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ऊनी कपड़े ऐसे रहेंगे नए जैसे

नई दिल्ली, 9 जनवरी (आईएएनएस)। सर्दियों में ऊनी कपड़े आपकी मौसम की जरूरत के साथ ही स्टाइल की मांग को भी पूरा करें, इसके लिए जरूरी है कि इनके नाजुक फैब्रिक की देखरेख भी सही ढंग से की जाए, ताकि वे हमेशा नए जैसे बने रहें।

ऑनलाइन अपैरल स्टोर 'वूनिक' की मुख्य स्टाइलिस्ट भव्या चावला ने कुछ टिप्स दिए हैं, जिससे ऊनी कपड़ों हमेशा नए जैसा बने रहेंगे।

उपयुक्त ब्रश : स्वेटरों को वॉशिंग मशीन में धोने से बचें, क्योंकि इससे उनकी चमक खो जाती है। इसकी जगह ऊनी कपड़ों के इस्तेमाल के बाद हर बार पर उन पर जमी धूल या कीटों को झाड़ने के लिए इलेक्ट्रोस्टेटिक ब्रश का इस्तेमाल करें। ऊनी कपड़ों को नए जैसा रखने के लिए उन्हें थोड़ी देर हवा लगने देना भी जरूरी है।

दाग धब्बे : अगर आपके स्वेटर या शॉल पर कोई दाग-धब्बा लग जाए तो उसे तुरंत ड्राई क्लीन कराएं। अगर धब्बा ज्यादा गहरा नहीं है तो खासतौर पर ऊनी कपड़ों के लिए बने डिटरजेंट से साफ करें। ऊनी कपड़ों के डिटर्जेट को गुनगुने पानी में घोलें और कपड़ों को उसमें भिगो दें। हल्के हाथों से उन्हें धोएं, लेकिन ध्यान रखें कि जिन कपड़ों पर केवल ड्राई क्लीनिंग के निर्देश दिए हों, उन्हें इस प्रकार न धोएं।

लटकाएं नहीं : ऊनी कपड़ों को अन्य कपड़ों की तरह तार पर लटका कर न सुखाएं, क्योंकि इससे उनका फैब्रिक खिंच सकता है।

स्टीम प्रेस का प्रयोग करें : पूरी तरह से सूख चुके ऊनी कपड़ों को प्रेस करना सही नहीं है, क्योंकि इससे उनकी सिलवटें ठीक से नहीं निकलेंगी और उनके रेशों के जलने का खतरा बना रहेगा। इसकी जगह स्टीम प्रेस का इस्तेमाल करें। अगर स्टीम प्रेस न हो तो ऊनी कपड़े और प्रेस के बीच एक सादे सफेद कपड़े को गीला करके रखें। प्रयोग न किए जाने पर स्वेटर को उल्टा करके रखना उसकी उम्र बढ़ाएगा।

कीट-कीड़ों से बचाएं : ऊनी कपड़ों पर कीटों-कीड़ों से नुकसान का खतरा होता है। इसलिए ऊनी कपड़ों के साथ अलमारी में नैप्थलीन की गोलियां रखना न भूलें।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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  • 'इंक अटैक' सस्ती लोकप्रियता, सुरक्षा पर भारी
    ऋतुपर्ण दवे
    अब स्याही फेंकना अहिंसक तरीके से अपनी बात कहने का माध्यम बनता जा रहा है या फिर एक अपरंपरागत तरीके से सोशल मीडिया, समाचार चैनलों के इस दौर में चर्चित होने या लोकप्रिय होने का जरिया? कुछ भी हो, लेकिन तेजी से बढ़ रहे इस चलन ने एकाएक सबका ध्यान जरूर खींचा है। कम से कम रविवार को दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में हुई घटना ने तो सुरक्षा को लेकर चिंता और भी बढ़ा दी है।

