संदीप नाईक
विश्व पुस्तक मेला एक बार फिर सामने है, अबकी बार कोलकाता और बाकी जघ्हों के आयोजनों को देखते हुए इस बार यह मेला जल्दी आयोजित किया जा रहा है. आम तौर पर फरवरी में आयोजित किया जाने वाला विश्व पुस्तक मेला भारत जैसे देश में एक विलासिता का ही मामला है जिस देश में नब्बे के दशक तक साक्षरता का प्रतिशत चालीस से भी कम था और किताबों की बिक्री एक दिवास्प्न था वही सन 1990-91 में अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता वर्ष मनाने के बाद शिक्षा की ज्योति दूर दराज के इलाकों में पहुँची. केरल के अर्नाकुलम जिले से शुरू हुए सम्पूर्ण साक्षरता अभियान ने देश में प्रति वर्ष 8 सितम्बर से 14 सितम्बर तक पुस्तक सप्ताह मनाने का सिलसिला शुरू हुआ. नॅशनल बुक ट्रस्ट ने ये आयोजन छोटे कस्बों से लेकर दिल्ली जैसे बड़े शहरों में आयोजित किये, ट्रस्ट के पूर्व निदेशक अरविन्द कुमार के योगदान को इसमे निश्चित ही श्रेय दिया जाना चाहिए. बाद में बच्चों को लेकर एनबीटी में एक अलग इकाई बनाई गयी जो उस समय के शैक्षणिक संस्थान के तथाकथित शिक्षाविद को दी गयी परन्तु उन्होंने उल जुलूल प्रयोग करके इस इकाई को बर्बाद किया और अपना धंधा व्यक्तिगत स्तर पर बढाया.
बहरहाल, इस दौरान पुस्तक मेले एक आयोजन और उत्सव के रूप में निकलकर सामने आये. देश के प्रकाशकों ने इसे हाथो हाथ लिया और बहुत सस्ते दरों पर पुस्तकें छापी. भारत ज्ञान विज्ञान जैसी संस्थाओं ने सस्ते साहित्य की संकल्पना को अंजाम दिया और एक से लेकर दस रूपये में किताबें छापकर बेची.
सफ़दर हाशमी की कविता “किताबें करते है बाते” के पोस्टर ने देश में एक मूक क्रान्ति लाई तो कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा, इस कविता को एनबीटी से लेकर सीबीटी और देश के तमाम प्रकाशन गृहों ने रंग बिरंगे स्वरुप में छापी है. नॅशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के “थियेटर इन एजुकेशन” के कलाकारों ने इस कविता को लेकर बेहतरीन नाटक बनाए और देश भर में नुक्कड़ों पर प्रस्तुर किये. देश में शिक्षा के प्रचार और प्रसार के साथ साक्षरता बढ़ रही थी और ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड, सर्व शिक्षा अभियान जैसे व्यापक कार्यक्रमों ने किताबों के प्रति जनमानस में एक अगाध श्रद्धा और प्रेम जगाया. धीरे धीरे देश भर में किताबों का एक बड़ा व्यवसाय फैला और मार्केट बना. राज्यों में बनी साहित्य अकादमियों ने छोटे छोटे स्तरों पर पाठक मंच बनाए और देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह उग आई एनजीओस ने भी पुस्तकालय खोले और अलख जगाने का विश्वसनीय काम किया. साहित्य अब जनमानस के बीच था.
वाणी, राजकमल, शिल्पायन, हिन्द पॉकेट बुक्स, साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ जैसे बड़े प्रकाशनों ने प्रेमचंद जैसे प्रचलित और लोकप्रिय लेखकों की किताबें सस्ती दरों पर छापकर पाठको को उपलब्ध करवाई. हिन्दी में लघु पत्रिकाओं का दौर एक बार फिर शुरू हुआ और छ्होटे कस्बों से पत्रिकाएं निकलने लगी. इस सारी प्रक्रिया में एक अच्छी बात यह हुए कि लिखना पढ़ना एक शगल नहीं रहा और बहुत गंभीर किस्म का लेखन सामने आया. लोग लेखक बने और किताबें छपने लगी, पत्रिकाएँ बिकने लगी और किताबों की चर्चा होने लगी. विश्व पुस्तक मेले के आयोजन ने लेखन और किताबों को एक सम्मान दिया जिससे प्रकाशन गृह भी बढे और कुछ जमीनी काम करने वाले लोग सिर्फ और सिर्फ प्रकाशन के काम में लग गए. एकलव्य जैसी संस्था जो विज्ञान, सामाजिक और प्राथमिक शिक्षण के नवाचारी कार्यक्रम में संलग्न थी, ने रतन टाटा ट्रस्ट के अनुदान से अपने आपको कमरे में एक प्रकाशक के रूप में सीमित कर लिया.
