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झारखंड में परंपरागत और रोचक खेल है 'मुर्गा लड़ाई'

मनोज पाठक
रांची, 17 जनवरी (आईएएनएस)। तमिलनाडु में पारंपरिक त्योहार पोंगल पर खेले जाने वाले जलिकट्टू पर सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही रोक लगा दी हो, पर झारखंड के बाजारों और मेलों में आज भी 'मुर्गा लड़ाई' के खास प्रकार का आयोजन किया जाता है।

झारखंड के जनजातीय इलाकों में लगने वाले ग्रामीण हाट-बाजारों के अलावा कई अन्य स्थानों पर आज भी एक परंपरागत खेल 'मुर्गा लड़ाई' बेहद लोकप्रिय है। हालांकि समय के साथ इसके स्वरूप में काफी बदलाव आ गया है। पहले हारने वाला मुर्गा जीतने वाले मुर्गा के मालिक को मिल जाता था, पर अब हारने वाला मुर्गा उसके मालिक के पास ही रह जाता है। इसके अलावे अब घुड़दौड़ की तरह इस लड़ाई में लाखों रुपये के दांव भी लगाए जाते हैं।

कई इलाकों में इसके लिए प्रतियोगिता का आयोजन भी किया जाता है। झारखंड के लोहरदगा, गुमला, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सिमडेगा सहित कई जिलों में इस लड़ाई को आदिवासियों की संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है। मुर्गा लड़ाई के लिए कई क्षेत्रों में मुर्गा बाजार लगाया जाता है।

इतिहास के पन्नों में मुर्गा लड़ाई की कोई प्रमाणिक जानकारी तो नहीं मिलती, पर आदिवासी समाज में ऐसी मान्यता है कि उनकी कई पीढ़ियों से मुर्गा लड़ाई उनकी जिंदगी का एक मनोरंजक हिस्सा बना गया है।

मुर्गा लड़ाई के जानकार रामाकांत कहते हैं कि मुर्गा लड़ाई पूर्व में मनोरंजन का हिस्सा हुआ करता था, जहां लोग अपने पसंद के मुर्गो पर दांव भी लगाते थे पर अब इस लड़ाई के नाम पर जुआ का खेल प्रारंभ हो गया है। इस कारण आदिवासी संस्कृति की पहचान बने इस लड़ाई की पहचान गुम होती जा रही है।

करीब 20 फुट के घेरे में दो मुर्गो की लड़ाई होती है। लड़ाई के दौरान मुर्गे की पैंतरेबाजी देखने लायक होती है। लड़ाई में एक चक्र अमूमन सात से 10 मिनट तक चलता है। लड़ाई शुरू होने से पहले और लड़ाई के दौरान लोग मुर्गो पर दांव लगाते हैं। सट्टेबाज लोगों को उकसाते हुए चारों तरफ घूमते रहते हैं। जीतने वाले मुर्गे पर दांव लगाने वालों को एक रुपये के बदले तीन से पांच रुपये दिए जाते हैं। एक बार में हजारों रुपये के दांव लगते हैं। अमूमन एक दिन में तीन से पांच दर्जन मुर्गो की लड़ाई होती है, जिसमें लाखों रुपये इधर से उधर होते हैं।

इस दौरान मुर्गे को उत्साहित करने के लिए मुर्गाबाज (मुर्गा का मालिक) तरह-तरह की आवाजें निकालता रहता है, जिसके बाद मुर्गा और खतरनाक हो जाता है।

मुर्गा लड़ाई के लिए मुर्गा पालने के शौकीन अवधेश उरांव बताते हैं कि लड़ाई में प्रशिक्षित मुर्गे उतारे जाते हैं। लड़ने के लिए तैयार मुर्गे के एक पैर में अंग्रेजी के अच्छर 'यू' आकार का एक हथियार बंधा हुआ होता है जिसे 'कत्थी' कहा जाता है। ऐसा नहीं कि यह कत्थी कोई व्यक्ति बांध सकता है। इसके बांधने की भी अपनी कला है। कत्थी बांधने का कार्य करने वालों को 'कातकीर' कहा जाता है जो इस कला में माहिर होता है।