    स्याही फेंकने वाली महिला कथित रूप से आम आदमी सेना पार्टी (आम आदमी से अलग हुए धड़े) की खुद को पंजाब का प्रभारी बता रही है। वह प्रभारी है भी या नहीं या ये पार्टी के अंदरूनी गुट का मसला हो सकता है, जो अलग बात है। लेकिन सुरक्षा के लिहाज से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में वहीं के मुख्यमंत्री की सभा में उन पर 'इंक अटैक' बड़ी बात है।

    सुरक्षा को लेकर सवाल उठेंगे, उठना लाजिमी भी है। राष्ट्रीय राजधानी में कारों के धुएं से बढ़ते प्रदूषण को घटाने के लिए 15 दिन चलाई गई 'सम-विषम योजना' की कामयाबी पर यह धन्यवाद सभा थी। सभा का विज्ञापन कई दिनों पहले से अखबारों में दिया जा रहा था, जाहिर है कि इसकी पुलिस को भी खबर थी। इसके बावजूद हमलावर महिला को रोकने के लिए केंद्र सरकार की महिला पुलिस नदारद दिखी।

    अहम यह कि जब वह महिला बिना किसी बाधा के मंच तक न केवल पहुंची, बल्कि उसने कागज के टुकड़े निकाले, उसे उछाले, फिर बैग से स्याही की बोतल निकालकर उसका ढक्कन खोला और मंच की ओर फेंक दिया। यह सब केंद्र सरकार के सुरक्षाकर्मी निरीह बने देखते रहे, यानी किंकर्तव्य विमूढ़ हो गए।

    हो सकता है, पुलिस अधिकारी भी हक्का-बक्का रह गए हों कि क्या करें क्या न करें? महिला के बैग में स्याही की बोतल के साथ कुछ खतरनाक सामग्री भी तो हो सकती थी!

    दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया ने इसे केंद्र में सत्तारूढ़ और दिल्ली चुनाव बुरी तरह हारी भारतीय जनता पार्टी की कारस्तानी बताई है। सच्चाई जो भी हो, मगर केंद्र के अधीनस्थ दिल्ली पुलिस सुरक्षा में कोताही के आरोप से पल्ला नहीं झाड़ सकती।

    25 मार्च, 2014 को भी वाराणसी में केजरीवाल के रोड शो में स्याही फेंकी गई थी और इस मामले में अम्बरीश सिंह नामक व्यक्ति को हिरासत में लिया गया था। इससे पहले भी एक बार 18 नवंबर, 2013 को नचिकेता नामक व्यक्ति ने दिल्ली में ही केजरीवाल पर स्याही फेंकी थी। उस समय भी इसे विरोधियों की हरकत करार दिया गया था।

    इंक अटैक के दुनियाभर में कई मामले चर्चित हैं। भारत में यह चलन हाल के वर्षो में तेजी से बढ़ा है। निश्चित रूप से ऐसी घटनाएं कानूनी दृष्टिकोण से बड़े मामले नहीं बनते, लेकिन यह भी ठीक नहीं कि इसी आड़ में कानूनी रूप से छोटा लगने वाला, पर सुर्खियों में कई दिनों तक छाए रहने वाले कृत्यों की छूट हो।

    भारत में पहली बार किसी महिला ने किसी बड़े नेता पर इंक अटैक किया। वह भी ऐसी जगह, जहां पर भारी भीड़ के बावजूद मंच पर एक भी महिला सुरक्षाकर्मी मौजूद नहीं थी। आज के संदर्भ में सुरक्षा में चूक को लेकर यह 'बड़ी घटना' जरूर कही जाएगी।

    (लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं)

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • हरिद्वार में है भटके हुए देवता का मंदिर
    हरिद्वार, 17 जनवरी (आईएएनएस)। आपने कभी सुना है कि भटके हुए देवताओं के भी मंदिर होते हैं? नहीं तो हरिद्वार जाकर भटके हुए देवता का मंदिर जरूर देखिए। गायत्री परिवार के संस्थापक पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने शांतिकुंज परिसर में यह मंदिर बनवाया है। यहां आने वाले साधक इस मंदिर में ध्यान करते हैं।

