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मुद्दों पै बहस हो, तो है मजा

राकेश अचल

बातों से बतंगड़ बनता है, हर बार यही तो मुश्किल है
चुप साध के बैठी रहती है, सरकार यही तो मुश्किल है

मुद्दों पै बहस हो तो है मजा, बेकार की बातें होती हैं
भौंपू है हमारी बस्ती के अखबार, यही तो मुश्किल है

ढपली हों जुदा पर राग न हों जिद है ये बजाने वालों की
बिखरी है शुरू से बाजों की झंकार, यही तो मुश्किल है

बर्तन हैं अगर तो टकरा कर, आवाज करेंगे जाहिर है
चुभती है जमाने को लेकिन तकरार यही तो मुश्किल है

आये थे गिराने की कह कर, देखो तो उठाये जाते हैं
रिश्तों में अचानक आई है दीवार, यही तो मुश्किल है

तुम लिखते रहो,तुम गाते रहो, दिन रात अचल तो अच्छा है
होना है इसे भी दुनिया में, दुश्वार, यही तो मुश्किल है

About Author

राकेश अचल

लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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  • ऐसे गंभीर और क्रूर समय में क्या चुप बैठ जाना ही एक मात्र रास्ता बचा है?
  • ये बाबा नाव डूबा कर रहेंगे नदामो की
  • शाबास राजन, बोले तो सही
  • दंगे और असहिष्णुता का क्या रिश्ता ?
  • रहने भी दो दादा, अपने पितृ पुरषों को ब्रेन डैड घोषित करने वाले आपकी सीख पर क्यों ध्यान देंगे?
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  • ऐसे गंभीर और क्रूर समय में क्या चुप बैठ जाना ही एक मात्र रास्ता बचा है?

    राकेश अचल

    विरोध का कोई तरिका सरकार को मंजूर नहीं, विरोध करना अब अचानक राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध हो चला है. सरकार के किसी फैसले, चाल-चलन के बारे में कोई भी प्रतिकूल टिप्पणी किसी को स्वीकार ही नहीं, ऐसा करने वालों को सरकार के प्रवक्ताओं की और से सीधे पाकिस्तान भेजने की अनुशंसाएं होने लगती हैं, कोई रेप की धमकी देता है तो कोई सर उतारने की. ऐसे गंभीर और क्रूर समय में क्या चुप बैठ जाना ही क्या एक मात्र रास्ता बचा है?

    लगभग 68 साल के भारतीय लोकतंत्र में ये दूसरा मौक़ा है जब गलत को गलत कहने पर सजाओं का प्रावधान किया जा रहा है.1977 में ये सब ऐलानिया किया गया था, 2015 में ये सब बिना ऐलान किया जा रहा है. फर्क सिर्फ इतना है की अभी जेलें नहीं भरी गयीं हैं, धमकियों और अनदेखियों से काम चलाया जा रहा है. जो गलत को गलत कहने की सामर्थ रखते हैं उन्हें 'ब्रेन डैड' बना दिया गया है और जो शेष हैं उन्हें राष्ट्रद्रोही बता कर पिटवाने का प्रबंध किया जा रहा है. सवाल ये है की ऐसे में बोलने वाले कहाँ जाएँ? जो नहीं बोलते वे तो सत्ता पर काबिज हैं लेकिन जो बोलते हैं वे सड़कों पर भी नहीं आ सकते. उनका बोलना अपराध है, साजिश है, प्रायोजित असहिष्णुता है और पता नहीं जाने क्या-क्या है?

    कहते हैं की दूध से जला आदमी पानी भी फूंक-कर पीता है, लेकिन दूध से जला ये देश तो फिर से उबलते दूध को बिना फूंके ही पीने पर आमादा दिखाई दे रहा है, उसे जलने का भय ही नहीं है. बीस महीने जेलों में रहने के बाद दिल से सारा भय जाता रहा है जैसे? अब तो हिसाब बराबर करने की बारी है. न राष्ट्रपति की नसीहत का सम्मान किया जा रहा है और न जनता के प्रतिरोध का. सबकी अनसुनी को ही राष्ट्रधर्म बना दिया गया है. आप चाहे मार्च कीजिए, चाहे धरने दीजिये, चाहे सम्मान लौटा दीजिये आपसे कोई ये पूछने वाला ही नहीं है की-आपकी तकलीफ क्या है?

    बात होगी नहीं और ऊपर से आपको देशद्रोही करार दे दिया जाएगा तब आप क्या करेंगे? देश छोड़ कर तो जाएंगे नहीं, यहीं मरेंगे, खपेंगे, चाहे लाठियां खाकर मरें, चाहे धमकियां सुनकर, मरना तय है. जीना है तो हाँ में हाँ मिलाने का हुनर सीखना पडेगा आपको. क्या आप इसके लिए तैयार हैं? अगर हैं तो आपके लिए इस देश में कोई असुविधा नहीं है. असुविधा उनके लिए है जो अपने मुंह में जबान रखते हैं. बोलना जानते हैं, प्रतिकार करने में दक्ष हैं. समय मुठ्ठी में बंद रेत की भांति हाथ से निकलता जा रहा है लेकिन कोई रास्ता नहीं निकल रहा. प्रौढ़ हो चुके लोकतंत्र के लिए ये चुनौती का समय है. दुनिया की निगाहें भारत के लोकतंत्र और उसके सहिष्णु उर असहिष्णु होने के विवाद पर लगीं हैं. दुनिया में हम ही थे जो अब तक धर्मनिरपेक्ष और संप्रभुता के साथ विविधता में एकता का दम्भ भरते हुए दुनिया को रास्ता बता रहे थे, लेकिन आज हम खुद चौराहे पर हैं, पता नहीं हमारा डंका कहाँ बज रहा है?

  • ये बाबा नाव डूबा कर रहेंगे नदामो की

    राकेश अचल

    असहिष्णुता के मुद्दे पर प्रधानमंत्री की चुप्पी और उनके समर्थक साधुओं और योगियों की तल्खी से लगता है कि ये आग फिलहाल बुझने वाली नहीं है. पद्मश्री के लिए केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के पहले से शीर्षासन कर रहे बाबा रामदेव की मांग है कि  ‘अगर शाहरुख सच्चे देशभक्त हैं तो उन्हें पद्मश्री सम्मान मिलने के बाद की अपनी सारी कमाई दान कर देनी चाहिए या फिर पीएम राहत कोष में डाल देनी चाहिए। नहीं तो हम समझेंगे कि जिसकी चाकरी करके उन्होंने अवॉर्ड पाया, उसे ही खुश करने के लिए शाहरुख खान असहिष्णुता की बात कर रहे हैं।’शाहरुख को 2005 में पद्मश्री मिला था, तब देश में यूपीए की सरकार थी.

