जावेद अनीस
2014 का लोकसभा चुनाव संघ परिवार के लिए मील का पत्थर था, यह एक गेम-चेंजर साबित हुआ जिसमें ऐसी विचारधारा की जीत हुई थी जिसका सीधा टकराव भारत की बहुलतावादी स्वरूप से है। जीत के बाद तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसे ऐतिहासिक बताते हुए कहा था कि “इस जीत के बाद हम देश में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन लाने में सक्षम होगें”। विश्व हिंदू परिषद के दिवगंत नेता अशोक सिंघल ने तो इसे 800 वर्ष की दासता का अंत बताते हुए क्रांति करार दिया था और दावा करते हुए कहा था कि साल 2020 तक भारत हिंदू राष्ट्र बन जाएगा। सबसे दिलचस्प बयान संघ विचारक एम जी वैद्य का था जिसमें वे कहते हैं कि “चुनाव एक विशेष आयोजन है. मतदाताओं को आकर्षित करने हेतु किसी एक प्रतीक की आवश्यकता होती है. श्री नरेन्द्रभाई ने उसको पूरा किया है. यह प्रतीक फायदेमंद साबित हुआ है. ...लेकिन यह भी हमें समझना चाहिये कि नरेन्द्र भाई को इस प्रतीकावाद की मर्यादाओं का ध्यान है. वे संघ के प्रचारक रहे हैं और संघ की संस्कृति के मूल को समझते हैं वे प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं और शाश्वत, समयानुकूल और आपद्घर्म के बीच का अंतर जानते है”.
हालाकि इस जीत के लिए वायदे तो “अच्छे दिनों” के किये गये थे, लेकिन तथाकथित “विकास” का मुद्दा तो एक साल में ही किसी भी प्रतीक की तरह काफूर हो गया और सारे वायदे ताक पे रख दिए गये,इसकी जगह पर गाय, मंदिर, हिन्दू राष्ट्र, असहिष्णुता और संस्थानों के भगवाकरण जैसे मुद्दों को विमर्श के केंद्र में ले आया गया. यह एक ऐसा फरेब है जिसकी जड़ें “राष्ट्री य स्वसयंसेवक संघ” नाम के संगठन की विचारधारा में है जो बहुत ही अनौपचारिक तरीके से अपने नितांत औपचारिक कामों को अंजाम देता है. हालाकि बहुत ही खोखले तरीके से यह फर्क करने की कोशिश भी हो रही है कि प्रधानमंत्री का फोकस तो केवल विकास से जुड़े मुद्दों पर है और यह तो संघ परिवार से जुड़े कुछ सिरफरे हैं जो इस तरह के हरकतों को अंजाम दे रहे हैं. लेकिन यह केवल एक भ्रम ही है, नरेंद्र मोदी ना केवल एक समर्पित स्वयंसेवक है बल्कि बचपन से ही उनकी परवरिश संघ में हुई है. वह पूरी तरह से संघ के सांचे में बने और तपे हैं, इसलिए वे संघ के सपनों के भारत का निर्माण अनौपचारिक तरीके से ही करेंगें. यह एक ऐसा काम है जिससे देश का बुनियादी स्वरूप बदल सकता है, एम.जी.वैद्य जिस शाश्वत, समयानुकूल और आपद्घर्म को विवेक की बात कर रहे थे वह हिन्दुत्व है, ध्यान रहे हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म में फर्क है, हिन्दुतत्व धर्म नहीं धर्म का राजनीतिक प्रयोग है .पिछले सालों में सांप्रदायिक शक्तियों को जिस तरह से खुली छूट मिली है उससे अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना बढ़ी है. आने वाले सालों में अगर यह सब कुछ ठीक–ठाक तरीके से चलता रहा तो भारत की तस्वीर बदल सकती है. यह तस्वीर हमारे कट्टर और अशांत पड़ोसी मुल्क की अक्स होगी.