मुर्गे आपस में कत्थी द्वारा एक दूसरे पर वार करते रहते हैं। इस दौरान मुर्गा लहुलूहान हो जाता है। कई मौकों पर तो कत्थी से मुर्गे की गर्दन तक कट जाती है। मुर्गो की लड़ाई तभी समाप्त होती है जब तक मुर्गा घायल न हो जाए या मैदान छोड़कर भाग जाए।

जानकार बताते हैं कि मुर्गा को लड़ाकू बनाने के लिए खास तौर पर न केवल प्रशिक्षण दिया जाता है बल्कि उसके खान-पान पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। लड़ाई के लिए तैयार किए जाने वाले मुर्गे को अंधेरे में रख कर उसे गुस्सैल और चिड़चिड़ा बनाया जाता है। उसे मुर्गियों (मादा मुर्गा) से दूर रखा जाता है। इन मुर्गो को ताकतवर बनाने के लिए उन्हें सूखी मछली का घोल, किशमिश, उबला हुआ मक्का और विटामिन के इंजेक्शन तक दिए जाते हैं।

रांची के पत्रकार सन्नी शरद आईएएनएस से कहते हैं, "मुर्गा लड़ाई आदिवासी समाज की संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। पूर्व में इसका आयोजन मनोरंजन के लिए किया जाता था, परंतु अब धनलोलुप लोगों ने आदिवासियों के इस गौरवशाली परंपरा को विकृत कर दिया है। आज मुर्गा लड़ाई जुआ, सट्टा तथा शराबखोरी का अड्डा बनकर रह गया है।"

उन्होंने बताया कि जमशेदपुर में मकर संक्रांति पर्व पर लगने वाले टुसू मेले और जतरा मेले में मुर्गा लड़ाई का खास आयोजन किया जाता है। इसके अलावे भी बजारों व हाटों में इस प्रकार के आयोजन किए जाते हैं।

वैसे शरद यह भी कहते हैं कि परंपरागत मुर्गा लड़ाई का स्वरूप अब काफी बदल गया है, जरूरत है उसके पुराने स्वरूप को बरकरार रखने की।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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  • चीन ने अलग-थलग पड़ी विरासत के संरक्षण का कदम उठाया
    ल्हासा, 21 जनवरी (आईएएनएस/सिन्हुआ)। दक्षिण-पश्चिमी चीन के स्वायत्त क्षेत्र तिब्बत में शोधकर्ताओं ने इस क्षेत्र की अलग-थलग पड़ी सांस्कृतिक विरासत या धरोहर को डिजिटलाइज कर उसके संरक्षण की कोशिश की है।

    तिब्बत की अलग-थलग सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण केंद्र के प्रमुख नगावांग डेनजिन ने कहा कि 2005 से अब तक ऐसी सांस्कृतिक विरासत का एक डिजिटल डाटाबेस तैयार करने के लिए इस स्वायत्त क्षेत्र से 1,00,000 से ज्यादा किस्से-कहानियां, 1,500 वीडियो व 40,000 फोटो एकत्रित किए गए हैं।

    उन्होंने कहा कि अब तक के डाटाबेस में 114 तिब्बती गीतिनाट्यों, अलग-थलग पड़ी सांस्कृतिक विरासत के 89 कार्यक्रमों और राज्य स्तर के 68 उत्तराधिकारियों से संबंधित जानकारी शामिल है।

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    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
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    नोम पेन्ह, 21 जनवरी (आईएएनएस/सिन्हुआ)। प्राचीन हरिहर देवता की मूर्ति का लूटा गया 47 किलोग्राम वजनी सिर इस पर वापस लगा दिया गया है। मूर्ति को गुरुवार को कंबोडिया की राजधानी नोम पेन्ह के राष्ट्रीय संग्रहालय में आमजन को दिखाने के लिए रखा गया।

