JS NewsPlus - шаблон joomla Продвижение
BREAKING NEWS
चीन : बस आगजनी की घटना में मृतकों की संख्या 18 हुई
सीरिया : हवाई हमलों में 40 नागरिकों की मौत
दिल्ली : पुलिस अधिकारी ने महिला, खुद को गोली मारी, मौत (लीड-1)
मप्र : नेपाली परिचय सम्मेलन में 200 युवक-युवतियों की हिस्सेदारी

LIVE News

विश्व पुस्तक मेला: ब्रोथल होने से बचाने की अपील Featured

संदीप नाईक

विश्व पुस्तक मेला एक बार फिर सामने है, अबकी बार कोलकाता और बाकी जघ्हों के आयोजनों को देखते हुए इस बार यह मेला जल्दी आयोजित किया जा रहा है. आम तौर पर फरवरी में आयोजित किया जाने वाला विश्व पुस्तक मेला भारत जैसे देश में एक विलासिता का ही मामला है जिस देश में नब्बे के दशक तक साक्षरता का प्रतिशत चालीस से भी कम था और किताबों की बिक्री एक दिवास्प्न था वही सन 1990-91 में अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता वर्ष मनाने के बाद शिक्षा की ज्योति दूर दराज के इलाकों में पहुँची. केरल के अर्नाकुलम जिले से शुरू हुए सम्पूर्ण साक्षरता अभियान ने देश में प्रति वर्ष 8 सितम्बर से 14 सितम्बर तक पुस्तक सप्ताह मनाने का सिलसिला शुरू हुआ. नॅशनल बुक ट्रस्ट ने ये आयोजन छोटे कस्बों से लेकर दिल्ली जैसे बड़े शहरों में आयोजित किये, ट्रस्ट के पूर्व निदेशक अरविन्द कुमार के योगदान को इसमे निश्चित ही श्रेय दिया जाना चाहिए. बाद में बच्चों को लेकर एनबीटी में एक अलग इकाई बनाई गयी जो उस समय के शैक्षणिक संस्थान के तथाकथित शिक्षाविद को दी गयी परन्तु उन्होंने उल जुलूल प्रयोग करके इस इकाई को बर्बाद किया और अपना धंधा व्यक्तिगत स्तर पर बढाया.

बहरहाल, इस दौरान पुस्तक मेले एक आयोजन और उत्सव के रूप में निकलकर सामने आये. देश के प्रकाशकों ने इसे हाथो हाथ लिया और बहुत सस्ते दरों पर पुस्तकें छापी. भारत ज्ञान विज्ञान जैसी संस्थाओं ने सस्ते साहित्य की संकल्पना को अंजाम दिया और एक से लेकर दस रूपये में किताबें छापकर बेची.
सफ़दर हाशमी की कविता “किताबें करते है बाते” के पोस्टर ने देश में एक मूक क्रान्ति लाई तो कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा, इस कविता को एनबीटी से लेकर सीबीटी और देश के तमाम प्रकाशन गृहों ने रंग बिरंगे स्वरुप में छापी है. नॅशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के “थियेटर इन एजुकेशन” के कलाकारों ने इस कविता को लेकर बेहतरीन नाटक बनाए और देश भर में नुक्कड़ों पर प्रस्तुर किये. देश में शिक्षा के प्रचार और प्रसार के साथ साक्षरता बढ़ रही थी और ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड, सर्व शिक्षा अभियान जैसे व्यापक कार्यक्रमों ने किताबों के प्रति जनमानस में एक अगाध श्रद्धा और प्रेम जगाया. धीरे धीरे देश भर में किताबों का एक बड़ा व्यवसाय फैला और मार्केट बना. राज्यों में बनी साहित्य अकादमियों ने छोटे छोटे स्तरों पर पाठक मंच बनाए और देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह उग आई एनजीओस ने भी पुस्तकालय खोले और अलख जगाने का विश्वसनीय काम किया. साहित्य अब जनमानस के बीच था.

वाणी, राजकमल, शिल्पायन, हिन्द पॉकेट बुक्स, साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ जैसे बड़े प्रकाशनों ने प्रेमचंद जैसे प्रचलित और लोकप्रिय लेखकों की किताबें सस्ती दरों पर छापकर पाठको को उपलब्ध करवाई. हिन्दी में लघु पत्रिकाओं का दौर एक बार फिर शुरू हुआ और छ्होटे कस्बों से पत्रिकाएं निकलने लगी. इस सारी प्रक्रिया में एक अच्छी बात यह हुए कि लिखना पढ़ना एक शगल नहीं रहा और बहुत गंभीर किस्म का लेखन  सामने आया. लोग लेखक बने और किताबें छपने लगी, पत्रिकाएँ बिकने लगी और किताबों की चर्चा होने लगी. विश्व पुस्तक मेले के आयोजन ने लेखन और किताबों को एक सम्मान दिया जिससे प्रकाशन गृह भी बढे और कुछ जमीनी काम करने वाले लोग सिर्फ और सिर्फ प्रकाशन के काम में लग गए. एकलव्य जैसी संस्था जो विज्ञान, सामाजिक और प्राथमिक शिक्षण के नवाचारी कार्यक्रम में संलग्न थी, ने रतन टाटा ट्रस्ट के अनुदान से अपने आपको कमरे में एक प्रकाशक के रूप में सीमित कर लिया.

किताबों का संसार और व्यवसाय बढ़ रहा था किताबे लिखी और पढी जा रही थी पर इस सबमे सबसे ज्यादा जो नुकसान पाठक का हुआ वह यह था कि उसे उत्कृष्ट किस्म की किताबें मिलना बंद हो गयी, बहुत सरल हो गया था रातो-रात बैठकर लिखना, और प्रकाशक को पच्चीस से पचास हजार देकर छपवाना. बाजार, ठगी, रुपयों की दौड़ और प्रतिस्पर्धा में लेखक और प्रकाशकों ने एक अजीब किस्म की बेचारगी पाठकों के लिए पैदा कर दी. कुछ भी लिखों बाजार में ढेरों पत्रिकाएं थी, सम्पर्क थे, रुपया था और दारू पार्टियां थी......तू मुझे बुला - मै तुझे बुलाउंगा, तू मेरा कार्यक्रम कर – मै तेरा कार्यक्रम करूंगा, तू मुझे पुरस्कृत कर – मै तुझे इनामों से नवाज दूंगा, यह भावना ही नहीं वर्ना हिन्दी के पिछले पूरे दशक की राम कहानी है. छदम बुद्धिजीवी हर जगह उग आये, सरकारी-गैर सरकारी नौकरी करने वालों ने अपने स्थानीय संगठन बनाये, प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ, इप्टा और जन संस्कृति मंचों ने इन्हें कही मान्यता दी, कही इन्होने अपने ही बैनर बना लिए और इन लोगों ने सूत्र संपर्कों से, स्थानीय सेठ साहूकारों को या प्रशासन के लोगों को सिर पर बिठाकर साहित्य की रास लीला रचाई. एक हजार से पचास हजार तक के पुरस्कार बाजार में आये और फिर शुरू हुआ विश्व पुस्तक मेले में अपना मार्केटिंग शुरू किया. बहुत ही घटिया किस्म की किताबें आई पिछले पुस्तक मेलों में और प्रकाशकों ने छोटे कस्बों के लेखकों को फंसाकर अपना घर चलाया यह कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.
कुछ तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी जो सरकारी नौकरी में थे कसबे और शहर छोड़कर दिल्ली में जा बसे और प्रकाशन का धंधा शुरू किया और अमर होने के लिए अपने नाम की कीर्ति पताकाएं और यश फैलाने के लिए भयानक आत्म मुग्ध होकर काम करने लगे. अधिकाँश किताबें जो आई या तो वे घटिया थी या विश्व साहित्य का अनुवाद जो बहुत ही कमजोर किस्म का था.