असहिष्णुताओं भरा बीता साल
पिछले करीब उन्नीस महीनों में मोदी सरकार ने संघ ने हिन्दुत्व, मजहबी राष्ट्रवाद और पुरातनपंथी एजेंडे को बखूबी आगे बढ़ाया है. बीता साल 2015 तो बहुत उठा पटक वाला साल रहा है, लव जिहाद का झूठ, अल्पसंख्यकों को हिन्दू बनाकर उनकी तथाकथित ‘घर-वापसी', अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचारकों पर जानलेवा हमले, दूसरे विचारों के लिए जगह का लगातार सिकुड़ते जाना, गोमांस खाने का मात्र संदेह होने पर हत्या आदि ने ऐसा माहौल पैदा किया जिसे असहिष्णुता कहा गया. इसी तरह से कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने जब टीपू सुल्तान की जयंती मनाने का निर्णय लिया तो उस पर भी खूब हंगामा हुआ और टीपू सुल्तान जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा संभाला था, उन्हें एक क्रूर और हिन्दू विरोधी शासक के रूप में पेश किया गया.
इन सबको देखते हुए हमारे राष्ट्रपति को कई बार यह याद दिलाना पड़ा कि बहुलता, विविधता और सहिष्णुता ही भारत के मूल्य हैं और इसमें हो रही गिरावट को रोका जाना चाहिए. माहौल इतना “असहिष्णु” हो गया कि लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवीयों को मोर्चा सँभालने के लिए आगे आना पड़ा. लेकिन इन सरोकारों पर कान धरने के बजाये खुद सरकार के ताकतवर मंत्री उलटे आवाज उठाने वालों के खिलाफ की मोर्चा सँभालते हुए दिखयी दिए. इन सब को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो हर मुद्दे पर बोलते रहने के लिए मशहूर हैं लंबे समय तक चुप्पी साधे रहे, बाद में उनका बहुत ही ढीला-ढाला बयान सामने आया.
टूटता खुमार
2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को उसकी उम्मीदों से बढ़ कर अकेले ही 280 से अधिक सीटें मिलीं थीं और इसके बाद उसने हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों को लगातार फतह किया था, इन सब से विपक्ष के खेमे में सन्नाटा पसरा था और वह पूरी तरह से पस्त था. लेकिन 2015 की कहानी बिलकुल ही अलग है. साल की शुरुआत में ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए. भाजपा द्वारा पूरी मशीनरी झोंक देने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पूरे केंद्रीय मंत्रिमंडल के दिल्ली विधानसभा चुनावों में लग जाने के बावजूद भी 70 सदस्यों वाली दिल्ली विधानसभा में भाजपा सिर्फ तीन सीटों पर सिमट कर रह गई. इसके बाद साल के आखिरी महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के धुंआधार प्रचार और संघ द्वारा अपनी पूरी ताकत झोंक देने के बाद भी बिहार की करारी हार ने तो जैसे मोदी लहर को शांत होने की घोषणा कर डाली. अब खुद भाजपा वाले मोदी लहर का नाम लेने से परहेज करने लगे हैं, इधर विपक्ष यह यकीन करने लगा है कि मोदी को रोका भी जा सकता है. यह सब कुछ राजीव गाँधी की याद दिलाता है जिन्होंने 80 प्रतिशत सीटें जीत कर लोकसभा चुनाव की सबसे बड़ी जीत हासिल की थी और चंद सालों में अपनी चमक खोते गये. मोदी लहर हवाई उम्मीदों के टूटने से रुकी है, इस दौरान महंगाई पर रोक लगने की जगह इसमें बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है, रूपया लगातार गिर ही रहा है, पाकिस्तान के हमले जारी हैं, देश की अर्थव्यवस्था में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है, कालाधन वापस लाने को चुनावी जुमला करार दे दिया गया है, मनरेगा, इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम, इंटीग्रेटेड चाइल्ड प्रोटेक्शन प्रोग्राम, सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मील स्कीम, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और नेशनल ड्रिंकिंग वाटर प्रोग्राम जैसी सामाजिक कल्याण की योजनाओं में कटौती की वजह से ग़रीब और हाशिये रह रही जनता की परेशानी बढ़ी है.