    मूर्ति के सिर को 130 साल पहले कंबोडिया के एक मंदिर से लूट लिया गया था। मंगलवार को फ्रांस के गुइमेट संग्रहालय ने इसे कंबोडिया को लौटा दिया।

    कंबोडिया के उप-प्रधानमंत्री और कैबिनेट मंत्री सोक ऐन ने गुरुवार को कहा, "मूर्ति का सिर और धड़ 130 साल पहले एक-दूसरे से अलग कर दिया गया था। आज इनका मिलना एक ऐतिहासिक मील का पत्थर है।"

    गुइमेट संग्रहालय के प्रतिनिधि पियरे बैप्टिस्ट ने कहा कि मूर्ति के सिर को 1882-1883 के बीच लूट लिया गया था और इसे जहाज से कंबोडिया से फ्रांस ले जाया गया था।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • भारत अब हर महीने करेगा एक प्रक्षेपण
    फकीर बालाजी
    श्रीहरिकोटा (आंध्र प्रदेश), 20 जनवरी (आईएएनएस)। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी ने अंतरिक्ष विज्ञान में अपना दबदबा बढ़ाते हुए बुधवार को कहा कि अब वह हर महीने एक उपग्रह का प्रक्षेपण करेगा।

    ट्रांसपोंडर्स तथा वैज्ञानिक उपकरणों सहित अपने अंतरिक्ष आधारित परिसंपत्तियों से बढ़ रही जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत हर महीने एक उपग्रह के प्रक्षेपण की तैयारी कर रहा है।

    अमेरिका की जीपीएस (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) जैसी क्षमता हासिल करने की दिशा में एक और कदम बढ़ाते हुए बुधवार को भारत ने अपने पांचवें नौवहन उपग्रह आईआरएनएसएस-1ई का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण कर दिया।

    भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली भारत तथा इसके आस-पास के 1500 किमी के क्षेत्र में परिशुद्ध वास्तविक-काल स्थिति तथा समय सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए भारत की अपनी क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली है।

    भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष ए.एस.कृष्ण कुमार ने यहां कहा, "इस साल की शुरुआत हमने पांचवें नौवहन उपग्रह के प्रक्षेपण के साथ की है, जो एक महत्वपूर्ण सफलता है। क्योंकि इसे सटीक तौर पर इच्छित कक्षा में स्थापित किया गया। मांग पूरी करने के लिए हम हर महीने एक उपग्रह के प्रक्षेपण की तैयारी कर रहे हैं।"

    इसरो फरवरी तथा मार्च में दो और नौवहन उपग्रहों के प्रक्षेपण की तैयारी कर रहा है। जिसके बाद, स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के साथ एक से चार टन के रॉकेट के साथ पृथ्वी अवलोकन, रिमोट सेंसिंग व संचार आधारित अंतरिक्षयान का प्रक्षेपण किया जाएगा।

    पांचवें नौवहन उपग्रह के सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित किए जाने के बाद कुमार ने मिशन नियंत्रण केंद्र में वैज्ञानिकों से कहा, "हमें लंबा फासला तय करना है, क्योंकि अगले दो महीनों में हमें नौवहन के सातों उपग्रहों (आईआरएनएसएस) में से बाकी बचे उपग्रहों का प्रक्षेपण करना है, जिसके बाद विभिन्न प्रकार के बहुद्देश्यी उपग्रहों के प्रक्षेपण को लेकर हम अन्य मिशनों पर काम करेंगे।"

    अंतरिक्ष एजेंसी ने कहा कि बाद में उपग्रह (आईआरएनएसएस-1ई) को पृथ्वी से 20,655 किलोमीटर की दूरी पर एक अंडाकार कक्षा में भूमध्य रेखा से 19.21 डिग्री के कोण पर स्थापित किया गया है।

    संगठन का मास्टर नियंत्रण केंद्र हासन में है, जो कर्नाटक से लगभग 180 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, जहां अगले दो सप्ताह के दौरान भूसमकालिक कक्षा में स्थापित करने के लिए 1,425 किलोग्राम वजनी उपग्रह के पोजीशन में चार बार परिवर्तन किया जाएगा।

