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उपासना बेहार

“.....ज्ञान बिना सब कुछ खो जावे,
बुद्धि बिना हम पशु हो जावें,

अपना वक्त न करो बर्बाद,
जाओ, जाकर शिक्षा पाओ......”
सावित्रीबाई फुले की कविता का अंश

अगर सावित्रीबाई फुले को प्रथम महिला शिक्षिका, प्रथम शिक्षाविद् और महिलाओं की मुक्तिदाता कहें तो कोई भी अतिशयोक्ति नही होगी, वो कवयित्री, अध्यापिका, समाजसेविका थीं. सावित्रीबाई फुले बाधाओं के बावजूद स्त्रियों को शिक्षा दिलाने के अपने संघर्ष में बिना धैर्य खोये और आत्मविश्वास के साथ डटी रहीं. सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिबा के साथ मिलकर उन्नीसवीं सदी में स्त्रियों के अधिकारों, शिक्षा छुआछुत, सतीप्रथा, बालविवाह तथा विधवाविवाह जैसी कुरीतियां और समाज में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष किया. ज्योतिबा उनके मार्गदर्शन,संरक्षक, गुरु, प्रेरणा स्रोत तो थे ही पर जब तक वो जीवित रहे सावित्रीबाई का होसला बढ़ाते रहे और किसी की परवाह ना करते हुए आगे बढने की प्रेरणा देते रहे.

सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव नामक छोटे से गॉव में हुआ था, 9 साल की अल्पआयु में उनकी शादी पूना के ज्योतिबा फुले के साथ किया गया. विवाह के समय सावित्री बाई फुले की कोई स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी वहीं ज्योतिबा फुले तीसरी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त किये थे। सावित्री जब छोटी थी तब एक बार अंग्रेजी की एक किताब के पन्ने पलट रही थी, तभी उनके पिताजी ने यह देख लिया और तुरंत किताब को छीनकर खिड़की से बाहर फेंक दिया, क्योंकि उस समय शिक्षा का हक़ केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही था, दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करना पाप था. थोड़ी देर में सावित्रीबाई उस किताब को चुपचाप वापस ले आई और उस दिन उन्होंने निश्चय किया कि वह एक न एक दिन पढ़ना ज़रूर सीखेगी और यह सपना पूरा हुआ ज्योतिबा फुले से शादी करने के बाद.

सावित्रीबाई फुले एक दलित परिवार से थी, जब ज्योतिबा फुले ने उनसे शादी की तो ऊँची जाति के लोगों ने विवाह संस्कार के समय उनका अपमान किया तब ज्योतिबा फुले ने दलित वर्ग को गरिमा दिलाने का प्रण लिया. वो मानते थे कि दलित और महिलाओं की आत्मनिर्भरता, शोषण से मुक्ति और विकास के लिए सबसे जरुरी है शिक्षा और इसकी शुरुआत उन्होंने सावित्रीबाई फुले को शिक्षित करने से की. ज्योतिबा को खाना देने जब सावित्रीबाई खेत में आती थीं, उस दौरान वे सावित्रीबाई को पढ़ाते थे,लेकिन इसकी भनक उनके पिता को लग गयी और उन्होंने रूढ़िवादीता और समाज के डर से ज्योतिबा को घर से निकाल दिया फिर भी ज्योतिबा ने सावित्रीबाई को पढ़ाना जारी रखा और उनका दाखिला एक प्रशिक्षण विद्यालय में कराया.समाज द्वारा इसका बहुत विरोध होने के बावजूद सावित्रीबाई ने अपना अध्ययन पूरा किया.

अध्ययन पूरा करने के बाद सावित्री बाई ने सोचा कि प्राप्त शिक्षा का उपयोग अन्य महिलाओं को भी शिक्षित करने में किया जाना चाहिए. लेकिन यह एक बहुत बड़ी चुनौती थी क्योंकि उस समय समाज लड़कियों को पढ़ाने के खिलाफ था. फिर भी उन्होंने ज्योतिबा के साथ मिल कर 1848 में पुणे में बालिका विद्यालय की स्थापना की, जिसमें कुल नौ लडकियों ने दाखिला लिया और सावित्रीबाई फुले इस स्कूल की प्रधानाध्यापिका बनीं. कुछ ही दिनों में उनके विद्यालय में दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे, विशेषकर लड़कियाँ की संख्या बढ़ती गयी लेकिन सावित्रीबाई का रोज घर से विद्यालय जाने का सफ़र सबसे कष्टदायक होता था, जब वो घर से निकलती तो लोग उन्हें अभद्र गालियाँ,जान से मारने की लगातार धमकियां देते, उनके ऊपर सड़े टमाटर, अंडे, कचरा, गोबर और पत्थर फेंकते थे, जिससे विद्यालय पहुँचते पहुँचते उनके कपडे और चेहरा गन्दा हो जाया करते थे. सावित्रीबाई इसे लेकर बहुत परेशांन हो गयी थीं,  तब ज्योतिबा ने इस समस्या का हल निकला और उन्हें 2 साड़ियाँ दी, मोटी साड़ी घर से विद्यालय जाते और वापस आते समय के लिए थी वहीं दूसरी साड़ी को विद्यालय में पहुँच कर पहनना होता था. एक घटना के बाद इन अत्याचारों का अंत हो गया, घटना यू हैं कि एक बदमाश रोज सावित्रीबाई का पीछा करता था और उनके लिए रस्ते भर अभद्र भाषा का प्रयोग करता था, एक दिन वह अचानक सावित्रीबाई का रास्ता रोककर खडा हो गया और उन पर हमला करने की कोशिश की, सावित्रीबाई फुले ने बहादुरी से उसका मुकाबला किया और उसे दो-तीन थप्पड़ जड़ दिए। उसके बाद से किसी ने भी उनके साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिश नही की.

1 जनवरी 1848 से लेकर 15 मार्च 1852 के दौरान सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने बिना किसी आर्थिक मदद और सहारे के लड़कियों के लिए 18 विद्यालय खोले. उस दौर में ऐसा सामाजिक क्रांतिकारी की पहल पहले किसी ने नही की थी. इन शिक्षा केन्द्र में से एक 1849 में पूना में ही उस्मान शेख के घर पर मुस्लिम स्त्रियों व बच्चों के लिए खोला था। सावित्रीबाई अपने विद्यार्थियों से कहा करती थी कि “कड़ी मेहनत करो, अच्छे से पढाई करो और अच्छा काम करो”.  ब्रिटिश सरकार के शिक्षा विभाग ने शिक्षा के क्षेत्र में सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले के योगदान को देखते हुए 16 नवम्बर 1852  को उन्हें शॉल भेंटकर सम्मानित किया.

