स्मिता कुमारी
तुमने तो सिर्फ "माँ " कहा,
अर्थ इसका ना समझे कभी।
मैं समर्पित हो गई,
ममता आँचल में लिए तभी।
तुम दूर कर दिए जीवन से मुझे,
पर "माँ "शब्द सुनाई देता है।
ये कैसी ममता जगी मुझमें
जो रोज बलाएँ लेती है।
तुम पूछते नहीं "मैं कैसी हूँ ?"
पर तुम खुश हो ,तो मैं खुश हूँ
तुम कब खाओगे ,कब सोओगे ,
ये फ़िक्र मुझे तो आज भी है।
तुम लौट आओगे शायद कभी,
ये उम्मीद मुझे तो आज भी है।
तुम उबकर मेरी इस ममता से
पहचान अपना सब बदल लीए।
मैं बदलती नहीं अपना ठिकाना,
तुम थक ना जाओ ढूँढने में कभी।
तुम खुश रहो, कामयाब रहो
काँटें न चुभे तुम्हारे पाँव में
जब धूप लगे तो लौट आना
मेरे आँचल की छाँव में।
यह कविता उस महिला की व्यथा है, जिसका बेटा उसे वृद्धा आश्रम के पास छोड़ कर चला गया था और अपना पता, ठिकाना, सम्पर्क नंबर भी बदल लिया ताकि माँ उस तक पहुँच ना जाये, लेकिन इस माँ को जिस वृद्धा आश्रम के पास छोड़ा था वह वही रहने लगी ताकि बेटा जब वापस लेने आये तब उसे ढूँढने में परेशानी ना हो। जो बेटा दर्द देकर गया उस बेटे की तकलीफ की परवाह आज भी है उसे, क्योंकि "वह माँ है न"।