चुनावी समीकरणों परे है उनकी राजनीति
वर्तमान में प्रधानमंत्री के साथ-साथ 11 राज्यों में मुख्यमंत्री भाजपा या सहयोगी दलों के हैं, 2019 तक कुल नौ राज्यों में विधान सभा होने वाले हैं और संभव है भाजपा इनमें से ज्यादातर राज्यों में 2014 का धमाका न कर सके. लेकिन राजनीति मात्र चुनावी खेल नहीं है और यहाँ चीज़ें जैसी दिखाई देती हैं हमेशा वैसी होती नहीं हैं, भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अघोषित राजनीतिक विंग है, लेकिन मात्र यही आरएसएस की राजनीति नहीं है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सुबह उठकर लाठी भाजने वालों का संगठन नहीं है और जैसा कि राकेश सिन्हा कहते हैं कि ‘यह केवल झाल मंजीरा बजाने वाला सांस्कृतिक संगठन भी नहीं है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वर्तमान के किसी राजनीतिक पार्टी, सामाजिक संस्था या संगठन के ढांचे में फिट नहीं बैठता है इसलिये उसे समझने में हमेशा चूक कर दी जाती है’,आरएसएस के 80 से ज्यादा आनुषांगिक संगठन हैं जिन्हें संघ परिवार कहा जाता है, ये संगठन जीवन के लगभग हर क्षेत्र में सक्रिय हैं, यह सभी संगठन संघ की आइडीयोलोजी से संचालित होते हैं और इन्हीं के जरिये संघ परोक्ष रूप से हर क्षेत्र में हस्तेक्षप करता हैं. इन सभी संगठनों के प्रतिनिधि हर साल आयोजित होने वाले संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में शामिल होकर अपने कामों के बारे में जानकारी देते हैं. इस तरह से आरएसएस भारत की एक मात्र आइडीयोलोजिकल संगठन है जो चुनावी राजनीति सहित जीवन के सभी हलको में काम करती है.
अगर कोई संगठन इतने ग्रान्ड स्तर पर काम कर रहा है जो जाहिर सी बात है कि उसका लक्ष्य भी ग्रान्ड ही होगा, संघ अपने आप को संपूर्ण समाज का संगठन मानता है ना कि समाज की किसी अंश का, इसे ध्यान से समझना होगा, समाज के अन्दर किसी वर्ग विशेष या गुट का संगठन करने हेतु संघ की स्थापना नहीं हुई है. उसका लक्ष्य तो खुद समाज बन जाना है. इस बात को और गहराई से समझने के लिए एम जी वैद्य के पास जाना होगा जो कहते हैं “यद्यपि राजनीति समाजिक जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं फिर भी वही सब कुछ नहीं है. इसलिये संघ की तुलना किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं हो सकती. संघ का हमेशा यह आग्रह रहता है कि हम एक सांस्कृतिक राष्ट्र हैं और स्वयंसेवकों को जिस किसी भी क्षेत्र में वे कार्य करते हैं, यह भूलना नहीं चाहिये और उनके सब प्रयास इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता को शक्तिशाली और महिमामंडित करने की दिशा में ही होने चाहिये इस संस्कृति का ऐतिहासिक नाम हिन्दू हैं”.
तथाकथित सांस्कृतिक (हिंदू) राष्ट्रवादी अल्पसंख्यकों को बाहरी और अपने हिंदू राष्ट्र के परियोजना के लिये अनफिट मानते हैं। वे अल्पसंख्यकों की अलग पहचान, संस्कृति को स्वीकार ही नहीं करते हैं और अल्पसंख्यक समूहों से यह उम्मीद करते हैं कि वे बहुसंख्यक (ब्राह्मणवादी) संस्कृति में ढल जायें।
आरएसएस के काम करने का तरीका भी बहुत अनौपचारिक है, जिसे सीधे तौर पर समझा नहीं जा सकता है, इसलिए हम देखते हैं कि इतने व्यापक स्तर पर सक्रिय रहने के बावजूद संघ बहुत आसानी से अपने किये या कहे से पलड़ा झाड़ लेता है, चंद महीने पहले ही जब संघ के मुखपत्र पाञ्चजन्य में दादरी में मारे गए अख़लाक़ की हत्या को यह कहकर जायज बताया कि ‘वेदो में लिखा है कि गौहत्या की सजा मौत है’ तो इसको लेकर बहुत हंगामा हुआ और सवाल उठाये गये। इसके तुरंत बाद हम देखते हैं कि संघ ने इस बात से यह कहते हुए अपना पलड़ा झाड़ लिया कि ‘पाञ्चजन्य उसका मुख्यपत्र नहीं है.’ इसी तरह से पिछले साल बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से ही कई हिंदूवादी संगठन गोडसे की विरासत को सम्मान देने की कोशिशों में जुट गए थे. पिछले साल नवम्बर में जब हिंदू महासभा ने नाथूराम गोडसे के मृत्यु को बलिदान दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की तो जानकार इसमें संघ परिवार की सहमती भी देख रहे थे, लेकिन जब इसकी चारों तरफ आलोचना होने लगी तो आरएसएस की तरफ से एक बयान आया जिसमें उसने कहा है कि नाथूराम गोडसे का महिमामंडन से हिंदुत्व का नाम खराब होगा.मालूम हो कि महात्मा गांधी की हत्या करने वाला नाथूराम गोडसे आरएसएस से जुड़ा था. हालांकि आरएसएस हमेशा से कहता आया है कि गांधी की हत्या के बहुत पहले ही गोडसे आरएसएस छोड़ चुका था. लेकिन आज तक आरएसएस अपनी बात की पुष्टि करने के लिए कोई सबूत नहीं दे पाया है.