    बाबा रामदेव ने लोकसभा चुनाव से पहले राजनीति में कूदने का मन भी बनाया था और देश व्यापी दौरा कर जनता की नब्ज भी टटोली थी लेकिन जब उन्हें भाजपा के श्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में हवा जान पड़ी तो वे घर जाकर बैठ गए थे. बाबा रामदेव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ विधि समारोह का भी बहिष्कार किया था लेकिन बाद में मोदी जी के सामने आत्म समर्पण कर दिया। अब बाबा मोदीमय हैं,हालांकि वे कालाधन का मुद्दा लील चुके हैं.उसका जिक्र कहीं भी नहीं करते.

    अब कोई बाबा से कहे की वे केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद अपने कारोबार में हुए इजाफे को प्रधानमंत्री राहत कोष में डाल दें तो क्या ऐसा मुमकिन होगा? बाबा ने बीते देश साल में जमकर कमाई की है. पातंजलि पीठ के नाम पर देश के भाजपा शासित राज्यों में ठीक उसी तरह सरकारी जमीने हड़पन हैं जिस तरह की बाबा आसाराम ने हड़पीं थी.

    उधर  बीजेपी सांसद आदित्यनाथ ने शाहरुख और आतंकी हाफिज सईद की भाषा को एक जैसा बता कर इस विवाद को और भड़काने का प्रयास किया है, शायद बीजेपी परदे के पीछे से ऐसा ही चाहती है. योगी आदित्यनाथ ने कहा, ''इस देश का बहुसंख्यक समाज अगर उनका बहिष्कार कर देगा तो उन्हें भी आम मुसलमान की तरह भटकना होगा। योगी कहते हैं की मुद्दों पर तथ्यों के साथ बहस होनी चाहिए। उनका आरोप है की  दुनिया के सबसे सहिष्णु हिंदू समाज को बदनाम करने की कोई साजिश हो रही है तो उसकी सामूहिक निंदा होनी चाहिए।''

    शाहरुख  खान के बोलते ही भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव श्री कैलाश विजयवर्गीय ने कह दिया की  अगर भारत में असहिष्णुता होती तो अमिताभ के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेता शाहरुख़ न होते,विजयवर्गीय के पोस्ट की जब भाजपा के ही नेताओं ने विरोध किया तो उन्होंने सफाई देते हुए कहा की  मेरे ट्वीट को कुछ लोगो ने अलग अर्थो में लिया है। मेरा उद्देश्य किसी को भी ठेस पहुँचाना कतई नहीं थाइसलिए मैं अपना कथन  वापिस लेता हूं।

    असहिष्णुता  और सहिष्णुता पर चल रहे मुबाहिसे का मजा पड़ौसी देश पाकिस्तान में बैठे भारत के दुश्मन और मुंबई हमलों के गुनहगार सईद नेभी लिया.सईद ने पाकिस्तान में बैठे-बैठे कह दिया की  ''खेल,कला और संस्कृति  के क्षेत्र में काम कर रहे मशहूर भारतीय मुस्लिम भी भारत में अपनी पहचान को लेकर लगातार लड़ाई लड़ रहे हैं। कोई भी मुस्लिम, यहां तक कि शाहरुख खान, जो भारत में मुश्किलों और भेदभाव का सामना कर रहे हैं, वे इस्लाम की वजह से पाकिस्तान आकर रह सकते हैं।''

    जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं वैसे-वैसे लगने लगा है की बिहार चुनाव के बाद भाजपा इस विवाद ओर विरोधियों से या तो आरपार की लडाइलडेग़ी या फिर हथियार डाल देगी,क्योंकि इस विवाद के चलते ही बिहार का फैसला होने की उम्मीद है.यदि बीजेपी जीतती है तो विरोधी और असहिष्णुता का मुद्दा टांय-टांय फिस्स हो जाएगा और यदि हारती है तो बीजेपी को लेने के देने पड़ जायेंगे .मुद्दे का पटाक्षेप होए में अब कुछ   ही दिन बाकी है,इन बाकी दिनों में जो भी अपने जौहर दिखा सकता है,दिखा कर मानेगा,चाहे फिर वो बाबा हो,स्वामी हो,या कोई तीसरा.

  • शाबास राजन, बोले तो सही

    राकेश अचल 

    भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को शाबासी दी जाना चाहिए की उन्होंने  देश में बढ़ती असहिष्णुता पर चल रही बहस को आगे बढ़ाते हुए अपने मन की बात बिना भय के सार्वजनिक की, राजन चाहते हैं की - विचारों के लिये माहौल बेहतर बनाने के वास्ते सहिष्णुता तथा परस्पर सम्मान जरूरी है और किसी समूह विशेष को शारीरिक क्षति पहुंचाने या अपमानजनक शब्द कहने की अनुमति नहीं होनी चाहिए।

    असहिष्णुता के खिलाफ सम्मान वापस करने वाले साहित्यकार, इतिहासकार और वैज्ञानिक भी तो कमोवेश यही बात कह रहे हैं लेकिन हमारी सरकार है की उनके विरोध को सुनने और समझने के लिए तैयार ही नहीं है, सरकार और सरकारी पार्टी को इस विरोध के पीछे साजिश की बू आती है, सबको लगता है की प्रतिकार करने वाले या तो राष्ट्रद्रोही हैं या सरकार का तख्ता पलटना चाहते हैं. प्रतिकार के स्वरों की अनसुनी करने वाले भूल जाते हैं की प्रचंड बहुमत से बनी सरकार को बुद्धिजीवियों का प्रतिकार सत्ता से बेदखल नहीं कर सकता, ये काम तो आगामी आम चुनाव के समय वोट के जरिये ही मुमकिन है, इसलिए सरकार को बेख़ौफ़ होकर सरकार चलने के साथ ही प्रतिकार के सुरों को भी सुनना चाहिए. सिर्फ सुनना ही नहीं चाहिए बल्कि उनकी चिंताओं का संतोषजनक, सम्मानजनक समाधान भी करना चाहिए, क्योंकि वे सब इसी समाज और सरकार द्वारा सम्मानित किये गए लोग हैं. उनके बारे में ये सोचना की वे सब के सब कांग्रेसी या वामपंथी हैं, संकीर्णता के अलावा कुछ नहीं है।

