ा, जिनमें दुर्दम्य जिजीविषा देखने को मिलती है। उनके पात्र गरीबी, अभाव, भुखमरी व प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हुए मर तो सकते हैं, लेकिन परिस्थितियों से हार नहीं मानते।

रेणु की कहानियां नीरस भावभूमि में भी संगीत से झंकृत होती लगती हैं।

बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च, 1921 को शिलानाथ मंडल के पुत्र के रूप में जन्मे रेणु का बचपन आजादी की लड़ाई को देखते-समझते बीता।

रेणु की प्रारंभिक शिक्षा फारबिसगंज और 'अररिया' में हुई। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद नेपाल के कोईराला परिवार में रहकर उन्होंने वहीं के विराटनगर स्थित 'विराटनगर आदर्श विद्यालय' से मैट्रिक किया था।

पारिवारिक पृष्ठभूमि से प्रेरित रेणु ने न केवल 1942 में भारत के स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया, बल्कि 1950 में नेपाली जनता को वहां की राणाशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए वहां की सशस्त्र क्रांति और राजनीति में भी अपना सक्रिय योगदान दिया।

उनकी रचनाएं हिंदी कथा साहित्य के प्रणेता प्रेमचंद की रचनाओं की तरह ही सामाजिक सरोकारों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। प्रेमचंद की 'गोदान' जितनी लोकप्रिय है, उतनी ही रेणु की 'मैला आंचल' भी साहित्य प्रेमियों के मन में उतरने में कामयाब रही।

'मैला आंचल' नाम से ही टीवी धारावाहिक बना और इससे पहले इसी उपन्यास पर 'डागदर बाबू' नाम से फिल्म बननी शुरू हुई थी, जो पूरी न हो सकी। राज कपूर व वहीदा रहमान अभिनीत फिल्म 'तीसरी कमस' रेणु की ही लंबी कहानी पर बनी थी। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।

उन्होंने भूमिहीनों और खेतिहर मजदूरों की समस्याओं को भी लेकर बातें की। साथ ही जातिवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की पनपती हुई बेल की ओर मात्र इशारा नहीं किया था, इसके समूल नष्ट करने की आवश्यकता पर भी बल दिया था।

उनका जीवन और समाज के प्रति उनका सरोकार प्रेमचंद की तरह ही रहा। इस दृष्टिकोण से रेणु प्रेमचंद के संपूरक कथाकार हैं। शायद यही कारण है कि प्रेमचंद के बाद रेणु ने ही सबसे बड़े पाठक वर्ग को अपनी लेखनी से प्रभावित किया।

रेणु के साहित्य में आंचलिक भाषा की प्रमुखता देखने को मिलती है। अंचल के जनमानस को सजीवता से चित्रित करने के लिए उन्होंने आंचलिक भाषा का भरपूर प्रयोग किया। उनकी अनेक रचनाओं में आंचलिक परिवेश का सौंदर्य, उसकी सजीवता और मानवीय संवेदनाओं का ताना-बाना नजर आता है।

अपने उपन्यास 'मैला आंचल' में उन्होंने अपने अंचल का इतनी गहराई से चित्रण किया है कि वह आंचलिक साहित्य का एक सोपान बन गया।

रेणु को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको अपनी सहज सरल कहानियों से भी मिली। आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप, अच्छे आदमी, सम्पूर्ण कहानियां, ठुमरी, अगिनखोर, आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।

उनके उपन्यासों में 'मैला आंचल', 'परती परिकथा', 'जूलूस', 'दीर्घतपा' (जो बाद में कलंक मुक्ति नाम से प्रकाशित हुई), 'कितने चौराहे', 'पल्टू बाबू रोड' आदि प्रमुख हैं।

रेणु के गढ़े किरदारों में खुद उनकी जिजीविषा दिखाई देती है। उनकी कहानी 'पहलवान का ढोलक' का पात्र पहलवान मौत को गले लगा लेता है, लेकिन चित नहीं होता। यानी वह मर जाता है, लेकिन पराजय स्वीकार नहीं करता।