    कुमार ने कहा, "इस प्रक्षेपण के साथ ही हमने यह साबित कर दिखाया है कि पीएसएलवी (ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान) एक विश्वसनीय रॉकेट है और देश की जरूरतों के लिए यह विभिन्न कार्यो वाले उपग्रहों को अंतरिक्ष तक ले जाने में पूरी तरह सक्षम है।"

    स्ट्रैप-ऑन बुस्टर के साथ पीएसएलवी-सी31का यह 33वां प्रक्षेपण मिशन था, जिसे सफलतापूर्वक पूरा किया गया। सितंबर 1993 में पहली बार पहले प्रक्षेपण के साथ इसकी सहायता से अब तक 32 सफल परीक्षण किए जा चुके हैं।

    उपग्रह केंद्र के निदेशक एम.अन्नादुरई ने आईएएनएस से कहा, "हमारा अंतरिक्ष कार्यक्रम तेजी से आगे बढ़ रहा है। हमने साल 2015 में चार पीएसएलवी तथा एक जीएसएलवी (भू-समकालिक प्रक्षेपण यान) रॉकेट सहित पांच मिशन लॉन्च किए। जुलाई से लेकर अब तक हम चार मिशन लॉन्च कर चुके हैं, जिसमें पहला जुलाई, दूसरा अगस्त (जीएसएलवी), तीसरा सितंबर तथा चौथा दिसंबर में किया गया।"

    स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के साथ अगस्त 2015 में जीएसएलवी, दिसंबर 2014 में जीएसएलवी-मार्क-3 तथा जनवरी 2014 में जीएसएलवी-मार्क-2 के सफल प्रक्षेपण के साथ ही अंतरिक्ष एजेंसी की योजना इस साल अपने सबसे भारी रॉकेट जीएसएलवी-मार्क-3 के प्रक्षेपण की है, जो पृथ्वी से 36 हजार किलोमीटर दूर चार टन वजनी उपग्रह को अपने साथ ले जाएगा।

    अन्नादुरई ने कहा, "विभिन्न जरूरतों की पूर्ति के लिए देश, देश भर में अन्य उपयोगकर्ताओं तथा विदेशों में विभिन्न उपग्रहों की मांग बढ़ती ही जा रही है। संचार, प्रसारण, नौवहन, पृथ्वी अवलोकन तथा रिमोट सेंसिंग एप्लीकेशन प्रदान करने के अलावा हमें 10-12 साल पुराने अंतरिक्ष यान को भी बदलना है, जिसका जीवनकाल अब खत्म होने को है।"

    एक अनुमान के मुताबिक, अंतरिक्ष एजेंसी अगले पांच से छह वर्षो के दौरान ध्रुवीय व भूसमकालिक कक्षाओं में लगभग 80 उपग्रहों का प्रक्षेपण करेगी। इसके अलावा इसकी वाणिज्यिक शाखा एंट्रिक्स अगले दो वर्षो में लगभग 40 विदेशी उपग्रहों का प्रक्षेपण करेगी।

    अंतरिक्ष एजेंसी अगले दो वर्षो में द्वितीय चंद्र मिशन अभियान तथा सौर अवलोकन (आदित्य-1) की भी तैयारी कर रही है।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
  • इतिहास बन गया डोली का अस्तित्व

    घनश्याम भारतीय

    'चलो रे डोली उठाओ कहार..पिया मिलन की ऋतु आई..।' यह गीत जब भी बजता है, कानों में भावपूर्ण मिसरी सी घोल देता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इसमें छिपी है किसी बहन या बेटी के उसके परिजनों से जुदा होने की पीड़ा के साथ-साथ नव दाम्पत्य जीवन की शुरुआत की अपार खुशी!