किताबों का संसार और व्यवसाय बढ़ रहा था किताबे लिखी और पढी जा रही थी पर इस सबमे सबसे ज्यादा जो नुकसान पाठक का हुआ वह यह था कि उसे उत्कृष्ट किस्म की किताबें मिलना बंद हो गयी, बहुत सरल हो गया था रातो-रात बैठकर लिखना, और प्रकाशक को पच्चीस से पचास हजार देकर छपवाना. बाजार, ठगी, रुपयों की दौड़ और प्रतिस्पर्धा में लेखक और प्रकाशकों ने एक अजीब किस्म की बेचारगी पाठकों के लिए पैदा कर दी. कुछ भी लिखों बाजार में ढेरों पत्रिकाएं थी, सम्पर्क थे, रुपया था और दारू पार्टियां थी......तू मुझे बुला - मै तुझे बुलाउंगा, तू मेरा कार्यक्रम कर – मै तेरा कार्यक्रम करूंगा, तू मुझे पुरस्कृत कर – मै तुझे इनामों से नवाज दूंगा, यह भावना ही नहीं वर्ना हिन्दी के पिछले पूरे दशक की राम कहानी है. छदम बुद्धिजीवी हर जगह उग आये, सरकारी-गैर सरकारी नौकरी करने वालों ने अपने स्थानीय संगठन बनाये, प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ, इप्टा और जन संस्कृति मंचों ने इन्हें कही मान्यता दी, कही इन्होने अपने ही बैनर बना लिए और इन लोगों ने सूत्र संपर्कों से, स्थानीय सेठ साहूकारों को या प्रशासन के लोगों को सिर पर बिठाकर साहित्य की रास लीला रचाई. एक हजार से पचास हजार तक के पुरस्कार बाजार में आये और फिर शुरू हुआ विश्व पुस्तक मेले में अपना मार्केटिंग शुरू किया. बहुत ही घटिया किस्म की किताबें आई पिछले पुस्तक मेलों में और प्रकाशकों ने छोटे कस्बों के लेखकों को फंसाकर अपना घर चलाया यह कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.
कुछ तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी जो सरकारी नौकरी में थे कसबे और शहर छोड़कर दिल्ली में जा बसे और प्रकाशन का धंधा शुरू किया और अमर होने के लिए अपने नाम की कीर्ति पताकाएं और यश फैलाने के लिए भयानक आत्म मुग्ध होकर काम करने लगे. अधिकाँश किताबें जो आई या तो वे घटिया थी या विश्व साहित्य का अनुवाद जो बहुत ही कमजोर किस्म का था.
लेखकों से रुपया लेकर छापने की जो संस्कृति विक्सित हुई वह बेहद चिंताजनक थी. प्रकाशकों ने लेखकों को वर्ष का सर्वश्रेष्ठ लेकाहक बनाने की घोषणा तक आकर डाली, या फलानी किताब या फलाने उपन्यास को वर्ष का सबसे ज्यादा बिकने वाला बना दूंगा जैसे मुहावरे भी गढ़ डाले जोकि कस्बों से या पहली बार किताब छपे लेखक के लिए एक बड़ा माया जाल था. कुछ प्रकाशक अच्छी खासी पत्रकाओं के सम्पादन का दायित्व छोड़कर प्रकाशन के व्यवसाय में गंभीर किस्म का काम करने आये परन्तु अन्ततोगत्वा वे भी विश्व पुस्तक मेले में बिक्री और होड़ के चलते सिर्फ और सिर्फ प्रकाशक बनकर रह गए. ये प्रकाशन का धंधा इतना चल निकला है बाजार में कि वर्ष में एक दो बार लेखकों को बुलाओ और खाना दो, शराब पिलाओ और फिर मनचाहे तरीक से उन्हें दुहते रहो, दिल्ली पुस्तक मेला जैसे टार्गेट हो गया हो, सितम्बर से शुरू हो जाती है तैयारी, मार्केटिंग की रणनीती और नए मुर्गों की खोज जो रुपया डालकर अपनी किताब छपवाने को बेताब है. इसमे महिलायें भी सजी संवरी अपनी घटिया कहानियां, कविताएँ या बोरिंग उपन्यास छपवाने को बेताब होती है जिनके पतिदेव प्रकाशक के पीछे हाथ जोड़कर और उनका हुक्म सुनने और तामील करने को तैयार होते है.