असली अजेंडा
संघ परिवार के लोग अब यह नहीं कहते है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है, वे अब इसे स्वभाविक रूप से हिन्दू राष्ट्र बताने लगे हैं, पिछले दिनों सरसंघचालक मोहन भागवत कई बार यह दोहरा चुके हैं कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और हिन्दुत्व इसकी पहचान है जो कि अन्य (धर्मों) को स्वयं में समाहित कर सकता है। 26 नवंबर 2015 को संसद भवन में संविधान दिवस के आयोजन के मौके पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि “धर्मनिरपेक्षता” देश में सबसे ज्यादा गलत प्रयुक्त होने वाला शब्द बन चुका है, जिससे सामाजिक तनाव पैदा हो रहा है। उन्होंने आरएसएस विचारकों की पुरानी दलीलों को दोहराया कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द की कोई जरूरत नहीं है। इससे पहले कि 26 जनवरी 2015 के मौके पर मोदी सरकार ने जो विज्ञापन जारी किया था उसमें धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द गायब थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी धर्मनिरपेक्षता के बरअक्स ‘इंडिया फर्स्ट’ जैसे खोखले जुमले उछाल रहे हैं. आज भी आरएसएस-भाजपा के हिंदू राष्ट्रवाद के एजेंडे के लिए सबसे बड़ी बाधा धर्मनिरपेक्ष संविधान ही है जिसकी जड़ें राष्ट्रीय आंदोलन के मूल्य हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मूल विचारधारा ‘हिंदू राष्ट्र’ की ही है.जो विश्वास करती है कि हिंदू समाज इस देश का राष्ट्रीय समाज है. संघ मानता है कि हिन्दू अपने इस राष्ट्रीय पहचान को भूल गये हैं. इसलिए उन्हें इसकी पहचान कराना है. संघ के यही विचारधारा अल्पसंख्यकों को अलग पहचान को नकारते हुए उन्हें दोयम दर्जे का मानती है. यह वह मूल विचार संघ को मुस्लिम और ईसाई विरोधी बनाती है. संघ के सिद्धांतकार गुरू गोलवलकर कहते हैं कि “वैसे तो भारत हिन्दुओं का एक प्राचीन देश है। इस देश में पारसी और यहूदी मेहमान की तरह रहे हैं परन्तु ईसाई और मुसलमान आक्रामक बन कर रह रहे हैं। मुसलमान और ईसाई भारत में रह सकते हैं परन्तु उन्हें हिन्दू राष्ट्र के प्रति पूरे समर्पण के साथ रहना पड़ेगा”.
भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में संघ की कोई भूमिका नहीं थी और यह मूल रूप से हिंदुओं को एकजुट करने के लिए शुरू हुआ था. इतिहासकार इरफान हबीब के अनुसार ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा,हमेशा से ही सिर्फ साम्प्रदायिक संगठन रहे हैं, न कि राष्ट्रवादी. इसलिए इतिहास में झाकने पर हम पाते हैं कि हमारे देश में जो मौजूदा लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संघात्मक ढांचा है, उसका संघ ने विरोध किया था। धर्मनिरपेक्ष राज्य का गोलवलकर ने यह कहते हुए विरोध किया था कि ‘असांप्रदायिक (धर्मनिरपेक्ष) राज्य का कोई अर्थ नहीं।’
स्वाधीनता आन्दोलन से उपजा भारतीय राष्ट्रवाद जो कि समावेशी और लचीला था नेपथ्य में चला गया है इसकी विरासत का दावा करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज इस स्थिति में ही नहीं है की वह इसे आगे ले जा सके, इसके बरअक्स पिछले कुछ दशकों से संघ परिवार अपने आप को राष्ट्रवादी और देशभक्ति के चोले में पेश करने में कामयाब रहा है, उनके इस राष्ट्रवाद का अर्थ है एक संस्कृति और एक मजहब का वर्चस्व और लक्ष्य है समाज को धर्म के आधार पर बाँट कर एकाधिकारवादी, अनुदार राज्य की स्थापना करना.