    जुदाई की इसी पीड़ा और मिलन की खुशी के बीच की कभी अहम कड़ी रही 'डोली' आज आधुनिकता की चकाचांैध में विलुप्त सी हो गई है जो अब ढूढ़ने पर भी नहीं मिलती।

    एक समय था, जब यह डोली बादशाहों और उनकी बेगमों या राजाओं और उनकी रानियों के लिए यात्रा का प्रमुख साधन हुआ करती थी। तब जब आज की भांति न चिकनी सड़कें थीं और न ही आधुनिक साधन। तब घोड़े के अलावा डोली प्रमुख साधनों मंे शुमार थी। इसे ढोने वालों को कहार कहा जाता था।

    दो कहार आगे और दो ही कहार पीछे अपने कंधो पर रखकर डोली में बैठने वाले को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाते थे। थक जाने की स्थिति में सहयोगी कहार उनकी मदद भी करते थे। इसके लिए मिलने वाले मेहनताने व इनाम इकराम से कहारांे की जिंदगी की गाड़ी चलती थी। यह डोली आम तौर पर दो और नामों से जानी जाती रही है।

    आम लोग इसे 'डोली' और खास लोग इसे 'पालकी' कहते थे, जबकि विद्वतजनों में इसे 'शिविका' नाम प्राप्त था। राजतंत्र में राजे रजवाड़े व जमींदार इसी पालकी से अपने इलाके के भ्रमण पर निकला करते थे। आगे आगे राजा की डोली और पीछे-पीछे उनके सैनिक व अन्य कर्मी पैदल चला करते थे।

    कालांतर मंे इसी 'डोली' का प्रयोग शादी विवाद के अवसर पर दूल्हा-दूल्हन को ढोने की प्रमुख सवारी के रूप में होने लगा। उस समय आज की भांति न तो अच्छी सड़कें थीं और न ही यातायात के संसाधन। शादी विवाह में सामान ढोने के लिए बैलगाड़ी और दूल्हा-दूल्हन के लिए 'डोली' का चलन था। शेष बाराती पैदल चला करते थे।

    कई-कई गांवों में किसी एक व्यक्ति के पास डोली हुआ करती थी, जो शान की प्रतीक भी थी। शादी विवाह के मौकों पर लोगों को पहले से बुकिंग के आधार पर डोली बगैर किसी शुल्क के मुहैया होती थी। बस ढोने वाले कहारों को ही उनका मेहनताना देना पड़ता था।

    यह 'डोली' कम वजनी लकड़ी के पटरों, पायों और लोहे के कीले के सहारे एक छोटे से कमरे के रूप में बनाई जाती थी। इसके दोनों तरफ के हिस्से खिड़की की तरह खुले होते थे। अंदर आराम के लिए गद्दे बिछाए जाते थे। ऊपर खोखले मजबूत बांस के हत्थे लगाए जाते थे, जिसे कंधों पर रखकर कहार ढोते थे।

    प्रचलित परंपरा और रश्म के अनुसार शादी के लिए बारात निकलने से पूर्व दूल्हे की सगी संबंधी महिलाएं डोल चढ़ाई रश्म के तहत बारी-बारी दूल्हे के साथ डोली में बैठती थी। इसके बदले कहारांे को यथाशक्ति दान देते हुए शादी करने जाते दूल्हे को आशीर्वाद देकर भेजती थी। दूल्हे को लेकर कहार उसकी ससुराल तक जाते थे।

    इस बीच कई जगह रुक-रुक थकान मिटाते और जलपान करते कराते थे। इसी डोली से दूल्हे की परछन रस्म के साथ अन्य रस्में निभाई जाती थी। अगले दिन बरहार के रूप में रुकी बारात जब तीसरे दिन वापस लौटती थी, तब इस डोली में मायके वालों के बिछुड़ने से दुखी होकर रोती हुई दुल्हन बैठती थी और रोते हुए काफी दूर तक चली जाती थी। उसे हंसाने व अपनी थकान मिटाने के लिए कहार तमाम तरह की चुटकी लेते हुए गीत भी गाते चलते थे।