सावित्रीबाई फुले ने केवल शिक्षा के क्षेत्र में ही नही बल्कि स्त्री की दशा सुधारने के लिए भी महत्वपूर्ण काम किया. उन्होनें 1852 में ”महिला मंडल“ का गठन किया और भारतीय महिला आंदोलन की प्रथम अगुआ भी बनीं। सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा ने बाल-विधवा और बाल-हत्या पर भी काम किया था, उन्होंने 1853 में ‘बाल-हत्या प्रतिबंधक-गृह’ की स्थापना की, जहाँ विधवाएँ अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी और यदि वो उन्हें अपने साथ रखने में असमर्थ हैं तो बच्चों को इस गृह में रख कर जा सकती थीं। इस गृह की पूरी देखभाल और बच्चों का पालन पोषण सावित्रीबाई फुले करती थीं। 1855 में मजदूरों को शिक्षित करने के उद्देश्य से फुले दंपत्ति ने ‘रात्रि पाठशाला’ खोली थी. उस समय विधवाओं के सिर को जबरदस्ती मुंडवा दिया जाता था, सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा ने इस अत्याचार का विरोध किया और नाइयों के साथ काम कर उन्हें तैयार किया कि वो विधवाओं के सिर का मुंडन करने से इंकार कर दे, इसी के चलते 1860 में नाइयों से हड़ताल कर दी कि वे किसी भी विधवा का सर मुंडन नही करेगें, ये हड़ताल सफल रही. सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा ने अपने घर के भीतर पानी के भंडार को दलित समुदाय के लिए खोल दिया. सावित्रीबाई फुले के भाई ने इन सब के लिए ज्योतिबा की घोर निंदा की, इस पर सावित्रीबाई ने उन्हें पत्र लिख कर अपने पति के कार्यो पर गर्व किया और उन्हें महान कहा.

सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा ने 24 सितम्बर,1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की.सावित्रीबाई फुले ने विधवा विवाह की परंपरा शुरू की और सत्यशोधक समाज द्वारा पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसम्बर 1873 को संपन्न किया गया था और यह शादी बाजूबाई निम्बंकर की पुत्री राधा और सीताराम जबाजी आल्हट की शादी थी. 1876 व 1879 में पूना में अकाल पड़ा था तब ‘सत्यशोधक समाज‘ ने आश्रम में रहने वाले 2000 बच्चों और गरीब जरूरतमंद लोगों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था की।

28 नवम्बर 1890 को बीमारी के के चलते ज्योतिबा की मृत्यु हो गयी, ज्योतिबा के निधन के बाद सत्यशोधक समाज की जिम्मेदारी सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवन के अंत तक किया.1893 में सास्वाड़ में आयोजित सत्यशोधक सम्मेलन की अध्यक्षता सावित्रीबाई फुले ने ही की थी वहां उन्होंने ऐसा भाषण दिया कि दलितों, महिलाओं और पिछड़े-दबे लोगों में आत्म-सम्मान की भावना का संचार हुआ.1897 में पुणे में प्लेग की भयंकर महामारी फ़ैल गयी, प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की मौत हो रही थी. उस समय सावित्रीबाई ने अपने दत्तक पुत्र यशवंत की मदद से एक हॉस्पिटल खोला. वे बीमार लोगों के पास जाती और खुद ही उनको हॉस्पिटल तक लेकर आतीं थीं. हालांकि वो जानती थीं कि ये एक संक्रामक बीमारी है फिर भी उन्होंने बीमार लोगों की सेवा और देख-भाल करना जारी रखा. किसी ने उन्हें प्लेग से ग्रसित एक बच्चे के बारे में बताया, वो उस गंभीर बीमार बच्चे को पीठ पर लादकर हॉस्पिटल लेकर गयी. इस प्रक्रिया में यह महामारी उनको भी लग गयी और 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले की इस बीमारी के चलते निधन हो गया.

सावित्रीबाई प्रतिभाशाली कवियित्री भी थीं। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत भी माना जाता है। वे अपनी कविताओं और लेखों में सामाजिक चेतना की हमेशा बात करती थीं. इनकी कुछ प्रमुख रचना इस प्रकार हैं -1854 में पहला कविता-संग्रह 'काव्य फुले', 1882 में पुस्तक 'बावनकशी सुबोध रत्नाकर',1892 ‘मातोश्री के भाषण’,ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद 1891 में कविता-संग्रह ‘बावनकाशी सुबोध रत्नाकर’ आदि.

सावित्रीबाई फुले ने अपना पूरा जीवन समाज में वंचित तबके खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता दिया। लेकिन सावित्रीबाई के काम और संघर्ष सामने नही आ पाते हैं. उन्हें ज्योतिबा के सहयोगी के तौर पर ज्यादा देखा जाता है. जबकि इनका अपना एक स्वतंत्रत अस्तित्व था, उन्होंने ज्योतिबा फुले के सपने को आगे बढ़ाने में जी जान लगा दिया सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले दोनों सही मायनों में एक दूसरे के पूरक थे.