लेखकों से रुपया लेकर छापने की जो संस्कृति विक्सित हुई वह बेहद चिंताजनक थी. प्रकाशकों ने लेखकों को वर्ष का सर्वश्रेष्ठ लेकाहक बनाने की घोषणा तक आकर डाली, या फलानी किताब या फलाने उपन्यास को वर्ष का सबसे ज्यादा बिकने वाला बना दूंगा जैसे मुहावरे भी गढ़ डाले जोकि कस्बों से या पहली बार किताब छपे लेखक के लिए एक बड़ा माया जाल था. कुछ प्रकाशक अच्छी खासी पत्रकाओं के सम्पादन का दायित्व छोड़कर प्रकाशन के व्यवसाय में गंभीर किस्म का काम करने आये परन्तु अन्ततोगत्वा वे भी विश्व पुस्तक मेले में बिक्री और होड़ के चलते सिर्फ और सिर्फ प्रकाशक बनकर रह गए. ये प्रकाशन का धंधा इतना चल निकला है बाजार में कि वर्ष में एक दो बार लेखकों को बुलाओ और खाना दो, शराब पिलाओ और फिर मनचाहे तरीक से उन्हें दुहते रहो, दिल्ली पुस्तक मेला जैसे टार्गेट हो गया हो, सितम्बर से शुरू हो जाती है तैयारी, मार्केटिंग की रणनीती और नए मुर्गों की खोज जो रुपया डालकर अपनी किताब छपवाने को बेताब है. इसमे महिलायें भी सजी संवरी अपनी घटिया कहानियां, कविताएँ या बोरिंग उपन्यास छपवाने को बेताब होती है जिनके पतिदेव प्रकाशक के पीछे हाथ जोड़कर और उनका हुक्म सुनने और तामील करने को तैयार होते है.

विश्व पुस्तक मेले में हर प्रकाशक के स्टाल पर दिन में पांच से छः बार लोकार्पण की नौटंकी होती है जिसमे प्रकाशक पुस्तक मेले में आये लोगों को पकड़ पकड कर ले जाता है सस्ती सी चाय पिलाकर ताली बजवाने का काम करवाता है. कोई लेखक सामने से गुजर रहा हो तो उस बेचारे की खैर नहीं उसे मुख्य अतिथि बनकर लोकार्पण के बाद दो शब्द भी बोलने पड़ते है. साथ ही पुस्तक मेले में फ़ालतू की चर्चा रोज होती है किताबों और साहित्य पर कम पर कुछ नए सरकारी मुलाजिम जो विचारधारा और लंगोट के पक्के होने का दावा करते है रोज नए स्कैंडल खड़े करते है और रात को शराब और सुन्दरी के चक्कर में बुकर से लेकर साहित्य का नोबल पुरस्कार भी ले लेते है.

इसा सबमे सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है सोशल मीडिया ने, आप इन दिनों फेस बुक या किसी अन्य सोशल मीडिया पर देख लें लोग दिन में अट्ठाईस घंटे काम करने की बात कर रहे है, रात रात भर सो नहीं रहे, सामयिक घटनाओं पर टिप्पणी ऐसे कर रहे है मानो किसी पाठ्यक्रम के तहत यहाँ आकर लिखना अनिवार्य हो, अपनी दूकान और माल का प्रचार करते हुए बेशर्मी की सारी हदों को पार कर गए है. यह सब देखते हुए मुझे अलेक्जान्द्र कुप्रिन का उपन्यास “गाडी वालों का कटरा” याद आता है जिसमे रूसी क्रान्ति के समय जब मास्को में युद्ध हो रहा था तो कसी तरह से दूर दराज के आये सैन्य कर्मचारियों को स्थानीय वेश्याएं लुभाने की नित नई तरकीबें आजमाती थी. यह विश्व पुस्तक मेला एक ब्रोथल बनकर गया है जिसमे रोज सरकारी से भी कम रेट पर बारह से चौदह घंटें काम करने वाले लडके लड़कियां, किताबें ढोने वाले मजदूर, चाय वाले, शोषित होते रहते है और किताबों से नई दुनिया बनाने का स्वप्न देखते है. देश भर से आये लेखक है जो टुकुर टुकुर दिल्ली के लोगों की भीड़ में साहित्य की दुनिया देखते है, बेचारे मेहनत की कमाई से किताबें खरीदते है और ढोकर ले जाते है. किलो के भाव से बिकने वाली किताबें अभिशप्त है प्रकाशन गृहों से लेखक के घर में डंप हो जाने के लिए – वे ना पढी जाती है ना, समझी जाती है, अपनी नियति को रोते हुए वे फिर अगले पुस्तक मेले का इंतज़ार करती है.

सवाल यह है कि क्या पढ़ा जाए और क्या छापा जाये और क्या बेचा जाए और किसको? यह सवाल जब तक हम अब नहीं तलाशेंगे तब तक पुस्तक मेलों से कुछ हासिल नहीं होगा, एक विकसित राष्ट्र में किताबों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है परन्तु अक्षर, शब्द, किताब, लेखक, प्रकाशक और धंधे के बीच सेतु क्या हो, कैसे पाठकों को रुचिकर किताबें मिलें जिससे देश, समाज और विश्व की दिशा तय हो. एक बार फिर रस्मी तौर पर यह पुस्तक मेला हर बार की तरह खत्म हो जाएगा पर जितनी अरुचि पाठको में जगाकर जाएगा उसका नुकसान कितना होगा इसका अंदाज कोई कभी नहीं कर सकेगा.

About Author

संदीप नाइक

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.