    विदा हुई दुल्हन की डोली जब गांवों से होकर गुजरती थी, तो महिलाएं व बच्चे कौतूहलवश डोली रुकवा देते थे। घूंघट हटवाकर दुल्हन देखने और उसे पानी पिलाकर ही जाने देते थे, जिसमें अपनेपन के साथ मानवता और प्रेम भरी भारतीय संस्कृति के दर्शन होते थे। समाज में एक-दूसरे के लिए अपार प्रेम झलकता था जो अब उसी डोली के साथ समाज से विदा हो चुका है।

    डोली ढोते समय मजाक करते कहारों को राह चलती ग्रामीण महिलाएं जबाव भी खूब देती थीं, जिसे सुनकर रोती दुल्हन हंस देती थी। दुल्हन की डोली जब उसके पीहर पहुंच जाती थी, तब एक रस्म निभाने के लिए कुछ दूर पहले डोली में दुल्हन के साथ दूल्हे को भी बैठा दिया जाता था। फिर उन्हें उतारने की भी रस्म निभाई जाती थी। इस अवसर पर कहारों को फिर पुरस्कार मिलता था।

    यह भी उल्लेखनीय है कि ससुराल से जब यही दूल्हन मायके के लिए विदा होती थी, तब बड़ी डोली के बजाय खटोली (छोटी डोली) का प्रयोग होता था। खटोली के रूप में छोटी चारपाई को रस्सी के सहारे बांस में लटकाकर परदे से ढंक दिया जाता था। दुल्हन उसी मंे बैठाई जाती थी। इसी से दुल्हन मायके जाती थी। ऐसा करके लोग अपनी शान बढ़ाते थे। जिस शादी में डोली नहीं होती थी, उसे बहुत ही हल्के में लिया जाता था।

    तेजी से बदलकर आधुनिक हुए मौजूदा परिवेश में तमाम रीति-रिवाजांे के साथ डोली का चलन भी अब पूरी तरह समाप्त हो गया। करीब तीन दशक से कहीं भी डोली देखने को नहीं मिली है। अत्याधुनिक लक्जरी गाड़ियों के आगे अब जहां एक ओर दूल्हा व दूल्हन डोली में बैठना नहीं चाहते, वहीं अब उसे ढोने वाले कहार भी नहीं मिलते।

    ऐसा शायद इसलिए, क्योंकि अब मानसिक ताकत के आगे शारीरिक तकत हार सी गई है। दिनभर के रास्ते को विज्ञान ने कुछ ही मिनटों में सुलभ कर दिया है। वह भी अत्यधिक आरामदायक ढंग से। ऐसे में डोली से कौन हिचकोले खाना चाहेगा। ..और कौन चंद इनाम व इकराम के लिए दिनभर बोझ से दबकर पसीना बहाते हुए हाफना चाहेगा।

    कभी डोली ढोने का काम करते रहे सत्तर वर्षीय सोहन, साठ वर्षीय राम आसरे, व बासठ वर्षीय मुन्नर तथा साठ वर्षीय बरखू का कहना है कि अच्छा हुआ जो डोली बंद हो गई, वरना आज ढोने वाले ही नहीं मिलते। अब के लोगों को जितनी सुख सुविधाएं मिली हैं, उतने ही वे नाजुक भी हो गए हैं।

    ऐसे में डोली ही नहीं, तमाम अन्य साधनों व परंपराओं का अस्तित्व इतिहास बनना ही है।

  • मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण, विभाग चल रहा 'दीपक' के भरोसे

    संदीप पौराणिक

    मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं में निजीकरण की शुरुआत हो गई है, और इसका पहला पड़ाव बना है, आदिवासी बहुल जिला अलिराजपुर। यहां की स्वास्थ्य सेवाओं और खासकर शिशु मृत्युदर तथा मातृ मृत्युदर कम करने के लिए गुजरात के गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) 'दीपक फाउंडेशन' के साथ स्वास्थ्य विभाग ने करार किया है।

    लेकिन अब इस करार पर ही सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि बीते वर्षो में राज्य की शिशु मृत्युदर और मातृ मृत्युदर में कोई कमी नहीं आ रही है।