उपासना बेहार

कितनी विडंबना है कि आजादी के 68 वर्ष बाद भी देश की बड़ी जनसंख्या खुले में शौच करने के लिए मजबूर है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश के 53.1 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं है। ग्रामीण इलाकों में यह संख्या 69.3 प्रतिशत है. देश में शौचालय की उपलब्धता के मामले में सबसे खराब स्थिति झारखंड और ओडिशा की है जहां लगभग 78 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं हैं। इस मामले में सबसे अच्छी स्थिति केरल की है।

यूनाइटेड नेशंस की 2010 की रिपोर्ट ने आश्चर्य कर देने वाली हकीकत को सामने रखा है कि देश में लोग शौचालय से ज्यादा मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं, रिपोर्ट में बताया है कि देश में 54 करोड़ 50 लाख लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं, वही केवल 36 करोड़ 60 लाख लोग शौचालयों का उपयोग करते हैं, वही ड्रिंकिंग वाटर एंड सेनिटेशन मंत्रालय के अनुसार देश में अब भी लगभग 10 करोड़ घर ऐसे हैं, जहां शौचालय की व्यवस्था नहीं है। इस समस्या को गंभीरता से लेते हुए 2001 में ही डब्ल्यूटीओ द्वारा 19 नवम्बर को विश्व शौचालय दिवस (डब्ल्यूटीडी) घोषित किया गया।

घरों में शौचालय न होने से सबसे ज्यादा दिक्कतों का सामना लडकियों और महिलाओं को करना पडता है। खुले में शौच का सबसे ज्यादा असर उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा पर पडता है। विश्व बैंक के डीन स्पीयर्स के अध्ययन में भी कहा गया है कि खुले में शौच करने से महिलाओं के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता है। लेकिन ना तो इसे लेकर शहरों में और ना ही गांवों में कभी भी ध्यान दिया जाता है। घर में शौचालय ना होने की वजह से महिलायें रोज सूरज उगने से पहले उठकर घर से दूर शौच के लिए जाती हैं, अगर किसी वजह से सुबह शौच के लिए नहीं जा पाती तो उन्हें दिनभर नित्यकर्म रोक के रखना पड़ता है और फिर रात को शौच के लिए जाती हैं. बारिश के दौरान भी शौच के लिए घर से बाहर जाना मुश्किल होता है। इसकी वजह से महिलाओं में कई तरह की बीमारियाँ जैसे अक्सर गैस्ट्रिक, कब्ज, पेट का अल्सर, टायफायड, किडनी की समस्या, आंतों का संक्रमण, यूरिनल इंफेक्शन, गर्भाशय में संक्रमण, मधुमेह इत्यादि होती है, विडम्बना यह है कि महिलायें इन बीमारियों को अपने अनियमित नित्यकर्म से जोड़ भी नहीं पाती इस कारण उनका इलाज भी सही तरीके से नहीं हो पाता हैं। घर में शौचालय ना होने का खामियाजा गर्भवती महिला को तो ओर ज्यादा उठाना पड़ता है, समय पर शौच ना जाना, रोक के रखना, पानी कम पीना इत्यादि का असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर भी पड़ता है और जन्म से ही उसमें कई विकृतियाँ हो जाती है.

शहरों में तो यह समस्या ओर भी गंभीर रूप से देखने को मिलती है, जहाँ एक बड़ी आबादी झुग्गी बस्तियों में रहती हैं, वे बड़ी मुश्किल से तो रहने का इंतजाम कर पाते हैं, ऐसे में वहाँ हर घर में शौचालय की कल्पना करना नामुमकिन सा है, इस कारण लोग खुले में शौच जाने को मजबूर हैं, यहाँ भी सबसे ज्यादा परेशानी लडकियों और महिलायें को उठानी पड़ती है, शहरों में खाली जगहों की बहुत कमी होती है इस कारण उन्हें अलसुबह से ही शौच के लिए जाना पड़ता है लेकिन हमेशा डर बना रहता है कि कोई देख ना ले, वैसे शहरों में सार्वजनिक शौचालयों की व्यवस्था की गयी है लेकिन जनसंख्या के हिसाब से इनकी संख्या कम होती है और जो हैं भी उनमें से ज्यादातर सार्वजनिक शौचालयों का रखरखाव सही नहीं होता, वो गंदे होते हैं और वहाँ पानी की व्यवस्था नहीं होती है, महिलाओं की शारीरिक बनावट ऐसी है कि गंदे शौचालय से उन्हें संक्रमण जल्दी होता है। इससे गंदगी और प्रदूषण होता होता है. 

फिल्ममेकर पारोमिता वोहरा ने 2006 में शहरों में मूलभूत सुविधा और महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालयों की कमी पर “क्यू2पी” फिल्म बनाई थी जिसमें दिखाया गया है कि शौचालय की कमी की वजह से महिलाओं को कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता है। देश के बड़े बड़े शहरों में सार्वजनिक शौचालय पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, इससे सबसे बुरा हाल कामकाजी महिलाओं खासकर जो फील्ड जॉब करती हैं, का होता है। स्वयंसेवी संस्था में कार्यरत् अंजू का कहना है कि ‘उसे काम के लिए रोज बस्ती जाना पड़ता है लेकिन वहां लोगों के घरों में शौचालय नहीं है इस कारण मैं घर से ही कम पानी पीती हूँ जिससे मुझे शौचालय जाने की जरुरत ना पड़े और कभी जब आवश्यकता आ जाती है तो मुझे बहुत दिक्कत होती है. पानी कम पीने के कारण मुझे यूरिन करते समय जलन होती है.’

शौचालय की अनुपलब्धता का प्रभाव लडकियों,महिलाओं की सुरक्षा पर भी पड़ता है. ये शौच के लिए बेहद सुबह या फिर देर रात सन्नाटा में निकल कर सुनसान जगहों, जंगल, झाडीयों के पीछे जाती हैं, लेकिन ये स्थान असुरक्षित होते हैं और उन्हें हिंसा और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, पुरुष अश्लील बातें और इशारे करते हैं. पिछले साल बदायूं जिले के एक गावं में दो किशोरियां शौच के लिए गयी थी,उनका बलात्कार कर हत्या कर दी गयी थी, इस घटना पर रास्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने एक बयान जारी करते हुए कहा था कि अगर देश में ज्यादा शौचालय होंगे तो बलात्कार जैसी घटनाओं पर अंकुश लगेगा और आयोग का जोर इस बात पर है कि हर घर में शौचालय हो। लडकियों, महिलाओं को हमेशा डर बना रहता है कि कही उनके साथ कोई दुर्घटना घटित ना हो जाये इसलिए वे कोशिश करती हैं कि अकेली ना जा कर समूहों में शौच के लिए जायें.

