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शौचालय की समस्या से जूझती महिलायें Featured

उपासना बेहार

कितनी विडंबना है कि आजादी के 68 वर्ष बाद भी देश की बड़ी जनसंख्या खुले में शौच करने के लिए मजबूर है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश के 53.1 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं है। ग्रामीण इलाकों में यह संख्या 69.3 प्रतिशत है. देश में शौचालय की उपलब्धता के मामले में सबसे खराब स्थिति झारखंड और ओडिशा की है जहां लगभग 78 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं हैं। इस मामले में सबसे अच्छी स्थिति केरल की है।

यूनाइटेड नेशंस की 2010 की रिपोर्ट ने आश्चर्य कर देने वाली हकीकत को सामने रखा है कि देश में लोग शौचालय से ज्यादा मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं, रिपोर्ट में बताया है कि देश में 54 करोड़ 50 लाख लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं, वही केवल 36 करोड़ 60 लाख लोग शौचालयों का उपयोग करते हैं, वही ड्रिंकिंग वाटर एंड सेनिटेशन मंत्रालय के अनुसार देश में अब भी लगभग 10 करोड़ घर ऐसे हैं, जहां शौचालय की व्यवस्था नहीं है। इस समस्या को गंभीरता से लेते हुए 2001 में ही डब्ल्यूटीओ द्वारा 19 नवम्बर को विश्व शौचालय दिवस (डब्ल्यूटीडी) घोषित किया गया।

घरों में शौचालय न होने से सबसे ज्यादा दिक्कतों का सामना लडकियों और महिलाओं को करना पडता है। खुले में शौच का सबसे ज्यादा असर उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा पर पडता है। विश्व बैंक के डीन स्पीयर्स के अध्ययन में भी कहा गया है कि खुले में शौच करने से महिलाओं के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता है। लेकिन ना तो इसे लेकर शहरों में और ना ही गांवों में कभी भी ध्यान दिया जाता है। घर में शौचालय ना होने की वजह से महिलायें रोज सूरज उगने से पहले उठकर घर से दूर शौच के लिए जाती हैं, अगर किसी वजह से सुबह शौच के लिए नहीं जा पाती तो उन्हें दिनभर नित्यकर्म रोक के रखना पड़ता है और फिर रात को शौच के लिए जाती हैं. बारिश के दौरान भी शौच के लिए घर से बाहर जाना मुश्किल होता है। इसकी वजह से महिलाओं में कई तरह की बीमारियाँ जैसे अक्सर गैस्ट्रिक, कब्ज, पेट का अल्सर, टायफायड, किडनी की समस्या, आंतों का संक्रमण, यूरिनल इंफेक्शन, गर्भाशय में संक्रमण, मधुमेह इत्यादि होती है, विडम्बना यह है कि महिलायें इन बीमारियों को अपने अनियमित नित्यकर्म से जोड़ भी नहीं पाती इस कारण उनका इलाज भी सही तरीके से नहीं हो पाता हैं। घर में शौचालय ना होने का खामियाजा गर्भवती महिला को तो ओर ज्यादा उठाना पड़ता है, समय पर शौच ना जाना, रोक के रखना, पानी कम पीना इत्यादि का असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर भी पड़ता है और जन्म से ही उसमें कई विकृतियाँ हो जाती है.

शहरों में तो यह समस्या ओर भी गंभीर रूप से देखने को मिलती है, जहाँ एक बड़ी आबादी झुग्गी बस्तियों में रहती हैं, वे बड़ी मुश्किल से तो रहने का इंतजाम कर पाते हैं, ऐसे में वहाँ हर घर में शौचालय की कल्पना करना नामुमकिन सा है, इस कारण लोग खुले में शौच जाने को मजबूर हैं, यहाँ भी सबसे ज्यादा परेशानी लडकियों और महिलायें को उठानी पड़ती है, शहरों में खाली जगहों की बहुत कमी होती है इस कारण उन्हें अलसुबह से ही शौच के लिए जाना पड़ता है लेकिन हमेशा डर बना रहता है कि कोई देख ना ले, वैसे शहरों में सार्वजनिक शौचालयों की व्यवस्था की गयी है लेकिन जनसंख्या के हिसाब से इनकी संख्या कम होती है और जो हैं भी उनमें से ज्यादातर सार्वजनिक शौचालयों का रखरखाव सही नहीं होता, वो गंदे होते हैं और वहाँ पानी की व्यवस्था नहीं होती है, महिलाओं की शारीरिक बनावट ऐसी है कि गंदे शौचालय से उन्हें संक्रमण जल्दी होता है। इससे गंदगी और प्रदूषण होता होता है. 

फिल्ममेकर पारोमिता वोहरा ने 2006 में शहरों में मूलभूत सुविधा और महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालयों की कमी पर “क्यू2पी” फिल्म बनाई थी जिसमें दिखाया गया है कि शौचालय की कमी की वजह से महिलाओं को कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता है। देश के बड़े बड़े शहरों में सार्वजनिक शौचालय पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, इससे सबसे बुरा हाल कामकाजी महिलाओं खासकर जो फील्ड जॉब करती हैं, का होता है। स्वयंसेवी संस्था में कार्यरत् अंजू का कहना है कि ‘उसे काम के लिए रोज बस्ती जाना पड़ता है लेकिन वहां लोगों के घरों में शौचालय नहीं है इस कारण मैं घर से ही कम पानी पीती हूँ जिससे मुझे शौचालय जाने की जरुरत ना पड़े और कभी जब आवश्यकता आ जाती है तो मुझे बहुत दिक्कत होती है. पानी कम पीने के कारण मुझे यूरिन करते समय जलन होती है.’

