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चुने और गैर चुने लोगों के बीच छलनी होता लोकतंत्र Featured

पुण्य प्रसून बाजपेयी

यह सच है कि मौजूदा वक्त में जैसे जैसे सम्मान लौटाने का सिलसिला बढ़ता जा रहा है और असहिष्णु होते सामाजिक वातावरण को लेकर राष्ट्रपति से लेकर आरबीआई गवर्नर तक ने चिंता व्यक्त की है, उससे यह सवाल तो उठने ही लगे हैं कि आखिर अंत होगा क्या। क्या दुनिया भर में विकास की जिस थ्योरी को मोदी सरकार परोस रही है, उसमें फिसलन आ जायेगी । जैसा मूडीज ने संकेत देकर कहा या फिर देश के भीतर राजनीतिक शून्यता कहीं तेजी से उभरेगी। जैसा कांग्रेस के लगातार कमजोर होने से उभर रहा है। या फिर संघ परिवार कहीं ज्यादा तेजी के साथ उभरने का प्रयास करेगा, जिसके लिये हर हथियार सरकार ही मुहैया करायेगी। जैसा पीएम के बार बार रोकने के बावजूद कट्टर हिन्दुत्व के डराने वाले बोल बोले जा रहे हैं।

वाकई मौजूदा हालातों की दिशा हो क्या सकती है इसके सिर्फ कयास ही लगाये जा सकते हैं। जो मोदी विरोधियों को खतरनाक दिखायी देगी तो मोदी समर्थको या कहें स्वयंसेवकों की टोली को सामाजिक शुद्दीकरण की तरह लगेगी। खतरनाक इसलिये क्योंकि पहली बार सवाल यह नहीं है कि हालात पहले भी बदतर हुये हैं तो इस बार के बिगड़े हालात को लेकर चिंता क्यों। बल्कि खतरनाक इसलिये क्योंकि राजनीतिक सत्ता को ही राष्ट्रवाद से जोड़ा जा रहा है। यानी एक तरफ यह संकेत जा रहा है, आप सरकार के साथ नहीं है तो आप देश के विकास के साथ नहीं है दूसरी तरफ राजनीतिक सत्ता यह मान कर चल रही है कि संसदीय लोकतंत्र का मतलब ही राजनीतिक सत्ता का पांच बरस के लिये निरकुंश होना है। तो सत्ता के खिलाफ गुहार किससे की जाये यह भी सवाल है। वहीं स्वयंसेवकों के जहन में यह सवाल है कि जब संविधान के तहत संसद ही आखिरी सत्ता देश में है जिसके पास अपरंपार अधिकार है तो फिर वोट देने वाले नागरिकों ने संघ परिवार की विचारधारा को मान्यता दे दी है। तो अब सवाल सिर्फ संघ की विचारधारा को देश में लागू कराने का है। जिसमें नौकरशाही से लेकर पुलिस और संवैधानिक संस्था से लेकर गली-मोहल्लों के वह संगठन भी सहायक होंगे जो हिन्दुत्व के आइने में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को देखते हो।

यानी जिसने विरोध किया वह राष्ट्रहित के खिलाफ है। और जिसने समर्थन किया उसे हिन्दुत्व की समझ है। फिर किसी भी हालात को लागू कराने की भूमिका सबसे बड़ी पुलिस की हो जाती है और दिल्ली जैसी जगह में अगर हिन्दू सेना के एक व्यक्ति की शिकायत पर दिल्ली पुलिस केरल हाउस में घुसकर कानूनन नागरिकों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ करती है और बाद में सॉरी कहकर बचना चाहती है तो कुछ नये सवाल तो मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से टकरा रहे हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। चूंकि टकराव या मत-भिन्नता की समझ देश में सत्ता परिवर्तन के साथ ही पैदा हुई है । तो यह सवाल भी स्वयंसेवकों में उठना जायज है कि सत्ता परिवर्तन सिर्फ सरकार का बदलना भर नहीं है बल्कि विचारधारा में भी बदलाव है तो विरोध समाज के उस अल्पसंख्यक समुदाय की तरफ से हो रहा है जिनके हाथ से सत्ता निकल गई। और सत्ता रहने के दौरान सत्ता के दरबारियों को जो मलाई मिल रही थी वह बंद हो गई तो उन्होने ही विरोध के स्वर तीखे और तेज कर दिये।