शौचालय ना होने से लडकियों,महिलाओं को मानसिक परेशानीयों का भी सामना करना होता है. रोज खुले में शौच जाना उनके लिए एक संघर्ष की तरह है, यह संविधान में दिए गए गरिमापूर्ण और सम्मान के साथ जीने के हक का भी उलंघन है।

शौचालय ना होने की समस्या से निपटने के लिए अब महिलाये खुद मुखर हो कर सामने आ रही है, पटना के एक गांव की पार्वती देवी ने चार साल लम्बी लड़ाई लड़ कर घर में शौचालय बनवाया, इसी प्रकार उत्तरप्रदेश के खेसिया गाव की 6 नववधुओं ने इस मांग के साथ अपना ससुराल छोड़ दिया कि जब घर में शौचालय बनेगा तब वे वापस आ जाएगी। हरियाणा के भिवानी में एक बुजुर्ग महिला प्रेमा ने शौचालय के निर्माण के लिए अपनी भैंस बेच डाली, इस तरह के अनेकों केस देखने को मिल रहे हैं जिसमें महिलायें घर में शौचालय बनवाने की मांग कर रही हैं।

भारत सरकार सरकार द्वारा भी इस समस्या को दूर करने की दिशा में लगातार प्रयास किये जा रहे हैं, 1986 में केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम शुरू किया गया था जिसका 1999 में नाम बदल कर संपूर्ण स्वच्छता अभियान कर दिया गया, निर्मल भारत अभियान के अंतर्गत घर में शौचालय बनाने के लिए राशि दी जाती है। शहरी क्षेत्रों के लिए 2008 में राष्ट्रीय शहरी स्वच्छता नीति लायी गयी। वही 12वीं पंचवर्षीय योजना में 2017 तक खुले में शौच से मुक्त करने का संकल्प लिया है। देश के प्रधानमंत्री का भी नारा है कि ‘देश में मंदिर बाद में बनें, पहले शौचालय बनाया जाये’। इसी कड़ी में 2014 से स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत हुई है। सरकार द्वारा स्वच्छता अभियान के लिए 52000 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है और 2019 तक हर घर में शौचालय का दावा किया गया है। सरकार द्वारा विभिन्न माध्यमों का  उपयोग करते हुए स्वच्छता को लेकर जागरूकता लाने, लोगों में शौचालय बनवाने और उसका उपयोग करने को लेकर व्यवहार परिवर्तन का प्रयास किया जा रहा है। घरों और सार्वजानिक जगहों पर दीवार लेखन, चित्रों, होर्डिंग और स्लोगन के जरिये स्वच्छाता जानकारी दी जा रही है।

लेकिन ऐसा क्यों है कि इतने सब प्रयासों के बाद भी आज भी देश की आधी से ज्यादा आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है, इसका कारण सरकार और समाज की दूरी. इसके लिए सरकार को समाज के साथ भी काम करना होगा, शौचालय निर्माण और उपयोग को सामाजिक सुधार आन्दोलन का रूप देना होगा। लोगों की मानसिकता को बदलना होगा, खासकर पुरुषों के,क्योंकि वे तो कभी भी शौच के लिए घर से बाहर जा सकते थे इस कारण वो महिलाओं की परेशानी को समझ नहीं सकते. घर में शौचालय बनाने को लेकर जो मिथक हैं उसे दूर करना होगा साथ ही उन शौचालय का उपयोग भी करने की समझ बनानी होगी। सरकार द्वारा शौचालय निर्माण के लिए दी जाने वाली राशि को भी बढ़ाना होगा और इन सेवाओं के कार्यान्वयन, निरीक्षण और मूल्यांकन में स्थानीय लोगों की भागीदारी होनी आवश्यक है।

उपासना बेहार

पूरी दुनिया में 1 अगस्त को विश्व स्तनपान दिवस और अगस्त माह के प्रथम सप्ताह को स्तनपान सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। इस दौरान सरकारों और सामाजिक संस्थानों द्वारा लोगों में स्तनपान से जुडी भ्रान्तियों को दूर करने और माँ के दूध के महत्त्व को बताने का प्रयास किया जाता है। नवजात शिशुओं में रोगों से लड़ने की शक्ति नहीं होती है। यह शक्ति उसे माँ के दूध से मिलती है,जिसमें ज़रूरी पोषक तत्व, एंटी बाडीज, हार्मोन, प्रतिरोधक कारक और अन्य ऐसे आक्सीडेंट होते हैं, जो नवजात शिशु के समग्र विकास और बेहतर स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी होते हैं। माँ का दूध शिशुओं को संक्रमणों, कुपोषण, एनीमिया, अतिसार, रतौंधी जैसी बीमारियों से बचाता है।

लेकिन हमारे देश में स्तनपान की स्थिति बहुत ही चिंताजनक है। ‘सेव द चिल्ड्रेन’ संगठन की 2015 के ‘विश्व के माताओं की स्थिति’ रिपोर्ट में भारत को मातृत्व सूचकांक पर 179 देशों की सूची में 140वें स्थान पर रखा गया है। वही पिछले साल वह 137वें स्थान पर था। यानि की पिछले साल की तुलना में इस साल देश की स्थिति और भी खराब हुई है. रिपोर्ट के मुताबिक मां और बच्चे की सेहत के नजरिए से वर्ष 2011 में भारत 80 अल्प विकसित देशों की सूची में 75वें स्थान पर था जो इस बार एक स्थान नीचे खिसक कर 76वें स्थान पर आ गया है.

इसी तरह से इंटरनेशनल बेबीफूड एक्शन नेटवर्क द्वारा 2010 में 33 देशों में “स्तनपान की स्थिति: विश्वव्यापी स्तर पर नवजात शिशुओं और छोटे बच्चों संबंधी दुग्धपान नीतियों और कार्यक्रमों का पर्यवेक्षण” रिपोर्ट के अनुसार अन्य विकासशील देशों की तुलना में भारत की स्थिति असंतोषजनक है. अध्ययन में शामिल किए गए एशिया, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका के 33 देशों में भारत का स्थान 25वां है। भारत को कुल 150 अंको में से सिर्फ 69 अंक मिले हैं। जबकि हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान और बांग्लादेश हमसे बहुत बेहतर स्थिति के साथ क्रमशः11वें और 12वें स्थान पर हैं। वही श्रीलंका 124 अंक पाकर प्रथम स्थान पर है.