Latest from संदीप नाइक

Related items

  • 12 जनवरी युवा दिवस: क्या कर रहे है देश के बाहर बसे भारतीय युवा अपने देश के लिए

    संदीप नाईक

    अभूतपूर्व मेधा और विलक्ष्ण बुद्धि के स्वामी विवेकानंद का जिक्र आज होना स्वाभाविक है वह संत जिसने दुनिया को भारत की संस्कृति और सभ्यता के बारे में ज्ञान दिया. पूरी दुनिया के लोगों को भाई और बहन कहने वाले बिरले ही लोग होते है. दुनिया के देशों में भारत इस समय ऐसा देश है जहां युवाओं की आबादी सर्वाधिक है और इस समय पूरी दुनिया भारत की ओर बहुत उम्मीदों से देख रही है. भारत के युवाओं की प्रतिभा का लोहा दुनिया मान चुकी है और इस समय भारतीय युवा पूरी दुनिया में सॉफ्ट वेयर से लेकर मेडिकल, प्रौद्योगिकी, खान-पान उद्योग आदि में अपनी जगह बना चुके है और नित नए नूतन कामों से अपनी मेधा का बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे है. दुनिया के अनेक देशों में इन भारत वंशियों ने स्थानीय राजनीती में भी डंका बजाया है और महत्वपूर्ण पद हासिल किये है. भूमंडलीकरण के कारण जहां दुनिया एक छोटा मोहल्ला बन गयी है, आवागमन सुलभ हो गया है इसलिए दुनिया में आवाजाही बहुत बढ़ गयी है. भारत के छोटे कस्बों से युवा दुनिया के बड़े बाजार और उद्योगों में चहल कदमी कर रहे है और दुनिया का ज्ञान अपने यहाँ ला रहे है और अपने तई स्थानीय समाज, व्यवस्था और बाजार को एक ग्लोबल आकार देने की कोशिश कर रहे है. देश के प्रधानमंत्री मोदी जी ने दो सालों में जिस तरह से दुनिया भर के निवेशकों से बात करने के लिए विश्व भ्रमण किये है और लोगों से जीवंत बातचीत की है वह सराहनीय है. इन दौरों में दुनिया भर में बसे युवाओं का उत्साह देखते ही बनता है और देश के लिए काम करने का उनका जज्बा अतुलनीय है. वे आर्थिक मदद से लेकर शौचालय निर्माण, मेडिकल और ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों को शिक्षा देने को भी उत्सुक है, निश्चित ही यह पहल और प्रयास सराहनीय है और ऐसे सभी प्रयासों का स्वागत किया जाना चाहिए. उम्मीद की जाना चाहिए कि निकट भविष्य में इसके भारतीय समाज पर सार्थक परिणाम निकलेंगे.
     
    “मैं पिछले करीब आठ साल से अपने वतन से दूर रह रहा हूँ - पर देश के हालातों पर नजर हमेशा रहती हैं. कई बार मित्रो और सहकर्मियों से देश के सम-सामायिक मसलो पर चर्चा करते वक़्त कही न कही हम बढ-चढ़कर यही जताने की कोशिश मे लग जाते हैं कि दूसरे देश कहाँ से कहाँ पहुंच गए और हमारा भारत देश आज़ादी के 68 वर्षो के बाद भी शायद जहाँ था, वही हैं. जब मैंने कारण जानने की कोशिश की तो यह समझने मे देर नहीं लगी कि जनसँख्या और भ्रष्टाचार दो मुख्य कारण हैं और उस पर भी भ्रष्टाचार तो जैसे हमारी दिनचर्या का हिस्सा ही बन बैठा था. सिंगापुर मे काम करते हुए गुजारे सात सालों मे ये भरोसा तो हो गया था कि बिना रिश्वत दिए भी सरकारी कामकाज हो सकते हैं और अमेरिका आने के बाद इस भरोसे को और मजबूती ही मिली” समीप जैन कहते है जिन्होंने पिछले दिनों इंदौर के एक बड़े अखबार ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध छिड़ी लड़ाई के लिए दो व्यक्तियों को प्रति वर्ष पच्चीस- पच्चीस हजार रूपये के पुरस्कारों की घोषणा की है. मूलतः खंडवा के रहने वाले युवा उत्साही समीप जैन पिछले कई बरसों से देश के बाहर है. देवास की अन्शुमा जैन के साथ उनकी शादी  अभी दो साल पहले ही हुई है. समीप को लगता था कि जिस देश से उन्होंने इतना कुछ लिया उसके लिए वे बहुत कुछ करना चाहते थे, वे अपने ही जिले के खालवा ब्लाक में कोरकू आदिवासियों के बच्चों की कुपोषण से मौत पर भी संजीदा थे, “खराब व्यवस्था और भ्रष्टाचार के कारण नवजात बच्चे भी बलि चढ़ रहे है, और मुझे लगा कि जब हम बाहर रहकर मेहनत करके ईमानदारी से रुपया कमा रहे है, तो हमें देश निर्माण में कुछ देना चाहिए” उनकी सहचर अन्शुमा कहती है कि देवास से हमें शिक्षा के अच्छे संस्कार मिलें, और लगा कि शिक्षा का मतलब आगे चलकर समाज को एक विकसित राष्ट्र में तब्दील करना ही होता है इसलिए हमने मिलकर यह निर्णय लिया है.  
     
    पवन गुप्ता इस समय अमेरिका में नासा में वैज्ञानिक है और देवास जिले के इकलेरा गाँव के रहने वाले है. सरकारी स्कूल से हिन्दी माध्यम से पढाई करके पवन ने बहुत मेहनत की और अमेरिका से पीएचडी की और फिर पोस्ट डाक्टरेट किया, इन दिनों वे वही बस गए है परन्तु पवन अभी भी अपने गाँव के बच्चों की पढाई का इंतजाम करते है, हर वर्ष वे दो तीन बार आते है. वे खुद और अपने मित्रों की सहायता से हर वर्ष पचास-साठ बच्चों की फीस भरते है और गुणवत्तापूर्व पढाई की व्यव्स्था करते है और इसके लिए उन्होंने गाँव के एक शिक्षित युवा को इन बच्चों को पढ़ाने के लिए रखा है और बच्चों की फीस, किताब कॉपी का खर्च देते है.  ये बच्चे अधिकाँश बहुत गरीब और दलित परिवारों  से है. पिछले चार वर्षों में कई बच्चे जिनमे ज्यादा लड़कियां है, ने बारहवी की पढाई पूरी करके कॉलेज में पढाई जारी रख रहे है. इंदौर की फाल्गुनी पटाडिया होलकर कॉलेज से भौतिक विज्ञान की छात्रा रही है. उनकी भारतीय राजनीती में आ रहे बदलाव में बहुत रूचि है. फाल्गुनी ने अन्ना आन्दोलन के दौरान अरविन्द केजरीवाल के आन्दोलन को काफी मदद दी, अपने दोस्तों के साथ लगातार आन्दोलन के लिए बाहर रहकर काम किया, आर्थिक मदद जुताई और उनके लन्दन के एक साथी को नौकरी में ब्रेक दिलवाकर सोशल मीडिया सम्हालने के लिए भेजा. फाल्गुनी अमेरिका में ही वरिष्ठ वैज्ञानिक है पर हमेशा देश के नेताओं को विकास के लिए, नीती निर्माण के लिए मेल लिखकर, अपने ब्लॉग पर आलेख  लिखकर सक्रीय रहती है. जब भी वे इंदौर आती है यहाँ के युवाओं को प्रेरित करती है कि वे सक्रीय राजनीती में हिस्सेदारी बढाए.

