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अरुण कान्त शुक्ल

लेखक सामाजिक सरोकारों पर सक्रिय स्वतंत्र पत्रकार एवं साहित्यकार हैं.

अरुण कान्त शुक्ला

स्वतन्त्र भारत के इतिहास में शायद ही किसी वित्तमंत्री या उसके विभाग को बजट में किये गए प्रस्तावों में से किसी एक पर इतने स्पष्टीकरण देने पड़े होंगे, जितने अरुण जेटली और उनके वित्त मंत्रालय को कर्मचारी भविष्य निधी के 60% जमा हिस्से को आयकर के दायरे में लाने पर देने पड़ रहे हैं| जाहिर है, वित्तमंत्री और उनका मंत्रालय उनके इस कदम पर जितने भी तर्क दे रहे हैं, वे इतने बेदम हैं कि उनमें से एक भी किसी के गले उतरने वाला नहीं है|

सामाजिक सुरक्षा योजना बनाम अनिवार्य बचत योजनाओं की सच्चाई

भारत में यह एक कड़वी सच्चाई है कि वह चाहे संगठित क्षेत्र के श्रमिक, कर्मचारी हों अथवा असंगठित क्षेत्र के, उनका वेतन कभी इतना नहीं रहा कि वे अपने जीवन की रोजमर्रा की आवश्यकताओं, आकस्मिक जरूरतों और पारिवारिक तथा सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए स्वयं होकर भविष्य अथवा वर्तमान की किसी सुरक्षा के लिए अपने वेतन का 8 से लेकर 12 प्रतिशत तक हिस्सा किसी भी बचत योजना में बिना अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताओं में कटौती किये लगा सकें| यह बात कर्मचारी भविष्य निधी से लेकर अन्य हर तरह की बचत योजना पर लागू होती है| इस बात की पुष्टी के लिए एक ही उदाहरण काफी है, सरकार यदि आज जीवन बीमा, आमबीमा, चिकित्सा बीमा और इससे जुडी सभी योजनाओं से आयकर की छूट समाप्त कर दे तो सारी बीमा कंपनियों का व्यवसाय केवल अति संपन्न तबके तक सिमिट कर रह जाएगा  और उच्च मध्य वर्ग तक के लोग बीमा से किनारा कर लेंगे| इसकी पुष्टी इस तथ्य से भी होती है कि हमारे देश में लगभग 57 करोड़ लोग ऐसे हैं जो बीमा के योग्य हैं,पर, सभी जीवन बीमा कंपनियों का व्यक्तिगत जीवनों पर बीमाधारकों की संख्या पांच करोड़ से उपर नहीं है| इसका अर्थ है कि बीमा के योग्य होने के बावजूद बीमा इसलिए नहीं है क्योंकि उसे खरीदने की ताकत बाकी लोगों में नहीं है|

श्रमिक/कर्मचारी के वेतन के कुछ हिस्से को इसीलिये उनकी भविष्य की जरूरतों और सुरक्षा की दृष्टि से बचत में डालना अनिवार्य किया गया| पूंजीवादी व्यवस्था के होने के बावजूद, इस सच्चाई को महसूस किया जाता रहा कि नियोक्ता/मालिक से श्रमिक/कर्मचारियों को कभी भी श्रम का उचित (पूरा) मूल्य नहीं मिलता है| इसीलिये, नियोक्ता/मालिक को भी कर्मचारी भविष्य निधी में कर्मचारी के लिए तय न्यूनतम अंशदान के बराबर की राशी जमा करने की बाध्यता रखी गई| श्रमिक/कर्मचारी के द्वारा कर्मचारी भविष्य निधी में जमा राशी कभी भी उनकी आय का हिस्सा नहीं रही, इसीलिये उसे इस अंशदान पर आयकर से छूट भी मिली और नियोक्ता को भी तय मानदंडों के अनुसार उस एकत्रित कोष को निवेश करके आय करने की छूट रही, जिसका एक हिस्सा ब्याज के रूप में जमा राशी पर दिया जाता रहा है| इस पूरे मायाजाल का एक दिलचस्प पहलू और है| नियोक्ता/मालिक कर्मचारी भविष्य निधी में दिए गए उनके योगदान के लिए उसी प्रकार आयकर में छूट प्राप्त करते हैं, जैसे श्रमिक कर्मचारी को मिलती है| अब यदि उस एकत्रित कोष, जिसका प्रबंधन भविष्य निधी के लिए बनाया गया ट्रस्ट करता है, के 60% हिस्से पर आयकर लगाया जाता है तो श्रमिक/कर्मचारी उस मूल हिस्से और उसके ब्याज पर भी आयकर देंगे, जिस पर नियोक्ता/मालिक आयकर की छूट प्राप्त कर चुका है| याने अपने जिस हिस्से पर कर्मचारी को आयकर की छूट मिली थी, उस पर तो वह आयकर देगा ही,साथ ही उस हिस्से पर भी आयकर देगा जिसकी छूट नियोक्ता/मालिक ले चुका है| यह घालमेल कितना अनैतिक है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है|

नीयत में खोट है

सर्वप्रथम, हम बजट भाषण में कही गई इस बात को लेते हैं कि ये प्रस्ताव 1 अप्रैल 2016 के बाद जमा किये गए अंशदान पर लागू  होगा| यह सीधे सीधे श्रमिकों/कर्मचारियों में भेद करके उनकी एकता को तोड़ने वाला प्रस्ताव है| वे श्रमिक/कर्मचारी जो आनेवाले कुछ वर्षों में सेवानिवृत होने वाले हैं, यह सोचकर प्रस्ताव का विरोध करने में ढीले पड़ सकते हैं कि यह सरदर्द तो पिछले कुछ वर्षों में नौकरी पर आये तथा भविष्य में कामगार दुनिया में प्रवेश करने वालों का है क्योंकि उनको ही बड़ा नुकसान होगा| चूँकि, उन्हें (पुराने कर्मचारियों को) हानी का बड़ा हिस्सा नहीं झेलना है, अतएव वे क्यों पचड़े में पड़ें? अब यह किसी से छुपा नहीं है कि श्रम नियमों में सुधार मोदी सरकार का सबसे बड़ा एजेंडा है और इसके लिए विभाजित श्रम समुदाय सरकार को चाहिए, उसी अनुरूप ये प्रस्ताव भी है|

दूसरी बात, वित्तमंत्री का मुस्कराते हुए यह कहना है कि इस प्रस्ताव से यह फ़ायदा होगा कि निजी कंपनियों के कर्मचारी अथवा वे श्रमिक/कर्मचारी जो किसी पेंशन योजना के सदस्य नहीं हैं, उस 60% हिस्से को किसी बीमा कंपनी के एन्युटी (पेंशन) योजना में लगाकर स्वयं के लिए नियमित पेंशन का इंतजाम कर सकते हैं| यह सीधे सीधे बीमा कंपनियों के माध्यम से शेयर बाजार के जुआरियों के पास श्रमिक/कर्मचारियों की पेट काटकर की गई बचत को पहुंचाना है| यह सभी जानते हैं कि सरकार की शेयर मार्केट से जुड़ी कर्मचारी पेंशन योजना का पहले से ही श्रमिक/कर्मचारी विरोध करते आ रहे हैं, जहां उनका पैसा सदा जोखिम में रहता है| कुल मिलाकर संपन्नों के ऊपर हाथ डालने से हमेशा ही डरने वाली सरकार (चाहे वह कोई भी सरकार हो) वैश्विक मंदी में देशी/विदेशी कारपोरेट को पूंजी मुहैय्या कराने के लिए श्रमिक/कर्मचारियों की जीवन भर पेट काटकर की गयी बचत पर सेंधमारी कर रही है| बेहतर यही है कि यह श्रमिक/कर्मचारी पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि वह किस तरह अपनी गाढ़ी बचत का उपयोग/निवेश करना चाहता है|