आखिर क्या वजह हैं कि मातायें अपने बच्चों को सम्पूर्ण स्तनपान नहीं करा पा रही हैं? इसका सबसे बड़ा कारण माताओं में खून की कमी और उनका कुपोषित होना है. हमारा समाज एक पितृसतात्मक समाज है, जहाँ लड़के के जन्म पर खुशियाँ मनाई जाती है वही कन्या के जन्म पर परिवार में मायूसी और शोक छा जाती है. भारतीय समाज का बच्चियों के प्रति नजरिया, सांस्कृतिक व्यवहार, पूर्वागृह ऐसा है जिसमें बचपन से ही लड़के और लडकियों की शिक्षा, खानपान और देखभाल में भेद किया जाता है. इसी के चलते लड़कों की अपेक्षा लड़कियां कुपोषण और एनिमिया की ज्यादा शिकार होती हैं और जिसका प्रभाव जब वो माँ बनती हैं तब उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है और वो सम्पूर्ण स्तनपान कराने में अक्षम हो जाती हैं.

स्तनपान की समस्या कम उम्र में बच्चियों की शादी से भी जुड़ा हुआ है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया का ऐसा छठा देश है, जहां बाल विवाह का प्रचलन सबसे ज्यादा है। भारत में 20 से 49 साल की उम्र की करीब 27 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जिनकी शादी 15 से 18 साल की उम्र के बीच हुई है। जुलाई 2014 में यूनिसेफ द्वारा “एंडिग चाइल्ड मैरिजः प्रोग्रेस एंड प्रास्पेक्ट्स” शीर्षक से बाल-विवाह से संबंधित एक रिपोर्ट जारी की गयी है जिसके अनुसार विश्व की कुल बालिका बधू की एक तिहाई बालिका बधू भारत में पाई जाती है अर्थात प्रत्येक 3 में से 1 बालिका बधू भारतीय है। कम उम्र में शादी होने से उनके स्वास्थ्य और पोषण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, बाल विवाह के कारण बच्चिया कम उम्र में ही गर्भवती हो जाती हैं जिससे माता में कुपोषण और खून की कमी हो जाती है.

हाल ही में केन्द्रीय महिला और बाल कल्याण विकास मंत्री मेनका गाँधी ने राज्यसभा में बताया कि देश में 15 से 49 वर्ष की 55.3 प्रतिशत महिलायें खून की कमी से ग्रसित हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्ष 2008 की रिपोर्ट में भी ये बात निकल कर आई कि भारत में खान-पान में पोषक तत्वों की कमी के कारण 55 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं में एनीमिया के लक्षण पाये गये थे, रिपोर्ट के अनुसार 1999 में 51.8 प्रतिशत विवाहित महिलाएं एनीमिया से पीड़ित थी जिनकी संख्या 2006 में बढ़कर 56.2 प्रतिशत हो गयी। सबसे खराब हालात आसाम की थी जहां 72 प्रतिशत विवाहित महिलाएं एनीमिया का शिकार थी जबकि राजस्थान में 69.8, हरियाणा में 68 तथा कर्नाटक व मध्यप्रदेश में 72 प्रतिशत महिलाओं में हीमोग्लाबिन का स्तर कम पाया गया था।

महिलाओ के एनीमिक और कुपोषित होने के कारण स्तन में कम दूध आता है या दूध बनता ही नहीं है जिसकी वजह से नवजात को सही समय और पर्याप्त मात्रा में माँ का दूध नहीं मिल पाता है, जो बच्चों में कुपोषण की समस्या के कई कारणों मे प्रमुख है. मेनका गाँधी ने राज्यसभा में बताया कि देश में 5 साल से कम आयु के 42.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषित और 69.5 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से ग्रसित हैं हैं, जिसमें मध्यप्रदेश में सबसे अधिक लगभग 60 प्रतिशत, झारखंड में 56.5 प्रतिशत,बिहार में 55.9 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.  

‘सेव द चिल्ड्रन’ संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक मां का दूध पी रहे बच्चों के बचने की संभावना स्तनपान से वंचित बच्चों की तुलना में छह गुना ज्यादा होती है. हालांकि देश में केवल 40 प्रतिशत बच्चों को ही सम्पूर्ण स्तनपान मिलता है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार कल्याण सर्वेक्षण 2005-2006 के अनुसार भारत में केवल 23% माताएँ ही शिशु के जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान करा पाती हैं। अगर नवजात के जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान करने की दर बढ़ा दी जाये तो शिशु और 5 साल से कम आयु के बच्चों की मृत्यु के अनुपात को कम किया जा सकता है और हर साल भारत में क़रीब दस लाख शिशुओं की जान बचाई जा सकती है।

देश में स्तनपान को लेकर अनेक मिथक भी हैं, कुछ गलत रीतिरिवाज, परम्परायें है जैसे पीले दूध को हानिकारक मानना, कोलोस्ट्रम को फेंक देना, स्तनपान में विलम्ब करना, स्तनपान से पहले शहद या अन्य भोजन देना इत्यादि बातें प्रचलन में हैं.

सम्पूर्ण स्तनपान को बढ़ाने के लिए स्वास्थ्य व्यवस्था पर ज्यादा निवेश करने की जरुरत है, आगंनबाडी, अस्पताल, क्लिनिकों में आने वाली गर्भवती महिलाओं और उनके परिवार के सदस्यों को स्तनपान के लाभों के बारे में बतलाया जाना चाहिए. अभिभावकों को बाल विवाह के दुष्परिणामों के प्रति जागरुक करना होगा साथ ही साथ सरकार को भी बाल विवाह के खिलाफ बने कानून का जोरदार ढंग से प्रचार-प्रसार तथा कानून का कड़ाई से पालन करना होगा. स्तनपान को लेकर फैले मिथक को दूर करना होगा  जिसके लिए गावं की महिला मंडली, स्वयं सहायता समूह को इस सम्बन्ध में सही जानकारी देकर उन्हें चेंज मेकर बनाया जा सकता है. साथ ही साथ बालिकाओं के पोषण, स्वास्थ्य के अधिकार को सुनिश्चित करते हुए  उनके प्रति हो रहे भेदभाव को रोकना होगा।