    महू के मोहित ढोली टेक्सास में रहकर पेट्रोलियम रसायन में एमएस कर रहे है वहाँ रहकर भी वे भारतीय युवाओं से सघन रूप से जुड़े हुए है और उन्हें शिक्षा के लिए मदद करते रहते है. देवास के अपूर्व दुबे सिएटल में एचपी कम्प्यूटर्स में काम करते है पर जब भी देवास आते है अपने स्कूल में जाकर किशोरवय के बच्चों को कैरियर निर्माण के लिए प्रेरित करते है, अपने मित्रों को खेती, सामाजिक बागवानी में मदद करते है. इटारसी के नितिन वैद्य पिछले कई बरसों से अमेरिका में है, देवास के पवन इशर आस्ट्रेलिया में है और लगातार यहाँ के युवाओं बच्चों को मदद कर रहे है. काँटाफोड़ (देवास) के शैलेन्द्र व्यास स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को लगातार मदद करते रहते है जो अमेरिका में है पिछले कई बरसों से, ऐसे ढेरो युवा है जो लगातार बाहर रहकर भी देश के लिए सिर्फ नारेबाजी करने के लिए नही, अपना नाम करने के लिए नहीं, बल्कि सही मायनों में देश के लिए काम कर रहे है. यहाँ आने पर वे बाकायदा देशी संस्कारों के हिसाब से रहते है और घरों में, खेतों में कीचड में सनकर काम करते है. ये वे युवा है जो हमारे लिए रोल मॉडल है पर ये अँधेरे में रहकर गंभीरता से काम करने वाले लोग है जो यश नहीं चाहते.

    अब सवाल यह है कि हमारे युवा जो यहाँ गाँव, कस्बों और शहरों में रहकर कुछ नहीं कर रहे है या हमेशा बेरोजगारी का रोना रोते रहते है, देश, समाज के लिए क्या कर रहे है. वे भले ही कुछ ना करें पर कम से कम अपने आपको तो बदल सकते है जैसे वे खुद नया सीखते रहे, अपने कौशल और दक्षताएं बढाते रहे, समाज में उंच नीच और जाति जैसे सामंती व्यवहार को त्यागें और इसके लिए अलख जगाएं, अपने आसपास बच्चों को शिक्षा में मदद करें, स्वास्थ्य सुविधाएँ जो सरकारी स्तर पर उपलब्ध है, को आम लोगों तक पहुँचाने में मदद करें, अच्छे कामों के लिए हर जगह एनजीओ काम कर रहे है उनके रचनात्मक कार्यों में सहयोग करें, महिलाओं के लिए अपने आसपास का माहौल सुरक्षित बनाएं, उनके घरों में मोहल्लों में महिलाओं और लड़कियों के साथ छेड़-छाड़ ना हो, यह सुनिश्चित करें, दहेज़ ना ले, स्वस्थ और सकारात्मक राजनीती में सक्रीय होकर समाज के भले के लिए काम करें- ये कुछ ऐसे कदम है जिसमे नौकरी या रुपयों की जरुरत नहीं है और इस बीच अपने कैरियर के लिए मेहनत करें. हमारे सामने जबलपुर के रौनक सैनी जैसे आयएएस का उदाहरण है जिन्होंने मात्र चौबीस साल की उम्र में भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित होकर काम किया और मात्र दो माह में नौकरी छोड़ दी और गरीब बच्चों के लिए पढ़ाने का काम आरम्भ किया है. जब तक युवा आगे नहीं आयेंगे तब देश के हालत नहीं सुधरेंगे. याद रखिये मित्रों ठीक तीस साल बाद हम दुनिया के सबसे ज्यादा बुजुर्गों की आबादी वाले देश होंगे और अगर अभी इस समाज को और देश को बदलने का काम युवाओं ने नहीं किया तो यह बनाता बिगड़ता समाज और ज्यादा घातक और रहें लायक नहीं रहेगा. अब जिम्मेदारी आप पर है. पिछले सत्तर सालों में युवाओं को ना जानकारी थी, ना वे बहुत शिक्षित थे, ना उनके पास सूचना प्रौद्योगिकी के उनत साधन और गजट थे और ना चेतना थी ना एक्सपोजर थे इसलिए आज यह देश इतनी समस्याओं से ग्रस्त है पर अभी भी यह देश आने वाले बरसों में ऐसा ही रहता है तो इतिहास आपको माफ़ नहीं करेगा.

  • समाज में शान्ति की जरुरत है और इसमें जो भी आड़े आये उसके खिलाफ हो कार्यवाही

    संदीप नाईक

    मध्यप्रदेश में इन दिनों अपेक्षाकृत ढंग से दंगों की सुगबुगाहट सुनाई दे रही है खासकरके मालवा क्षेत्र में यह संभावनाएं बढ़ गयी है और स्थिति प्रशासन की पकड़ से दूर होती जा रही है. यदि मै कहूं पुलिस का खुफिया तन्त्र और मुखबिरी का जाल फेल हो चुका है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. इंदौर में पिछले दिनों मुस्लिम समुदाय ने जिस तरह से रीगल चौराहे पर खड़े होकर जो कार्यवाही की और डर पैदा करने का काम किया था वह अब मालवा के सुदूर इलाकों में नजर आने लगा है. मालदा, कमलेश तिवारी के बयानों से इस मालवा का कोई लेना देना नहीं है परन्तु पिछले दो - तीन दिनों से देवास में तनाव बना है और आज आखिर में जो परिणाम निकले है वह बेहद चिंताजनक है.