देश की सामाजिक परिस्थितियों के बारे में समझ की कमी

सरकारें जब कभी भी गरीब-गुरबा, श्रमिक/कर्मचारी/किसानों के बारे में इस तरह के घड़ियाली प्रस्ताव लेकर आती है तो अक्सर कहा जाता है कि एयर-कंडीशन में बैठकर प्रस्ताव बनाते समय सरकार के मुखियाओं और अधिकारियों को देश में व्याप्त सामाजिक सच्चाई का कोई ज्ञान नहीं होता| वित्तमंत्री का कर्मचारी भविष्य निधी के 60% हिस्से पर आयकर लगाने का प्रस्ताव उस धारणा को एक बार पुन: पुष्ट करता है| आज के सामाजिक हालात की सच्चाई यह है कि एक नवजवान की आयु पढ़ाई पूरी करके किसी स्थायी प्रकृति के रोजगार में लगते लगते 35वर्ष के आसपास हो जाती है और जब उसके रोजगार से सेवानिवृत होने की आयु आयेगी/आती है तब उसके बाल बच्चे रोजगार की बात तो दूर पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाते हैं या कर पायेंगे| यह वह समय होता है जब उसके समक्ष स्वयं के लिए घर, बच्चों की पढ़ाई (उच्च शिक्षा), शादी के अलावा अन्य तरह की सामाजिक जिम्मेदारियां मुंह बाए खड़ी होती हैं या होंगी| इन सबसे निपटने के लिए उसे एकमुश्त बड़ी धनराशी की जरुरत होती है और वह पूरी तरह भविष्य निधी की अपनी जमा राशी पर ही निर्भर रहता है, जिसे वित्तमंत्री बजट प्रस्तावों के जरिये शेयर बाजार के लुटेरों के हवाले करना चाहते हैं| इस क्रूर सामाजिक सच्चाई से सैकड़ों करोड़ की दौलत रखने वाला वित्तमंत्री भिज्ञ नहीं हो सकता, समझ में आता है| पर, प्रधानमंत्री क्यों नहीं समझ रहे, यह समझ से परे है!

Thursday, 14 January 2016 00:00

‘अकेलेपन’ का अहसास

अरुण कान्त शुक्ला

टूट रही थी सांस 'मेरी' और जुबां सूखी थी,
तुझे नहीं पुकारा था, 'चंद बूँद' पानी की जरुरत थी,

तू इश्क को समझने में बड़ा कच्चा निकला,
मेरे लबों को नहीं, मेरे सर को तेरी गोदी की जरुरत थी,

इश्क में तू करता रहा वादे पे वादे ,
मुझे तेरे वादों की नहीं, तेरी वफ़ा की जरूरत थी,

तेरे नाले मुझसे थे तेरा माशूक था कोई और,
तुझसे इश्क मेरी गलती थी, तुझसे नफ़रत ‘उस वक्त’ की जरुरत थी,

क़यामत के रोज पूछियेगा अख़लाक़ से ‘अकेलेपन’ का अहसास,
हम प्यालों, हम निवालों के बीच अकेला, जब किसी 'अपने' की उसे शिद्दत से जरुरत थी.

अरुण कान्त शुक्ला

पठानकोट एयर बेस पर हुए फिदायीन हमले ने भारत-पाकिस्तान के संबंधों पर लगातार चलने वाली बहस को और गर्म तथा तेज कर दिया है| विशेषकर पाकिस्तान आर्मी से शह पाये आतंकवादी संगठनों द्वारा भारत में मचाये गए उत्पातों में शामिल लोगों और संगठनों के खिलाफ पाकिस्तान की नागरिक सरकार के द्वारा कोई कार्यावाही न कर पाने की असमर्थता के खिलाफ भारत में एक हार्डलाईनर समूह हमेशा सक्रिय रहा है, जो पाकिस्तान के साथ किसी भी प्रकार के राजनीतिक-सांस्कृतिक-सामाजिक तथा आर्थिक (व्यापारिक) संबंध रखने के खिलाफ रहा है| संसद भवन, अक्षरधाम,मुम्बई अथवा जम्मू-कश्मीर में आये दिन हो रहीं आतंकवादी घटनाएं जहाँ एक तरफ भारत के हार्डलाईनर्स को मदद पहुंचाती हैं जो युद्ध के अलावा अन्य कोई लालसा नहीं रखते तो दूसरी ओर पाकिस्तान की नागरिक सरकार को कमजोर करती हैं जिस पर उनकी सेना का अप्रत्यक्ष दबाव हमेशा रहता आया है|

दुर्भाग्य से, प्रधानमंत्री मोदी, जिन्होंने प्रधानमंत्री पद संभालने के पहले दिन अर्थात शपथ ग्रहण से ही, किन्ही भी कारणों से, घरेलु मोर्चे से ज्यादा समय विदेशी मोर्चे और विदेश नीति को दिया है, अपने चुनाव के दौरान और चुनाव पूर्व के कथनों से भारत के हार्डलाईनर समूह के प्रतिनिधी माने जाते रहे हैं| आज जब वे पाकिस्तान के साथ वार्ता का कोई भी प्रयास करते हैं तो घर में उनकी तीव्र आलोचना होती है| प्रधानमंत्री पद संभालने के 20 माह के बाद भी वे घरेलू मोर्चे पर स्वयं अपनी उस अल्पसंख्यक, विशेषकर मुस्लिम विरोधी छवि को मिटाकर ‘सबका साथ-सबका विकास’ वाली छवि को बना नहीं पाये हैं| ऐसे में पाकिस्तान के साथ बातचीत के उनके प्रत्येक प्रयास को न केवल उनकी स्वयं की पार्टी की बल्कि सियासत में उनके सहयोगियों की भी आलोचना का शिकार होना पड़ता है|
ऐसी परिस्थिति में रूस तथा अफगानिस्तान के अपने दौरे के अंत में भारत लौटते समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के निमंत्रण पर लाहोर में रुककर उन्हें जन्म दिन की बधाई तथा उपहार देने के आठवें दिन ही पठानकोट एयरबेस पर फिदायीन हमला उन्हें तथा उनकी पाकिस्तान नीति को कठघरे में खड़ा करने की नीयत से किया गया हमला लगता है| आतंकवादी, चाहे वे यूनाईटेड जिहाद काउन्सिल से हों या जैश-ऐ-मोहम्मद से या लश्करे तयबान से, अब तक हुए सभी आतंकवादी हमलों के दो मकसद हर बार स्पष्ट होकर सामने आये हैं| पहला, भारत-पाकिस्तान की नागरिक सरकारों के बीच वार्ता को बंद कराना तथा दोनों देशों के आम-लोगों के मध्य स्थापित होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों को नष्ट करना| दूसरा, भारत के बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक दोनों तरह के समुदायों में मौजूद मुठ्ठी भर कट्टरपंथियों को उकसाकर भारत के बहुधर्मीय ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर सामाजिक अराजकता फैलाना|

