ममता अग्रवाल
'बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही' शमशेर बहादुर के इन शब्दों में ही अपने लिखे शब्दों का मर्म समेटते हुए आंचलिक कथाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' कहने को आतुर होते हैं कि रचना स्वयं ही काफी कुछ कह जाती है, उसकी मौखिक व्याख्या की कोई दरकार नहीं होती।
रेणु ने स्वयं को न केवल लोकप्रिय कथाकार के रूप में स्थापित किया, बल्कि हर जोर-जुल्म की टक्कर में सड़कों पर भी उतरते रहे, भारत से नेपाल तक। उन्होंने वर्ष 1975 में आपातकाल का विरोध करते हुए अपना 'पद्मश्री' सम्मान लौटा दिया था।
निस्संदेह, 'तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम', 'मैला आंचल', 'परती परिकथा' जैसी कृतियों के शिल्पी रेणु ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सहज रूप में काफी कुछ कह दिया है।
रेणु ऊपर से जितने सरल, मृदुल थे, अंदर से उतने ही जटिल भी। उन्होंने अपनी कहानियों, उपन्यासों में ऐसे पात्रों को गढ़ा, जिनमें दुर्दम्य जिजीविषा देखने को मिलती है। उनके पात्र गरीबी, अभाव, भुखमरी व प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हुए मर तो सकते हैं, लेकिन परिस्थितियों से हार नहीं मानते।
रेणु की कहानियां नीरस भावभूमि में भी संगीत से झंकृत होती लगती हैं।
बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च, 1921 को शिलानाथ मंडल के पुत्र के रूप में जन्मे रेणु का बचपन आजादी की लड़ाई को देखते-समझते बीता।
रेणु की प्रारंभिक शिक्षा फारबिसगंज और 'अररिया' में हुई। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद नेपाल के कोईराला परिवार में रहकर उन्होंने वहीं के विराटनगर स्थित 'विराटनगर आदर्श विद्यालय' से मैट्रिक किया था।
पारिवारिक पृष्ठभूमि से प्रेरित रेणु ने न केवल 1942 में भारत के स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया, बल्कि 1950 में नेपाली जनता को वहां की राणाशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए वहां की सशस्त्र क्रांति और राजनीति में भी अपना सक्रिय योगदान दिया।
उनकी रचनाएं हिंदी कथा साहित्य के प्रणेता प्रेमचंद की रचनाओं की तरह ही सामाजिक सरोकारों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। प्रेमचंद की 'गोदान' जितनी लोकप्रिय है, उतनी ही रेणु की 'मैला आंचल' भी साहित्य प्रेमियों के मन में उतरने में कामयाब रही।
'मैला आंचल' नाम से ही टीवी धारावाहिक बना और इससे पहले इसी उपन्यास पर 'डागदर बाबू' नाम से फिल्म बननी शुरू हुई थी, जो पूरी न हो सकी। राज कपूर व वहीदा रहमान अभिनीत फिल्म 'तीसरी कमस' रेणु की ही लंबी कहानी पर बनी थी। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।
उन्होंने भूमिहीनों और खेतिहर मजदूरों की समस्याओं को भी लेकर बातें की। साथ ही जातिवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की पनपती हुई बेल की ओर मात्र इशारा नहीं किया था, इसके समूल नष्ट करने की आवश्यकता पर भी बल दिया था।
उनका जीवन और समाज के प्रति उनका सरोकार प्रेमचंद की तरह ही रहा। इस दृष्टिकोण से रेणु प्रेमचंद के संपूरक कथाकार हैं। शायद यही कारण है कि प्रेमचंद के बाद रेणु ने ही सबसे बड़े पाठक वर्ग को अपनी लेखनी से प्रभावित किया।
रेणु के साहित्य में आंचलिक भाषा की प्रमुखता देखने को मिलती है। अंचल के जनमानस को सजीवता से चित्रित करने के लिए उन्होंने आंचलिक भाषा का भरपूर प्रयोग किया। उनकी अनेक रचनाओं में आंचलिक परिवेश का सौंदर्य, उसकी सजीवता और मानवीय संवेदनाओं का ताना-बाना नजर आता है।
अपने उपन्यास 'मैला आंचल' में उन्होंने अपने अंचल का इतनी गहराई से चित्रण किया है कि वह आंचलिक साहित्य का एक सोपान बन गया।
रेणु को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको अपनी सहज सरल कहानियों से भी मिली। आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप, अच्छे आदमी, सम्पूर्ण कहानियां, ठुमरी, अगिनखोर, आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।
उनके उपन्यासों में 'मैला आंचल', 'परती परिकथा', 'जूलूस', 'दीर्घतपा' (जो बाद में कलंक मुक्ति नाम से प्रकाशित हुई), 'कितने चौराहे', 'पल्टू बाबू रोड' आदि प्रमुख हैं।
रेणु के गढ़े किरदारों में खुद उनकी जिजीविषा दिखाई देती है। उनकी कहानी 'पहलवान का ढोलक' का पात्र पहलवान मौत को गले लगा लेता है, लेकिन चित नहीं होता। यानी वह मर जाता है, लेकिन पराजय स्वीकार नहीं करता।
रेणु के पात्र ही जिजीविषा और सिद्धांतों से ओतप्रोत नहीं दिखाई देते, उन्होंने इसे अपने जीवन में भी सार्थक किया है। सरकारी दमन और शोषण के विरुद्ध ग्रामीण जनता के साथ प्रदर्शन करते हुए वह जेल गए, उन्होंने आपातकाल का विरोध करते हुए अपना 'पद्मश्री' सम्मान भी लौटा दिया। इसी समय रेणु ने पटना में लोकतंत्र रक्षी साहित्य मंच की स्थापना की थी।
रेणु की कहानी 'रखवाला' में नेपाली गांव की कहानी का चित्रण है और इसके कई संवाद भी नेपाली भाषा में हैं। नेपाल की पृष्ठभूमि पर आधारित उनकी एक अन्य कहानी 'नेपाली क्रांतिकथा' उन्हें हिन्दी के एकमात्र नेपाल प्रेमी कहानीकार के रूप मे प्रतिष्ठित करती है।
उनकी कहानियों के साथ ही उनके कुछ संस्मरण भी काफी लोकप्रिय हुए। इनमें 'धनजल वनजल', 'वन तुलसी की गंध', 'श्रुत-अश्रुत पूर्व', 'समय की शिला' पर आदि का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
रेणु की लेखन शैली ऐसी थी जिसमें वह अपने हर किरदार की मनोदशा का ऐसा अद्भुत वर्णनात्मक चित्रण करते थे कि वह पाठक की आंखों में जीवंत हो उठता था।
देश स्वाधीन होने के बाद उन्होंने एक नई दिशा में कदम बढ़ाया और बिहार के पूर्णिया से एक 'नई दिशा' नामक पत्रिका का संपादन प्रकाशन शुरू किया।
रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 1972 में 'भित्तिचित्र की मयूरी' लिखी थी।
लेखन के साथ ही सामाजिक सरोकार को समझते हुए वह गरीबों-मजदूरों के हक के लिए लड़ते रहे। रेणु का संघर्ष सफल हुआ और मार्च 1977 को आपातकाल हटा, लेकिन इसके बाद वह अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए।
पेप्टिक अल्सर रोग से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था और बीमारी से लड़ते हुए 11 अप्रैल 1977 को वह इस संसार से ओझल हो गए, लेकिन अपनी तमाम कृतियों के कारण वह आज भी साहित्य प्रेमियों के मन में जीवंत हैं।