    दो दिन पहले मोती बँगला स्थित संघ की शाखा में बच्चों को खेलते हुए कुछ युवाओं ने मार पीट की तो थोड़ा मामला संगीन हो गया था, प्रशासन ने कार्यवाही की परन्तु कुछ लोगों को लगा कि यह पक्षपात पूर्ण कार्यवाही थी लिहाजा उन्होंने टी आई, कोतवाली को बर्खास्त करने की बात की. आज सुबह जब एक शौर्य यात्रा निकल रही थी तो एक दूकान के सामने कुछ युवा समूह में आ गये और ईंट फेंकी और भगवा झंडा निकाल कर फाड़ दिया जिससे दूसरे समुदाय के लोग भड़क गए और उन्होंने उस युवा की पिटाई कर दी, बाद में दो तीन स्थानों पर तोड़फोड़ हुई, कार के शीशे तोड़े गए, मार पीट हुई और दो चार दुकानों को नुकसान पहुंचाया गया. देखते ही देखते बाजार बंद हो गया हो - अफवाहों का बाजार गर्म हो गया. प्रशासन ने कलेक्टर, और पुलिस कप्तान के साथ मिलकर भारी पुलिस बल के साथ एक पैदल मार्च शहर में निकाला और कुछ स्थानों पर उपद्रवियों को तितर- बितर करने के लिए हल्का फुल्का लाठी चार्ज भी किया. बाद में पुलिस ने तीन चार लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया.

    हम अभी कुछ साथी और पत्रकार मित्र पूरे शहर में प्रमुख स्थानों पर घूमकर आये है और पाया कि स्थिति नियन्त्रण में है. दुकाने कमोबेश बंद है और सड़कें अँधेरे में डूबी हुई है. कमाल यह है कि जो नगर निगम इतना टैक्स लेती है वह शहर के एम जी रोड पर ठीक से बिजली की व्यवस्था भी नहीं कर सकती, जोकि सुरक्षा के लिहाज से बहुत रिस्की है. सीसीटीवी अब स्थानीय व्यापारियों के सहयोग से लग जाना चाहिए - ताकि ऐसी स्थिति के समय घटनाओं की प्रामाणिक जानकारी और फुटेज मिल सकें, अभी तो पुलिस यहाँ वहाँ से फुटेज लेकर तथाकथित अपराधियों को पकड़ने की कवायद कर रही है. जिस सरदार पटेल मार्ग पर दूकान के टूटने की खबर थी वो हमारे मित्र की है वहाँ व्यापारी बैठे थे और कोई ख़ास नुकसान नहीं हुआ है. मात्र कुछ लोगों ने ईंट फेंकी थी और धमकियां दी थी. पर अफसोस धारा 144 होने के बाद भी लोग घरों से निकलकर बाहर बड़े समूहों में खड़े थे और पूरे मार्ग पर एक भी पुलिस का जवान हमें नहीं दिखा. इस तरह दुकानें बंद होने से रोज कमाकर खाने वाले और व्यापारियों का बहुत नुकसान होता है यह बताने की आवश्यकता नहीं है.

    अब इंदौर के बाद देवास में यह घटना हुई है, अगले माह धार में भोजशाला के समय फिर यह होने की आशंका है जोकि प्रशासन के लिए अब एक नियमित अभ्यास बन ही गया है. क्या इंदौर और उज्जैन रेंज के आई जी और कमिश्नरम एस पी और कलेक्टर्स साहेबान को इस बात का कोई अंदेशा नहीं है कि यह घटना मात्र एक बड़ी होने वाली घटना का पूर्वाभास है, प्रशासन को समय रहते दोनों पक्ष के वरिष्ठ लोगों को बुलाकर बात करनी चाहिए और गंभीर चेतावनी देकर ऐसी घटनाएं फिर ना हो इस पर जोर देना चाहिए साथ ही दोनों समुदाय के युवाओं को रचनात्मक कामों में लगाकर रखना चाहिए, या पकडे जाने पर बगैर किसी राजनैतिक दबाव के कड़ी कार्यवाही करना चाहिए.

    इस समय समाज में शान्ति की जरुरत है और इसमें जो आड़े आये उसके खिलाफ कार्यवाही होना चाहिए. स्थानीय जन प्रतिनिधियों को इस बारे में पहल करना चाहिए कि उनके विधानसभा क्षेत्र शांत रहें और कोई बेजा हरकत ना करें.

  • मुंगेली (छत्तीसगढ़) में सामाजिक समरसता का नायाब उदाहरण

    संदीप नाईक

    ये है फुल्लेश्वरी और इनके पति सूरज प्रकाश, ग्राम बैहाकापा जिला मुंगेली के. आपने विद्या बालन का विज्ञापन सुना होगा कि कैसे वो एक असली हीरोइन के बारे में बताती है जिन्होंने शौचालय ना होने से शादी करने से मना कर दिया था. मुझे भी लगा कि था कि ये महज एक विज्ञापन होगा और मै असली चरित्रों की तलाश में था जो मुझे पिछले पांच बरसों में नजर नहीं आये कभी और मै अपनी धारणा पुष्ट करता रहा कि सब विज्ञापन है और सब सरकारी है, बनावटी और प्रायोजित. पर अचानक एक निजी कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले में जाना हुआ. जिलाधिश श्री संजय अलंग, जो मेरे अब तक फेस बुक मित्र थे, ने रात के खाने पर आमंत्रित किया. उन्होंने बताया कि  छत्तीसगढ़ के 27 जिलों में यह छोटा सा जिला एकमात्र जिला है - जो अनुसूचित जाति बहुल जिला है और यहाँ उन्होंने डेढ़ वर्ष की अल्पावधि में कई महत्वपूर्ण कार्य किये है जिसमे स्वच्छता मिशन को लेकर उन्हें समुदाय से भरपूर सहयोग भी मिला है. जिस तरह से सवर्ण वर्ग के वर्चस्व को ख़त्म करके दलित समुदाय ने अपनी अस्मिता और सामाजिक भूमिका को लेकर स्वच्छता अभियान में अपनी भागीदारी निभाई है वह सच में प्रशंसनीय है.

    संजय अलंग से सुने इस सोशल इंजिनीयरिंग के मॉडल में यह एक नया मॉडल था हमारे लिए खासकरके इस सन्दर्भ में कि अब तक स्वच्छता मिशन में शौचालय बनाने में संख्या देखी जाती है, टार्गेट देखे जाते है, उसके उपयोग और समुदाय की भागीदारी की बात को कही दर्ज नहीं किया जाता है. हमने इस कार्य में थोड़ी रूचि दिखाई और सोचा कि काश यह काम किसी भी गाँव में एक बार देखने को मिल जाता तो शायद मप्र के अनुसूचित जाति बहुल इलाकों में शायद इसका जिक्र हम कर सकें खासकरके मालवा में जहां छुआछुत और जाति की बड़ी समस्या के कारण कई अच्छे अभियान फेल हो जा रहे है.