रेणु के पात्र ही जिजीविषा और सिद्धांतों से ओतप्रोत नहीं दिखाई देते, उन्होंने इसे अपने जीवन में भी सार्थक किया है। सरकारी दमन और शोषण के विरुद्ध ग्रामीण जनता के साथ प्रदर्शन करते हुए वह जेल गए, उन्होंने आपातकाल का विरोध करते हुए अपना 'पद्मश्री' सम्मान भी लौटा दिया। इसी समय रेणु ने पटना में लोकतंत्र रक्षी साहित्य मंच की स्थापना की थी।

रेणु की कहानी 'रखवाला' में नेपाली गांव की कहानी का चित्रण है और इसके कई संवाद भी नेपाली भाषा में हैं। नेपाल की पृष्ठभूमि पर आधारित उनकी एक अन्य कहानी 'नेपाली क्रांतिकथा' उन्हें हिन्दी के एकमात्र नेपाल प्रेमी कहानीकार के रूप मे प्रतिष्ठित करती है।

उनकी कहानियों के साथ ही उनके कुछ संस्मरण भी काफी लोकप्रिय हुए। इनमें 'धनजल वनजल', 'वन तुलसी की गंध', 'श्रुत-अश्रुत पूर्व', 'समय की शिला' पर आदि का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

रेणु की लेखन शैली ऐसी थी जिसमें वह अपने हर किरदार की मनोदशा का ऐसा अद्भुत वर्णनात्मक चित्रण करते थे कि वह पाठक की आंखों में जीवंत हो उठता था।

देश स्वाधीन होने के बाद उन्होंने एक नई दिशा में कदम बढ़ाया और बिहार के पूर्णिया से एक 'नई दिशा' नामक पत्रिका का संपादन प्रकाशन शुरू किया।

रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 1972 में 'भित्तिचित्र की मयूरी' लिखी थी।

लेखन के साथ ही सामाजिक सरोकार को समझते हुए वह गरीबों-मजदूरों के हक के लिए लड़ते रहे। रेणु का संघर्ष सफल हुआ और मार्च 1977 को आपातकाल हटा, लेकिन इसके बाद वह अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए।

पेप्टिक अल्सर रोग से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था और बीमारी से लड़ते हुए 11 अप्रैल 1977 को वह इस संसार से ओझल हो गए, लेकिन अपनी तमाम कृतियों के कारण वह आज भी साहित्य प्रेमियों के मन में जीवंत हैं।

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  • जहां शौच के लिए बाहर जाते ही बजती है सीटी
    अजीत कुमार शर्मा
    कांकेर (छत्तीसगढ़), 5 मार्च (आईएएनएस)। छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में स्वच्छ भारत मिशन की ओर एक कदम और आगे बढ़ाते हुए मुसुरपुट्टा गांव को खुले में शौच से मुक्त करने अनोखी पहल की गई है। यहां एक निगरानी समिति बनाई गई है, जो शौच के लिए बाहर जाने वालों पर नजर रखती है। इतना ही नहीं, उन्हें जब भी ऐसा कोई नजर आता है, तो वे सीटी बजाने लगते हैं।

    इस पहल का असर भी दिखने लगा है और लोग स्वयं इस अपमानजनक स्थिति से बचने शौचालय का प्रयोग करने के लिए जागरूक होते जा रहे हैं।

    नरहरपुर विकासखंड के गांव मुसुरपुट्टा के प्रमुख मुनिराम साहू, भूषण साहू व लाभा राम ने बताया कि गांव के युवा संगठन द्वारा एक समिति बनाई गई है। इसमें महिलाएं भी शामिल हैं। इन्हें सीटी दी गई है, जिसे वे हमेशा अपने पास रखते हैं। समिति के सदस्य जब भी किसी को शौच के लिए बाहर जाते देखते हैं, फौरन सीटी बजाने लगते हैं। इससे वह व्यक्ति दोबारा ऐसा करने से बचता है। इसका असर भी हो रहा है।

    इस संबंध में जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी चंदन कुमार ने कहा कि स्वच्छता के लिए जागरूक होना समय की मांग है। यह बहुत अच्छी पहल है। इसका आसपास के अन्य ग्राम पंचायत भी अनुसरण करेंगी। यदि योजना सफल हो जाती है तो मुसुरपुट्टा को पुरस्कार देने पर विचार किया जा सकता है।