विश्व पुस्तक मेले में हर प्रकाशक के स्टाल पर दिन में पांच से छः बार लोकार्पण की नौटंकी होती है जिसमे प्रकाशक पुस्तक मेले में आये लोगों को पकड़ पकड कर ले जाता है सस्ती सी चाय पिलाकर ताली बजवाने का काम करवाता है. कोई लेखक सामने से गुजर रहा हो तो उस बेचारे की खैर नहीं उसे मुख्य अतिथि बनकर लोकार्पण के बाद दो शब्द भी बोलने पड़ते है. साथ ही पुस्तक मेले में फ़ालतू की चर्चा रोज होती है किताबों और साहित्य पर कम पर कुछ नए सरकारी मुलाजिम जो विचारधारा और लंगोट के पक्के होने का दावा करते है रोज नए स्कैंडल खड़े करते है और रात को शराब और सुन्दरी के चक्कर में बुकर से लेकर साहित्य का नोबल पुरस्कार भी ले लेते है.
इसा सबमे सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है सोशल मीडिया ने, आप इन दिनों फेस बुक या किसी अन्य सोशल मीडिया पर देख लें लोग दिन में अट्ठाईस घंटे काम करने की बात कर रहे है, रात रात भर सो नहीं रहे, सामयिक घटनाओं पर टिप्पणी ऐसे कर रहे है मानो किसी पाठ्यक्रम के तहत यहाँ आकर लिखना अनिवार्य हो, अपनी दूकान और माल का प्रचार करते हुए बेशर्मी की सारी हदों को पार कर गए है. यह सब देखते हुए मुझे अलेक्जान्द्र कुप्रिन का उपन्यास “गाडी वालों का कटरा” याद आता है जिसमे रूसी क्रान्ति के समय जब मास्को में युद्ध हो रहा था तो कसी तरह से दूर दराज के आये सैन्य कर्मचारियों को स्थानीय वेश्याएं लुभाने की नित नई तरकीबें आजमाती थी. यह विश्व पुस्तक मेला एक ब्रोथल बनकर गया है जिसमे रोज सरकारी से भी कम रेट पर बारह से चौदह घंटें काम करने वाले लडके लड़कियां, किताबें ढोने वाले मजदूर, चाय वाले, शोषित होते रहते है और किताबों से नई दुनिया बनाने का स्वप्न देखते है. देश भर से आये लेखक है जो टुकुर टुकुर दिल्ली के लोगों की भीड़ में साहित्य की दुनिया देखते है, बेचारे मेहनत की कमाई से किताबें खरीदते है और ढोकर ले जाते है. किलो के भाव से बिकने वाली किताबें अभिशप्त है प्रकाशन गृहों से लेखक के घर में डंप हो जाने के लिए – वे ना पढी जाती है ना, समझी जाती है, अपनी नियति को रोते हुए वे फिर अगले पुस्तक मेले का इंतज़ार करती है.
सवाल यह है कि क्या पढ़ा जाए और क्या छापा जाये और क्या बेचा जाए और किसको? यह सवाल जब तक हम अब नहीं तलाशेंगे तब तक पुस्तक मेलों से कुछ हासिल नहीं होगा, एक विकसित राष्ट्र में किताबों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है परन्तु अक्षर, शब्द, किताब, लेखक, प्रकाशक और धंधे के बीच सेतु क्या हो, कैसे पाठकों को रुचिकर किताबें मिलें जिससे देश, समाज और विश्व की दिशा तय हो. एक बार फिर रस्मी तौर पर यह पुस्तक मेला हर बार की तरह खत्म हो जाएगा पर जितनी अरुचि पाठको में जगाकर जाएगा उसका नुकसान कितना होगा इसका अंदाज कोई कभी नहीं कर सकेगा.