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ऐसे गंभीर और क्रूर समय में क्या चुप बैठ जाना ही एक मात्र रास्ता बचा है? Featured

राकेश अचल

विरोध का कोई तरिका सरकार को मंजूर नहीं, विरोध करना अब अचानक राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध हो चला है. सरकार के किसी फैसले, चाल-चलन के बारे में कोई भी प्रतिकूल टिप्पणी किसी को स्वीकार ही नहीं, ऐसा करने वालों को सरकार के प्रवक्ताओं की और से सीधे पाकिस्तान भेजने की अनुशंसाएं होने लगती हैं, कोई रेप की धमकी देता है तो कोई सर उतारने की. ऐसे गंभीर और क्रूर समय में क्या चुप बैठ जाना ही क्या एक मात्र रास्ता बचा है?

लगभग 68 साल के भारतीय लोकतंत्र में ये दूसरा मौक़ा है जब गलत को गलत कहने पर सजाओं का प्रावधान किया जा रहा है.1977 में ये सब ऐलानिया किया गया था, 2015 में ये सब बिना ऐलान किया जा रहा है. फर्क सिर्फ इतना है की अभी जेलें नहीं भरी गयीं हैं, धमकियों और अनदेखियों से काम चलाया जा रहा है. जो गलत को गलत कहने की सामर्थ रखते हैं उन्हें 'ब्रेन डैड' बना दिया गया है और जो शेष हैं उन्हें राष्ट्रद्रोही बता कर पिटवाने का प्रबंध किया जा रहा है. सवाल ये है की ऐसे में बोलने वाले कहाँ जाएँ? जो नहीं बोलते वे तो सत्ता पर काबिज हैं लेकिन जो बोलते हैं वे सड़कों पर भी नहीं आ सकते. उनका बोलना अपराध है, साजिश है, प्रायोजित असहिष्णुता है और पता नहीं जाने क्या-क्या है?

कहते हैं की दूध से जला आदमी पानी भी फूंक-कर पीता है, लेकिन दूध से जला ये देश तो फिर से उबलते दूध को बिना फूंके ही पीने पर आमादा दिखाई दे रहा है, उसे जलने का भय ही नहीं है. बीस महीने जेलों में रहने के बाद दिल से सारा भय जाता रहा है जैसे? अब तो हिसाब बराबर करने की बारी है. न राष्ट्रपति की नसीहत का सम्मान किया जा रहा है और न जनता के प्रतिरोध का. सबकी अनसुनी को ही राष्ट्रधर्म बना दिया गया है. आप चाहे मार्च कीजिए, चाहे धरने दीजिये, चाहे सम्मान लौटा दीजिये आपसे कोई ये पूछने वाला ही नहीं है की-आपकी तकलीफ क्या है?

बात होगी नहीं और ऊपर से आपको देशद्रोही करार दे दिया जाएगा तब आप क्या करेंगे? देश छोड़ कर तो जाएंगे नहीं, यहीं मरेंगे, खपेंगे, चाहे लाठियां खाकर मरें, चाहे धमकियां सुनकर, मरना तय है. जीना है तो हाँ में हाँ मिलाने का हुनर सीखना पडेगा आपको. क्या आप इसके लिए तैयार हैं? अगर हैं तो आपके लिए इस देश में कोई असुविधा नहीं है. असुविधा उनके लिए है जो अपने मुंह में जबान रखते हैं. बोलना जानते हैं, प्रतिकार करने में दक्ष हैं. समय मुठ्ठी में बंद रेत की भांति हाथ से निकलता जा रहा है लेकिन कोई रास्ता नहीं निकल रहा. प्रौढ़ हो चुके लोकतंत्र के लिए ये चुनौती का समय है. दुनिया की निगाहें भारत के लोकतंत्र और उसके सहिष्णु उर असहिष्णु होने के विवाद पर लगीं हैं. दुनिया में हम ही थे जो अब तक धर्मनिरपेक्ष और संप्रभुता के साथ विविधता में एकता का दम्भ भरते हुए दुनिया को रास्ता बता रहे थे, लेकिन आज हम खुद चौराहे पर हैं, पता नहीं हमारा डंका कहाँ बज रहा है?

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राकेश अचल

लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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खरी बात

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