    ग्राम मुसुरपुट्टा की आबादी लगभग 2200 की है। गांव में भी स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय का अधिक से अधिक प्रयोग करने पर जोर दिया जा रहा है। बावजूद इसके अभी भी खुले में शौच पूरी तरह बंद नहीं हुआ है। इससे गांव के जागरूक ग्रामीणों के साथ ही सरपंच भी चिंतित थे। बाद में सभी ने मिलकर इसका रास्ता निकाला और एक निगरानी समिति गठित की। समिति के सदस्यों को सीटी बांटी गई।

    उन्हें इस बात की जिम्मेदारी दी गई कि वे बाहर शौच के लिए जाने वालों पर नजर रखें। ऐसा कोई नजर आने पर फौरन सीटी बजाएं। इससे वह व्यक्ति स्वयं धीरे-धीरे सुधर जाएगा।

    गांव के सरपंच ने बताया कि इसका असर भी दिखने लगा है। अब लोग बाहर शौच के लिए जाने से बचने लगे हैं। उन्होंने बताया कि गांव को खुले में शौच मुक्त बनाने के लिए पूर्व पंचायत कार्यकाल से ही प्रयासरत थे, लेकिन अब जाकर इसे बल मिला है।

    मुसुरपुट्टा ग्राम पंचायत को पूर्व से ही आदर्श ग्राम तथा नरहरपुर विकासखंड का दूसरा शौच मुक्त ग्राम होने का गौरव प्राप्त है। इसे बरकरार रखने अभी भी वही जूनून और जोश ग्रामीणों में नजर आता है। ग्रामीण लाभा रामकोमा, शिवराम, कुमार साहू, छोटू अरकरा, लखन साहू, झाडूराम, उमेश साहू, रामेश्वर शोरी, फूलचंद, पदुम सहित आदि ने कहा कि सभी इस गौरव को बनाए रखने में पूरी तरह प्रयासरत रहते हैं।

    उपसरपंच भुवन भारती व पंच पुरुषोत्तम निषाद ने बताया कि गांव में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया है कि खुले में शौच जाने वालों पर 1000 रुपये का जुर्माना किया जाएगा, साथ ही शासकीय योजनाओं जैसे मनरेगा, स्मार्ट कार्ड, पेंशन योजनाएं व सरस्वती साइकिल आदि के लाभ से भी वंचित रखा जा सकता है।

    वैसे तो मुसुरपुट्टा गांव में 400 से भी ज्यादा मकान हैं। इनमें से लगभग 150 घरों में तो पहले से ही शौचालय थे। वहीं लगभग 250 घरों में शौचालय नहीं थे। पहले तो घर-घर शौचालय का निर्माण करने पर जोर दिया गया और जब शासन ने ओडीएफ ग्राम घोषित कर दिया है तो सभी को यह बताया गया कि सफाई के चलते ऐसा निर्णय लिया जा रहा है। सभी ग्रामवासियों ने इस निर्णय के लिए आम सहमति दे दी।

    यह बताना लाजिमी है कि घर-घर शौचालय बनाने के लिए ग्राम पंचायत के अलावा कुछ अन्य लोगों ने भी ईंट व दरवाजों की व्यवस्था की। ग्रामीणों ने मेहनत की, जो अब रंग ले आई।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • तो ये है दुनिया की सबसे खूबसूरत किताब
    बीजिंग, 4 मार्च (आईएएनएस)। चीनी किताब "आर्डर : फेंगयान स्टोरी" ने हाल ही में जर्मनी में चल रहे एक सालाना उत्सव में दुनिया की सबसे खूबसूरत किताब का खिताब जीता है।

    दुनिया की सबसे खूबसूरत किताब प्रतियोगिता का आयोजन हर साल मार्च में लेइपजिग में किया जाता है। इसका आयोजन जर्मनी की एक बुक आर्ट फाउंडेशन बुचकनस्ट करती है।

    इस साल इसमें 32 देशों की कुल 600 किताबों की जांच की गई जिसमें से दुनिया की सबसे खूबसूरत किताब का चयन किया गया। इस प्रतियोगिता में 8 अलग-अलग देशों की 14 किताबों ने पुरस्कार जीता।