    इस मंदिर के अंदर पांच बड़े-बड़े आइने लगे हुए हैं और इन पर आत्मबोध व तत्वबोध कराने वाले वेद-उपनिषदों के मंत्र लिखे हंै। आइनों पर चारों वेदों के चार महावाक्य लिखे हैं, जिनमें जीव-ब्रह्म की एकता की बात कही गई है। साधक यहां आकर 'सोùहं' से 'अहम्' या आत्मब्रह्म तक के सूत्रों की जाप करते हैं। कहा जाता है कि यहां आकर साधकों में आत्मबोध की अनुभूति होती है।

    शांतिकुंज से जुड़े गायत्री भक्त कीर्तन देसाई ने बताया कि यहां नौ दिन के सत्रों व एक मासिक प्रशिक्षण शिविर में आने वाला प्रत्येक साधक आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक 'मैं कौन हूं?' में निर्दिष्ट साधना प्रणाली का सतत अभ्यास करता है। भटके हुए देवता के मंदिर में उसी साधना-विधान का संक्षिप्त निर्देश है।

    उन्होंने बताया कि यहां पत्थर की प्रतिमाओं पर धूप-दीप, गंध-पुष्प चढ़ाकर ईश्वर के प्रति भक्ति भावना निविदेत की जाती है। साथ ही भक्त दर्पण के सामने खड़े होकर अपने स्वरूप को निहारकर अंत:करण की गहराई में झांकने का अभ्यास करते हैं।

    मान्यता है कि इससे मनुष्य रूपी भटके हुए देवताओं को देर-अबेर अपने देव स्वरूप, ब्रह्म स्वरूप यानी 'अहं ब्रह्माùस्मि' की अनुभूति अवश्य होगी।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • पुरुष अपने वॉर्डरोब को ऐसे दे सकते हैं खास अंदाज
    नई दिल्ली, 17 जनवरी (आईएएनएस)। आमतौर पर महिलाएं अपने परिधानों को विशिष्ट बनाने पर खास ध्यान देती हैं, लेकिन पुरुष भी अपने साधारण सूट्स और कोट्स में थोड़े पिंट्र्स और रंगों के सही प्रयोग से उन्हें अलग स्टाइल और खास अंदाज दे सकते हैं।

    पुरुषों के परिधानों और एक्सेसरीज के लिए लक्जरी ब्रांड 'मिस्टर फॉक्स' के डिजाइनर और मालिक अंगद सिंह मल्होत्रा ने पुरुषों के वॉर्डरोब को आकर्षक बनाने के लिए कुछ टिप्स दिए हैं-

    - अगर आप केवल कुछ ही रंग, प्रिंट और स्टाइल पहनना पसंद करते हैं तो इस सीमित दायरे से बाहर निकलें और नए रंगों, प्रिंट्स और स्टाइल्स का भी प्रयोग करें।

    - अपने भीतर छिपे बच्चे को पहचानें और कुछ अलग प्रिटं्स पहनें।

    - अपने परिधान में कलर ब्लॉकिंग करें यानी विपरीत बोल्ड रंगों का इस्तेमाल करें। जैसे कि नीले रंग के सूट के साथ संतरी रंग की टाई पहन सकते हैं।

    - रेडीमेड परिधानों की जगह अपने व्यक्तित्व के अनुरूप सिले परिधान पहनें।

    - टिकेट पॉकेट्स, पाइपिंग और अन्य बारीक डिटेलिंग आपके परिधानों के आकर्षण को बढ़ाने में मददगार हैं। इनका प्रयोग करें।

    - सूट्स में आमतौर पर चलने वाले स्लेटी और नीले रंगों से हटकर जैतूनी हरा जैसे कुछ अलग रंगों का प्रयोग आपके व्यक्तित्व को अलग आकर्षण देने में मदद करेगा।

    - एक्सेसरीज का प्रयोग करें। रंगीन पॉकेट या बो टाई जैसी एक्सेसरीज आपके परिधान के आकर्षण में इजाफा करने में मददगार होंगी।