Published in खरी बात

उपासना बेहार

6 जुलाई 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया जिसमें कहा गया कि अविवाहित मां अपने बच्चे की अकेली अभिभावक बन सकती है। इसमें उसके पिता की रजामंदी लेने की आवश्यकता नहीं है। जिस केस को लेकर यह फैसला सुनाया गया है वो कुछ इस तरह है कि एक अविवाहित महिला ने अपने बच्चे की क़ानूनी अभिभावक बनने के लिए निचली अदालत में अर्जी दी लेकिन अदालत ने 'गार्जियनशिप एंड वार्ड्स एक्ट' का हवाला देते हुए बच्चे के पिता से मंजूरी लेने को कहा, महिला के ऐसा करने की असमर्थता जताई तब अदालत ने उसकी अर्जी ठुकरा दी, तब इसी सम्बन्ध में महिला ने हाईकोर्ट मे अर्जी दी लेकिन वहां भी महिला की याचिका ख़ारिज हो गयी. फिर महिला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. महिला का यह भी कहना था कि उसका अधिकार है कि वह पितृत्व का खुलासा नहीं करे। महिला का तर्क था कि पिता का बच्चे के परवरिश से कुछ भी लेना-देना नहीं है।

इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अविवाहित महिला बच्चे के पिता की मंज़ूरी के बिना भी उसकी कानूनी अभिभावक बन सकती है, मां को बच्चे के पिता की पहचान बताने की भी जरूरत नहीं है और न ही अभिभावक के लिए दी गई अर्जी में उसे पार्टी बनाने की कोई आवश्यकता है। कोर्ट ने कहा की बच्चे के सर्वाधिक हित के मद्देनजर पिता को नोटिस देने जैसे प्रक्रियात्मक कानूनों को हटाया जा सकता है।

पता हो कि “अभिभावक तथा बालक कानून” और “हिन्दू माइनोरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट” के तहत जब कोई संरक्षण के लिए याचिका दायर करता है तो बच्चे के अभिभावक बनने के लिए उसके पिता की मंजूरी लेना आवश्यक है। यानि इस एक्ट के तहत बच्चे के लीगल गार्जियन का फैसला लेते वक्त उसके पिता की सहमती लेना जरुरी होता है.

कोर्ट का यह फैसला स्वागत योग्य है. यह निर्णय उन एकल महिलाओं के लिए मिल का पत्थर साबित होगा जो अपने बच्चों के गार्जियनशिप के लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ रही थी. समाज में तो महिलाओं को दोयम दर्जे का माना जाता ही है लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे कानून में भी महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की झलकती है. परिवार का मुखिया पुरुष होता है. ज्यादातर जगहों पर पुरुष को ही अभिवावक के रूप में माना जाता है. कोर्ट के इस निर्णय ने एकल महिलाओं को ताकत दी है.

जब से महिलाये आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने लगी हैं,पुराने ढाचें चरमराने लगे हैं. लेकिन अकेली स्त्री और वो भी अन्व्याही माँ को स्वीकार करना अभी भी समाज में असंभव है. पितृसत्ता को यह गवारा ही नहीं होता कि कोई महिला बिना पुरुष की छाया के जिए और अपने सभी निर्णय स्वतंत्रता के साथ ले सके. महिलायें चाहे कितनी भी बड़े मुकाम को छू लें फिर भी महिलाओं का अविवाहित होना समाज को चुभता है। समाज में महिला की छबी आत्मनिर्भरता की ना हो कर निर्भरता की बनी हुई है. समाज ने एक अच्छी और आदर्श महिला की छबी गढ़ी हुई है, जिसमें एकल स्त्री, अन्व्याही माँ फिट नहीं बैठती हैं और समाज में अस्वीकार है. इसी के चलते हमारे पितृसत्तात्मक समाज में इन अकेली महिलाओं की स्थिति अक्सर शोचनीय होती है और उन पर कई तरह के बंधन लाद दिये जाते हैं। पुरुषों के संरक्षण में जीने वाली महिलाओं को तो फिर भी सामाजिक सुरक्षा मिल जाता है, किन्तु जो औरतें अकेली होती हैं, उनको बहुत कठिनाइयां का सामना करना पड़ता है। 

अगर 2001 की जनगणना को देखें तो पते हैं कि भारत की कुल आबादी का 6.9 प्रतिशत विधवा, 0.5 प्रतिशत तलाकशुदा व परित्यक्ता तथा तीस पार करने के बाद भी अकेली रह रही महिलाओं की संख्या 1.4 प्रतिशत है। सन् 2011 में हुए जनगणना में एकल महिलाओं की संख्या की जानकारी सरकार द्वारा अभी जारी नहीं की गयी है। इन आंकड़ों से यह बात समझ में आती है कि देश में बहुत बड़ी संख्या में ऐसी महिलाएं हैं जो अकेले जी रही हैं और इन्हें कदम कदम पर चुनोतियो का सामना करना पड़ता है। विधवा होने को हमारे समाज में अभी भी सामान्य नहीं मानते है. तलाकशुदा व परित्यक्ता या अपने इच्छा अनुसार अकेले रह रही महिलाओं को समाज और परिवार में भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता.

इन महिलाओं को सामाजिक, सांस्क्रतिक परम्परा, रीतिरिवाज और धार्मिक बंधनों के द्वारा काबू में रखने की कोशिश की जाती है। एकल महिलाओं के चरित्र पर सबसे पहले ऊँगली उठाई जाती है और उस पर तरह-तरह के लांछन लगाये जाते हैं। अकेली महिलाओं, उसकी संपत्ति, बच्चों पर घर-बाहर के पुरुष नियंत्रण में रखने की कोशिश में लग जाते हैं. कानून द्वारा भी इन महिलाओं को बहुत सहयोग नहीं मिलता है.  

तेजी से बदल रहे हमारे समाज में एकल महिला का चलन बढ़ता जा रहा हैं, कोर्ट का यह निर्णय आना सकारात्मक बदलाव की और इंगित करता हैं. यह फैसला महिला के स्वतंत्रता और समानता को बढ़ाएगा. यह भी एक सकारात्मक  संकेत हे कि ये महिलायें प्रताड़ना और शोषण के खिलाफ आगे आ रही हैं और अपने हक़ को लेने के लिए लड़ाई लड़ रही हैं.