    राजन की तारीफ़ इसलिए भी की जाना चाहिए की उन्हने अपने मन की बात कहने के लिए किसी राजनितिक दल का मंच नहीं, बल्कि देश के दिल आईआईटी दिल्ली की चुना. संस्थान के  दीक्षांत समारोह को सम्बोधित करते हुए राजन ने कहा की ‘आखिरकार, ऐसे दुर्लभ मामलों में जहां विचार किसी समूह के मूल चरित्र से गहरे जुड़े हों वहां सम्मान की जरूरत है और ऐसे मामलों में चुनौती देते समय हमें अतिरिक्त सावधानी बरतनी होती है।’ उन्होंने कहा कि सहिष्णुता से विचार-विमर्श में आने वाला रोष खत्म किया जा सकता है और सम्मान भी बना रह सकता है।

    मुमकिन है की राजन के इस रुख से भाजपा के नेताओं को असुविधा हो, वे राजन को भला-बुरा भी कहें, लेकिन इससे कुछ होने वाला नहीं है. यदि भाजपा नेतृत्व में ज़रा भी गाम्भीर्य होगा तो कोई भी राजन की बात का न विरोध करेगा और न ही बुरा मानेगा, उलटे राजन की कही बात पर विमर्श का श्रीगणेश करेगा, राजन न नेता हैं और न उनका किसी राजनितिक दल से कोई वास्ता है, उन्हें जो जिम्मेदारी मिली है, वो उनकी क्षमताओं और अनुभवों के आधार पर मिली है. कोई उनकी निष्ठा तथा राष्ट्रभक्ति पर भी ऊँगली नहीं उठा सकता. दूसरा कोई होता तो अब तक भाजपा के अनेक नेता राजन को पाकिस्तान जाने की सलाह दे चुके होते. बहरहाल सहिष्णुता और असहिष्णुता के बीच जंग तेज हो रही है. इस जंग में अंतत: जीत सहिष्णुता की ही होगी।

  • दंगे और असहिष्णुता का क्या रिश्ता ?

    राकेश अचल

    दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल मानते हैं की यदि 1984  के सिख दंगों के आरोपियों को सजा मिली होती तो दादरी जैसी घटनाएँ नहीं होतीं और देश में असहिष्णुता नहीं बढ़ती. मुमकिन है की ऐसा होता और शायद नहीं भी. इसकी वजह ये है की देश की जनता की एक तो याददास्त क्षीण है और ऊपर से जनता बेहद सहिष्णु है. 84 के दंगे इस देश के इतिहास का काला अध्याय हैं. इन दंगों के दोषियों को भले अदालत से सजा न मिली हो लेकिन जनता की अदालत ने दोषियों को नहीं बख्शा. जब मौक़ा मिला सजा दी और आज तक सजा दे रही है. लेकिन दंगे ही सजा का आधार होते तो फिर गोधरा के दंगों के आरोपी इस देश की सल्तनत पर काबिज न हो जाते. दंगे चाहे 84  के हों या 2000  के दंगे हैं और इनके दोषियों को क्षमादान नहीं मिलना चाहिए, किन्तु कोई क्या कर सकता है? इस देश का विधि-विधान ऐसा है की कोई भी जनता का समर्थन हासिल कर संविधान की शपथ लेकर संवैधानिक पद पर काबिज हो सकता है.

    वास्तविकता ये है की असहिष्णुता अब हमारी राजनीति का एक अघोषित हिस्सा बन चुका है, कोई भी दल सत्ता में आये असहिष्णुता उसके लिए एक औजार है, जिसके दम पर विरोधियों का सफाया किया जाता है, गालियां देकर या गला तराश कर. ये होता आया है और होता जा रहा है. इस प्रवृत्ति का प्रतिकार भी होता है किन्तु ये प्रवृत्ति लगातार पनपती ही जा रही है, इसलिए सबको मिलजुल कर इसका इलाज खोजना चाहिए. क्योंकि असहिष्णुता चाहे इनकी हो या उनकी विकास की सबसे बड़ी बाधा है. असहिष्णु समाज में, देश तरक्की कर ही नहीं सकता.

    हाल के दिनों में असहिष्णुता के खिलाफ बुद्धिजीवियों के सांकेतिक अभियान का मखौल उड़ाया  गया, मुझे लगता है की ये ज्यादती है. असहिष्णुता के खिलाफ जब भी कोई शुरुवात हो, उसका स्वागत किया जाना चाहिए. इन सवालों का कोई अर्थ नहीं होता की ये अभियान अब शुरू किये जा रहे हैं, तब शुरू क्यों नहीं किये गए थे? अरे भाई जब जागो तभी सवेरा होता है. मुमकिन है की तब असहिष्णुता का चेहरा इतना विद्रूप लोगों को न लगता हो? मेरे हिसाब से तो अतीत में हो चुकी घटनाओं को बार-बार सियासत के लिए जीवित कर लेना भी एक तरह की असहिष्णुता है. ये कभी समाप्त नहीं हो सकती. यदि असहिष्णुता सियासत का अभिन्न अंग बनी रहेगी तो फिर तो हो गया देश का कल्याण. इसलिए जरूरी है की असहिष्णुता जहाँ भी हो उसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए. राजनीति में जब तक असहिष्णुता का स्थान उदारता नहीं लेगी तब तक विकास नेपथ्य में ही रहने वाला है.

    सत्ता का इस्तेमाल देश के बजाय अपने संगठनों के लिए करने वाले लोग देश का भला कर ही नहीं सकते. भले ही वे किसी भी राजनितिक विचारधारा के पोषक हों. अनपढ़ अयोग्य हाथों में जिम्मेदारी देना भी असहिष्णुता ही है, किन्यु कोई करे क्या? ये परम्परा बन गयी है. कांग्रेस हो भाजपा, सपा हो या बसपा सभी को अनपढ़ लोग चाहिए, क्योंकि ऐसे लोग कुर्सी के लिए खतरा नहीं होते. जिस देश में वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, कलाकारों और साहित्यकारों को राजनीति के चश्मे से देखा जाता है वहां कभी भी सहिष्णुता राजनीति का स्थायी भाव कैसे बन सकती है. इसलिए जनता को भी चाहिए की वो दोषियों को अपनी अदालत में खड़ा देखे तो तुरत-फुरत न्याय करे. अदालतों में तो उनका फैसला सालों-साल तक नहीं हो पाता. त्वरित न्याय से शायद सहिष्णुता बच जाए?