    - अलग-अलग प्रिंट्स का प्रयोग करें या ऐसे परिधान पहनें जिनमें पिंट्र्स और बोल्ड रंगों का स्वाभाविक तालमेल हो।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • झारखंड में परंपरागत और रोचक खेल है 'मुर्गा लड़ाई' (फोटो सहित)
    मनोज पाठक
    रांची, 17 जनवरी (आईएएनएस)। तमिलनाडु में पारंपरिक त्योहार पोंगल पर खेले जाने वाले जलिकट्टू पर सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही रोक लगा दी हो, पर झारखंड के बाजारों और मेलों में आज भी 'मुर्गा लड़ाई' के खास प्रकार का आयोजन किया जाता है।

    झारखंड के जनजातीय इलाकों में लगने वाले ग्रामीण हाट-बाजारों के अलावा कई अन्य स्थानों पर आज भी एक परंपरागत खेल 'मुर्गा लड़ाई' बेहद लोकप्रिय है। हालांकि समय के साथ इसके स्वरूप में काफी बदलाव आ गया है। पहले हारने वाला मुर्गा जीतने वाले मुर्गा के मालिक को मिल जाता था, पर अब हारने वाला मुर्गा उसके मालिक के पास ही रह जाता है। इसके अलावे अब घुड़दौड़ की तरह इस लड़ाई में लाखों रुपये के दांव भी लगाए जाते हैं।

    कई इलाकों में इसके लिए प्रतियोगिता का आयोजन भी किया जाता है। झारखंड के लोहरदगा, गुमला, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सिमडेगा सहित कई जिलों में इस लड़ाई को आदिवासियों की संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है। मुर्गा लड़ाई के लिए कई क्षेत्रों में मुर्गा बाजार लगाया जाता है।

    इतिहास के पन्नों में मुर्गा लड़ाई की कोई प्रमाणिक जानकारी तो नहीं मिलती, पर आदिवासी समाज में ऐसी मान्यता है कि उनकी कई पीढ़ियों से मुर्गा लड़ाई उनकी जिंदगी का एक मनोरंजक हिस्सा बना गया है।

    मुर्गा लड़ाई के जानकार रामाकांत कहते हैं कि मुर्गा लड़ाई पूर्व में मनोरंजन का हिस्सा हुआ करता था, जहां लोग अपने पसंद के मुर्गो पर दांव भी लगाते थे पर अब इस लड़ाई के नाम पर जुआ का खेल प्रारंभ हो गया है। इस कारण आदिवासी संस्कृति की पहचान बने इस लड़ाई की पहचान गुम होती जा रही है।

    करीब 20 फुट के घेरे में दो मुर्गो की लड़ाई होती है। लड़ाई के दौरान मुर्गे की पैंतरेबाजी देखने लायक होती है। लड़ाई में एक चक्र अमूमन सात से 10 मिनट तक चलता है। लड़ाई शुरू होने से पहले और लड़ाई के दौरान लोग मुर्गो पर दांव लगाते हैं। सट्टेबाज लोगों को उकसाते हुए चारों तरफ घूमते रहते हैं। जीतने वाले मुर्गे पर दांव लगाने वालों को एक रुपये के बदले तीन से पांच रुपये दिए जाते हैं। एक बार में हजारों रुपये के दांव लगते हैं। अमूमन एक दिन में तीन से पांच दर्जन मुर्गो की लड़ाई होती है, जिसमें लाखों रुपये इधर से उधर होते हैं।

    इस दौरान मुर्गे को उत्साहित करने के लिए मुर्गाबाज (मुर्गा का मालिक) तरह-तरह की आवाजें निकालता रहता है, जिसके बाद मुर्गा और खतरनाक हो जाता है।

    मुर्गा लड़ाई के लिए मुर्गा पालने के शौकीन अवधेश उरांव बताते हैं कि लड़ाई में प्रशिक्षित मुर्गे उतारे जाते हैं। लड़ने के लिए तैयार मुर्गे के एक पैर में अंग्रेजी के अच्छर 'यू' आकार का एक हथियार बंधा हुआ होता है जिसे 'कत्थी' कहा जाता है। ऐसा नहीं कि यह कत्थी कोई व्यक्ति बांध सकता है। इसके बांधने की भी अपनी कला है। कत्थी बांधने का कार्य करने वालों को 'कातकीर' कहा जाता है जो इस कला में माहिर होता है।