पठानकोट के एयरबेस पर हुआ कायराना फिदायीन हमला, जिसमें हमारे सात जवानों, अधिकारियों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी, दो तरह से प्रधानमंत्री मोदी के लिए परीक्षा का समय है| पहली परीक्षा यह है कि राजनीतिक रूप से प्रधानमंत्री, उनकी सरकार तथा उनकी पार्टी के लिए यह स्वीकार करना कितना भी मुश्किल हो और वे इसे पूरी तरह नकार दें, पर, सामान्य से सामान्य देशवासी भी यह बता सकता है कि सरकार से और सरकार के जिम्मेदार मंत्रियों, अधिकारियों से इस फिदायीन हमले का मुकाबला करने तथा उसे नाकामयाब बनाने की रणनीति बनाने तथा उसे अमल में लाने में अक्षम्य भूलें हुई हैं| ऊपर से नीचे तक सभी ने घोर अपरिपक्वता का परिचय दिया है| इसका खामियाजा फिजूल (बिना लड़े) मेस में हुईं पांच शुरुवाती मौतों के रूप उठाना पड़ा है| चाहे वह सीमा पर सीमा सुरक्षा बल की चौकसी से संबंधित गलतियाँ हों या फिर एयरबेस में इतने भारी अमले के साथ फिदायीन के घुस पाने की चूकें हों या फिर मुकाबले के लिए उपलब्ध सेना की गारद की जगह एनएसजी को लगाने की रणनीतिक भूल हो या फिर दिल्ली में बैठे मंत्रियों-अधिकारियों की मामले की गंभीरता को न समझ पाने की गलती हो, प्रधानमंत्री को सभी गलतियों को संज्ञान में लेते हुए, तुरंत सुधारात्मक कदम उठाने चाहिए| प्रधानमंत्री को नाराजी और असंतोष मोल लेकर भी अपने कुनबे (मंत्रीमंडल) और सलाहकारों में से उन सभी को बाहर का रास्ता दिखाना होगा, जो सरकार बनने से लेकर अभी तक अपनी अपरिपक्वता और अधकचरे ज्ञान का लगातार प्रदर्शन लगातार करते आ रहे हैं|

दूसरी परीक्षा यह है कि पठानकोट एयरबेस पर आतंकी घुसपैठ तथा उसके तुरंत बाद अफगानिस्तान में भारत के वाणिज्य दूतावास पर हुई गोलीबारी से भारत में मोदी-शरीफ मुलाकातों और पाकिस्तान के साथ रक्षा सलाहकारों व विदेश सचिव स्तर पर चल रही व होने वाली वार्ताओं पर कई कोनों से प्रश्नचिंह लगने लगे हैं| कांग्रेस का विरोधी राजनीतिक दल होने के कारण विरोध करना स्वाभाविक है किन्तु कल तक मोदी का गुणगान करने वाले चैनल, अखबार तथा स्वयं उनकी पार्टी तथा सहयोगी दलों के उनके लोग ही मुखर होकर पाकिस्तान के साथ किसी भी प्रकार तथा किसी भी स्तर की बातचीत का विरोध कर रहे हैं, यह प्रधानमंत्री के लिए सोचनीय बिंदु है| शुक्र है कि स्वयं प्रधानमंत्री का बयान पठानकोट के बाद संयत और साधा हुआ था|

यह निश्चित रूप से विद्वेष में आने या विद्वेष फैलाने का समय नहीं है| पठानकोट जैसे आक्रमणों के बाद पाकिस्तान से बातचीत बंद करके कुछ नतीजा नहीं निकालता, यह हम देख चुके हैं| विशेषकर तब जब हमें अंतर्राष्ट्रीय या अमरीकन दबाव में पुन:-पुन: बातचीत के लिए तैयार होना पड़ता है| बातचीत बंद करके भले ही प्रधानमंत्री को लगे कि घरेलु मोर्चे पर उनकी पार्टी को कुछ सियासी बढ़त हासिल हो रही है किन्तु भारत को इससे अपने लिए सबसे ज्यादा मुश्किलात पैदा करने वाले पड़ौसी से कोई निजात नहीं मिलने वाली|

दूसरी बात, बातचीत बंद करने से पाकिस्तान की नागरिक सरकार तथा वहां की उन सियासी पार्टियों, नागरिक समूहों, संस्कृति कर्मियों, बुद्धिजीवियों, व्यापार केन्द्रों तथा शिक्षाविदों और विद्यार्थियों के समूहों को घोर निराशा तथा अवसाद से गुजरना होगा, जो भारत के साथ अच्छे संबंध के पक्ष में लगातार वातावरण बनाने में लगे रहते हैं|

दरअसल, प्रधानमंत्री ने स्वयं की तरफ से पहल करके पाकिस्तान के ऊपर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी कूटनीतिक बढ़त हासिल की है| फिदायीन पाकिस्तान की जमीन से आये हैं, इसके प्रमाण हमने पाकिस्तान को दिए हैं| उन प्रमाणों को पूरी ताकत के साथ अब अंतर्राष्ट्रीय पटल पर और विशेषकर अमेरिका के सामने भारत को रखना चाहिए| पाकिस्तान की आर्मी, जो भारत के साथ संबंधों के सामान्यीकरण के लिए पाकिस्तान की नागरिक सरकार के साथ सहमत नहीं दिखती है, से सीधी बातचीत का कोई तरीका भारत के पास नहीं है| लेकिन यह काम अमेरिका आसानी से कर सकता है| अतएव, यह समय है कि भारत अमेरिका पर दबाव बनाए कि अमरीका पाकिस्तानी आर्मी पर दबदबा कायम करके उसे आतंकवादियों की मदद करने से बाज आने के लिए कहे| इसी के साथ प्रधानमंत्री को स्वयं अपनी सरकार के मंत्रियों, सांसदों तथा अपनी पार्टी के लोगों को पाकिस्तान तथा मुस्लिमों के बारे में उलजलूल बयानबाजी करने से रोकना चाहिए ताकि घरेलु मोर्चे पर उन्हें अबाध समर्थन इस मुद्दे पर मिले|

पाकिस्तान के साथ बातचीत बंद करने का मतलब, विशेषकर जब स्वयं शरीफ ने फोन पर प्रधानमंत्री से बात करके सद्भावना प्रदर्शित की है, केवल पाकी फ़ौज-आईएसआई-जिहादी गठजोड़ को ताकत पहुंचाना हो जाएगा| अब यह स्वयं प्रधानमंत्री मोदी पर है कि वह स्वयं के चुनाव प्रचार के दौरान और बहुत पहले से निर्मित घेरे से बाहर आकर, अपनी स्वयं की पाकिस्तान नीति पर कायम रहते हैं या घरेलु कट्टरपंथियों के सामने समर्पण करते हैं|

अरुण कान्त शुक्ला

केजरीवाल हो या कीर्ती उन्होंने जेटली पर पैसा लेने का आरोप लगाया भी नहीं है..एक भी पैसा तो मनमोहनसिंह ने भी नहीं लिया था | सवाल तो अंधत्व का है याने अंधा बांटे रेवड़ी अंधों को बीन बीन..| यह काम याने 'अंधों को बीन बीन' तो मनमोहन ने भी नहीं किया था | सबसे बड़ा सवाल यह है कि वकील साहब आपको किकेट के कीचड़ में कौन सा कमल दिख रहा था, जिसे तोड़ने आप कीचड़ में उतरे?