  • रहने भी दो दादा, अपने पितृ पुरषों को ब्रेन डैड घोषित करने वाले आपकी सीख पर क्यों ध्यान देंगे?

    राकेश अचल 

    देश के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी देश की सरकार को समझा-समझा कर थक चुके हैं लेकिन सरकार समझने के लिए तैयार ही नहीं है. दादा प्रणब मुखर्जी की दिक्कत ये है की वे देश के राष्ट्रपति हैं और बीते पांच दशकों से किसी न किसी रूप में देश की सेवा करते आ रहे हैं, इसलिए जब सरकार को भटकते देखते हैं तो हटक देते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं की जो सरकार अपने पितृ पुरषों को ब्रेन डैड घोषित कर चुकी है,वो उनकी सीख पर क्यों ध्यान देने लगी?

    विज्ञान भवन में दिल्ली हाईकोर्ट के स्वर्ण जयंती समारोह को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने  एक बार फिर केंद्र  सरकार को चेताया और इशारों-इशारों में कहा कि -'असहिष्णुता से भारी नुकसान हो रहा है. प्रणब ने शनिवार को कहा कि सबको आत्मसात करने और सहिष्णुता की अपनी शक्ति के कारण ही भारत समृद्ध हुआ है. विविधता भारत की ताकत है और हमें हर कीमत पर इसकी रक्षा करनी है.'उन्होंने कहा कि भारत तीन जातीय समूहों - भारोपीय, द्रविड़ और मंगोल के 1.3 अरब लोगों का देश है. यहां 122 भाषाएं और 1,600 बोलियां बोली जाती हैं. यहां सात धर्मों के अनुयायी हैं.वे इससे पहले भी सरकार  को सहिष्णुता का पाठ पढ़ा चुके हैं.

    इस मुद्दे पर देश के साहित्यकारों, इतिहासकारों, कलाकारों और वैज्ञानिकों के गोलबंद होने के बाद से राष्ट्रपति ने तीसरी मर्तबा सरकार को टोका है. ख़ास बात ये है की राष्ट्रपति जी अपनी सीमाओं में रहते हुए अपने मन की बात कहते जा रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं की राष्ट्रपति जी की पृष्ठभूमि कांग्रेस की है. उनकी नियुक्ति कांग्रेस के शासनकाल में हुयी, वे देश के प्रधानमंत्री बनने के अपने सपने को तिलांजलि देकर राष्ट्रपति बने बावजूद उन्होंने अपने पद की गरिमा और प्रतिष्ठा को कभी आंच नहीं आने दी. शायद यही वजह है की बार-बार की टोका-टाकी के बाद भी भाजपा और उसके इतर भाजपा का कोई दूसरा शुभचिंतक कुछ बोलने की स्थित में नहीं है. वर्ना भाजपा के पास स्वामियों, संतों, महंतों की कोई कमी नहीं है.

    राष्ट्रपति से पहले देश के रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी इसी मुद्दे को रेखांकित करते हुए अपने मन की बात सबके सामने रखी. अब सरकार धर्मसंकट में है की असहिष्णुता के मुद्दे से वो अपने आप को कैसे अलग करे? देश में जब तक सरकार बचाव के लिए कोई रास्ता तलाश करती है तब तक कोई नई वारदात सामने आ जाती है. इसके पीछ कोई साजिश नहीं है लेकिन ये सरकार की बदनसीबी है की वो देश को इस बारे में कोई सन्देश साफ़ तौर पर दे ही नहीं पा रही है. देश में असहिष्णुता के लिए सरकार या सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी भले ही सीधे तौर पर जिम्मेदार न हों किन्तु उनके मौन से आशंकाएं लगातार गहरी होती जा रही हैं. एक ख़ास विचारधारा के लोगों को किनारे कर भी दिया जाये तो अब आम जनता को भी लगने लगा है की सहिष्णुता और असहिष्णुता का मुद्दा हवा-हवाई नहीं है. कहीं न कहीं कुछ तो पक रहा है?

    अब इस मुद्दे पर हम उम्मीद ही कर सकते हैं की सरकार राष्ट्रपति जी की चिंताओं को समझेगी और इस दिशा में जरूरी कदम जल्द से जल्द उठाएगी. न भी उठाये तो कोई सरकार को इसके लिए विवश तो नहीं कर सकता. राष्ट्रपति जी भी नहीं, क्योंकि सरकार प्रचंड बहुमत से चुनी गयी सरकार है, जोड़-तोड़ की सरकार नहीं है, भले ही सरकार को देश के ३३ फीसदी मतदाताओं ने ही क्यों न चुना हो? देश में इससे पहले भी ऐसे अनेक अवसर आये हैं जब राष्ट्रपतियों ने अपनी 'रबर स्टाम्प' की छवी से हटकर विवादास्पद मुद्दों पर अपनी राय सार्वजनिक कर सरकार को अपने फैसलों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया, हालांकि उस समय भी देश में ताकतवर सरकारें हुआ करतीं थीं.

  • वैचारिक असहिष्णुता के शिकार है मोदी ?

    राकेश अचल

    वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पहली बार सच्ची बात कही है, जेटली का कहना है की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कांग्रेस, वाम विचारकों की ‘वैचारिक असहिष्णुता’ का शिकार बनाये जा रहे हैं उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री 2002 से इस तरह की असहिष्णुता से सबसे ज्यादा पीड़ित रहे हैं। वित्त मंत्री ने भाजपा के सत्ता में होने के विचार को कभी बौद्धिक रूप से स्वीकार नहीं करने वालों पर प्रहार करते हुए उन पर संगठित दुष्प्रचार के जरिये भारत को असहिष्णु समाज के रूप में पेश करने की कोशिश करने का आरोप लगाया।

    देश में असहिष्णुता के वातावरण को लेकर बुद्धिजीवियों के प्रदर्शन के बीच जेटली ने भारत और वर्तमान सरकार के हर शुभचिंतक से ऐसे बयान नहीं देने की अपील की जो माहौल खराब करता हो और विकास में बाधा डालता हो। लेकिन सवाल ये है की जेटली की सुन कौन रहा है? भले ही जेटली अब दादरी काण्ड को दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय बताते हुए दोषियों को सजा दिलाये जाने की बात कह रहे हैं, जेटली का दुःख देखने लायक है।