    मुर्गे आपस में कत्थी द्वारा एक दूसरे पर वार करते रहते हैं। इस दौरान मुर्गा लहुलूहान हो जाता है। कई मौकों पर तो कत्थी से मुर्गे की गर्दन तक कट जाती है। मुर्गो की लड़ाई तभी समाप्त होती है जब तक मुर्गा घायल न हो जाए या मैदान छोड़कर भाग जाए।

    जानकार बताते हैं कि मुर्गा को लड़ाकू बनाने के लिए खास तौर पर न केवल प्रशिक्षण दिया जाता है बल्कि उसके खान-पान पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। लड़ाई के लिए तैयार किए जाने वाले मुर्गे को अंधेरे में रख कर उसे गुस्सैल और चिड़चिड़ा बनाया जाता है। उसे मुर्गियों (मादा मुर्गा) से दूर रखा जाता है। इन मुर्गो को ताकतवर बनाने के लिए उन्हें सूखी मछली का घोल, किशमिश, उबला हुआ मक्का और विटामिन के इंजेक्शन तक दिए जाते हैं।

    रांची के पत्रकार सन्नी शरद आईएएनएस से कहते हैं, "मुर्गा लड़ाई आदिवासी समाज की संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। पूर्व में इसका आयोजन मनोरंजन के लिए किया जाता था, परंतु अब धनलोलुप लोगों ने आदिवासियों के इस गौरवशाली परंपरा को विकृत कर दिया है। आज मुर्गा लड़ाई जुआ, सट्टा तथा शराबखोरी का अड्डा बनकर रह गया है।"

    उन्होंने बताया कि जमशेदपुर में मकर संक्रांति पर्व पर लगने वाले टुसू मेले और जतरा मेले में मुर्गा लड़ाई का खास आयोजन किया जाता है। इसके अलावे भी बजारों व हाटों में इस प्रकार के आयोजन किए जाते हैं।

    वैसे शरद यह भी कहते हैं कि परंपरागत मुर्गा लड़ाई का स्वरूप अब काफी बदल गया है, जरूरत है उसके पुराने स्वरूप को बरकरार रखने की।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • मृत्युदोष से बचाने के लिए बच्चों की कुत्ते से शादी!
    अजीत कुमार शर्मा
    रायपुर, 17 जनवरी (आईएएनएस)। छत्तीसगढ़ के कोरबा-बाल्को मार्ग पर स्थित बेलगिरी में संथाल आदिवासियों की एक बस्ती है, जहां मकर संक्रांति के दिन एक ऐसी परम्परा का निर्वहन किया जाता है, जिसमें वे अपने बच्चों के जीवन में मृत्युदोष को दूर करने के लिए कुत्ते से उनकी शादी करा देते हैं। है न हैरान करने वाली परम्परा..जब आपके बच्चों के दांत पहली बार आए हों, तो शायद एक बार आप भी एक अनोखी खुशी से झूम गए होंगे।

    दूध के दांतों में जब वे कुछ काटने की कोशिश करें, तो उन्हें ऐसा करते देखने का सुख सभी के लिए यादगार होता है। पर मूलत: ओडिशा के रहने वाले संताल आदिवासियों के लिए यह घड़ी नई चिंता लेकर आती है। अगर संथाल बच्चों के ऊपर के दांत पहले आ जाएं, तो उन्हें अपने बच्चों के जीवन में मृत्युदोष सताने लगता है। इस दोष बचने के लिए वे एक अनोखा अनुष्ठान करते हैं, जिसमें बच्चों की शादी कुत्ते से कर दी जाती है।