2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 साल पूरे हो रहे हैं. संघ के लोगों का मानना है कि अगर दस साल तक मोदी सत्ता में रह जाएं तो 2025 में संघ के 100 साल पूरा होने तक भारत के हिन्दू राष्ट्र बनाने में आसानी हो सकती है.
जो दावं पर रहेगा
2016 में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुडुचेरी जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इसलिए इस साल कई खेल खेले जायेंगें.भाजपा को सबसे ज्यादा उम्मीद असम और बंगाल से है. दिल्ली और बिहार में ब्रांड मोदी की चमक फीकी पड़ने के बाद अब ब्रांड मंदिर वापस लाया जा रहा है है. यूपी विधानसभा चुनाव को सिर्फ डेढ़ साल का वक्त बचा है। ऐसे में संघ परिवार देश के सबसे बड़े राज्य की सत्ता करने के लिए एक बार फिर धार्मिक उन्माद के भरोसे है। मोहन भगवत ने पिछले साल नवम्बर में बयान दिया था कि “उम्मीद है कि मंदिर मेरी जिंदगी में ही बन जाएगा। हो सकता है कि हम इसे अपनी आंखों से देख पाएं। ये कोई नहीं कह सकता कि कब और कैसे मंदिर बनेगा लेकिन इसके लिए हमें तैयारी भी करनी होगी और यदि मंदिर निर्माण में जान भी गंवानी पड़े तब भी हमे तैयार रहना चाहिए।“ महंत नृत्य गोपालदास ने तो दावा किया है कि उन्हें मोदी सरकार की तरफ से राम मंदिर निर्माण के 'संकेत' मिले हैं. इसके बाद केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा का बयान आता है जिसमें वे कहते हैं कि ‘मोदी सरकार अयोध्या में भव्य राम मंदिर के लिए संकल्पित है’. इधर विश्व हिन्दू परिषद से एक बार फिर मंदिर निर्माण के लिए पत्थर इकट्ठा करने की खबरें आ रही हैं. उत्तर प्रदेश को लेकर जिस तरह की तैयारी की जा रही है वह अच्छा संकेत नहीं है, आने वाले साल यू.पी. के लिए बहुत भारी साबित होने वाले हैं.
लेकिन इससे पहले असम का चुनाव है जहाँ पिछले पंद्रह सालों से कांग्रेस की सरकार है, भाजपा को सबसे ज्यादा उम्मीद इसी राज्य से हैं, शायद इसीलिए असम के राज्यपाल पी बी आचार्य ने कई महीने पहले वहां के चुनाव का अजेंडा तय करने की कोशिश शुरू कर दी थी. पहले तो उन्होंने कहा कि ‘भारत तो हिंदुओं के लिए है और हिन्दू जहां कहीं भी प्रताड़ित हैं, वे भारत में शरण ले सकते हैं’ बाद में जब विवाद हुआ तो उन्होंने यह भी कह डाला कि ‘मुसलमान जहां कहीं जाना चाहें, जाने के लिए स्वतंत्र हैं’. दरअसल असम में बंगलादेशी घुसपैठ बहुत ही नाजुक मुद्दा है और जाहिर है भाजपा का इरादा इस संवदेनशील मुद्दे उछाल का चुनावी फायदा उठाने का है.
पश्चिम बंगाल में भी इसी साल चुनाव होने वाले हैं जहाँ भाजपा अपने लिए संभावनायें तलाश रही है, बंगाल चुनाव में एक बार फिर नेहरु को सुभाष चन्द्र बोस के खिलाफ खड़ा किया जाएगा, ध्यान रहे नेहरु जो कि आधुनिक भारत के प्रतीक हैं और जिनके बनाये गए मजबूत संस्थान आज भी हिन्दू राष्ट्र के रास्ते में सब से बड़े रोड़े हैं, इसलिए नेहरू से टकराने के लिए उनका कद घटाना जरूरी है। पश्चिम बंगाल बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है और अभी जो कुछ भी मालदा में घटा है उससे आने वाले दिनों में वहां पर साम्प्रदायिक विभाजन का खतरा बढ़ गया है.