उपासना बेहार

दुनिया भर में 1 मई को अन्तराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रुप में मनाया जाता है। भारत में भी 1 मई 1923 से मजदूर दिवस मनाने की शुरुवात हुई। उन्नीसवी शताब्दी के नवें दर्शक में अमेरिका के मजदूरों द्वारा काम के घंटे को कम करने के लिए प्रर्दशन और हडताल किये जाने लगे, उनकी मांग थी कि आठ घन्टे का कार्य दिवस हो। सरकार को मजदूरों के इस आन्दोलन के सामने झुकना पड़ा, उसके बाद से 1 मई 1890 को ‘‘मजदूर दिवस’’ के रूप में मनाया जाने लगा। लेकिन आज हम यहॉ बात करेगें एक ऐसे मजदूर वर्ग की जिसका शोषण हमारे देश में सबसे ज्यादा होता है और यह वर्ग है महिला घरेलू कामगार, कहने को भले ही ये कामगार हो लेकिन लोग नौकरानी ही माना जाता है। इन घरेलू कामगारों के काम का नेचर तीन तरीके से होता है, प्रथम जो अनेक घरों में कार्य करती हैं, दूसरे वे जो एक ही घर में सीमित समय के लिए कार्य करती हैं और तीसरे वे जो एक ही घर में पूर्णकालिक कार्य करतीं हैं।

घरेलू कामगार महिलाओं के साथ तरह तरह से क्ररता, अत्याचार और शोषण होते है। कुछ समय पहले ही मीड़िया में आये दिल दहला देने वाले केस भूले नही होगें जिसमें कुछ घरेलू कामगारों को इसकी कीमत अपनी जीवन देकर चुकानी पड़ी थी। जौनपुर से बसपा के सांसद धनंजय और उनकी डॉ. जागृति सिंह को पुलिस ने घरेलू कामगार महिला की मृत्यु के सिलसिले में गिरफ्तार किया था तथा उन पर अपने अन्य घरेलू सहायकों को प्रताड़ना देने के भी आरोप लगे थे। उसी प्रकार मध्यप्रदेश के पूर्व विधायक राजा भैया (वीर विक्रम सिंह) और उनकी पत्नी आशारानी सिंह को अपनी घरेलू नौकरानी तिजी बाई को आत्महत्या के लिए उकसाने वाले मामले में सजा हुई थी। घरेलू कामगारों खासकर महिलाओं और नाबालिगों के साथ बढ़ते अत्याचार में सिर्फ राजनेता ही शामिल नहीं हैं, बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले, बैंक, बीमा कर्मचारी, प्रोफेसर, चिकित्सक, इंजीनियर, व्यापारी, सरकारी अधिकारी इत्यादी सभी शामिल हैं।

कॉरपोरेट जगत की वंदना धीर घरेलू कामगार किशोरी को अर्धनंगा रखती थी ताकि वह भाग न जाये, उसके शरीर पर चाकू और कुत्ते के दांत से काटने के जख्म थे वही वीरा थोइवी एयर होस्टेस अपनी घरेलू काम करने वाली एक किशोरी को बेल्ट से पीटती और भूखा रखती थी, बाद में उसे पुलिस ने छुडाया। यह तो इनके साथ होने वाले अत्याचार के कुछ केस हैं जो मीड़िया में आ जाने के कारण लोगों के सामने आ गये। वरना हजारों की संख्या में ऐसे घरेलू कामगार होगीं जो अपने नियोक्ता के अत्याचार चाहे वो शारीरिक, मानसिक, शाब्दिक हो, सह रही होगीं। ये हिंसा चारदीवारी के भीतर होने से पता भी नहीं चलता है। जब तक की कोई बड़ी और भयानक दुर्घटना ना हो जाये। घरेलू कामगार महिलाओं को अपने साथ हो रहे हिंसा की शिकायत करने पर रोजीरोटी छीन जाने का डर रहता है। इसी काम से वह अपने घर परिवार को चलाने में सहयोग करती हैं। इसी कारण वह शिकायत करने की हिम्मत नही कर पाती हैं।  

होना तो यह चाहिए कि घरेलू कामगार महिलाओं को प्रायवेट सेक्टर में काम करने वाले कर्मचारी की तरह माना जाना चाहिए और कर्मचारियों को मिलने वाली सामान्य सुविधाएं जैसे-न्यूनतम मजदूरी, काम के घंटों का निर्धारण, सप्ताह में एक दिन का अवकाश, इत्यादि सुविधा मिलनी चाहिए। बहुत से परिवारों में घरेलू कामगार महिलाओं के साथ अच्छा व्यवहार भी किया जाता है। उनके सुख-दुख के समय वह परिवार साथ रहता है,मदद करता है।

लेकिन घरेलू कामगार महिलाओं के साथ अत्याचार की घटनाऐं लगातार बढ़ रही हैं। उत्पीडन की घटनाऐं उच्च वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग से ज्यादा आ रही हैं। इसका कारण इस वर्ग द्वारा घरेलू कामगार के प्रति आपसी विश्वास की कमी, सामंती मानवीय स्वभाव, पैसा दे कर खरीदा गुलाम समझना, कम पैसे में ज्यादा से ज्यादा काम कराने की मानसिकता आदि को माना जा सकता है। इसके अलावा शोषण करने वाला वर्ग ज्यादातर ऊंची जातियों से होता हैं और घरेलू कामगार वर्ग ज्यादातर छोटी जातियों से, इसलिए ऊंची जातियों ये उत्पीडन-शोषण करना और इनसे न के बराबर मजदूरी में हाड़तोड़ मेहनत करवाना बड़ी जातियां अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती हैं।

घरेलू कामगार महिलाऐं आजीविका के लिए सुबह से शाम तक लगातार कार्य करती है। अलसुबह उठ कर पहले अपने घर का काम करती हैं उसके बाद वह घरों में काम करने जाती हैं। दिनभर काम करने के बाद वापस घर आ कर घर का काम भी करती है। उसे एक दिन की भी छुटटी ना तो अपने घर के काम से और ना ही दूसरों के घरों के काम से मिल पाती है। काम के अत्यधिक बोझ के कारण उसे अक्सर पीठ दर्द, थकावट, बरतन मांजने व कपड़ेे धोने से हाथों और पैर की ऊंगलियों में घाव हो जाते हैं, इसके बावजूद उसे काम करना पड़ता है। अगर उसका स्वास्थ्य खराब हो जाये तो इलाज कराना मुश्किल हो जाता है क्योंकि सरकारी अस्पतालों में समय ज्यादा लगता है और प्रायवेट अस्पताल में पैसे ज्यादा लगता  है।