    अगले दिन संजय ने खुद आगे बढकर सहृदयता से कहा कि पंचायत विभाग, रायपुर से सहायक आयुक्त श्री सुभाष मिश्र आये हुए है वे एक गाँव जा रहे है सोशल इंजिनीयरिंग का मॉडल देखने, आप लोग भी चले जाईये. यह हमारे मन की बात थी, लिहाजा मै और डा सुनील चतुर्वेदी उनके साथ चल दिए. मुंगेली की उत्साही और युवा जिला पंचायत की मुख्य कार्यपालन अधिकारी डा फरीहा आलम सिद्दीकी और उनके परियोजना अधिकारी साथ थे. सर्किट हाउस पर भोजन के उपरांत हम लोग गाँव के बारे में निकले. डा फरीहा ने बताया कि किस तरह से वे पहले एसडीएम थी कोटा में, जहां ‘ला एंड आर्डर’ ही काम था डंडा लेकर, पर मुंगेली में इस नई जिम्मेदारी से समुदाय में काम करने का बोध तो हुआ ही साथ ही गरीब, सदियों से उपेक्षित दलितों को सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने में किस तरह से प्रशासन काम कर सकता है यह सीखा. मुंगेली का जिक्र करते हुए फरीहा ने कहा कि यहाँ उन्हें जिलाधीश से पूरा सहयोग मिला और एक फ्री हैण्ड मिला, जोकि किसी भी प्रयोग और अभियान के लिए महत्वपूर्ण होता है. फरीहा ने बताया कि सरकार के पूर्ववर्त्ती प्रयास भी थे परन्तु उसमे समुदाय की भागीदारी नहीं थी लिहाजा शौचालय मात्र बनकर खड़े थे, उनका उपयोग हो नहीं पा रहा था और पहले से बने ढाँचे टूट गए थे. इस नए काम में उनकी टीम ने बीस गाँवों को चुना जहां उन्हें समुदाय का सह्योग मिला. पहले लोगों से लम्बी बातचीत की गयी, गाँवों में जिलाधीश और उनकी टीम ने जा जाकर संपर्क किया उनकी बिजली-पानी से लेकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की समस्याएं हल की, फिर स्वच्छता की बात की. सवर्ण  वर्ग की अपनी दिक्कतें थी परन्तु दलितों ने स्वच्छता और शौचालयों को  अपनी अस्मिता का प्रश्न बनाया और जी जान से भिड गए. जिले में राशि कम थी और पहली किश्त में उन्होंने योजना अनुरूप हितग्राहियों को आधी राशि का भुगतान किया और उन्हें डर था कि शायद लोग शौचालय बनवा ना पाए और राशि ख़त्म कर देंगे खा पीकर.........परन्तु उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही, जब उन्होंने देखा कि लोगों से चौदह हजार की राशि की सीमा पार करके तीस से लेकर पैतीस हजार रूपये खर्च करके अपने घरों में साफ़, सुन्दर और व्यवस्थित शौचालय बिलकुल डिजाइन के अनुसार (लीट पीच) बनवाये है. इसके साथ ही महिलाओं ने अपने लिए शौचालय से सटकर या थोड़े दूर नहानी घर भी बनवाये है.

    यह सिर्फ एक शुरुवात थी जिससे इनकी पूरी टीम को हौंसला मिला. फुल्लेश्वरी का ब्याह सूरज प्रकाश के साथ हुआ था, परन्तु ससुराल में आने के बाद जब उन्होंने देखा तो वे वापिस लौट गयी. परन्तु सूरजप्रकाश ने इस बात को समझा, वे कहते है महिलाओं को जो बाहर जाने में समस्या होती है उस पर हमने कभी गंभीरता से सोचा नहीं था, रात के समय यह ज्यादा रिस्की भी है और बरसात में ज्यादा खतरनाक है. लिहाजा मैंने प्रशासन के अधिकारी और जिला पंचायत सीईओ मैडम जब गाँव में आई तो मैंने बहुत डरते हुए उनसे बात की, तो उन्होंने बहुत सहज भाव से मुझे मदद का आश्वासन दिया और आधी राशि भी मेरे खाते में जमा की. बस फिर क्या था हमने अपनी जेब से भी रुपया लगाया और बड़ा, पक्का और सुन्दर शौचालय बनवाया साथ में मेरी पत्नी और घर की महिलाओं के लिए नहानीघर भी बनवाया. यह खबर लेकर मै ससुराल गया और अपनी पत्नी से बात की तो वह साथ आने को तैयार हो गयी. आज मेरी पत्नी घर में हम सबके साथ रहती है और गाँव में लोगों को स्वच्छता का महत्त्व भी बताती है और लगातार सबके साथ बैठकें करती है. गाँव में महिलाओं ने कहा कि शौचालय बनने से उन्हें बहुत फायदे हुए है और अब वे एक अच्छा और इज्जत वाला जीवन व्यतीत कर रही है, बाहर जाने पर जो शर्म आती थी वह समस्या ही खत्म हो गयी है, गाँव में पानी की व्यवस्था नल जल योजना और पर्याप्त हैंडपंप होने से शौचालय साफ़ भी रहते है, हालांकि फिनाईल का खर्च बढ़ा है परन्तु बीमारी में दवाईयों पर खर्च करने से माह में सौ रूपये खर्च करना ज्यादा बेहतर है. बुजुर्ग भी अब बाहर जाने के बजाय घरों में ही शौच के लिए जाते है. गाँव में हमें कही भी मल विसर्जन के दृश्य देखने को नहीं मिलें, एकदम साफ़ सुथरा गाँव था. गाँव के सरपंच राजकुमार भारद्वाज ने कहा कि गाँव में बीमारी आश्चर्यजनक रूप से कम हुई है पिछले छः माह में जल जनित रोगों की संख्या बहुत कम हुई है. बच्चे कम बीमार पड़ रहे है, दस्त, पीलिया, मोतीझरा तो लगभग ख़त्म हो गया है और अब हमें अस्पताल जाने की जरुरत कम पड़ती है. युवाओं से बातचीत में युवाओं ने कहा कि शौचालय वे भी धोते है यह सिर्फ महिलाओं का काम नहीं है क्योकि वे इस्तेमाल करते है. बाहर यदि कोई जाता है तो वे मिलकर समझाते है. सरपंच राजकुमार जी ने यह भी कहा कि इस अभियान से दूसरे कई और फायदे हुए है, गाँव में अब समरसता के लिए हम लोग काम कर रहे है, गाँव में लड़ाई होने पर हम समस्याएं गाँव में ही सुलझाने लगे है, पुलिस थानों तक शिकायतें नहीं जाती और लोगों में आपसी सहयोग बढ़ा है जिससे झगडे भी लगभग खत्म हुए है - खासकरके जमीन विवाद और जाति के विवाद. डा फरीहा ने स्कूल में बच्चों के लिए  जन सहयोग से निर्मित शौचालय भी बताये.