क्रिकेट से जुड़ा हर व्यक्ति प्रबंधक, मीडिया, क्रिकेटसंघ, खिलाड़ी, निकृष्ट दर्जे के भ्रष्ट होते हैं हर तरह से ..बहुआयामी भ्रष्ट..आप कैसे इमानदार हो सकते हैं..? अब तो गिल साहब ने भी मोर्चा खोल दिया है| किस किस को अदालत में घसीटेंगे? अपनी गोल गोल आँखों को गोल गोल घुमाते हुए, हिन्दी को अंगरेजी स्टाईल में हर शब्द को चबा चबा कर बोलते हुए आप ही तो बमुश्किल डेढ़ बरस पहले हमें बताया करते थे कि भ्रष्टाचार का मतलब केवल खुद खाना नहीं है बल्कि खाने वालों की तरफ से धृतराष्ट्र बन जाना भी भ्रष्टाचार ही है| अब खुद को पाक साफ बताना किस मुंह से?

वैसे मोदी जी की सलाह मन लीजीये और इस्तीफा देकर पूरी तरह अदालत में भिड़ जाईये, आपको ऐसे मामले जीतने का खासा अनुभव है और पाक-साफ़ होकर लौटियेगा, आडवानी जी की तरह, जिनको आपने कौने में बिठा दिया है| वैसे अदालत से साफ़ घोषित होने के बाद भी आप साफ़ रहेंगे, पाक तो हम नहीं मानेंगे| आपको क्या क्रिकेट से जुड़े किसी भी व्यक्ति को हम पाक नहीं मानते| राजनीतिज्ञ हो तो राजनीति करो| ये क्या, राजनीति भी करेंगे, क्रिकेट भी करेंगे, हॉकी भी करेंगे, वकालत भी करेंगे, क्यों? एक सरकारी कर्मचारी तो बिचारा आपसे कितना कम पाता है पर दूसरा काम नहीं कर सकता, और राजनेता सब जगह मुंह मारेंगे| मैं बताऊं, यही भ्रष्टाचार है|

जहां तक बेईमानी का सवाल है, अनेक बार बेईमानी अदालतों में क्या कहीं भी साबित नहीं हो सकती पर इसका मतलब ईमानदार होना नहीं है| वैसे भी आपने आज तक कौन सा जनता के फायदे का मुकदमा लड़ा और जीता है| भ्रष्ट कंपनियों. गलत लोगों को बचाकर ही लोग बड़े वकील बनते हैं| यह उस ज्ञान का दुरुपयोग है जो वकील जनता के पैसे से प्राप्त करता है| गिरेबां में झांकेंगे तो आपका अपना दिल स्वयं को गलत हो..गलत हो..बोलेगा| वैसे भी आदमी को खुद के बचाव के लिए दूसरे को दोषी बोलना पड़े तो समझ लेना चाहिए कि उसकी पोल खुल गयी है|

अरुण कान्त शुक्ला

27 नवम्बर को शाम ठीक साड़े छै बजे छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के नवनिर्मित सरदार वल्लभभाई पटेल अंतर्राष्ट्रीय हॉकी स्टेडियम के नीले एस्ट्रोटर्फ मैदान में रेफरी की सीटी बजेगी और अर्जेंटीना तथा भारत के हॉकी टीमों के कप्तानों के तीन बार हॉकी टकराने के साथ ही छत्तीसगढ़ तथा रायपुर का नाम विश्व हॉकी पटल में अंकित हॉकी के अंतर्राष्ट्रीय मैदानों के केन्द्रों की सूची में अंकित हो जाएगा| वर्ल्ड हॉकी लीग के अंतिम दौर के मुकाबलों की मेजबानी रायपुर में छत्तीसगढ़ को मिलना निश्चित ही प्रदेशवासियों और विशेषकर प्रदेश के खेल प्रेमी जनों के लिए गौरव की बात है| 27 नवम्बर से 6 दिसंबर के मध्य विश्व की आठ श्रेष्ठ टीमों के विश्व सितारे वर्ल्ड हॉकी लीग का खिताब अपने नाम करने के बुलंद इरादों के साथ छत्तीसगढ़ की धरती पर जोर-आजमाईश करेंगे|

हीरो वर्ल्ड कप हॉकी लीग के मेचेज़ की सारणी :
दिनांक      पूल         समय        टीम     विरुद्ध     टीम
27-Nov    पूल बी     18:30       अर्जेंटीना     VS    भारत
27-Nov    पूल बी     20:30       जर्मनी     VS     नीदरलेंड
28-Nov    पूल ए      14:30      ब्रिटेन    VS    केनेडा
28-Nov    पूल ए      16:30      आस्ट्रेलिया    VS    बेल्जियम
28-Nov    पूल बी     18:30      जर्मनी    VS     भारत
28-Nov    पूल बी     20:30      नीदरलेंड    VS     अर्जेंटीना
29-Nov    पूल ए      18:30      बेल्जियम    VS     केनेडा
29-Nov    पूल ए      20:30      आस्ट्रेलिया    VS    आस्ट्रेलिया
30-Nov    पूल बी     18:30      नीदरलेंड    VS     भारत
30-Nov    पूल बी     20:30      अर्जेंटीना    VS     जर्मनी
01-Dec    पूल ए      18:30      आस्ट्रेलिया    VS    केनेडा
01-Dec    पूल ए      20:30      ब्रिटेन    VS     बेल्जियम
02-Dec    क्वार्टरफाइनल    18:30            
02-Dec    क्वार्टरफाइनल    20:45            
03-Dec    क्वार्टरफाइनल    18:30            
03-Dec    क्वार्टरफाइनल    20:45            
04-Dec    5th-8th          18:30            
04-Dec    सेमीफायनल      20:45            
05-Dec    5th-8th          18:30            
05-Dec    सेमीफायनल      20:45            
06-Dec    कांस्यपदक       18:30            
06-Dec    फायनल          20:45
 
वर्ल्ड हॉकी लीग के अंतिम दौर में पहुँची आठों टीम 2016 में होने वाले रियो ओलम्पिक के लिए योग्यता हासिल कर चुकी हैं| भारत के अलावा, जिसका विश्व रेंकिंग में आठवाँ स्थान है, अन्य टीम हैं आस्ट्रेलिया(1), नीदरलेंड(2), जर्मनी(3), बेल्जियम(4), ब्रिटेन(5), अर्जेंटीना(6), केनेडा(13)| इन सभी टीम के पास अगले वर्ष होने वाले रियो ओलम्पिक के पहले स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय स्टार पर किसी बड़ी प्रतियोगिता में परखने का यह अंतिम अवसर है, इसलिए कोई संशय नहीं कि हीरो वर्ल्ड कप का यह अंतिम दौर बहुत ही रोमांचक होने वाला है| इसके पूर्व आस्ट्रेलिया के साथ भारत तीन टेस्ट मैच की श्रंखला खेलेगा| श्रंखला का पहला मैच राजनांदगांव के अंतर्राष्ट्रीय हॉकी स्टेडियम में 19 नवम्बर को खेला जाएगा तथा बाकी के दोनों टेस्ट रायपुर के वल्लभभाई अन्तरराष्ट्रीय स्टेडियम में 22 तथा 23 नवम्बर को होंगे|