तो सवाल तीन है । पहला क्या 2014 में राजनीतिक सत्ता में बदलाव विचारधारा के मद्देनजर हुआ। दूसरा, जब बीजेपी के चुनावी मैनिफेस्टो में विचारधारा का जिक्र तक नहीं किया गया तो फिर मोदी के पीएम बनते ही विचारधारा से जुड़े सवाल सरकार चलाने के दौर में विकास सरीखे मुद्दों पर हावी क्यों हो गये। और तीसरा, क्या 2014 के जनादेश ने राजनीतिक सत्ता को इतनी ताकत दे दी कि देश में समूचा संघर्ष ही राजनीतिक सत्ता को पाने से जुड़ चुका है । बहस तीसरे सवाल से ही शुरु करें तो 2014 लोकसभा चुनाव के बाद लगातार महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में भी सत्ता परिवर्तन की 2014 की ही मोदी लहर को और हवा मिली। इसलिये शुरुआती बहस ने मोदी सरकार को ही यह ताकत दे दी कि वह चकाचौंध के विकास से लेकर न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने के सवाल पर जैसे चाहे वैसे पहल करें। क्योंकि हर राजनीतिक दल इस दौर में कमजोर होता दिखा। कांग्रेस ढही तो तीसरे मोर्चे के नेता पारपरिक राजनीति करते दिखायी दिये जो जाति-धर्म पर सिमटी थी। यानी 2014 का जनादेश चाहे-अनचाहे देश के बहुसंख्यक तबके के उस सपने से जा जुडा, जहां भ्रष्टाचार खत्म होना था । सामाजिक असमानता दूर होनी थी । चंद राजनीतिक हथेलियों पर सिमटे भारत को ताकतवर कारपोरेट के हाथों से निकलना था। चापलूसी और मुस्लिम तुष्टीकरण को खारिज कर सबका साथ सबका विकास करना था।

ध्यान दें तो सत्ता के बदलाव में परिवर्तन की एक ऐसी लहर किसी सपने की तरह हर जहन में घुमड़ने लगी। बदलाव के इसी सपने में नया ताना-बाना दिल्ली चुनाव में केजरीवाल को लेकर जनता ने ही बुना। केजरीवाल राजनीति करने के तौर तरीको को बदल सकते है। यह सोच भी पैदा हुई । यानी एक तरफ मुश्किल हालातो से निकलने की जद्दोजहद तो दूसरी तरफ राजनीति करने के तौर तरीको में ही बदलाव की ईमानदार शुरुआत। लेकिन दोनों हालात पर संसदीय लोकतंत्र की चुनावी जीत की उलझन कितना मायने रखती है, यह हर स्तर पर नजर आया। केजरीवाल राजनीतिक सुधार की जगह गवर्नेंस के नाम पर उलझे। क्योंकि वोटरों की जरुरतों को पूरा करना ही उन्हें सत्ता में बनाये रख सकती है। यह सोच हावी हुई । तो नरेन्द्र मोदी भी चुनावी जीत के लिये अपनाये जाने वाले हर हथियार पर ही आश्रित होते चले गये। क्योंकि चुनावी जीत उसी जनता के बहुसंख्यक हिस्से की मुहर होती है जिस जनता के सामने मोदी सरकार को लेकर सवाल है।

