अरुण कान्त शुक्ला
टूट रही थी सांस 'मेरी' और जुबां सूखी थी,
तुझे नहीं पुकारा था, 'चंद बूँद' पानी की जरुरत थी,
तू इश्क को समझने में बड़ा कच्चा निकला,
मेरे लबों को नहीं, मेरे सर को तेरी गोदी की जरुरत थी,
इश्क में तू करता रहा वादे पे वादे ,
मुझे तेरे वादों की नहीं, तेरी वफ़ा की जरूरत थी,
तेरे नाले मुझसे थे तेरा माशूक था कोई और,
तुझसे इश्क मेरी गलती थी, तुझसे नफ़रत ‘उस वक्त’ की जरुरत थी,
क़यामत के रोज पूछियेगा अख़लाक़ से ‘अकेलेपन’ का अहसास,
हम प्यालों, हम निवालों के बीच अकेला, जब किसी 'अपने' की उसे शिद्दत से जरुरत थी.