भारतीय टीम
18 सदस्यीय भारतीय टीम की कमान सरदार सिंह सभालेंगे| उपकप्तान टीम के गोलकीपर पी आर श्रीजेश हैं| रक्षा का जिम्मा वीरेन्द्र लाकरा, कोथाजीत सिंह, वी आर रघुनाथ, जसजीत सिंह कुलार, रुपिंदर पाल सिंह पर होगा| सरदार सिंह, चिंग्लेनसाना सिंह, देवेन्द्र वाल्मिकी, मनप्रीत सिंह, धरमवीर सिंह, दानिश मुज्तबा मध्यक्रम संभालेंगे| आक्रमण का दारोमदार एस वी सुनील, रमनदीप सिंह, आकाशदीप सिंह, ललित उपाध्याय तथा तलविंदर सिंह पर रहेगा|

भारतीय हॉकी में छत्तीसगढ़ का योगदान
छत्तीसगढ़ में अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार हॉकी के राजनांदगांव तथा रायपुर के दोनों मैदान यद्यपि पिछले एक वर्ष के ही दौरान बनकर तैयार हुए हैं पर प्रदेश से राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक पुरुष तथा महिला खिलाड़ी हुए हैं जिन्होंने भारतीय हॉकी का नाम रोशन करने में अभिनव भूमिका निभाई है| लेसली क्लाडियस, विसेंट लाकरा, नीता डूमरे, सबा अंजुम, शोख गफ्फार, तनवीर जमान, रेणुका राजपूत, रेणुका यादव, मृणाल चौबे, बलविंदर कौर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर खेल चुके और खेल रहे ऐसे ही खिलाड़ी हैं|

नीता डूमरे
नीता डूमरे छत्तीसगढ़ की पहली महिला अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी होने के साथ साथ प्रथम अंतर्राष्ट्रीय निर्णायक भी हैं| बेंकाक में खेले गए सीनियर एशिया कप में वह निर्णायक थीं|   

सबा अंजुम
पद्मश्री से सम्मानित सबा अंजुम भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान भी रह चुकी हैं|

मृणाल चौबे
राजीव पांडेय, कौशल यादव व गुंडाधरराज्य अलंकरणों से सम्मानित राजनांदगांव के मृणाल चौबे अभी ओड़िसा से खेल रहे हैं|

रेणुका यादव अभी राष्ट्रीय महिला टीम में हैं|

प्रदेश में राजनांदगांव को हॉकी की नर्सरी के रूप में जाना जाता है| यहाँ प्रतिवर्ष महंत सर्वेश्वर दास स्मृति अखिल भारतीय हॉकी प्रतियोगिता होती है, जिसमें देश की सभी जानी मानी टीम शामिल होती हैं| राज्य के बिलासपुर, जशपुर, राजनांदगांव क्षेत्र से छत्तीसगढ़ तथा देश को अनेक प्रतिभाशाली खिलाड़ी मिले हैं| बस्तर,सरगुजा जैसे आदिवासी क्षेत्रों में प्रतिभाओं की कमी नहीं है पर राज्य के खेल ढाँचे तथा सुविधाओं और प्रोत्साहन में कमी के कारण वे आगे नहीं आ पाते| यह गर्ज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेल रहे छत्तीसगढ़ के खिलाड़ी गाहे-बगाहे करते ही रहते हैं| राज्य में शाला स्तर से हॉकी को बढ़ावा देने की कोई भी ठोस योजना नहीं है| शिक्षा के निजीकरण के साथ हॉकी/फुटबाल जैसे खेल के लिए कोई उत्कंठा निजी स्कूलों में नहीं देखी जा रही है|

इस संबंध में बात करने पर छत्तीसगढ़ हॉकी फ़ेडरेशन के सचिव ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों में देश तथा राज्य की हॉकी की दशा में सुधार आया है| राज्य सरकार ने इस दिशा में रुची लेकर कदम उठाये हैं| राजनांदगांव तथा रायपुर में एस्ट्रोटर्फ मैदान बनने के बाद अब राज्य सरकार बिलासपुर तथा जशपुर में एस्ट्रोटर्फ मैदान बनाने की योजना में है| फिरोज अंसारी ने बताया कि छत्तीसगढ़ के 21 जिलों में हॉकी फ़ेडरेशन की ईकाई हैं| अभी 20 के लगभग समूह हैं जो लगातार प्रशिक्षण लेते और खेलते हैं| महिला हॉकी को प्रोत्साहित करने के लिए क्या विशेष कदम उठाये जा रहे हैं, इसके जबाब में उन्होंने बताया कि वर्त्तमान में महिला हॉकी और पुरुष हॉकी अलग अलग विंग नहीं हैं| दोनों को बराबर और समान सुविधाएं मिलती हैं| फिरोज इस बात से सहमत थे कि निजी क्षेत्र हॉकी में कम ग्लेमर देखता है इसीलिये उसकी तरजीह हॉकी के लिए कम होती है|

हॉकी की व्यथा-कथा        

हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है| अंतर्राष्ट्रीय हॉकी फेडरेशन (FIH) का गठन 1924 में पेरिस में हुआ था| बहुत से लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि भारत में पहला हॉकी एसोसिएशन बंगाल में बहुत पहले 1908 में बन गया था| यह हॉकी के प्रति हमारे देश में उस समय मौजूद जूनून को बताता है| यदि भारतीय हॉकी को हम कालखंडों में विभाजित कर देखें तो 1928 से 1960 के समय को भारतीय हॉकी का स्वर्ण युग कहा जा सकता है| इस दौरान भारत ने विश्व हॉकी पर अपना दबदबा बनाए रखा और ओलम्पिक खेलों में 6 स्वर्ण पदक तथा 1 रजत पदक जीता| यही वह समय था जव ओलम्पिक में हुए 25 खेलों में भारत 24 में विजयी रहा था| 1960 से लेकर 1980 के मध्य यद्यपि भारत ने 1964 के टोक्यो तथा 1980 के मास्को ओलम्पिक में स्वर्ण पदक तथा 1968 एवं 1972 के ओलम्पिक में कांस्य पदक जरुर जीते पर यही वह समय भी है जब भारतीय हॉकी अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर लगातार अपनी चमक खोती गयी| 2008 तक यह स्थिति आ गयी कि भारत 2008 के बीजिंग ओलम्पिक खेलों के लिए क्वालीफाई भी नहीं कर पाया| भारत के हॉकी संघों में राजनीतिज्ञों की घुसपैठ, हॉकी संघों में प्रभुत्व स्थापित करने के लिए बढ़ गए अंदरुनी संघर्ष, संघों में बुरी तरह घर चुका भ्रष्टाचार, हॉकी संघों और खिलाड़ियों के बीच गहरे मतभेद, खिलाड़ियों के उपर नौकरशाहाना ढंग से थोपी गईं बंदिशें और छोटी छोटी बातों पर उनके खेलने पर रोक लगाने की घटनाएं, खिलाड़ियों को उचित पारिश्रमिक का भुगतान नहीं करना जैसे कारणों ने जहां भारतीय हॉकी को कमजोर किया तो वहीं दूसरी ओर यूरोप के देशों ने, जिन्होंने हॉकी की कलात्मकता को श्रद्धांजली देकर उसमें ताकत और लम्बे तथा बड़े बड़े पॉस तथा गेंद को उंचा फेंक कर पास देने की अपनी पद्धति विक्सित कर ली थी, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हॉकी के नियमों को उनकी सहुलियत के हिसाब से बदल लिया| इसी दौरान 1976 के मोंट्रियल ओलम्पिक से हॉकी के ठोस धरातल के मैदानों की जगह पहली बार एस्ट्रोटर्फ जिसे उस समय नकली घास भी कहा जाता था का उपयोग शरू किया| हमारे देश के आपस की लड़ाई और भ्रष्टाचार में डूबे खेलसंघ अंतर्राष्ट्रीय हॉकी फेडरेशन के दवारा किये जा रहे इन मनमाने और एकतरफा परिवर्तनों के खिलाफ एक शब्द नहीं बोले क्योंकि उन्हें इस अंतर्राष्ट्रीय संस्था से मान्यता चाहिए थी और यह एक प्रकार से अंतर्राष्ट्रीय संस्था की उसके लिए उनकी चापलूसी थी|