    शिशुरोग विशेषज्ञ डॉ पंकज ध्रुव ने बताया कि छोटे बच्चों में दांत आने की प्रक्रिया एक साधारण शारीरिक प्रक्रिया है। अब इस दौरान उनके पहले ऊपर के दांत आते हैं या नीचे के, यह तो प्रकृति पर निर्भर है। खुद मेरे बच्चे के ऊपर के दांत पहले आए थे। कई बार दांत आने के वक्त उस स्थान पर गुदगुदी होती है, जिसे महसूस कर बच्चे चीजों को हाथ में लेकर चबाने लगते हैं। ऐसे में अगर वह वस्तु दूषित है तो उन्हें साधारण तौर पर दस्त की शिकायत हो सकती है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि बच्चे के ऊपर के दांत पहले आ गए तो उनके ऊपर किसी प्रकार का ग्रह दोष हो। यह मेडिकल की भाषा में किसी अंधविश्वास से ज्यादा कुछ नहीं।

    मूलत: ओडिशा के मयूरभंज जिले से आकर बसे संथाल आदिवासी वर्षो से इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं। बच्चों को मृत्युदोष की बाधा से मुक्त करने संथाल आदिवासी इस अनोखे रिवाज के तहत शुक्रवार को बेलगिरी बस्ती में लगभग साढ़े तीन साल के एक बालक की शादी कुत्ते से कराई गई। इस तरह अधिकतम पांच वर्ष की आयु तक बच्चों की शादी कराई जाती है।

    अगर यह दोष किसी बालक पर है तो मादा, बालिका हो तो नर पिल्ले के साथ धूम-धाम से यह संस्कार पूरा किया जाता है। उनकी मान्यता है कि ऐसा करने से उनके नन्हे-मुन्नों की जिंदगी पर आने वाला संकट हमेशा के लिए दूर हो जाता है। शुक्रवार को पूरी बस्ती में उत्सव का माहौल देखने को मिला।

    मकर संक्रांति का पर्व सामूहिक तौर पर हर साल की तरह धूम-धाम से मनाया गया और इसी दौरान दोष वाले एक बच्चे की शादी कराई गई। इसके बाद समाज के लोगों को भोज कराया जाता है। शादियों का दौर संक्रांति से लेकर अगले कुछ दिन व चूक जाने पर होली के दूसरे दिन भी निभाया जाता है।

    इसके बाद ही वे अपने बच्चों का जीवन सुरक्षित समझते हैं। इस परंपरा को मानने वाले संथाल आदिवासी कोरबा के बाल्को क्षेत्र में लालघाट, बेलगिरी बस्ती, शिवनगर, र्दी के प्रगतिनगर लेबर कालोनी तथा दीपका से लगे कृष्णानगर क्षेत्र में निवास करते हैं।

    आदिवासियों ने बताया कि पूर्वजों के वक्त से ऐसी मान्यता रही है, कि जिन बच्चों के मुंह में नीचे की ओर दांत पहले आए तो ठीक, लेकिन दांत पहले ऊपर की ओर आए तो उनके जीवन में मृत्युदोष होता है। उन्हें कभी तेज बुखार आ सकता है और उनकी मौत हो जाती है। ऐसे बच्चों के जीवन की रक्षा के लिए इस दोष से मुक्ति जरूरी होती है, जिसके लिए वे उनकी शादी कुत्ते के बच्चे से करा देते हैं।

    ओडिशा स्थित उनके गांव में ऐसे बच्चों के जीवन पर संकट देखा गया, जिनके दांत पहले ऊपर आते हैं। इस वजह से ऐसे बच्चों के माता-पिता गंभीरता से इस संस्कार को पूरा करते हैं। इस अनोखी शादी को संथाल आदिवासी 'सेता बपला' कहते हैं। उनकी भाषा में सेता का अर्थ कुत्ता व बपला यानी शादी होती है, जिसका पूरा अर्थ कुत्ते से शादी होती है।

    संथाल आदिवासियों के समुदाय में कुत्ते के अलावा बच्चों की शादी पेड़ से भी करके यह दोष मिटाया जाता है। इसमें पेड़ से बच्चों की शादी को 'सेता बपला' की बजाय 'दैहा बपला' कहते हैं। दैहा एक ऊंचा पेड़ होता है। इस तरह 'दैहा बपला' का अर्थ पेड़ से शादी होती है। उनके गांव में तो यह दैहा पेड़ आसानी से मिल जाता है, लेकिन यहां खोजने पर भी नहीं मिलता, इसलिए यहां कुत्ते से शादी का प्रचलन है।