वजह भी यही है कि सम्मान लौटाना सही है या नहीं। सम्मान लौटाने वाले वाकई कांग्रेसी-वामपंथी सोच के दरबारी है या नहीं। असहिष्णुता का सवाल लेखकों, साहित्यकारो, फिल्मकारो, इतिहासकारो या वैज्ञानिको की एक जमात ने पैदा कर प्रधानमंत्री के खिलाफ ही असहिष्णुता दिखायी है या वाकई प्रधानमंत्री मोदी के दौर में असहिष्णुता का सवाल बहुसंख्यक नागरिकों को डरा रहा है । ध्यान दें तो बेहद बारिकी से बिहार चुनाव के जनादेश के इंतजार में सम्मान लौटाने या असहिष्णु होते समाज के सही - गलत को परखने के लिये रख दिया गया है । हो सकता है बिहार में बीजेपी चुनाव जीत जाये तो संघ परिवार के पंखों को देश में और विस्तार मिलेगा। स्वयंसेवको में हिम्मत आयेगी । मोदी सरकार अपने उपर लगाये जाते आरोपो को ही गुनहगार ठहरा देगी। लेकिन बीजेपी हार गयी तो क्या सम्मान लौटाना सही मान लिया जायेगा। या फिर असहिष्णुता का सवाल थम जायेगा। मोदी सरकार या संघ की उडान रुक जायेगी।

जाहिर है जनादेश कुछ भी हो सिवाय राजनीतिक सत्ता की जीत के अलावे कुछ होगा नहीं। बिहार के भीतर की एक बुराई को दूसरी बुराई ने ढंक लिया। तो यह बिहार को तय करना है कि उसे कौन सी बुराई कम लगती है। लेकिन चुनावी तौर तरीको से सत्ता पाना ही जब बुराई के हाथो में राजनीतिक सत्ता देना हो तो जनता करे क्या। और राजनीतिक सत्ता ही संविधान की मर्यादा तोडने की हिम्मत दिखा पाती हो तो जनता क्या करें। यह सवाल इसलिये क्योकि लालू यादव की पहचान प्रधानमंत्री मोदी ने जंगल राज से जोड़ी। खुलकर लालू के दौर पर वार किया । लेकिन इसी संकट का दूसरा चेहरा महाराष्ट्र से निकला। जहां बीजेपी और शिवसेना एक साथ सत्ता में रहते हुये भी कुछ एसे टकराये कि शिवसेना के मोदी में विकास पुरुष की छवि नहीं बल्कि गोधराकांड और उसके बाद अहमदाबाद समेत समूचे गुजरात में हुये दंगों की छवि दिखायी दी । जिसपर शिवसेना को भी गर्व रहा । फिर शिवसेना जिस तरह मुबंई में वसूली करती है और गुजराती व्यापारी भी शिवसेना के निशाने पर आते रहे है तो प्रधानमंत्री को अगर शिवसेना गोधरा से आगे देख नहीं पाती तो प्रधानमंत्री मोदी भी शिवसेना को हफ्ता वसूली करने वाली पार्टी से ज्यादा उसी महाराष्ट्र के चुनाव में मान नहीं पाये जिस चुनाव के जनादेश के बाद बीजेपी-शिवसेना ने मिलकर सत्ता संभाल ली ।

हम कह सकते है राजनीतिक सत्ता मौजूदा वक्त में इतनी ताकतवर हो चुकी है कि छोटी बुराइयो को ढंक कर बडी बुराई के साथ खडे होने में किसी भी सत्ताधारी को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह लालू-नीतिश की जोडी से भी हो सकता है और कश्मीर में मुफ्ती सरकार के साथ मिलकर बीजेपी के सत्ता चलाने से भी। क्योंकि इस दौर में विचारधारा पर भी सत्ता भारी है। और सत्ता ही सत्ता के लिये जब कोई विचारधारा नहीं मानती तो फिर अगला सवाल यह हो सकता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अब सत्ता बनाये रखने के रास्ते पर चल पड़ी है और मोदी सरकार का विरोध करने वालो को अगर संघ की विचारधारा का एजेंडा देश में छाता हुआ दिख रहा है तो यह उनकी भूल है । क्योकि हालात को अगर परखे तो आरएसएस के लिये मोदी सरकार का बने रहना और विस्तार होना आज की तारिख के लिये उसके अपने अस्तित्व और विस्तार से जा जुडा है ।