    राज्य की सरकार लगातार स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार होने का दावा किए जाने के साथ अपनी कोशिशों को लेकर पीठ भी थपथपाती रही है, मगर जमीनी हकीकत इससे अलग है।

    कई अस्पतालों में चिकित्सक, स्वास्थ्य कर्मी नहीं है। नतीजतन मरीजों को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए निजी अस्पतालों का रुख करना पड़ता है। सरकारी अस्पतालों की बदहाली और लापरवाही केा हाल ही में बड़वानी और श्योपुर की घटनाआंे ने सामने ला दिया है। जहां मोतियाबिंद के ऑपरेशन आंखों को रोशनी पाने की चाहत में 65 लोग अंधेरा लेकर लौटे हैं।

    स्वास्थ्य विभाग सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों हालत में सुधार लाने की बजाय निजीकरण की दिशा में बढ़ने लगा है और इसकी शुरुआत हुई है अलिराजपुर से। नवंबर 2015 में राज्य स्वास्थ्य समिति और दीपक फाउंडेशन, बड़ोदरा (गुजरात) के बीच करार हुआ है। इस करार के मुताबिक दीपक फाउंडेशन जिला चिकित्सालय और जोबट सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में कार्य करते हुए शिशु व मातृ मृत्युदर में कमी लाने के लिए काम करेगा।

    राज्य स्वास्थ्य समिति और दीपक फाउंडेशन के करार की प्रति आईएएनएस को मिली है, उसके अनुसार फाउंडेशन जिला अस्पताल में निश्चेतन (एनेस्थेटिएस्ट) विशेषज्ञ और जोबट के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में निश्चेतन (एनेस्थेटिएस्ट), स्त्रीरोग और बाल रोग विशेषज्ञों की पदस्थापना में सहयोग करेगा।

    वैसे इन चिकित्सकों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन वेतन देता है, मगर तय वेतन से ज्यादा देने की स्थिति में शेष राशि की पूर्ति दीपक फाउंडेशन करेगा। इसके अलावा अल्टा सोनोग्राम (यूएसजी) और जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम में भी यह फाउंडेशन जरूरत पड़ने पर आर्थिक मदद करेगा।

    करारनामे के अनुसार, अलिराजपुर के अलावा झाबुआ और बड़वानी में दीपक फाउंडेशन हेल्प डेस्क भी शुरू करेगा। इसके अलावा अलिराजपुर में आशा कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देगा। यह फाउंडेशन ग्रामीण क्षेत्र की स्वास्थ्य, पोषण तथा स्वच्छता समितियों को भी प्रशिक्षण देगा। इसके लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन बजट के मुताबिक, राशि मुहैया कराएगा। यह करार तीन वर्ष के लिए है।

    सरकार और दीपक फाउंडेशन के बीच हुए करार पर ही सवाल उठ रहे हैं। जन स्वास्थ्य अभियान के डॉ. एस.आर. आजाद ने बताया है कि इस करार में सरकार ने उन सभी दिशा निर्देशों की अवहेलना की है, जो किसी गैर सरकारी संगठन के साथ करार करने के लिए आवश्यक है।

    करार से पहले न तो कोई विज्ञापन जारी किया और न ही निविदाएं आमंत्रित की गईं। स्वास्थ्य विभाग की प्रमुख सचिव गौरी सिंह से शिकायत की तो वे जांच कराने की बात कह रही है।

    जन स्वास्थ्य अभियान के अमूल्य निधि ने बताया है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत अन्य राज्यों की तरह मध्य प्रदेश को भी प्रति वर्ष बजट स्वीकृत होता है, मगर इस करार में विभाग ने 60 प्रतिशत राशि शुरुआत में ही देने पर सहमति जता दी है। इतना ही नहीं किसी अन्य संस्था को अवसर दिए बिना दीपक फाउंडेशन से करार किया।