    इन आदिवासियों का यह भी मानना है कि 'सेता बपला' या 'दैहा बपला' के बाद बच्चे के जीवन का संकट कुत्ते या उस पेड़ पर चला जाता है। इनका कहना है कि शादी के बाद उस कुत्ते को विधियां पूरी कर बस्ती से कहीं दूर जाकर छोड़ दिया जाता है। बच्चे का दोष उसके ऊपर चले जाने से वह कुत्ता खुद-ब-खुद मर जाता है और बच्चा सुरक्षित हो जाता है। कुत्ता या दैहा पेड़ के मर जाने में ही बच्चे की भलाई है। बहरहाल इन आदिवासियों में अरसे से यह परम्परा आज भी चलती आ रही है।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • स्मार्ट रहने के लिए मानसिक चुनौतियों का करें सामना

    न्यूयार्क, 17 जनवरी (आईएएनएस)। आप लंबी उम्र तक स्वस्थ, ऊर्जावान और सक्रिय रहना चाहते हैं तो मानसिक चुनौती वाले कार्यो का दिल खोल कर सामना करें। मानसिक चुनौतियां आपके मस्तिष्क को लंबे समय तक सक्रिय रखती हैं। एक नए शोध में यह बात सामने आई है।

    मानसिक चुनौतियों में फोटोग्राफी, बागवानी, कंप्यूटर पर कार्य, पाक कला, पजल्स, लेखन और चित्रकारी जैसी तमाम चीजें आती हैं जिससे अक्सर लोग जी चुराते हैं लेकिन यही कार्य आपको लंबे समय तक सक्रिय रहने में मदद करते हैं। यह एक तरह का व्यायाम है जो मस्तिष्क की सेहत के लिए जरूरी है।

    अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास से इस अध्ययन के लेखक डेनीस पार्क के अनुसार, "वर्तमान के निष्कर्षो ने कुछ ऐसे सबूत पेश किए हैं जो यह बताते हैं कि मानसिक चुनौती वाली गतिविधियां जैसे फोटोग्राफी मानसिक क्षमता में परिवर्तन करती हैं। इसके अलावा संभव है कि इस तरह की गतिविधियां युवा अवस्था में अधिक प्रभावी होती हैं।"

    इस अध्ययन में 39 वृद्ध लोगों को शामिल कर उनकी मस्तिष्क गतिविधियों का तुलानात्मक अध्ययन किया गया। प्रतिभागियों के अलग-अलग समूहों को उच्च चुनौतियां और निम्न चुनौतियां सौंपी गई।

    इस दौरान प्रतिभागियों की एफएमआरआई और एमआरआई तकनीक से मस्तिष्क की गतिविधियों और उनके द्वारा रक्त संचार में होने वाले बदलावों की भी जांच की गई।

    14 सप्ताह तक चले इस परीक्षण में जिन प्रतिभागियों ने अधिक और उच्च चुनौतियों वाले कार्यो का सामना किया था उनकी मानसिक क्षमता निम्न चुनौतियों का सामना करने वाले प्रतिभागियों से बेहतर रही।

    यह निष्कर्ष 'रिस्टोरेटिव न्यूरोलॉजी एंड न्यूरोसाइंस' पत्रिका में प्रकाशित किए गए हैं।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

आधी दुनिया

सावित्रीबाई फुले जिन्होंने भारतीय स्त्रियों को शिक्षा की राह दिखाई

सावित्रीबाई फुले जिन्होंने भारतीय स्त्रियों को शिक्षा की राह दिखाई

उपासना बेहार “.....ज्ञान बिना सब कुछ खो जावे,बुद्धि बिना हम पशु हो जावें, अपना वक्त न करो बर्बाद,जाओ, जाकर शिक्षा पाओ......” सावित्रीबाई फुले की कविता का अंश अगर सावित्रीबाई फुले...