जाहिर है चुनाव के दौरान इन राज्यों में सामाजिक तनाव बढ़ेगा, समुदायों के अविश्वास का माहौल पैदा होगा जिसका असर इन राज्यों तक ही सीमित नहीं रहेगा. लेकिन असली दावं तो भारतीयता और इस देश का बहुलतावाद सवरूप पर रहने वाला है. इस साल भगवाकरण की प्रक्रिया तेज होगी, पाठ्यक्रमों में मूलभूत परिवर्तन किया जाएगा, इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा जाएगा. नेहरु, महात्मा गाँधी,बाबा साहेब अम्बेडकर, सुभाष चन्द्र बोस, जैसे विभूतियों की छवि या तो ध्वस्त की जायेगी या उन्हें 'हिंदू आइकन' बनाकर पेश किया जायेगा. धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक और उदारवादी संस्थानों को कमजोर करने का चलन बढेगा और संघ की विचारधारा से जुड़े लोगों को इन पदों में भरा जायेगा जिसका उद्देश्य ऐसे तंत्र की स्थापना है जो संघ की विचारधारा के अनुकूल हो.
इस साल का उपयोग संघ की विचारधारा के अधिपत्य को स्थापित करने के लिए भी किया जायेगा, दरअसल संघ परिवार ने भले ही राजसत्ता हासिल कर ली हो लेकिन बौद्धिक जगत में उसकी विचारधारा अभी भी हाशिये पर है और वहां नरमपंथियों व वाम विचार से जुड़े लोगों का सिक्का चलता है. भाजपा जब सत्ता में आती है तो वह केवल इसी से संतुष्ट नहीं होते हैं, वह सत्ता के साथ अपने विचारधारा के अधिपत्य स्थापित करने के दिशा में भी काम करती है. जब बीजेपी कांग्रेस मुक्त भारत की बात करती है तो इसे इसके पूरे अर्थों में नहीं समझा जाता है, इसका मतलब केवल कांग्रेस को हटाना मात्र ही नहीं होता है बल्कि जनता के बीच एक नए विचारधारा को स्थापित करना भी है. इस साल इस काम को और तेजी से किया जाएगा ताकि संघ की वैचारिक हिजेमनी को हर स्तर पर स्थापित किया जा सके. पिछले साल जब पूरे देश में असहिष्णुता को बहस चल रही थी तो भाजपा और उसके हिमायती रक्षात्मक होने के बजाये इसका बहुत ही आक्रमक तरीके से जवाब दे रहे थे, यहाँ तक की अनुपम खैर जैसे लोगों ने असहिष्णुता का विरोध करने वालों के खिलाफ सड़क पर मोर्चा निकला, विरोध कर रहे लेखकों की किताब वापसी के लिए अभियान चलाया गया. यह नया चलन था जो बौद्धिक स्तर पर संघ परिवार के बढ़े आत्मविश्वास को दर्शाता है.
राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान जो “आइडिया आफ इंडिया” सामने आये था और जिसे हमारे संविधान निर्माताओं ने आगे बढ़ाया था उसमें धार्मिक और अभिव्यक्ति की आजादी, सभी को सामान नागरिक मानते हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय देने की गारंटी शामिल है, यही एक राष्ट्र के तौर पर हमारी बुनियाद भी है, उनकी विचारधारा उन सभी मूल्यों के विपरीत है जो आज के भारत की नींव हैं। आज के भारत का मुख्य आधार संसदीय प्रजातंत्र हैं -एक ऐसी राजसत्ता, जिसका आधार धर्म नहीं है और जहाँ सभी को समान रूप से नागरिक मानते हुए कुछ मूलभूत अधिकार दिए गये हैं, अल्पसंख्यकों को अपनी पहचान बनाये रखने और उनके सुरक्षा की गारंटी दी गयी है। असली लडाई वैचारिक स्तर पर ही है, आने वाले सालों में भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाए रखने वालों और इसे हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने का मंसूबा पाले रखने वाले लोगों के बीच वैचारिक संघर्ष जारी रहेगा.