    आदिवासी क्षेत्र में समाजसेवा कर रही शमारुख मेहरा धारा का कहना है राज्य में आशा कार्यकर्ता को प्रशिक्षण देने वाली संस्था से करार हुआ तो विभाग ने सुरक्षा निधि जमा कराई थी, मगर दीपक फाउंडेशन से सुरक्षा निधि जमा कराना तो दूर इसके उलट उसे साठ फीसदी राशि अग्रिम दी जा रही है। इसके साथ करार में यह भी खुलासा नहीं किया गया है कि फाउंडेशन को कितनी राशि दी जाएगी और फाउंडेशन कितनी राशि खर्च करेगा।

    इस करार में नियमों की अवहेलना और एक खास संस्था के प्रति लगाव को लेकर लगाए गए आरोपों को लेकर स्वास्थ्य विभाग का पक्ष जानने के लिए विभाग की प्रमुख सचिव गौरी सिंह से संपर्क किया गया, मगर वे उपलब्ध नहीं हुईं।

    सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बीते चार वर्षों के आंकड़ों के आधार पर बताया है कि राज्य की मातृ मृत्युदर 310 प्रति लाख से घटकर 227 प्रति लाख रह गई है और शिशु मृत्युदर 68 से 62 प्रति लाख है।

    वहीं राज्य के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को बेहतर कार्य के लिए वर्ष 2014-15 मंे केंद्र सरकार की ओर से पुरस्कृत किया गया है। ऐसे में शिशु और मातृ मृत्युदर कम करने के लिए किसी संस्था से समझौता करने पर सवाल उठना लाजिमी है।

  • केरल : स्कूली कला उत्सव में 12000 विद्यार्थी करेंगे प्रतिस्पर्धा
    तिरुवनन्तपुरम, 19 जनवरी (आईएएनएस)। स्कूली कला महोत्सव के 56वें आयोजन में 232 कार्यक्रमों के जरिए 12,000 विद्यार्थी प्रतिस्पर्धा करेंगे।

    यह आकंड़ा चौका देने वाला है। आयोजन की शुरुआत यहां मंगलवार को हुई।

    यह कार्यक्रम सरकारी स्कूलों के छात्रों के लिए आयोजित किया जाता है। यह प्रतियोगिता राज्य के 14 जिलों के बीच होती है।

    कार्यक्रम का उद्घाटन मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने किया। इसमें तिरुवनंतपुरम जिले के 35 स्कूलों से 6,000 विद्यार्थी एम. सी. मार्ग पर आयोजित मार्च में शामिल हुए।

    इस महोत्सव से विद्यार्थी के रूप पुरस्कार जीत कर आज नामी कलाकार बन चुके लोगों में गायक के.जे. यसुदास और पी. जयचंद्रन, अभिनेता मंजू वारियरख् नव्या नायर, विनीत के अलावा राज्य के मुख्य सचिव जिज्जी थॉमस प्रमुख रूप से शामिल हैं।

    राज्य की राजधानी में 19 स्थानों पर 232 कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे।

    कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण सभी प्रतिभागियों के लिए भोजन है, जो आयोजकों द्वारा अस्थायी रसोई में बनाया जा रहा है।

    इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

खरी बात

सेक्युलर (धर्मनिरपेक्ष) होने का स्वांग और भारतीय मीडिया

एन के सिंह अपने को धर्म-निरपेक्ष होने अर्थात बौद्धिक ईमानदारी का ठप्पा लगवाने के लिए ज्यादा मेहनत करने की ज़रुरत नहीं होती. अगर आपके नाम के अंत में सिंह, शुक्ला,...

आधी दुनिया

सावित्रीबाई फुले जिन्होंने भारतीय स्त्रियों को शिक्षा की राह दिखाई

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उपासना बेहार “.....ज्ञान बिना सब कुछ खो जावे,बुद्धि बिना हम पशु हो जावें, अपना वक्त न करो बर्बाद,जाओ, जाकर शिक्षा पाओ......” सावित्रीबाई फुले की कविता का अंश अगर सावित्रीबाई फुले...