देश में लाखों घरेलू कामगार महिलाऐं है लेकिन देश की अर्थव्यवस्था में इसे गैर उत्पादक कामों की श्रेणी में रखा जाता है। इसी कारण देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई सही आकलन नहीं किया गया। जबकि इनकी संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। इन महिलाओं को घर के काम में मददगार के तौर पर माना जाता है। इस वजह से उनका कोई वाजिब एक सार मेहनताना नही होता है। यह पूर्ण रुप से नियोक्ता पर निर्भर करता है।

घरेलू कामगार महिलाऐं ज्यादातर आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछडे़ और वंचित समुदाय से होती हैं। उनकी यह सामाजिक स्थिति उनके लिए और भी विपरित स्थितियाँ पैदा कर देती है। इन महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न, चोरी का आरोप, गालियों की बौछार या घर के अन्दर शौचालय आदि का प्रयोग न करने, इनके साथ छुआछूत करना जैसे चाय के लिए अलग कप एक आम बात है।

घरेलू कामगार महिलाओं की सबसे बढ़ी समस्या उनका कोई संगठन का ना होना है। इस कारण अपने पर  होने वाले अत्याचार का ये सब मिल कर विरोध नही कर पाती है, इनके मांगों को उठाने वाला कोई नही है। घरेलू कामगारों को श्रम का बेहद सस्ता माध्यम माना जाता है। संगठन ना होने के कारण इनके पास अपने श्रम को लेकर नियोक्ता के साथ मोलभाव करने का ताकत है, इसके कारण नियोक्ता इनका फायदा उठाते हैं। इसी के चलते काम के दौरान हुई दुर्घटना, छुट्टी, मातृत्व अवकाश, बच्चों का पालनाघर, बीमारी की दशा में उपचार जैसी कोई सुविधा हासिल नहीं हो पाती है। यदि घर में काम करने वाले किसी महिला के साथ नियोक्ता द्वारा हिंसा करता है तो केवल पुलिस में शिकायत के अलावा ऐसा कोई फोरम नहीं है जहां जाकर वे अपनी बात कह सकें और शिकायत कर सकें। कुछ शहरों में स्वंयसेवी संस्थाओं द्वारा घरेलू कामगार महिलाओं के संगठन बने है और कुछ जगह इस तरह के संगठन बनाने की ओर प्रयास किये जा रहे हैं।

देश में असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून (2008) है जिसमें घरेलू कामगारों को भी शामिल किया गया है। लेकिन अभी तक ऐसा कोई व्यापक और राष्ट्रीय स्तर पर एक समान रूप से सभी घरेलू कामगारों के लिए कानून नहीं बन पाया है, जिसके जरिये घरेलू कामगारों की कार्य दशा बेहतर हो सके और उन्हें अपने काम का सही भुगतान मिल पाये।

घरेलू कामगार को लेकर समय समय पर कानून बनाने का प्रयास हुआ, सन् 1959 में घरेलू कामगार बिल (कार्य की परिस्थितियां) बना था, परंतु वह व्यवहार में परिणित नही हुआ। फिर सरकारी और गैरसरकारी संगठनों ने 2004-07 में घरेलू कामगारों के लिए मिलकर ‘घरेलू कामगार विधेयक’ का खाका बनाया था। इस विधेयक में इन्हें कामगार का दर्जा देने के लिए एक परिभाषा प्रस्तावित की गयी है “ऐसा कोई भी बाहरी व्यक्ति जो पैसे के लिए या किसी भी रूप में किये जाने वाले भुगतान के बदले किसी घर में सीधे या एजेंसी के माध्यम से जाता है तो स्थायी या अस्थायी, अंशकालिक या पूर्णकालिक हो तो भी उसे घरेलू कामगार की श्रेणी में रखा जायेगा।” इसमें उनके वेतन, साप्ताहिक छुट्टी, कार्यस्थल पर दी जाने वाल सुविधाएं, काम के घंटे, काम से जुड़े जोखिम और हर्जाना समेत सामाजिक सुरक्षा आदि का प्रावधान किया गया है। लेकिन इस विधेयक को आज तक अमली जामा नही पहनाया जा सका है। कार्यस्थल में महिलाओं के साथ होने वाली लैंगिक हिंसा को रोकने के लिए देश में ‘‘महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण,प्रतिषेध तथा प्रतितोष) अधिनियम 2013’’ बनाया गया है जिसमें घरेलू कामगार महिलाओं को भी शामिल किया गया है।

नई सरकार ने कुछ समय पहले ही घोषणा की है कि वे घरेलू कामगार के लिए एक विधेयक लाने वाले हैं। अगर घरेलू काम करने वालों को कामगार का दर्जा मिल जाये तो उनके स्थिति बहुत बेहतर हो सकेगी। वे भी गरीमा के साथ सम्मानपूर्ण जीवन जी सकेगीं। यह भी अन्य कामों की तरह ही एक काम होगा ना कि नौकरानी का दर्जा।

महाराष्ट्र और केरल जैसे कुछ राज्यों में घरेलू कामगारों के लिए कानून बनने से उनकी स्थिति में एक हद तक सुधार हुआ है। मध्यप्रदेश ने घरेलू कामगार महिलाओं के जॉब कार्ड बनवाये हैं और उन्हें कई सामाजिक सुरक्षा जैसे बच्चों की शिक्षा,कन्या की शादी, इत्यादी सुविधाऐं दी जा रही हैं। लेकिन यह देशव्यापी नही है।

लेकिन जब तक घरेलू कामगार महिलाऐं संगठित नही होगीं और अपने हक की लड़ाई के लिए आगे नही आयेगी ,उन्हें वो सम्मान मिलना मुश्किल है जो कि उनका हक है। साथ ही इन्हें मजदूर वर्गो के संघर्ष के साथ भी अपने को जोड़ना होगा। फिर भी असली लड़ाई तो सामंती सोच के साथ है जिसे खत्म कर अमीर गरीब,मालिक नौकर का भेद खत्म करना होगा। जब तक समाज में समानता आयेगी और इसके लिए समाज के सभी तबकों को प्रयास करना होगा।

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