यही वह समय भी है जब 1983 में कपिल देव की क्रिकेट टीम ने एकदिवसीय क्रिकेट में विश्व कप जीता और टेलीविजन के मालिकों, कारपोरेट के विज्ञापन दाताओं और भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने क्रिकेट मैचों के घर-घर जीवंत प्रसारण से भारतीयों को क्रिकेट का इतना आदी बना दिया कि हाशिये पर पहुँच चुकी हॉकी को भुलाकर आम जनमानस इतना क्रिकेटमय हो गया कि यह लगभग भुला ही दिया गया कि हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है| भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी है, यह केवल जनमानस ही नहीं भूला, भारत सरकार भी इस बात को भुला बैठी| भारत सरकार ने इस खेल को प्रतिष्ठता दिलाने, इसमें सुधार करने, नए नियमों के तहत खेल सुविधाएं देने और ढांचागत सुविधाएं देने, खेलसंघों के मध्य की लड़ाई को समाप्त करने और उनका नियमन करने के लिए कोई कदम नहीं उठाये| हॉकी के प्रति यद्यपि अभी सभी के रुख में परिवर्तन आया है, परन्तु यह अभी भी पर्याप्त से बहुत अधिक कम है| आज भी देश में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के गिने चुने एस्ट्रो टर्फ मैदान हैं और जो हैं उनकी दर्शक क्षमता क्रिकेट के मैदानों की तुलना में बहुत कम है| शालाओं से हॉकी खेल के रूप में मृतप्राय: ही है| इस सबसे देश के हॉकी प्रेमियों को मायूसी होना स्वाभाविक है| आज के हालातों में जितना जरुरी यह है कि केंद्र व राज्यों की सरकारें रुची लेकर शाला स्तर से जिला स्तर तक प्रतियोगिताओं तथा मैदानों का ढांचा तैयार करने की पहल करे तो निजी क्षेत्र से भी अपेक्षा है कि वह खेलों को प्रायोजित करने में पहल करे और फंड निवेश के लिए आगे आये| भारतीय हॉकी को खोया हुआ गौरव पुन: दिलाने के लिए सभी को सरकार, खेलसंघों, निजी प्रायजकों तथा दर्शकों को, सभी को हॉकी के प्रति उदासीनता का त्याग करना होगा|

आईडियल ग्रुप मुम्बई ने प्रेमचन्द की पांच कहानियों की नाट्य प्रस्तुती दी

अरुण कान्त शुक्ला

रायपुर : 22 नवंबर/ इप्टा (रायपुर) की ओर से प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले देश के प्रतिष्ठापूर्ण मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह का शानदार आगाज शुक्रवार शाम मुक्ताकाश पर हुआ| रायपुर के नाट्य प्रेमियों को इप्टा के सौजन्य से 20 से 25 नवंबर तक देश के जाने माने और प्रतिष्ठित नाट्य समूहों तथा निर्देशकों की प्रस्तुतियां इस दौरान देखने मिलेगी| समारोह का उदघाटन इप्टा के राष्ट्रीय सचिव तथा प्रसिद्ध रंगकर्मी राकेश ने किया| उदघाटन के तुरंत बाद उपकार पंथी लोकनृत्य दल ने छत्तीसगढ़ी नृत्य प्रस्तुत किया और फिर शुरू हुआ प्रेमचन्द की पांच कहानियों प्रेरणा. मेरी पहली रचना, आपबीती, सवा सेर गेहूं तथा रसिक सम्पादक का नाट्य प्रस्तुतीकरण|

मुम्बई के आईडियल ड्रामा एंड इंटरटेनमेंट के संयोजक प्रसिद्ध रंगकर्मी मुजीब खान हैं जो स्वयं एक प्रतिभावान नाट्य तथा पटकथा लेखक और निर्देशक भी हैं| मुजीब खान ने अनेक प्रसिद्ध नाटक लिखे और निर्देशित किये हैं| यह बच्ची किसकी, मुंसिफ, मत बांटिये त्रिशूल और तलवार, कसाब का हो गया हिसाब, जैसे अनेक प्रसिद्ध नाटक उनके खाते में हैं| अपने नाट्य समूह को देश के सामाजिक सरोकारों से जोड़कर रखना और उन सरोकारों के लिए काम भी करना उनके जुनून में है| आईडियल ग्रुप पिछले एक दशक से भारतीय साहित्य के अब भुला दिए गए लेखकों और साहित्यकारों को पुन: जीवित करने के लिए एक मिशन के रूप में जुटा हुआ है| इसी कड़ी में मुजीब खान ने प्रेमचन्द की सभी कहानियों पर नाटक खेलने का बीड़ा उठाया और अब तक वे प्रेमचन्द की 315 कहानियों में से 311 का मंचन कर चुके हैं| उन्होंने इस श्रंखला का नाम ‘आदाब, मैं प्रेमचन्द हूँ’ रखा है|