    विजेता चीनी किताब "आर्डर : फेंगयान स्टोरी" को लू चोंघुआ ने लिखा है और ली चीन ने इसे डिजाइन किया है। यह किताब फेंगयान के एक 33 साल पुराने किताबों की दुकान की कहानी पर आधारित है।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • विशेष: व्यावसायिक प्रशिक्षण को उन्नत कर सकता है बजट

    चैतन्य मल्लपुर
    देशभर में कौशल विकास कार्यक्रमों के लिए एक लाख प्रशिक्षकों की कमी है। सवाल यह है कि ताजा बजट में कौशल विकास और उद्यमिता आवंटन गत वर्ष के 1,038 करोड़ रुपये से 74 फीसदी बढ़ाकर 1,804 करोड़ रुपये किया गया है। सवाल यह है कि क्या इससे देश में रोजगार की कमी दूर हो सकेगी?

    देश के करीब 90 लाख कामगारों में से सिर्फ दो फीसदी ने पेशेवर प्रशिक्षण हासिल किया है। देश में पेशेवर पाठ्यक्रमों में दाखिला का स्तर सालाना करीब 55 लाख है, जो चीन में नौ करोड़ और अमेरिका में 1.13 करोड़ है।

    राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा 2011-12 में कराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, करीब 1.06 करोड़ भारतीय बेरोजगार हैं। इनमें से 78 लाख 20-59 वर्ष उम्र वर्ग में आते हैं। इसी तरह 47.4 करोड़ अंशकालिक रोजगार कर रहे हैं।

    देश को हर साल 2.3 करोड़ नौकरी चाहिए, लेकिन गत 30 साल में हर साल सिर्फ करीब 70 लाख नौकरियों का ही सृजन हुआ है।

    सोमवार को पेश आम बजट में देशभर में 1,500 बहु-कौशल प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करने का प्रस्ताव रखा गया है, जिस पर 1,700 करोड़ रुपये खर्च होंगे।

    उद्योग और शिक्षण संस्थानों की साझेदारी में नेशनल बोर्ड फॉर स्किल डेवलपमेंट सर्टिफिकेशन की स्थापना के अलावा सरकार प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (पीएमकेवीवाई) के तहत अगले तीन साल में एक करोड़ युवाओं को भी प्रशिक्षित करना चाहती है।

    पीएमकेवीवाई को 1,771 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जिसमें से नेशनल स्किल डेवलपमेंट फंड/कारपोरेशन (एनएसडीसी) को सर्वाधिक 1,350 करोड़ रुपये मिला है, जिसे कौशल विकास के लिए सरकारी और निजी क्षेत्र से कोष जुटाने का काम सौंपा गया है।

    मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, मौजूदा कारोबारी साल के प्रथम छह महीने में एनएसडीसी ने अपने 37 करोड़ कौशल प्रशिक्षण लक्ष्य का 15 फीसदी से कम हासिल कया। साथ ही पीएमकेवीवाई के तहत 24 करोड़ के लक्ष्य के मुकाबले एनएसडीसी ने फरवरी 2016 तक प्रशिक्षण के मामले में 30 फीसदी से कम और प्रमाणन के मामल में 10 फीसदी से कम हासिल किया है।

    लोकसभा में पेश आंकड़ों के मुताबिक, गत तीन साल में 40 विभिन्न कौशल विकास योजनाओं के तहत करीब 1.9 करोड़ लोगों को प्रशिक्षण मिला है। अभी 55 लाख लोग प्रशिक्षण कार्यक्रमों में दाखिल हैं, जबकि 15-24 वर्ष के 23.1 करोड़ लोग प्रशिक्षण का इंतजार कर रहे हैं।

    देश में रोजगार का अवसर 2013 के 46.11 करोड़ से बढ़कर 2022 तक 58.19 करोड़ हो सकता है। निर्माण, रिटेल और वेलनेस जैसे अन्य कई क्षेत्रों में 2022 तक अतिरिक्त मांग 10.97 करोड़ रहने की उम्मीद है।