याद किजिये तो मनमोहन सरकार के दौर में समझौता ब्लास्ट हो या मालेगाव धमाका । पहली बार मनमोहन सरकार ने हिन्दु आंतकवाद का जिक्र किया । निसाने पर संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक थे। सवाल यह भी उठने लगे थे कि क्या सरसंघचालक तक भी हिन्दू तर्कवाद की आंच को मनमोहन सरकार ले जायेगी। जाहिर है मौजूदा वक्त में मोदी के पीएम रहते हुये संघ को सबसे बड़ी राहत है क्योंकि पीएम ना सिर्फ खुद को स्वयंसेवक कहने से नहीं कतराते बल्कि पहली बार सरकार का मतलब ही प्रधानमंत्री मोदी है। यानी हालात वाजपेयी के दौर के एनडीए सरकार के नहीं है। जब सत्ता में कई ध्रूव थे और संघ के अनुकूल हालात बन नहीं पा रहे थे। या फिर संघ वाजपेयी को खारिज कर आडवाणी के जरीये हिन्दुत्व की सोच को लाता तो भी चैक-एंड-बैलेंस इतने थे कि आडवाणी भी मन की मर्जी नहीं कर पाते । लेकिन मोदी के दौर में संघ को अर्जुन की तरह सत्ता की  मछली की आंख साफ दिखायी देती है । तो सवाल सिर्फ संघ और मोदी के एक साथ खडे होने का है । इसलिये ध्यान दें तो चाहे मोदी सरकार की आर्थिक नीतियो को लेकर संघ के कई संगठनो में विरोध हो लेकिन सरसंघचालक भागवत हमेशा मोदी की तारिफ ही करते नजर आयेगें । क्योकि उन्हे भी पता है कि मोदी को निशाने पर लेने का मतलब अपने लिये ही गड्डा खोदना है । और मोदी भी बाखूबी इस सच को समझ रहे है कि सत्ता बनी रहे इसके लिये कही साक्षी महराज तो कही योगी आदित्यनाथ । या फिर कही हिन्दु सेना तो कही सनातन संस्था की भी अपनी जरुरत है।

मुश्किल तब हो रही है जब हिन्दुत्व की व्याख्या और हिन्दुत्व को जीने के तरीके से जोड़ने की प्रक्रिया में संविधान पीछे छूट रहा है और सत्ता के एक रंग अपने ही रंग में सबको रंगने के लिये पुलिस प्रशासन ही नहीं बल्कि हर संवैधानिक संस्था को भी चेताने के हालात पैदा कर रहा है कि आखिर गैरचुने हुये लोगो का निरकुंशतंत्र क्यो बर्दाश्त किया जाये । इसलिये सवाल सिर्फ गजेन्द्र चौहान के पूना इस्टीट्यूट में डायरेक्टर पद देने भर का नहीं है। सवाल है तैयारी तो देश के जजों की नियुक्ति भी गजेन्द्र चौहान जैसे ही किसी जज की तैयारी की है। आखिर में यह सवाल हर जहन में उठ सकता है आखिर 84 के सिख नरसंहार के वक्त या उससे पहले इमरजेन्सी के वक्त समाज में असहिष्णुता का सवाल इस तरह क्यों नहीं उठा। मलियाना या हाशिमपुरा के दंगों से लेकर मंडल-कंमडल के हिंसक संघर्ष के वक्त यह मुद्दा क्यों नहीं उठा। गुजरात दंगो से लेकर मुज्जफरनगर दंगों के वक्त क्या हालात बदतर नहीं थे। तो कमोवेश हर मौके समाज के भीतर घाव तो जरुर हुये। और हर दौर में राजनीतिक सत्ता ने संसदीय लोकतंत्र को छलनी भी किया सच यह भी है। लेकिन पहली बार छलनी लोकतंत्र को ही देश का सच यह कहकर ठहराया जा रहा है कि यह सत्ता परिवर्तन की क्रिया की प्रतिक्रिया है। तो रास्ता इसलिये उलझ रहा है कि लोकतंत्र में ही क्रिया की प्रतिक्रिया अगर हिंसक हो रही है। मान्यता पा रही है । तो 2019 आते आते देश में होगा क्या। और 2019 में सत्ता की जीत-हार दोनो परिस्थितियां क्या डराने वाली नहीं हैं।

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पुण्य प्रसून बाजपेयी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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