अकसर यह देखा जाता है कि चाहे वह कितने भी प्रतिष्ठित साहित्यकारों की रचनाएं क्यों न हों, उनका फिल्मों में अथवा नाटकों में रूपांतरण करते समय मूल रचना के स्वरूप को इतना छेड़ा जाता है कि अनेक बार मूल कहानी की आत्मा भी हताहत हो जाती है| यही कारण है कि प्रतिष्ठित लेखक फिल्मों और नाटकों से मुंह मोड़ लेते हैं और फिर यदि वह कहानी उस लेखक की हो, जो प्रतिवाद के लिए मौजूद ही न हो, तब तो मानो निर्माताओं और निर्देशकों को मुंह माँगी मुराद मिल जाती है| यहाँ मुजीब खान की और उनके निर्देशन की इसके लिए तारीफ़ करनी होगी कि कहानियों को नाटक में परिवर्तित करते हुए, उन्होंने मूल कहानी और उसके भाव के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की, यहाँ तक की कहानी में प्रयुक्त डॉयालाग भी जैसे के तैसे उठाये गए हैं, इसलिए दर्शकों को पाँचों नाटक देखते समय ऐसा अनुभव हो रहा था, मानों वे प्रेमचन्द को सुन रहे हों| प्रेमचंद की कहानियों में एक साथ अनेक सामाजिक विसंगतियों पर तंज होते थे| सवा सेर गेहूं में न केवल एक किसान के कर्ज के दलदल में फंसकर बंधुआ मजदूर बनने की व्यथा है, साथ ही पुरोहित किस तरह ईश्वर का भय दिखाकर निचले तबकों और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों पर अपना शिकंजा कसते हैं, उसका भी क्रूर चित्रण है| शंकर और विप्र के बीच का यह संभाषण देखिये;        
‘महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूँगा, ईश्वर के यहाँ क्यों दूँ, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ ? मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण हो के तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता। मैं तो दे दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान् के यहाँ जवाब देना पड़ेगा। '

विप्र –‘वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं; देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो ?

प्रेमचन्द को जैसे का तैसा उतारने का यह क्रम मुजीब खान ने केवल रसिक सम्पादक में अंत में एक दृश्य अतिरिक्त जोड़कर तोड़ा| ‘रसिक सम्पादक’ प्रेमचन्द की साहित्य की दुनिया में संपादकों के चरित्र पर तंज कसने वाली रचना तो है ही, साथ ही यह स्त्री के बारे में पुरुष की सोच का भी खुलासा करने वाली रचना है| स्त्री का सुन्दर होना ही उसकी सारी योग्यता का मापदंड है| यह सोच आज भी उतनी ही शिद्दत से मौजूद है| बहुत से नामचीन लोग भी इसकी शिकायत करते हैं कि सोशल साईट्स पर किसी स्त्री के द्वारा पोस्ट किये गए विचार, कविता को हजारों की संख्या में ‘लाईक’ और ‘कमेन्ट’ मिलते हैं, जबकि पुरुषों के साथ ऐसा नहीं होता| कामाक्षी को देखने के पहले जो रचना सम्पादक को श्रेष्ठ लग रही थी, उसको देखने के बाद अश्लील और बेकार लगाने लगती है और किसी तरह कामाक्षी से पीछा छुड़ाने के तुरंत बाद सम्पादक मेनेजर को बुलाकर कामाक्षी की कविता जो छपने के लिए मशीन पर चढ़ चुकी है, उतरवा देता है| मूल कहानी यहाँ खत्म हो जाती है और पाठकों को सोचने के लिए मजबूर करती है| किन्तु नाट्य रूपांतरण में मुजीब खान ने अंत में एक दृश्य बढ़ाकर पहले सम्पादक से कामाक्षी का ग्रन्थ बाहर फिकवाया है और फिर कामाक्षी उसको लेकर पुन: वापस आती है| इस सारे घटनाक्रम से सम्पादक को पागल होते दिखाया है, जिससे कहानी की वह सीधी मार जो कहानी में है, नाटक में अवरुद्ध होती है| इस परिवर्तन को यदि छोड़ दिया जाए तो निर्देशन, मंच साज-सज्जा, अभिनय, वस्त्र-सज्जा सभी पहलू प्रशंसनीय रहे| कुल मिलाकर एक के बाद एक पांच प्रस्तुतियों होने के बावजूद  कहीं भी दर्शकों को उकताहट महसूस नहीं हुई और निर्देशक उन्हें बांधकर रखने में सफल रहा|

Friday, 11 September 2015 00:00

चाय, हिन्दी, हिन्दी सम्मेलन और हिन्दी की कुतरनें..

अरुण कान्त शुक्ला

जी हाँ, अभी जिस दौर से हम गुजर रहे हैं उसमें चाय उपनिषद से लेकर उपग्रह तक के बीच के हर दौर में मौजूद रहेगी| भारत 32 साल के बाद हो रहे हिन्दी सम्मेलन में भी चाय मौजूद थी| यह बात अलग है कि भारत सरकार के विदेश विभाग और मध्यप्रदेश सरकार के इस संयुक्त त्रिदिवसीय उपक्रम में देश के नामी साहित्यकारों को भारत सरकार के विदेश विभाग के राज्यमंत्री और भूतपूर्व थल सेनाध्यक्ष वही पी सिंह के अनुसार बड़े साहित्यकार व्हिस्की ज्यादा पी जाते हैं, इसलिए उन्हें नहीं बुलाया गया| पर, हमें तो चाय पर बात करनी है| चाय की महिमा अपरम्पार है|

सोचिये यदि चाय नहीं होती तो आज हमें माननीय नरेंद्र मोदी जैसा ओजस्वी भाषण देने वाला प्रधानमंत्री कहाँ से मिलता? उन्होंने गुजरात में चाय बेचते बेचते हिन्दी सीखी थी| है न बहुत कमाल की बात! अब यह बात अलग है कि आप दक्षिण भारत में जाएँ तो आपको रेलवे स्टेशन पर मौजूद कुली से लेकर ऑटो रिक्शा, टेक्सी, रेस्टोरेंट में प्राय: सभी व्यवसायी और स्वरोजगारी हिन्दी ही क्या अंगरेजी भी बोलते मिल जायेंगे, जबकि उनकी शिक्षा बहुत थोड़ी होगी| पर, उनके लिए हिन्दी का महत्व इससे भी बढ़कर है| उनके हिसाब से हिन्दी लड़ाई-झगड़े की भाषा है| उनका कहना है कि उनके गुजरात में जब दो गुजराती लड़ाई करते हैं तो हिन्दी में बोलने लगते हैं| क्योंकि उन्हें लगता है कि हिन्दी में बोलने का असर ज्यादा होता है| गनीमत है कि उन्होंने यह नहीं बताया कि क्या बोलने लगते है? वरना, मैं परेशानी में फंस जाता कि लिखूं तो कैसे लिखूं!

बहरहाल, अब थोड़ी गंभीर बात| यह जो हो रहा है, वह हिन्दी सम्मेलन है और हिन्दी साहित्य से इसका कुछ भी लेना-देना नहीं है, इसलिए साहित्यकारों को नहीं बुलाये जाने पर कोई नाराजी नहीं होनी चाहिए| आशंकाएं और कुशंकाएँ केवल इसलिए हो रही हैं कि पिछले 40 वर्षों में हुए 9 हिन्दी सम्मेलनों से हिन्दी को कुछ हासिल नहीं हुआ और सभी सरकारों की रहनुमाई में ही हुए हैं| अब आप इस दसवें हिन्दी विश्व हिन्दी सम्मेलन में जिन विषयों पर विचार होना है, उन्हें उठाकर देखिये| इन विषयों में आपको एक भी विषय ऐसा नहीं मिलेगा, जो भारत की शिक्षा व्यवस्था में हिन्दी के महत्त्व को स्थापित करने में सरकार की भूमिका को रेखांकित करता हो| अभी इसी वर्ष केंद्र सरकार की नई शिक्षा नीति के तहत प्राय: सभी राज्यों में हजारों (छत्तीसगढ़ में लगभग 3000) सरकारी स्कूल, जिनमें हिन्दी माध्यम से पढ़ाई होती थी, बंद किये गए हैं| सरकार ही नहीं, निजी क्षेत्र की भी रोजगार देने की पूरी व्यवस्था इस बात पर निर्भर है कि आपको इंग्लिश आती है या नहीं|