    एनएसडीसी के एक अध्ययन के मुताबिक 80 फीसदी अवसर सर्वाधिक रोजगार वाले 10 क्षेत्रों में होगा।

    भवन निर्माण और रियल एस्टेट में 3.11 करोड़, लॉजिस्टिक्स, परिवहन और गोदाम में 1.17 करोड़ और सौंदर्य और स्वास्थ्य क्षेत्र में 1.01 करोड़ लोगों की जरूरत होगी। राज्यों में महाराष्ट्र में 1.55 करोड़, तमिलनाडु में 1.36 करोड़ और उत्तर प्रदेश में 1.1 करोड़ रोजगार अवसर पैदा होंगे।

    सरकर ने ऑनलाइन रोजगार पोर्टल 'नेशनल कैरियर सर्विस' के तहत 2016-17 के अंत तक 100 मॉडल कैरियर केंद्र खोलने का प्रस्ताव रखा है। पोर्टल जुलाई 2015 में लांच हुआ है और अब तक करीब 3.5 करोड़ लोगों ने इसमें रोजगार के लिए पंजीकरण कराया है।

    (आंकड़ा आधारित, गैर लाभकारी, लोकहित पत्रकारिता मंच, इंडियास्पेंड के साथ एक व्यवस्था के तहत। ये लेखक के निजी विचार हैं)

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

  • विशेष: मनरेगा के भरोसे 20 साल तक 5.2 करोड़ भारतीय

    प्राची साल्वे/सौम्या तिवारी

    आम बजट 2016-17 में 14 फीसदी अधिक आवंटन हासिल करने वाला और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत आने वाला कार्यक्रम सरकार द्वारा संचालित दुनिया का सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता कार्यक्रम है।

    इंडियास्पेंड के एक विश्लेषण के मुताबिक यह कार्यक्रम कम से कम 5.2 करोड़ लोगों को रोजगार देगा और इस वजह से प्रति परिवार पांच सदस्य समझते हुए अगले 20 साल तक करीब 26 करोड़ लोगों की जीविका इसके सहारे रहेगी।

    कार्यक्रम की राशि गत तीन साल में कुल 18 फीसदी बढ़ाई गई है। गत वर्ष कार्यक्रम की पूरी राशि दिसंबर में ही खप गई थी।

    दिल्ली के एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) पीपुल्स एक्शन फॉर एंप्लॉयमेंट गारंटी के मुताबिक, 2015-16 में कार्यक्रम का धन समय से पहले खप जाने की स्थिति में 5,000 करोड़ रुपये का बफर था, लेकिन केंद्र सरकार ने सिर्फ 2,000 करोड़ रुपये ही जारी किए।

    देश में 27 करोड़ लोग आज गरीबी रेखा से नीचे हैं। शहरों में प्रति व्यक्ति 47 रुपये और गांवों में प्रति व्यक्ति 32 रुपये खर्च करने वाले लोगों को गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है।

    मनरेगा योजना में 27.79 करोड़ कामगार पंजीकृत हैं।

    अकुशल श्रमिक इस योजना का लाभ उठा सकते हैं।

    अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की परिभाषा के मुताबिक कम से कम पांच साल की स्कूली शिक्षा पाने वालों को कुशल माना जाता है।

    कितने लोगों को आने वाले वर्षो में मनरेगा योजना की जरूरत होगी, इसका अनुमान लगाने के लिए 2011 की जनगणना के मुताबिक गांवों की अशिक्षित आबादी पर ध्यान दिया गया। 16 से 30 वर्ष के उम्र समूह में 5.17 करोड़ लोग अशिक्षित हैं। इन्हें यहां मोटे तौर पर 5.2 करोड़ माना जा रहा है।

    उम्र सीमा पार कर लेने के कारण ये लोग शिक्षा का अधिकार कानून का लाभ नहीं उठा सकते। इसलिए ये लोग कभी भी कुशल श्रमिक नहीं बन सकेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि इन्हें कम से कम अगले 20 साल तक मनरेगा योजना की जरूरत होगी।