    डा फरीहा ने कहा कि मुंगेली छोटा जिला है और शहरी चकाचौंध से दूर है, माल, बड़े बाजार, सिने प्लेक्स या बड़े टाकीज आदि ना होने से यहाँ आकर्षण का कोई बड़ा केंद्र नहीं है, इसलिए हम लोग और हमारी टीम गाँवों में ज्यादा से ज्यादा समय देती है और कोशिश करते है कि लोगों को सरकारी योजनाओं का फायदा दिला पाए. इस अवसर पर डा सुनील चतुर्वेदी ने गाँव के लोगों के साथ स्वच्छता अभियान की एक रोचक गतिविधि की और साबुन से हाथ धोने का महत बतलाया. सहायक आयुक्त सही सुभाष मिश्र ने पत्रिका पंच जन के बारे में बताया और कहा कि सरकार गाँवों में विकास के नए प्रयास कर रही है और इसके लिए समुदाय को आगे आना होगा.

    एक जिले में विजन और सकारात्मक ढंग से यदि सुसंगठित प्रयास मिल जुलकर किये जाये तो कसी तरह सामाजिक तस्वीर बदलती है यह देखना हो तो छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले का प्रयोग देखना चाहिए जहां जिलाधीश संजय अलंग के नेतृत्व में एक बड़ी टीम बदलाव के लिए महत्वपूर्ण कार्य कर रही है.

  • संविधान और क़ानून की समीक्षा का समय

    संदीप नाईक

    आज के पटियाला हाउस मामले को मीडिया ने कल से ऐसा प्रचारित किया था मानो यह दिन बहुत महत्वपूर्ण हो, और एक पार्टी विशेष के लोगों को सजा ऐ मौत होने वाली हो या कोई गंभीर किस्म का कानूनी इतिहास बनने वाला हो. यह निहायत ही एक विपक्षी पार्टी का व्यक्तिगत मामला था जिसमे उस पार्टी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को महज मुकदमा शुरू होने से पहले उपस्थित होकर यह जताना था कि वे कोर्ट की प्रक्रियाओं से ऊपर नहीं है और एक व्यक्ति विशेष द्वारा लगाए गए आरोपों के तारतम्य में वे कानूनी प्रक्रिया शुरू करने के लिए तैयार है. सरकार ने भी पूरी दिल्ली की सडकों को पुलिस और फ़ोर्स से ऐसे तान दिया और छावनी बना दिया - मानो देश में बहुत बड़ी कोई गंभीर "ला एंड आर्डर" की समस्या खडी हो गयी हो, इस तरह से तो न्याय देने वाले न्यायाधीशों उपर मानसिक दबाव बनेगा और वे निष्पक्ष रूप से फैसला नहीं दे पायेंगे. आज की घटना को भारतीय क़ानून, मीडिया प्रचार और आम लोगों की बहस के सन्दर्भ में नए सिरे से देखने की जरुरत है.

    दरअसल में भारतीय कानून को एक गम्भीर किस्म के आत्म मूल्यांकन की जरूरत है। पिछले पंद्रह दिनों में तीन बड़े फैसले लोअर कोर्ट यानी हाई कोर्ट ने सुनाये है जिनमे से सलमान का छूटना, निर्भया के तथाकथित नाबालिग अपराधी का छूटना, कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का मात्र चार मिनिट में बाहर आना और ठीक इसके विपरीत हम जानते है की हमारे ही देश में आज बरसों से विचाराधीन कैदियों का बगैर सुनवाई के मर जाते है हर वर्ष , इन निरपराध कैदियों का मर जाना दर्शाता है कि हम भले ही कहें कि क़ानून के सामने सब समान है, परंतु देश के नागरिक कितने स्तरों और औकातों में बंटे हुए है यह इन तीन ताज़ा फैसलो से साबित हो गया. जबकि ठीक इसके विपरीत नेशनल क्राईम ब्यूरो के आंकड़ें दर्शाते है कि अपराध तो बढ़ रहे है परन्तु कोर्ट में फैसलों की गति बहुत सुस्त है. शायद यह भी सही है कि आज हमें अम्बेडकर कृत संविधान को भी बगैर किसी भय और दलित तुष्टिकरण को माने अब पुनः देखना चाहिए और अंग्रेजों के बनाये नियमों को भी विलोपित करके विशुद्ध भारतीय संदर्भ में बदलना चाहिए. दुर्भाग्य यह है कि गुजरात न्यायालय के एक न्यायाधीश जब आरक्षण की पुनर्व्याख्या की बात करते है तो उनकी कुर्सी खतरे में नजर आती है और वोट बैंक की राजनीती उन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझती है.

    इस बात की जरूरत इसलिए भी ज्यादा हो गयी है कि क़ानून की व्याख्या मीडिया से लेकर हर कोई ऐरा गैरा नत्थू खैरा करने लगा है और किशोर वय से लेकर युवा और बुजुर्ग भी न्याय का मख़ौल उड़ाने लगे है, साथ ही "अब क़ानून में दम नहीं और सब बिके हुए है" जैसे वाक्य भारत की फिजाओं में गूंजने लगे है जोकि किसी भी राजतंत्र या लोकतंत्र के लिए घातक है. यह बहुत ही कठिन विपदा का समय है जब संवैधानिक पदों पर आसीन लोग (राबर्ट वाड्रा, केजरीवाल, जेटली, सोनिया, आदि योगीनाथ, उमा, निहालचंद्र, अभिषेक मनु सिंघवी या कपिल सिब्बल) क़ानून को जेब में रखकर चलते है और सीबीआई, आईबी या न्यायपालिकाओं का मनमाना उपयोग करते है. इस सबमे उद्योगपतियों का भी कानून का मनमर्जी से उपयोग बहुत ही शर्मनाक है, जो अपने फायदे के लिए और पूंजी को हथियाने के लिए किस तरह से वकील और व्यवस्था को इस्तेमाल करते है.

    आज पूरे दिन की बहस में मीडिया के प्रतिनिधियों ने भी गजब का हूनर दर्शाया और जतला दिया कि वे न्यायाधीशों से बड़े कानूनविद है. ये मीडियाकर्मी सब बता देते है, दो चार ने तो 20 फ़रवरी का फैसला भी सुना दिया और दो चार एंकर ने तो पूरे संविधान को ही घोट रखा हो मानो, ऊपर से पैनलिस्ट भी खतरनाक ज्ञानी है. ये पैनलिस्ट जो एक विचारधारा लेकर चैनलों के मंच पर आते है और रोज कमोबेश इस कर्म को अपना धंधा बना चुके ये लोग हर विषय में सिद्धहस्त है और सर्व ज्ञानी है. वे इस तरह से बंद कमरों में क्रान्ति की बात करते है मानो वे सर्वेसर्वा हो देश के. यदि मीडिया इतना ही सशक्त है तो यार काहे कोर्ट कचहरी में हम आम लोग समय बर्बाद कर रहे है, सीधे चैनल में चले जाए और हाथो हाथ इन सब महानुभावों से न्याय ले लें.

