उपासना बेहार
6 जुलाई 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया जिसमें कहा गया कि अविवाहित मां अपने बच्चे की अकेली अभिभावक बन सकती है। इसमें उसके पिता की रजामंदी लेने की आवश्यकता नहीं है। जिस केस को लेकर यह फैसला सुनाया गया है वो कुछ इस तरह है कि एक अविवाहित महिला ने अपने बच्चे की क़ानूनी अभिभावक बनने के लिए निचली अदालत में अर्जी दी लेकिन अदालत ने 'गार्जियनशिप एंड वार्ड्स एक्ट' का हवाला देते हुए बच्चे के पिता से मंजूरी लेने को कहा, महिला के ऐसा करने की असमर्थता जताई तब अदालत ने उसकी अर्जी ठुकरा दी, तब इसी सम्बन्ध में महिला ने हाईकोर्ट मे अर्जी दी लेकिन वहां भी महिला की याचिका ख़ारिज हो गयी. फिर महिला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. महिला का यह भी कहना था कि उसका अधिकार है कि वह पितृत्व का खुलासा नहीं करे। महिला का तर्क था कि पिता का बच्चे के परवरिश से कुछ भी लेना-देना नहीं है।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अविवाहित महिला बच्चे के पिता की मंज़ूरी के बिना भी उसकी कानूनी अभिभावक बन सकती है, मां को बच्चे के पिता की पहचान बताने की भी जरूरत नहीं है और न ही अभिभावक के लिए दी गई अर्जी में उसे पार्टी बनाने की कोई आवश्यकता है। कोर्ट ने कहा की बच्चे के सर्वाधिक हित के मद्देनजर पिता को नोटिस देने जैसे प्रक्रियात्मक कानूनों को हटाया जा सकता है।
पता हो कि “अभिभावक तथा बालक कानून” और “हिन्दू माइनोरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट” के तहत जब कोई संरक्षण के लिए याचिका दायर करता है तो बच्चे के अभिभावक बनने के लिए उसके पिता की मंजूरी लेना आवश्यक है। यानि इस एक्ट के तहत बच्चे के लीगल गार्जियन का फैसला लेते वक्त उसके पिता की सहमती लेना जरुरी होता है.
कोर्ट का यह फैसला स्वागत योग्य है. यह निर्णय उन एकल महिलाओं के लिए मिल का पत्थर साबित होगा जो अपने बच्चों के गार्जियनशिप के लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ रही थी. समाज में तो महिलाओं को दोयम दर्जे का माना जाता ही है लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे कानून में भी महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की झलकती है. परिवार का मुखिया पुरुष होता है. ज्यादातर जगहों पर पुरुष को ही अभिवावक के रूप में माना जाता है. कोर्ट के इस निर्णय ने एकल महिलाओं को ताकत दी है.
जब से महिलाये आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने लगी हैं,पुराने ढाचें चरमराने लगे हैं. लेकिन अकेली स्त्री और वो भी अन्व्याही माँ को स्वीकार करना अभी भी समाज में असंभव है. पितृसत्ता को यह गवारा ही नहीं होता कि कोई महिला बिना पुरुष की छाया के जिए और अपने सभी निर्णय स्वतंत्रता के साथ ले सके. महिलायें चाहे कितनी भी बड़े मुकाम को छू लें फिर भी महिलाओं का अविवाहित होना समाज को चुभता है। समाज में महिला की छबी आत्मनिर्भरता की ना हो कर निर्भरता की बनी हुई है. समाज ने एक अच्छी और आदर्श महिला की छबी गढ़ी हुई है, जिसमें एकल स्त्री, अन्व्याही माँ फिट नहीं बैठती हैं और समाज में अस्वीकार है. इसी के चलते हमारे पितृसत्तात्मक समाज में इन अकेली महिलाओं की स्थिति अक्सर शोचनीय होती है और उन पर कई तरह के बंधन लाद दिये जाते हैं। पुरुषों के संरक्षण में जीने वाली महिलाओं को तो फिर भी सामाजिक सुरक्षा मिल जाता है, किन्तु जो औरतें अकेली होती हैं, उनको बहुत कठिनाइयां का सामना करना पड़ता है।
अगर 2001 की जनगणना को देखें तो पते हैं कि भारत की कुल आबादी का 6.9 प्रतिशत विधवा, 0.5 प्रतिशत तलाकशुदा व परित्यक्ता तथा तीस पार करने के बाद भी अकेली रह रही महिलाओं की संख्या 1.4 प्रतिशत है। सन् 2011 में हुए जनगणना में एकल महिलाओं की संख्या की जानकारी सरकार द्वारा अभी जारी नहीं की गयी है। इन आंकड़ों से यह बात समझ में आती है कि देश में बहुत बड़ी संख्या में ऐसी महिलाएं हैं जो अकेले जी रही हैं और इन्हें कदम कदम पर चुनोतियो का सामना करना पड़ता है। विधवा होने को हमारे समाज में अभी भी सामान्य नहीं मानते है. तलाकशुदा व परित्यक्ता या अपने इच्छा अनुसार अकेले रह रही महिलाओं को समाज और परिवार में भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता.
इन महिलाओं को सामाजिक, सांस्क्रतिक परम्परा, रीतिरिवाज और धार्मिक बंधनों के द्वारा काबू में रखने की कोशिश की जाती है। एकल महिलाओं के चरित्र पर सबसे पहले ऊँगली उठाई जाती है और उस पर तरह-तरह के लांछन लगाये जाते हैं। अकेली महिलाओं, उसकी संपत्ति, बच्चों पर घर-बाहर के पुरुष नियंत्रण में रखने की कोशिश में लग जाते हैं. कानून द्वारा भी इन महिलाओं को बहुत सहयोग नहीं मिलता है.
तेजी से बदल रहे हमारे समाज में एकल महिला का चलन बढ़ता जा रहा हैं, कोर्ट का यह निर्णय आना सकारात्मक बदलाव की और इंगित करता हैं. यह फैसला महिला के स्वतंत्रता और समानता को बढ़ाएगा. यह भी एक सकारात्मक संकेत हे कि ये महिलायें प्रताड़ना और शोषण के खिलाफ आगे आ रही हैं और अपने हक़ को लेने के लिए लड़ाई लड़ रही हैं.