डॉ. गंगा प्रसाद बरसैंया
अरुण कान्त शुक्ला जाने माने कर्मचारी नेता तथा कम्युनिस्ट विचारधारा से संपोषित निर्भीक एवं तेजस्वी वक्ता रहे हैं| सेवानिवृति के बाद भी उनके इस स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया| वे आज भी सक्रियता से अपने दायित्वों का निर्वाह कर रहे हैं| इसका कारण है ईमानदारी और नैतिकता| उनके जीवन और आचरण में कोई द्वैत नहीं है| उनकी जीवनधारा उसी तरह प्रवाहित है| सोशल साईटस के माध्यम से वे प्रतिदिन अपनी प्रतिक्रियाएं बरसों से व्यक्त करते आ रहे हैं तथा पत्र पत्रिकाओं में स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर प्रकाशित होने वाले उनके आलेख भी इसके साक्षी हैं| इधर उनका प्रथम काव्य-संग्रह ‘दो तीन पांच’ शीर्षक से छपकर आया है जिसमें उनकी 46 रचनाएं संकलित हैं| इन रचनाओं में भी उनकी तेजस्विता, निर्भीकता, बेबाकीपन बखूबी देखा जा सकता है|
वे संवेदनशील, जिम्मेदार, जागरुक नागरिक हैं जिनमें देश और समाज के प्रति प्रेम, गरीबों-मजदूरों, दलितों, पीड़ितों, शोषितों, असहायों के प्रति गहरी सुहानभूति तथा पूंजीपतियों, उद्योगपतियों, भ्रष्ट राजनेताओं के प्रति गहरा आक्रोश है, जिन्होंने अपने कलुषित लोभी स्वार्थ के लिए एक ओर अपनी कोठियां भरीं और दूसरी ओर प्रजा सेवक का झूठा नाटक करते हुए गरीबों-दलितों का भरपूर शोषण किया, जिसका परिणाम है कि आजादी के 65 वर्ष बाद भी देश की 50% से अधिक जनता के पास न भरपेट भोजन की व्यवस्था है, न रहने की झौपड़ी अथवा स्वास्थ्य और शिक्षा के साधन| देश की सारी व्यवस्थाओं और उत्पादन केन्द्रों को इन पूंजीपतियों और राजनेताओं ने हथियाकर रखा है| आम जनता को झूठे प्रलोभन देकर झूठे और थोथे नारों की आड़ में रोज उससे धोखेबाजी की जाती है| कामरेड कवि अरुण कान्त शुक्ला ने अपने प्रथम काव्य-संग्रह ‘दो तीन पांच’ में ऐसी ही अमानवीय समस्याओं को न केवल उकेरा है बल्कि उनका समाधान बताते हुए कवि ने एकजुट होकर संघर्ष का आह्वान भी किया है|
पुस्तक का शीर्षक ही इंगित करता है कि देश में प्रजा और सत्ताधीशों के बीच दो-तीन-पांच का छली खेल चल रहा है जिसमें धनपति, बाहुबली तथा छली राजनेता बराबर जीतते हैं और सीधी- सादी जनता हारती रहती है| इन कपटी पूंजीपतियों, नेताओं ने सारे देश में अनैतिकता- शोषण की गन्दगी फैलाई है| आदमी ही आदमी से छल कर रहा है, जनता का खून चूसा जा रहा है| कुछ पंक्तियों में कवि का पीड़ा जनित आक्रोश इस प्रकार व्यक्त हुआ है-
नून, तेल, हल्दी बेचने,
क्यों बुलाते हो वालमार्ट को,
ऐसे ही बना था देश गुलाम,
क्या जीडीपी ने तुम्हें बताया?
या आज के सामाजिक सन्दर्भों में छल एक व्यापार की तरह कैसे घर कर चुका है उसे अरुण कान्त कितनी बारीकी से देखते हैं इसे इन तीन पदों में देखिये-
(1)
गगन से लेकर धरा तक,
धरा से लेकर गगन तक,
आदमी-आदमी को छल रहा है,
बस यही व्यापार चल रहा है,
(2)
रिश्ते रुपये, पैसे, कौड़ी में बदल गए,
पेशे अब कोई पवित्र नहीं रहे,
किताबें अब दोस्त नहीं,
उनका एक एक हर्फ़ छल रहा है
यही व्यापार चल रहा है,
(3)
राजा को नहीं प्रजा से प्यार,
काजी की है इन्साफ से रार,
खुदा है हाजी का व्यापार,
जो जहां है बस छल रहा है,
यही व्यापार चल रहा है,
शिक्षा के उद्देश्यों से ईमानदारी और नैतिकता के मूल्यों के क्षरण पर वे करारा व्यंग्य करते हुए, उसे देश के भ्रष्टाचार से जोड़ते हैं
पढ़कर सोला दूनी आठ, चुन्नुओं के हो गए ठाठ,
जब देते आठ गिनाते सोला, लेते सोला गिनाते आठ,
डाल डाल पर बैठे हैं चुन्नू तबसे करते सांठ-गांठ,
पर, गुरूजी बेचारे की, कभी न सीधी हुई खाट,
देश की आजादी की दशा यह है कि कोई प्रतिबंध नहीं है, परन्तु बोलने की मनाही है| भूमंडलीकरण के नाम पर देश को धनी देशों के हाथ गिरवी रख दिया गया है| अमीर गरीब की खाई दिनों दिन चौड़ी होती जा रही है, प्रचारतंत्र के माध्यम से देश को खुशहाल बताया जा रहा है| कवि कहता है- देखो, जंगल में आखेट चल रहा है, शेर चीते तो बचे नहीं, शिकार इंसान हो रहा है, शिकारी भी इंसान है,| संग्रह की अधिकाँश कवितायेँ देश में व्याप्त यथार्थ का चित्रं करती हैं|
कवि का आह्वान है कि ‘ये दुनिया बदलनी चाहिए’ ‘आओ संघर्ष करें, और बनायें वो दुनिया, जो हमारे काम की हो,’ शायद इसीलिए कामरेड शुक्ला ने यह पुस्तक लिखी क्योंकि वे मानते हैं –‘ये किताब भी बड़ी अजीब है दोस्त, जो बात किसी से कह नहीं सकते, इसमें लिखी जाती है,|
ऐसी धारदार तेजस्वी रचनाओं के लिए कवि को बधाई, जिसने शोषकों के मुखौटे उखाड़ने के साथ अभाव-पीड़ितों का यथार्थ सामने रखकर एकता और जागरण का सन्देश दिया है आज इसकी बड़ी जरुरत है| यह काव्य संग्रह कवि के आत्मविश्वास का स्वर है तभी कवि शपथ लेता है-
जम्हूरियत की कसम,
हम न होंगे हम,
यदि तुम्हें इतिहास के कूड़ेदान में न फिंकवाया