    प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के हनुमान बनने का प्रयास कर रहे जेटली ने कहा कि वर्ष 2002 से ‘प्रधानमंत्री (नरेन्द्र मोदी) खुद ही इस वैचारिक असहिष्णुता के सबसे ज्यादा पीड़ित रहे हैं।’ उन्होंने कहा, ‘उनकी रणनीति के दो भाग हैं। पहला, संसद बाधित करो और ऐसे सुधार मत होने दो जिसका श्रेय मोदी सरकार को जाए। दूसरा, ढांचागत और संगठित दुष्प्रचार से ऐसा माहौल पैदा करो जिससे लगे कि भारत में सामाजिक दरार है। वे भारत को असहिष्णु समाज के तौर पर पेश करना चाहते हैं।’

    जेटली के मुताबिक़ सच कुछ और है। इस दुष्प्रचार की साजिश रचने वालों ने अपने नियंत्रण वाले विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों या सांस्कृतिक संस्थाओं में वैकल्पिक नजरियों को आगे बढने नहीं दिया। उन्होंने कहा, ‘उनकी असहिष्णुता वैकल्पिक विचाराधारा वाले बिन्दु को स्वीकार नहीं करने की हद तक है।’ मंत्री ने कहा, ‘भारत का बहुत सहिष्णु एवं उदारवादी समाज बना रहेगा। हमारे सांस्कृतिक मूल्यों में सह अस्तित्व समाहित है। भारत ने बार बार असहिष्णुता को खारिज किया है। यह उकसावे पर प्रतिक्रिया नहीं देता है।’

    असल सवाल यही है की यदि सरकार विकास को गति देना ही चाहती है तो तथाकथित असहिष्णु वातावरण को समाप्त करने के लिए कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती? क़ानून और व्यवस्था को राज्य का काम बता कर केंद्र सरकार बचना क्यों चाहती है? हरियाणा में तो भाजपा की ही सरकार है, वहां दादरी काण्ड कैसे हो जाता है, मध्यप्रदेश में एक मंत्री किसी नाबालिग भिखारी को लात कैसे मार देतीं हैं? भाजपा के साधू-संत जन प्रतिनिधि सरकार की कथित सहिष्णु नीति के विपरीत बयान कैसे दे देते हैं?

    हकीकत ये ही है की देश को विकास के साथ उन तमाम समस्यायों से भी निजात चाहिए जो जनमानस को परेशान किये हैं. मंहगी दाल और प्याज ही नहीं किसान भी सहिष्णुता के अभाव में जान दे रहे हैं, कोई उन्हें ढांढस बंधने वाला नहीं है. महाराष्ट्र में सरकार की सहयोगी पार्टी ने तो असहिष्णुता के नए कीर्तिमान रचे हैं और आरोप दूसरों के सर मधे जा रहे हैं. अभी भी समय है की सरकार इस नाजुक सवाल पर सबके साथ बैठ कर रास्ता निकाले और दिनों-दिन खराब हो रहे वातावरण को सुधरने के लिए ईमानदार प्रयास करे, आरोप के बदले प्रत्यारोप लगाकर समस्या का समाधान होने वाला नहीं है. इससे तो समस्या और जटिल होती जाएगी।

  • खरीन्यूज़ की संपादक रानी शर्मा गणेश शंकर विधार्थी पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित

    भोपाल:2 नवंबर/ पत्रकारों और समाजसेवियों के गणेश शंकर विधार्थी अलंकरण समारोह में आज खरीन्यूज़ की संपादक रानी शर्मा को सम्मानित किया गया। इस अवसर पर कई अन्य समाज सेवियों और पत्रकारों को भी सम्मानित किया गया। कार्यक्रम में बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार और राज्य सूचना आयुक्त आत्मदीप ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चाहते हैं कि देश में तेज विकास के लिए जनता को जानकारी हासिल करने के अधिकार के साथ साथ सवाल पूछने का अधिकार भी दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि पत्रकार अपने कामकाज के दौरान तरह तरह के सवाल पूछते हैं, मीडिया की यही ताकत देश को सफल बनाने में सहयोगी साबित हो रही है।

    श्री आत्मदीप ने कहा कि पत्रकारों को सूचना का अधिकार अधिनियम का भी उपयोग करना चाहिए। पत्रकार भी प्रशासन की सूचनाएं जनता को देते हैं। इस कानून में भी सरकार की ही सूचनाएं जनता को दी जाती हैं। इस तरह से दोनों कार्यों का उद्देश्य एक ही है।

    पत्रकारों को उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सम्मान समारोह में श्री आत्मदीप ने कहा कि बाजार की ताकतें मीडिया के तकाजों पर हावी हो गईं हैं। इसकी वजह ये है कि पत्रकारों का प्रबोधन नहीं किया जा रहा है। अपने अनुभवों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि हमें सिखाया गया था कि पत्रकार की खबर का एक वाक्य भी समाज की शांति भंग कर सकता है। समाज में निराशा का माहौल पैदा कर सकता है। इसलिए खबर लिखने से पहले उसके सभी पहलुओं पर विचार होना चाहिए। श्री आत्मदीप ने कहा कि आज नागरिक केंद्रित सुशासन की बात पूरी दुनिया में हो रही है, इसलिए आज की पत्रकारिता को भी नागरिक केन्द्रित ही होना पड़ेगा। पहले घटनाओं को दबा दिया जाता था। अखबार उन्हें अपना नजरिया भी थोप देते थे लेकिन अब स्थितियां बदल गईं हैं। सोशल मीडिया के उदय के बाद घटनाओं को दबाना संभव नहीं रहा है। यही कारण है कि मतदाताओं की जागरूकता बढ़ाने में मीडिया अपना उल्लेखनीय योगदान दे सका है।

    विशिष्ट अतिथि डॉ. राजपाल सिंह ने कहा कि पत्रकारिता आज भी चुनौतियों से घिरी है। इसके बावजूद पत्रकार अपनी जिजीविषा से सामाजिक बदलाव की खबरें उजागर करते रहते हैं। उन्होंने कहा कि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, लहरों से डरने वालों की कश्ती कभी पार नहीं होती।

    लोकस्वामी के संपादक रजनीकांत ने कहा कि समाचार माध्यमों के विस्तार के बीच खबरें फैक्टरी वाली मशीनों की तरह बनाई जाने लगीं हैं। जबकि खबरों के पीछे छुपे सामाजिक सरोकार मीडिया की रीढ़ होते हैं।