    इन 5.2 करोड़ में सिर्फ अशिक्षित हैं, जबकि ऐसे अनेक साक्षर लोग हैं, जो उद्योग में कुशल श्रमिक के तौर पर काम नहीं कर सकते।

    वित्त मंत्रालय को ग्रामीण विकास मंत्रालय से मिले एक पत्र के मुताबिक मनरेगा की 17 फीसदी राशि पिछले साल के वेतन और सामग्री खर्च के भुगतान पर खर्च हो जाती है।

    योजना के लिए इस साल का वास्तविक आवंटन करीब 29,000 करोड़ रुपये (4.6 अरब डॉलर) है।

    यह भी गौरतलब है कि 2015-16 के लिए योजना को आवंटित 95 फीसदी राशि 30 दिसंबर 2015 तक खप चुकी है।

    साथ ही योजना के तहत 100 दिनों के रोजगार की गारंटी दी जाती है, जबकि सूखा पीड़ित कुछ राज्यों में 150 दिनों का रोजगार दिया जाना है, लेकिन इसके लिए अतिरिक्त राशि उपलब्ध नहीं है।

    (आंकड़ा आधारित, गैर लाभकारी, लोकहित पत्रकारिता मंच, इंडियास्पेंड के साथ एक व्यवस्था के तहत। ये लेखक के निजी विचार हैं)

  • 'प्राचीन भारत में धार्मिक एवं दार्शनिक शिक्षाएं' पुस्तका का विमोचन
    नई दिल्ली, 2 मार्च (आईएएनएस)। पुस्तक 'प्राचीन भारत में धार्मिक एवं दार्शनिक शिक्षाएं' का विमोचन बुधवार को किया गया। अमित राय जैन और डॉ. आंचल जैन इसके लेखक हैं। पुस्तक में प्राचीन भारत में शिक्षा एवं पढ़ाने के तरीकों पर चर्चा की गई है।

    प्रकाशक किताबवाले ने इस पुस्तक का प्रकाशन किया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ नेता इन्द्रेश कुमार कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे और उन्होंने पुस्तक का औपचारिक विमोचन किया।

    पुस्तक में प्राचीन भारत में शिक्षा एवं पढ़ाने के तरीकों पर चर्चा की गई है। पहले अध्याय में प्राचीन भारतीय संस्कृति में शिक्षा के महत्व के बारे में बताया गया है। दूसरे अध्याय में वैदिक विज्ञान एवं इसके महत्व का विवरण दिया गया है। तीसरा अध्याय उपनिषदों पर, चौथा अध्याय कानून एवं व्यवस्था की शिक्षा पर, पांचवा अध्याय विश्वस्तरीय शिक्षा पर आधारित है।

    इसी तरह छठे अध्याय में अंक शिक्षा, सातवें अध्याय में योगा, आठवें अध्याय में जैन धर्म के मूल्यों और शिक्षाओं, नौवें अध्याय में बुद्ध धर्म और बुद्ध की शिक्षाओं तथा दसवें अध्याय में प्राचीन भारत में अध्यापन की विभिन्न सीटों पर प्रकाश डाला गया है। ग्यारहवां और आखिरी अध्याय अग्रणी शिक्षाविद पाणिनी पर आधारित है। इसमें उपनिषदों, वेदों, महावीर एवं बुद्ध की शिक्षाओं का विस्तृत विवरण दिया गया है।

    किताबवाले के सीईओ प्रशान्त जैन ने कहा, "हमें उम्मीद है कि प्राचीन भारत में धार्मिक एवं दार्शनिक शिक्षाएं पुस्तक को पाठक पसंद करेंगे।"

    अमित राय जैन एक सफल कारोबारी, विचारक, युवा नेता एवं राष्ट्रवादी हैं। डॉ. आंचल जैन दिगम्बर जैन विश्वविद्यालय में व्याख्याता हैं जहां वे साल 2010 से अंग्रेजी विभाग में पढ़ा रही हैं। उन्होंने कई अनुसंधान दस्तावेज लिखे हैं जिनका प्रकाशन प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में किया गया है।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • उर्दू शायरी का भारत-पाक मुशायरा 5 मार्च को
    नई दिल्ली, 2 मार्च (आईएएनएस)। भारत और पाकिस्तान दोनों ही पड़ोसी देश एक मजबूत सांस्कृतिक एवं साहित्यिक पृष्ठभूमि साझा करते हैं। दोनों देशों के बीच होने वाले कई कार्यक्रमों में से एक है डी.सी.एम. शंकर-शाद मुशायरा। इसकी शुरुआत 1953 में हुई थी। इस साल इसके 51वें संस्करण का आयोजन पांच मार्च को किया जा रहा है।