शौचालय की अनुपलब्धता का प्रभाव लडकियों,महिलाओं की सुरक्षा पर भी पड़ता है. ये शौच के लिए बेहद सुबह या फिर देर रात सन्नाटा में निकल कर सुनसान जगहों, जंगल, झाडीयों के पीछे जाती हैं, लेकिन ये स्थान असुरक्षित होते हैं और उन्हें हिंसा और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, पुरुष अश्लील बातें और इशारे करते हैं. पिछले साल बदायूं जिले के एक गावं में दो किशोरियां शौच के लिए गयी थी,उनका बलात्कार कर हत्या कर दी गयी थी, इस घटना पर रास्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने एक बयान जारी करते हुए कहा था कि अगर देश में ज्यादा शौचालय होंगे तो बलात्कार जैसी घटनाओं पर अंकुश लगेगा और आयोग का जोर इस बात पर है कि हर घर में शौचालय हो। लडकियों, महिलाओं को हमेशा डर बना रहता है कि कही उनके साथ कोई दुर्घटना घटित ना हो जाये इसलिए वे कोशिश करती हैं कि अकेली ना जा कर समूहों में शौच के लिए जायें.

शौचालय ना होने से लडकियों,महिलाओं को मानसिक परेशानीयों का भी सामना करना होता है. रोज खुले में शौच जाना उनके लिए एक संघर्ष की तरह है, यह संविधान में दिए गए गरिमापूर्ण और सम्मान के साथ जीने के हक का भी उलंघन है।

शौचालय ना होने की समस्या से निपटने के लिए अब महिलाये खुद मुखर हो कर सामने आ रही है, पटना के एक गांव की पार्वती देवी ने चार साल लम्बी लड़ाई लड़ कर घर में शौचालय बनवाया, इसी प्रकार उत्तरप्रदेश के खेसिया गाव की 6 नववधुओं ने इस मांग के साथ अपना ससुराल छोड़ दिया कि जब घर में शौचालय बनेगा तब वे वापस आ जाएगी। हरियाणा के भिवानी में एक बुजुर्ग महिला प्रेमा ने शौचालय के निर्माण के लिए अपनी भैंस बेच डाली, इस तरह के अनेकों केस देखने को मिल रहे हैं जिसमें महिलायें घर में शौचालय बनवाने की मांग कर रही हैं।

भारत सरकार सरकार द्वारा भी इस समस्या को दूर करने की दिशा में लगातार प्रयास किये जा रहे हैं, 1986 में केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम शुरू किया गया था जिसका 1999 में नाम बदल कर संपूर्ण स्वच्छता अभियान कर दिया गया, निर्मल भारत अभियान के अंतर्गत घर में शौचालय बनाने के लिए राशि दी जाती है। शहरी क्षेत्रों के लिए 2008 में राष्ट्रीय शहरी स्वच्छता नीति लायी गयी। वही 12वीं पंचवर्षीय योजना में 2017 तक खुले में शौच से मुक्त करने का संकल्प लिया है। देश के प्रधानमंत्री का भी नारा है कि ‘देश में मंदिर बाद में बनें, पहले शौचालय बनाया जाये’। इसी कड़ी में 2014 से स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत हुई है। सरकार द्वारा स्वच्छता अभियान के लिए 52000 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है और 2019 तक हर घर में शौचालय का दावा किया गया है। सरकार द्वारा विभिन्न माध्यमों का  उपयोग करते हुए स्वच्छता को लेकर जागरूकता लाने, लोगों में शौचालय बनवाने और उसका उपयोग करने को लेकर व्यवहार परिवर्तन का प्रयास किया जा रहा है। घरों और सार्वजानिक जगहों पर दीवार लेखन, चित्रों, होर्डिंग और स्लोगन के जरिये स्वच्छाता जानकारी दी जा रही है।

लेकिन ऐसा क्यों है कि इतने सब प्रयासों के बाद भी आज भी देश की आधी से ज्यादा आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है, इसका कारण सरकार और समाज की दूरी. इसके लिए सरकार को समाज के साथ भी काम करना होगा, शौचालय निर्माण और उपयोग को सामाजिक सुधार आन्दोलन का रूप देना होगा। लोगों की मानसिकता को बदलना होगा, खासकर पुरुषों के,क्योंकि वे तो कभी भी शौच के लिए घर से बाहर जा सकते थे इस कारण वो महिलाओं की परेशानी को समझ नहीं सकते. घर में शौचालय बनाने को लेकर जो मिथक हैं उसे दूर करना होगा साथ ही उन शौचालय का उपयोग भी करने की समझ बनानी होगी। सरकार द्वारा शौचालय निर्माण के लिए दी जाने वाली राशि को भी बढ़ाना होगा और इन सेवाओं के कार्यान्वयन, निरीक्षण और मूल्यांकन में स्थानीय लोगों की भागीदारी होनी आवश्यक है।

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About Author

लेखिका भोपाल में रहती है और एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो युवा संवाद और नागरिक अधिकार मंच के साथ मिल कर भोपाल में युवाओं, महिलाओं, दलितों के साथ विभिन्न मुद्दों जैसे जेंडर, जाति, समानता, साम्प्रदायिक सौहार्द को लेकर काम करती हैं। साथ ही साथ उनका विभिन्न सामाजिक संस्थाओं और संगठनों से जुड़ाव हैं।
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