    भोपाल चेंबर आफ कामर्स के अध्यक्ष ललित जैन ने कहा कि मीडिया का स्वस्थ संवाद देश और समाज की दिशा बदलने की ताकत रखता है। आज की पीढ़ी के पत्रकार उन विषयों पर भी संवाद कर रहे हैं जिन पर बात करना पहले फिजूल की बात माना जाता था। पहले लोग बतोलेबाजी को पत्रकारिता कह देते थे पर अब नई पीढ़ी तथ्यों की छानबीन करके सटीक खबरें भी लिख रही है।

    मध्यप्रदेश माध्यम के ओएसडी पुष्पेन्द्र पाल सिंह ने कहा कि सरदार भगत सिंह तो सामाजिक प्रतिबद्धता के चरम हैं उनके जैसा बनना संभव नहीं है। हम यदि स्व. गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत से भी प्रेरणा ले सकें तो हमारा जीवन सार्थक हो जाएगा। उन्होंने कहा कि आज की पत्रकारिता में स्व. विद्यार्थी की पत्रकारिता को जीवित रखने का प्रयास नहीं हो रहा है। पत्रकारिता का नाता विचारों से टूट सा गया है वह केवल समाचारों के प्रेषण तक सीमित रह गई है।

    आयोजन समिति की ओर से खरी न्यूज की संपादक रानी शर्मा, चेतना रतलाम के ब्यूरो प्रमुख दिनेश जोशी, एएनआई के आर.सी.साहू, स्वदेश के ओ.पी. श्रीवास्तव, हिंदुस्थान समाचार के मयंक चतुर्वेदी,  सूरी रिपोर्टर के प्रदीप सूरी, विदिशा के पत्रकार श्याम चतुर्वेदी, हरदा के डी.एस.चौहान, इंदौर के प्रकाश जोशी,  राज एक्सप्रेस के फोटो पत्रकार शिवनारायण मीणा, दैनिक जागरण के फोटो पत्रकार पृथ्वीराज सिंह, दैनिक भास्कर के फोटो पत्रकार एल.सी.वर्मा, नवभारत के फोटो पत्रकार असरफ अली, क्राईम हलचल के फोटो पत्रकार योगेन्द्र शर्मा, दैनिक राज एक्सप्रेस के मदन मोहन दुबे, बंसल न्यूज की सुश्री कोमल शर्मा, यलगार टाई स के राजेश सक्सेना, अखंड दूत के रघुवीर प्रसाद मालवीय, राजकुमार सोनी, सीहोर के मुकेश पंवार, मधु संदेश के कृष्णकांत परवाल, नवीन सामाजिक शोध के राजेन्द्र सक्सेना, सिटी न्यूज के वैभव गुप्ता, मेहर विचार के संपादक यतीश बड़ोनिया को उनकी उत्कृष्ट पत्रकारिता के लिए सम्मानित किया गया। शाल, श्रीफल, स्मृतिचिन्ह, प्रशस्तिपत्र एवं पुष्पहार भेंट कर सम्मानित किया गया। समाज सेवा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले समाजसेवियों सर्वश्री ललित जैन, धर्मेन्द्र वर्मा, राधेश्याम अग्रवाल, रागिनी त्रिवेदी को भी इस अवसर पर गणेश शंकर विद्यार्थी समाजसेवी अलंकरण से सम्मानित किया गया।

    कार्यक्रम का शुभारंभ में अतिथिद्वय ने माँ सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्जवलित कर किया। महासचिव रानी यादव एवं प्रेमा नेगी ने अतिथियों को बैच लगाये। संस्था अध्यक्ष ओम प्रकाश हयारण, सलाहकार मनमोहन कुरापा, कार्यक्रम सचिव दीपक शर्मा, सचिव अशोक द्विवेदी, नीतू गुप्ता, भावना सक्सेना, राज ठाकरे, मोहन माहेश्वरी ने अतिथियों का पुष्पहारों से स्वागत किया। अध्यक्ष ओम प्रकाश हयारण, कार्यक्रम सचिव दीपक शर्मा ने अतिथियों को स्मृति चिन्ह भेंट किये। आयोजन समिति के सर्वश्री आलोक सिंघई, विमल भंडारी, विवेक बजाज, मुकेश अवस्थी, श्याम हयारण, तनवीर कुरैशी, उपेन्द्र तोमर, रानी यादव, प्रेमा नेगी, समेत बड़ी संख्या में गणमान्य लोग भी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन राजधानी के सुप्रसिद्ध उद्घोषक विमल भंडारी ने किया। आभार प्रदर्शन कार्यक्रम संयोजक दीपक शर्मा ने किया।

  • व्यापमं घोटाले की सीबीआई जाँच का सच

    राकेश अचल

    जिस व्यापमं घोटाले की वजह से भाजपा सरकार की भोपाल से दिल्ली तक मिटटी पलीद हुयी उसी व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच की हकीकत अब सामने आने लगी है, सूबे की सरकार सीबीआई को न दफ्तर के लिए जगह देती है और न पीआरवी करने के लिए वकील, सरकार चाहती ही नहीं की व्यापमं घोटाले का सच दुनिया के सामने आये और असली दोषियों को सजा मिले.

    व्यापमं घोटाले की जांच में सीबीआई से असहयोग का आरोप अगर कांग्रेस के नेता लगाएं तो मुमकिन है की उन्हें गलत और राजनीति से प्रेरित माना जाये लेकिन जब खुद सीबीआई ऐसे आरोप हलफनामे के साथ उच्च न्यायालय में लगाये तो कहने को कुछ शेष नहीं रहता. सीबीआई ने वकीलों की कमी की वजह से ट्रायल के अनेक मामलों की जांच अपने हाथों में नहीं ली. सीबीआई 185  मामलों में से अभी केवल 112  मामलों की जांच कर रही है, शेष को उसने हाथ में नहीं लिया क्योंकि उसके पास आावश्यक संख्या में वकील नहीं है. सीबीआई ने प्रदेश सरकार से इस बारे में लिखापढ़ी भी की लेकिन सरकार ने वकीलों की नियक्ति का काम प्रक्रिया में उलझा लिया.