    शंकर-शाद मुशायरा विश्व भर में उर्दू का सबसे बड़ा और सबसे लोकप्रिय मुशायरा रहा है और उर्दू शायरी प्रेमियों के बीच इसने अपनी अलग पहचान कायम की है।

    इस वर्ष इस मुशायरे की रौनक बढ़ाने वाले शायरों में; पीरजदा कासिम (कराची), किश्वर नाहीद (इस्लामाबाद), अमजद इस्लाम अमजद (लाहौर), अजीज नबील (दोहा कटार), अब्दुल्ला साहिब (यू.एस.), और फरहत शहजाद (न्यू जर्सी, यू.एस) जैसे प्रख्यात कवियों के नाम शामिल हैं, वहीं भारतीय शायरों में; जावेद अख्तर (मुम्बई), अनवर जलालपुरी (लखनऊ), मुन्नवर राणा (लखनऊ), प्रो. वसीम बरेल्वी (बरेली), डॉ. पॉपुलर मेरठी (मेरठ), इकबाल अशर (दिल्ली), डॉ. गौहर रजा (दिल्ली), इफ्फत जरीन (दिल्ली), नवाज देवबंधी (देवबंध), कुंवर रंजीत चैहन (दिल्ली), डॉ. मलिकजदा मंजूर अहमद (लखनऊ) एवम् बेकल उत्साही (बलरामपुर) जैसी हस्तियां शामिल हैं जो अपने आप में उर्दू लिटरेचर क्षेत्र के दिग्गज और माने हुए व्यक्तित्व हैं।

    अपने वार्षिक पर्व के विषय में माधव बी श्रीराम (अध्यक्ष, शंकर लाल-मुरली धर मेमोरियल सोसायटी और निदेशक, डीसीएम श्रीराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड) बताते हैं, "दिल्ली की विख्यात व विविधता भरी जीवंत संस्कृति पर 500 वर्षो तक उर्दू भाषा का प्रभुत्व रहा है। मुझे लगता है कि उर्दू एक भाषा नहीं यह अपने आप में एक संस्कृति है। आज के समय में इसे संरक्षित करने की आवश्यकता है, इस भाषा व संस्कृति को विलुप्त होने से बचाना होगा। हालिया वर्षो में साहित्यिक समारोह व गतिविधियों के चलते बड़े पैमाने पर भाषा के पुनरूद्धार की एक अच्छी पहल ने इस संस्कृति को जीवंत करने का प्रयास किया है और हमें खुशी है कि एक परम्परा को जीवित रखने के प्रयास में हम भी योगदान दे पा रहे हैं।"

    दिल्ली के रत्न एवं डी.सी.एम. के संस्थापक लाला मुरलीधर शाद एवं शंकरलाल ने इस पहल की शुरुआत की थी। अपनी तरह के इस शंकर-शाद (भारत-पाक) मुशायरा को पूर्व प्रधानमंत्रियों पं जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री जैसी देश की अग्रणी हस्तियों का भी संरक्षण मिला है। पूर्व में जोश मलिहाबादी, जिगर मोरादाबादी, फैज अहमद फैज, कैफी आजमी, अली सरदार जाफरी एवं अन्य प्रख्यात कवियों ने शंकर-शाद मुशायरा में अपनी कम्पोजिशन से विशिष्ट बनाया है।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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जीवनशैली

कम उम्र में सेक्स के लिए उकसा सकता है रैप म्यूजिक!

न्यूयार्क, 1 मार्च (आईएएनएस)। शोधकर्ताओं ने चेताया है कि बार-बार रैप म्यूजिक सुनने वाले किशोर-किशोरियां जल्दी सेक्स की शुरुआत कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि दूसरी तरह के संगीत की...