आईडियल ग्रुप मुम्बई ने प्रेमचन्द की पांच कहानियों की नाट्य प्रस्तुती दी
अरुण कान्त शुक्ला
रायपुर : 22 नवंबर/ इप्टा (रायपुर) की ओर से प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले देश के प्रतिष्ठापूर्ण मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह का शानदार आगाज शुक्रवार शाम मुक्ताकाश पर हुआ| रायपुर के नाट्य प्रेमियों को इप्टा के सौजन्य से 20 से 25 नवंबर तक देश के जाने माने और प्रतिष्ठित नाट्य समूहों तथा निर्देशकों की प्रस्तुतियां इस दौरान देखने मिलेगी| समारोह का उदघाटन इप्टा के राष्ट्रीय सचिव तथा प्रसिद्ध रंगकर्मी राकेश ने किया| उदघाटन के तुरंत बाद उपकार पंथी लोकनृत्य दल ने छत्तीसगढ़ी नृत्य प्रस्तुत किया और फिर शुरू हुआ प्रेमचन्द की पांच कहानियों प्रेरणा. मेरी पहली रचना, आपबीती, सवा सेर गेहूं तथा रसिक सम्पादक का नाट्य प्रस्तुतीकरण|
मुम्बई के आईडियल ड्रामा एंड इंटरटेनमेंट के संयोजक प्रसिद्ध रंगकर्मी मुजीब खान हैं जो स्वयं एक प्रतिभावान नाट्य तथा पटकथा लेखक और निर्देशक भी हैं| मुजीब खान ने अनेक प्रसिद्ध नाटक लिखे और निर्देशित किये हैं| यह बच्ची किसकी, मुंसिफ, मत बांटिये त्रिशूल और तलवार, कसाब का हो गया हिसाब, जैसे अनेक प्रसिद्ध नाटक उनके खाते में हैं| अपने नाट्य समूह को देश के सामाजिक सरोकारों से जोड़कर रखना और उन सरोकारों के लिए काम भी करना उनके जुनून में है| आईडियल ग्रुप पिछले एक दशक से भारतीय साहित्य के अब भुला दिए गए लेखकों और साहित्यकारों को पुन: जीवित करने के लिए एक मिशन के रूप में जुटा हुआ है| इसी कड़ी में मुजीब खान ने प्रेमचन्द की सभी कहानियों पर नाटक खेलने का बीड़ा उठाया और अब तक वे प्रेमचन्द की 315 कहानियों में से 311 का मंचन कर चुके हैं| उन्होंने इस श्रंखला का नाम ‘आदाब, मैं प्रेमचन्द हूँ’ रखा है|
अकसर यह देखा जाता है कि चाहे वह कितने भी प्रतिष्ठित साहित्यकारों की रचनाएं क्यों न हों, उनका फिल्मों में अथवा नाटकों में रूपांतरण करते समय मूल रचना के स्वरूप को इतना छेड़ा जाता है कि अनेक बार मूल कहानी की आत्मा भी हताहत हो जाती है| यही कारण है कि प्रतिष्ठित लेखक फिल्मों और नाटकों से मुंह मोड़ लेते हैं और फिर यदि वह कहानी उस लेखक की हो, जो प्रतिवाद के लिए मौजूद ही न हो, तब तो मानो निर्माताओं और निर्देशकों को मुंह माँगी मुराद मिल जाती है| यहाँ मुजीब खान की और उनके निर्देशन की इसके लिए तारीफ़ करनी होगी कि कहानियों को नाटक में परिवर्तित करते हुए, उन्होंने मूल कहानी और उसके भाव के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की, यहाँ तक की कहानी में प्रयुक्त डॉयालाग भी जैसे के तैसे उठाये गए हैं, इसलिए दर्शकों को पाँचों नाटक देखते समय ऐसा अनुभव हो रहा था, मानों वे प्रेमचन्द को सुन रहे हों| प्रेमचंद की कहानियों में एक साथ अनेक सामाजिक विसंगतियों पर तंज होते थे| सवा सेर गेहूं में न केवल एक किसान के कर्ज के दलदल में फंसकर बंधुआ मजदूर बनने की व्यथा है, साथ ही पुरोहित किस तरह ईश्वर का भय दिखाकर निचले तबकों और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों पर अपना शिकंजा कसते हैं, उसका भी क्रूर चित्रण है| शंकर और विप्र के बीच का यह संभाषण देखिये;
‘महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूँगा, ईश्वर के यहाँ क्यों दूँ, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ ? मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण हो के तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता। मैं तो दे दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान् के यहाँ जवाब देना पड़ेगा। '
विप्र –‘वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं; देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो ?
प्रेमचन्द को जैसे का तैसा उतारने का यह क्रम मुजीब खान ने केवल रसिक सम्पादक में अंत में एक दृश्य अतिरिक्त जोड़कर तोड़ा| ‘रसिक सम्पादक’ प्रेमचन्द की साहित्य की दुनिया में संपादकों के चरित्र पर तंज कसने वाली रचना तो है ही, साथ ही यह स्त्री के बारे में पुरुष की सोच का भी खुलासा करने वाली रचना है| स्त्री का सुन्दर होना ही उसकी सारी योग्यता का मापदंड है| यह सोच आज भी उतनी ही शिद्दत से मौजूद है| बहुत से नामचीन लोग भी इसकी शिकायत करते हैं कि सोशल साईट्स पर किसी स्त्री के द्वारा पोस्ट किये गए विचार, कविता को हजारों की संख्या में ‘लाईक’ और ‘कमेन्ट’ मिलते हैं, जबकि पुरुषों के साथ ऐसा नहीं होता| कामाक्षी को देखने के पहले जो रचना सम्पादक को श्रेष्ठ लग रही थी, उसको देखने के बाद अश्लील और बेकार लगाने लगती है और किसी तरह कामाक्षी से पीछा छुड़ाने के तुरंत बाद सम्पादक मेनेजर को बुलाकर कामाक्षी की कविता जो छपने के लिए मशीन पर चढ़ चुकी है, उतरवा देता है| मूल कहानी यहाँ खत्म हो जाती है और पाठकों को सोचने के लिए मजबूर करती है| किन्तु नाट्य रूपांतरण में मुजीब खान ने अंत में एक दृश्य बढ़ाकर पहले सम्पादक से कामाक्षी का ग्रन्थ बाहर फिकवाया है और फिर कामाक्षी उसको लेकर पुन: वापस आती है| इस सारे घटनाक्रम से सम्पादक को पागल होते दिखाया है, जिससे कहानी की वह सीधी मार जो कहानी में है, नाटक में अवरुद्ध होती है| इस परिवर्तन को यदि छोड़ दिया जाए तो निर्देशन, मंच साज-सज्जा, अभिनय, वस्त्र-सज्जा सभी पहलू प्रशंसनीय रहे| कुल मिलाकर एक के बाद एक पांच प्रस्तुतियों होने के बावजूद कहीं भी दर्शकों को उकताहट महसूस नहीं हुई और निर्देशक उन्हें बांधकर रखने में सफल रहा|