    आपको याद होगा की पहले व्यापमं घोटाले की जांच एसआईटी कर रही थी, मप्र उच्च न्यायालय की निगरानी में चल रही ये जांच बाद में बड़ी जद्दो-जहद के बाद सीबीआई को सौंपी गयी थी इस घोटाले में प्रदेश सरकार के एक मंत्री लक्ष्मी नारायण शर्मा के अलावा सैकड़ों आरोपी जेल में हैं, कुछ को जमानत मिली है लेकिन बाकी अभी भी साल-डेढ़ साल से जमानत का इन्तजार कर रहे हैं, लेकिन जमानत के इन मामलों में पैरवी कौन करे, क्योंकि सरकार ने अब तक सीबीआई को वकील ही नहीं दिए. जाहिर है की सरकार इस मांमले की जांच में अड़ंगा डाल आरही है. अगर ऐसा न होता तो पहले सीबीआई को काम करने के लिए स्थान देने में आनाकानी न की जाती.

    व्यापमं घोटाले की जांच सीबीआई की जांच शुरू होने के बाद भी अनेक रसूखदार आरोपी अभी भी गिरफ्त से बाहर हैं, कुछ जमानत पर बाहर आकर मामले को कमजोर करने के अभियान में शामिल हो गए हैं जिन्हें जमानत मिली है उन्हें भी सरकार की कृपा का फल मिला माना जा रहा है, और जो जमानत से वंचित हैं उनके लिए भी सरकार ही काम कर रही है. सरकार ने मांमले की जांच के चलते व्यापमं का नाम बदल कर अदालत की अवमानना का गुनाह भी कर डाला.

    इस मामले में सरकार और सरकार के विधि मंत्री मौन साध कर बैठे हैं, उन्हें न अदालत की चिंता है और न जनता की, प्रतिपक्ष से तो डरना सरकार कब का छोड़ चुकी है, मडिया मैनेजमेंट में सरकार पहले से सिद्धहस्त है ही. सरकार ने अब पत्रकारों की कलम की धार मौतहरी करने के लिए अब सीधे मीडिया मालिकों को साधना शुरू कर दिया है, विज्ञापन नीति ऐसी बना दी है की छोटे और मझोले अखबार, पत्रिकाएं और चैनल बंद होने के कगार पर हैं.

  • चिनार के पत्तों की खड़खड़ाहट का अर्थ

    राकेश अचल

    पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत इंदिरा गांधी के निकट सहयोगी रहे एमएल फोतेदार ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर खुलेआम सवाल खड़े किए हैं, मै माखनलाल फोतेदार से निजी रूप से दो-तीन बार मिला हूँ और इसलिए कह सकता हूँ की कांग्रेस के मौजूदा युवा नेता राहुल गांधी के बारे में उनके आकलन को झुठलाया नहीं जा सकता. माखनलाल जी को अब कांग्रेस से ज्यादा कुछ लेना-देना नहीं है लेकिन वे कांग्रेस के बारे में यदि कुछ कहते हैं तो उस पर विचार किया जाना चाहिए.

    फोतेदार ने अपनी पुस्तक 'चिनार लीव्स' में कहा है कि यह केवल समय की बात है कि पार्टी के अंदर इसे कब चुनौती मिलती है उन्होंने लिखा है कि राहुल अपने पिता की ही तरह राजनीति नहीं करना चाहते और उनकी सीमाएं हैं और उन्हें उनके पिता की तरह इस काम के लिए तैयार नहीं किया गया है जैसा कि उनके पिता को स्वयं इंदिरा गांधी ने तैयार किया था.

    केंद्रीय मंत्री रह चुके फोतेदार पहले ऐसे कांग्रेस के दिग्गज नेता हैं जिन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया की आलोचना करते हुए कहा कि उनमें कई गुण होने के बावजूद राजनीतिक प्रबंधन की कमी है और राहुल को आगे बढ़ाने की उनकी इच्छा से पार्टी के अंदर समस्याएं खड़ी हुई हैं. राहुल के कांग्रेस की सत्ता संभालने के समय को लेकर चल रही चर्चा के बीच फोतेदार ने कहा है कि राहुल में कुछ अड़ियलपन है और नेता बनने की उनकी प्रेरणा बहुत मजबूत नहीं है. उन्होंने कहा, राहुल गांधी का नेतृत्व इस देश के लोगों को स्वीकार्य नहीं है और सोनिया गांधी का बेहतरीन समय पीछे छूट गया है. पार्टी को नेतृत्व देने वाला कोई नहीं है. इसने सीखना छोड़ दिया है.

    ये शायद माखनलाल फोतेदार ही कह सकते हैं की सोनिया ने, संसद के दोनों सदनों में विपक्षी नेताओं की नियुक्ति में इसने गलत चुनाव किए हैं. विधानसभा चुनावों में चुनौतियों से निपटने में इसने गलत विकल्प चुने. वास्तव में पार्टी ने कुछ भी सही नहीं किया है या नहीं कर रही है. फोतेदार को दुख है कि नेहरू, इंदिरा की विरासत इतने निचले स्तर पर पहुंच गई है.

    फोतेदार ने लिखा है कि चूंकि सोनिया गांधी खुद ही पार्टी की निर्विरोध नेता हैं इसलिए यह उनकी जिम्मेदारी है कि पार्टी में बदलाव लाएं. उन्होंने कहा कि किसी तरह से भी राहुल को जिम्मेदार ठहराना कांग्रेस अध्यक्ष से जिम्मेदारी हटाकर किसी और को देना है जिसने अभी तक अपने नेतृत्व कौशल का प्रदर्शन नहीं किया है. कांग्रेस नेता ने कहा, इतिहास खुद को दोहराने की चेतावनी दे रहा है. वे कहते हैं की-यह समय की बात है कि कब सोनिया और राहुल के नेतृत्व के समक्ष चुनौती मिलती है. मैं देखता हूं कि वे इस चुनौती से कैसे पार पाते हैं क्योंकि सोनिया इंदिरा नहीं हैं और राहुल संजय नहीं हैं. नेहरू-गांधी परिवार के पूर्व वफादार ने सोनिया के बारे में कहा कि वह इतिहास की सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस अध्यक्ष होंगी भले ही सबसे विशिष्ट नहीं हों.


    आपको याद होगा की 1998 में सोनिया जब पार्टी प्रमुख बनी थीं तो पार्टी टूटने की कगार पर थी और उन्होंने पार्टी को वहां से खड़ा किया जब पार्टी के सीटों की संख्या घटकर 116 रह गई थी. फोतेदार ने कहा कि दुखद बात है कि 16 वर्ष बाद पार्टी फिर बिखरने की तरफ है और बहरहाल इस बार कोई बचाने वाला नहीं है.