    मुझे लगता है कि नया रचना है तो विध्वंस जरूरी है और इसके लिए यदि मोदी सरकार देश के रिटायर्ड जज साहेबान और अनुभवी वकीलों की अगुवाई में ये रद्द बदल करती है तो हमे मिलकर कम से कम आने वाले भारत के लिए एक स्वच्छ, पारदर्शी और सामान आचार संहिता वाली क़ानून व्यवस्था का स्वागत करने लिए समर्पण करना चाहिए और धैर्य रखना चाहिए।

  • देवास रतलाम उपचुनाव- विकल्पहीनता और वंशवाद के सहारे भाजपा

    संदीप नाईक

    देवास विधानसभा चुनाव की चर्चा जोरों पर है. भाजपा ने जो उम्मीदवार घोषित किया है वह पूर्व विधायक की पत्नी श्रीमती गायत्री पवार है, यानी भाजपा पिछले तीस बरसों में स्व तुकोजीराव के बाद कोई दूसरी लाइन नहीं बना पाई और अब उनकी दुखद मृत्यु के बाद उन्ही की पत्नी को सहानुभूति के वोट बटोरने को उम्मीदवार बनाया है. भाजपा सन 84 को याद करके राजीव गांधी की जीत की तरह से भुनाना चाहती है जब इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद सहानुभूति के वोट मिले थे.

    श्रीमती गायत्री पवार की जनता में कोई छबि नहीं है सिवाय इसके कि वे पूर्व विधायक की पत्नी और विक्रम पवार की माँ है जो इन दिनों फरार है एक ह्त्या के मामले में. देवास, ग्वालियर, इंदौर और धार ये रियासतकालीन शहर है और दुनियाभर में जनतंत्र होने के बाद इन शहरों में अभी भी सामंतवाद ज़िंदा है और यहाँ के लोग मानसिक रूप से गुलाम है और वे इस गुलामी से मुक्ति नहीं पाना चाहते. देवास में श्रीमती गायत्री पवार पिछले दिनों से सक्रीय हुई है पर जनता में कम और होर्डिंग्स में ज्यादा, यहाँ वहाँ उनके होर्डिंग्स नजर आ रहे है और शहर भर के छुट भैये नेता अपने चेहरे दर्जनों से इन होर्डिंग्स पर नजर आ रहे है.

    दूसरी ओर कांग्रेस के पास मनोज राजानी और जय सिंह ठाकुर के अलावा कोई और विकल्प नहीं है, जबकि ये दोनों हार चुके है एक नहीं दो बार. रेखा वर्मा एक उम्मीदवार हो सकती थी पर उनका महापौर का कार्यकाल विवादास्पद रहा है और वे कुछ कर नहीं पाई थी इसलिए उन्हें टिकिट देना तो जमानत जब्त करवाना होगा. मनोज या जयसिंह ठाकुर फिर भी दम भर सकते है और जमानत तो जब्त नहीं होगी और अब फिर से इनका जीतना मुश्किल लग रहा है क्योकि सामंती परिवेश और गुलामी की जंजीरों में जकडे लोग मजबूर है, साथ ही संघ का शहर में प्रभाव और जमीनी काम, सैंकड़ों प्रतिबद्ध कार्यकर्ता भाजपा को जीतायेंगे ही क्योकि संघ के लिए भी कोई और विकल्प नहीं है. शरद पाचुनकर भी दमदार उम्मीदवार है जो शहर को अच्छे से जानते है और इनकी सभी समुदाय के लोगों तक पैठ है.

    तीसरा विकल्प है ही नहीं, लोगों के सामने भी मजबूरी है भाजपा को जिताने की. लोकसभा में आम आदमी ने एक उम्मीदवार खडा किया था जिसकी दुर्गति इतनी हुई कि अब कोई हिम्मत ही नहीं करेगा. सवाल यह है कि भाजपा ने इतने बरस क्या किया और अब क्या करने वाली है सिवाय इसके कि देवास शहर को फिर से आने वाले तीस बरसों के लिए सामंतवाद में डाल रही है क्योकि अभी ये गायत्री जी फिर इनका बेटा विक्रम.........

    सोचिये देवास जनों ......ना कांग्रेस - ना भाजपा फिर क्या ? क्या शहर में कोई और लोग नहीं जो विकल्प की और विकास की बात कर सकें, क्योकि एक समय में मप्र की औद्योगिक राजधानी कहलाने वाला शहर आज अपनी बदहाली पर रो रहा है. दूर तक पसरे बंद उद्योग धंधे और बेरोजगार लोगों की पंक्तियाँ, ठंडी पडी चिमनियाँ और अस्त व्यस्त विकास, पानी के लिए आज भी मारम्मार है, बहुत ही गन्दगी से भरा यह शहर अपने अविकसित ढर्रे पर रोता है, कलपता है और चीखता है. शहर के नई उम्र के बच्चे जो रोज इंदौर आकर पढ़ते है, अपनी रोजी तलाशते है, के पास भी कुछ नहीं है सिवाय इस शहर के नेतृत्व को कोसने के.

    आश्चर्य यह है कि इस निर्णय में शामिल कैलाशजी जोशी जैसे वरिष्ठ लोग है जो प्रतिबद्ध मीसाबंदी थे और रायसिंह सेंधव जी, तपन जी से लेकर प्रबुद्ध वकील, डाक्टर, उद्योगपति, मीडियाकर्मी और व्यवसायी भाजपा से जुड़े है उन्हें नजरअंदाज करके इस तरह से प्रदेश के शीर्ष नेतृत्व ने टिकिट दिया यह घोर आपत्तिजनक होना चाहिए.

    यही वंश परम्परा भाजपा रतलाम में भी निभा रही है, कांग्रेस को इस वंशवाद पर गाली देने वाली भाजपा में भी संतानों और अपनों के प्रति मोह कम नहीं है यह अब स्पष्ट हो गया है. और तो और अब मोदी किस मुंह से कांग्रेस को गाली दे रहे है या अमित शाह क्या इसी परम्परा को पुष्ट करने और संवर्धन करने भाजपा में आये है? भाजपा हो या कांग्रेस या वामपंथी या सपा या जद या तृणमूल सभी इसी बीमारी के मारे है और इनमे से किसी में दम नहीं कि कुछ नया रच सके या कर सके.

आधी दुनिया

सावित्रीबाई फुले जिन्होंने भारतीय स्त्रियों को शिक्षा की राह दिखाई

सावित्रीबाई फुले जिन्होंने भारतीय स्त्रियों को शिक्षा की राह दिखाई

उपासना बेहार “.....ज्ञान बिना सब कुछ खो जावे,बुद्धि बिना हम पशु हो जावें, अपना वक्त न करो बर्बाद,जाओ, जाकर शिक्षा पाओ......” सावित्रीबाई फुले की कविता का अंश अगर सावित्रीबाई फुले...