    फोतेदार अब भी सीडब्ल्यूसी के सदस्य हैं. उन्होंने कहा, राहुल को ज्यादा काम करने की जरूरत है और शीर्ष पद के लिए मेहनत करना होगा. राहुल को सिखाने के लिए भी कोई नहीं है. सोनिया गांधी इंदिरा गांधी नहीं हैं और उन्हें क्या करना चाहिए इसके लिए वह खुद ही कई लोगों पर निर्भर हैं. उनको सलाह देने वाले कई लोग कई मुद्दों पर उतने ही अनभिज्ञ हैं जितना वह खुद हैं. फोतेदार ने लिखा है, राहुल में कुछ अड़ियलपन है और नेता बनने की उनकी इच्छा मजबूत नहीं है. सोनिया गांधी के आसपास के लोग गुपचुप तरीके से नहीं चाहते कि वह सफल हों क्योंकि उनका मानना है कि अगर राहुल नेता बन गए तो वे खुद ही अप्रासंगिक हो जाएंगे. उन्होंने कहा है, सोनिया के समक्ष स्थिति यह है कि एक तरफ तो वह अपने आसपास के लोगों के बगैर काम नहीं कर सकतीं वहीं वह राजनीति में अपने बेटे को सफल बनाने की इच्छा रखती हैं.

    फोतेदार का आकलन है कि राहुल के चारों तरफ काफी संख्या में निहित स्वार्थ वाले लोग हैं और विचारों की लड़ाई में कांग्रेस के पतन के लिए सोनिया जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने कहा, सोनिया में कई गुण हैं लेकिन उनमें राजनीतिक प्रबंधन का गुण नहीं है. समय के साथ उन्होंने जो हासिल किया उन्हें वह इसलिए बरकरार नहीं रख सकीं कि या तो उनमें कौशल की कमी है या जिन लोगों से वह सलाह लेती हैं उनमें इसकी कमी है. परिणाम यह हुआ कि पार्टी में बिखराव शुरू हो गया.

    फोतेदार की किताब ऐसे समय आई है जब कांग्रेस के बुरे दिन चल रहे हैं, अब ये कांग्रेस पर है की वो अपनी पार्टी के एक अनुभवी नेता के इशारों को समझ कर अपने आप में बदलाव करे या फिर फोतेदार को भी पूरी तरह खारिज कर दे. दूसरे दल तो फोतेदार की टिप्पणियों का अपने तरीके से इस्तेमाल करेंगे ही.

  • मध्यप्रदेश में किसानों के बहाने मंत्रियों- अधिकारियों की मौज-मस्ती

    राकेश अचल

    मध्यप्रदेश के आपदा ग्रस्त किसानों के हालचाल जानने के लिए सूबे में अफसरों की फ़ौज को दौड़ाया तो गया लेकिन ज्यादातर अफसर इस अभियान के बहाने सपरिवार मौज-मस्ती करने में जुट गए. कीर्तिमान बनाया लोनिवि के प्रमुख सचिव प्रमोद अग्रवाल ने, अग्रवाल ने सपरिवार खजुराहो के रेडिएंस होटल में डेरा जमाया और पत्रकारों से बात करने से इंकार कर दिया. किसानों के बीच पहुंचे मंत्री भी किसानों के घावों पर मरहम लगाने के बजाय उन पर नमक छिड़क कर चले आये.

    दतिया कलेकटर द्वारा विभाग के एक कार्यपालन यंत्री को पीते जाने के विरोध में विभाग में चल रही हड़ताल से आजिज लोनिवि के प्रमुख सचिव प्रमोद अग्रवाल को बुंदेलखंड के किसानों से मिलने भेजा गया था, उन्होंने किसानों से मिलने की खानापूरी कर सीधे होटल का रास्ता पकड़ा, स्थानीय पत्रकारों ने उनसे बात करना चाही लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया क्योंकि उनके बीबी-बच्चे घूमने के लिए उनका इंतजार कर रहे थे.

    लोनिवि के मंत्री सरताज सिंह ने भी किसानों को राहत के बारे में टका सा जबाब दिया की इस बारे में मुख्यमंत्री जी से पूछिए, वे ही बताएँगे की राहत कब और कितनी मिलेगी? रायसेन के दौरे पर गए सूबे के सबसे उम्रदराज मंत्री बाबूलाल गौर ने तो किसानों से साफ़ कह दिया की वे अपने जिले के मंत्री से बात करें, वे भारीभरकम मंत्री हैं. भिंड जिले में कभी गाजीराम मीना की टूटी बोलती थी उन्हें किसानों के गुस्से से बचने के लिए पुलिस की मदद लेना पड़ी. कुछ ने ग्वालियर में ऐतिहासिक दुर्ग देखकर थकान मिटाई. एक मैडम ने तो किसानों को ही चोर बता कर कह दिया की वे कर्ज नहीं पटाते और आत्महत्या करने लगते हैं पिपरिया और सुहागपुर के किसानों ने तो मुख्यसचिव के सामने ही बिजली आपूर्ति की झूठी कहानी की पोल खोल दी.

    प्रदेश में आपदाग्रस्त किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं से परेशान मुख्यमंत्री खुद किसानों के बीच जाकर उन्हें सांत्वना दे रहे हैं लेकिन उनका अमला तो जैसे किसानों को अपमानित कर उनके जख्म कुरेदने पर आमादा है.अफसरों को किसानों के बीच जाना जैसे बेगार लग रहा है. मुख्यमंत्री जितने संवेदनशील दिखाई देते हैं उनका अमला उतना ही हृदयहीन. ऐसे में प्रदेश के किसानों को भगवान ही बचाये?

खरी बात

ऐसे गंभीर और क्रूर समय में क्या चुप बैठ जाना ही एक मात्र रास्ता बचा है?

राकेश अचल विरोध का कोई तरिका सरकार को मंजूर नहीं, विरोध करना अब अचानक राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध हो चला है. सरकार के किसी फैसले, चाल-चलन के बारे में कोई भी...

आधी दुनिया

महिलाओं ने बदल दी एक गांव को पहचान

असम में नलबाड़ी जिले से 20 किलोमीटर दूर स्थित चतरा गांव की पहचान को यहां की महिलाओं ने अपनी एकजुटता और मेहनत से बदल दिया है। बोडो समुदाय बहुल यह...