वह हर परिवार, जो अपने बच्चे को किसी अच्छी नौकरी या व्यवसाय में देखना चाहता है, आज इंग्लिश स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने के लिए अभिशप्त है| सरकारी स्कूलों में वर्षों से शिक्षक की जगह शिक्षा कर्मी या इसी तरह के पदनाम वाले शिक्षकों की भर्ती हो रही है, जिन्हें न पर्याप्त वेतन दिया जाता है और न ही उनकी कोई खैरख्वाह ली जाती है| पूरी शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य यदि पहले उपनिवेशवाद को मजबूत करना था तो आज भी वही है कि ऐसे लोग पैदा किये जाएँ, जो न केवल देशी शासकों की गुलामी करें बल्कि उनके मार्फ़त साम्राज्यवाद को भी मजबूत करें| भाषा चाहे कोई भी हो, उसका हमेशा दुहरा चरित्र होता है| यह संप्रेषण का माध्यम होने के साथ साथ संस्कृति की वाहक भी होती है| इसीलिए जब हमारे प्रधानमंत्री हिन्दी अथवा अन्य प्रादेशिक भाषाओं को सशक्त बनाने की नहीं, डिजिटल दुनिया के हिसाब से परिवर्तित करने की बात अपने उदघाटन भाषण में कहते हैं तो मुझे लगता है कि राष्ट्रीय संस्कृति, राष्ट्रवाद, संस्कृत में छिपे ज्ञान के भंडार की शब्दावली की आड़ में वे हमें साम्राज्यवाद के जबड़े में धकेल रहे है|

अंत में मैं आपको एक कहानी सुनाना चाहूंगा| एक व्यक्ति के घर में बहुत चूहे थे| वह बाजार से एक किताब खरीद कर लाया ‘चूहे मारने के 100 उपाय’| किताब को उसने घर में एक जगह रख दिया| रात में जब वह सो गया, चूहे बिल से निकले और जब उन्हें कुछ खाने नहीं मिला तो उन्होंने उस किताब को कुतरना शुरू कर दिया| किताब ने चूहों से कहा कि तुम बहुत गलत कर रहे हो, देखो मेरे अन्दर तुमको मारने के 100 उपाय दिए गए हैं, तुम मारे जाओगे| चूहे हंसे और किताब कुतरते रहे| किताब फिर बोली, सुबह मालिक उठेगा तो वह मेरे अन्दर दिए गए तरीकों से तुम सबको मार देगा, चूहे फिर हँसे और किताब कुतरने में लग गए| सुबह हुई तो मालिक को उस किताब की छोटी छोटी कुतरनें मिली| इस देश का पूंजीपति वर्ग, राजनीति, नौकरशाही उस चूहे के सामान ही देश को कुतरने में लगा है, जिसमें हिन्दी से लेकर हमारी भूख तक सब शामिल है| हिन्दी सम्मेलन उसी क्रिया का एक और छोटा हिस्सा है| तीन दिन रुकिए, आखिर में आपको भोपाल के लाल परेड ग्राऊंड में माखनलाल चतुर्वेदी नगर नहीं, हिन्दी की कुतरनें पड़ी मिलेंगी|

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Wednesday, 09 September 2015 00:00

आधी बाँह के कुर्ते और गांधी

अरुण कान्त शुक्ला

मुझे नहीं लगता कि राजनीति में जनता के किसी भी तबके से संवाद स्थापित करते समय कुछ भी अतिशयोक्तिपूर्ण कथन करने की कोई आवश्यकता पड़ती है| धोने में आलस्य आने या कठनाई होने पर कोई कुर्ते की बाँह काट दे और फिर कहे कि वह केवल 4 घंटे सोता है और दिन रात काम में भिड़ा रहता है, मुझे बात जमी नहीं| इसमें कहीं न कहीं अतिश्योक्ति है| फिर यह कहना कि फिर यह फैशन में आ गया, यह दिखाता है कि आप के अंतर्मन में फैशन आईकॉन बनने की इच्छा है| मीडिया ने और स्वयं उनके प्रचारतंत्र ने चुनावों के दौरान एक फैशन आईकॉन के रूप में भी उनकी छवि को पेश किया था| यहाँ तक कि उनकी अमेरिका की यात्रा के दौरान भी उनके कुछ पिठ्ठू चैनलों और अखबारों ने इस प्रचार को चलाया था और मेडिसन स्क्वायर पर उनकी सभा को भी उसी रूप में पेश किया था क्योंकि मेडिसन में अक्सर फ़िल्मी सितारों के और मनोरंजन के कार्यक्रम ही होते हैं और साधारणत: गंभीर राजनीतिज्ञों को वहां सभा करने से परहेज होता है| लोग स्वयं होकर आपका अनुकरण करें यह और बात है, पर आप स्वयं जब किसी फैशन को शुरू करने वाले के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करें और वह भी बच्चों के सामने तो फिर आपकी राजनीतिक गंभीरता पर सवाल उठना लाजिमी है| यह भी पूछा जा सकता है कि कुछ संगठनों का गणवेश क्या इसी आलस्य के कारण आधा पतलून है? फिर कुर्ते की लंबाई कम क्यों नहीं की? अनेकों सवाल हैं, जो पूछे जा सकते हैं| पर नहीं पूछूंगा|  
 
भारत में फेंकने की विधा के वे माननीय एक ही पारंगत हैं| मैंने 1966 में आधी बांह का कुर्ता और वह भी शार्ट अपने एक मित्र से भोपाल में सिलवाया और पहना था| यही नहीं मैं उसे पेंट पर जूते मोज़े के साथ पहना करता था| लोग और मित्र हंसते भी थे| यह अलग बात है कि उस समय दरजी ऐसे कुरते सिलते नहीं थे क्योंकि वे प्रचलन में नहीं थे और उन्हें ऐसे कपडे सिलना अटपटा लगता था| मेरे मित्र के पालकों का व्यवसाय ही टेलरिंग था और वह 10 वर्ष की आयु से उस काम में पढ़ाई के अलावा रुची लेता था या उसके पिता चाचा आदि उसे प्रेरित करते थे| इसे आप आज की कौशल शिक्षा कह सकते हैं| मेरे घर में भी दो गज कपड़ा खराब कर दोगे कहकर बहुत नाराजी थी, पर अंतत: मैं कामयाब हुआ| मैं उस समय 16 वर्ष का था और 11वीं की परिक्षा दे रहा था| पर, सचाई यह है कि मुझे भी उस तरह का कुर्ता सिलवाने का आईडिया शम्मी कपूर की किसी फिल्म से आया था, जिसमें शम्मी कपूर ने कोहनी से थोड़ी नीचे वाली टीशर्ट पहनी थी और जैसी की उनकी अदा थी, उसका कॉलर खड़ा रखा था| मैंने बस दोस्त के पिता से कॉलर को आधा करने और बांह की लंबाई कोहनी से उपर करके नीचे दो जेब लगाने कहा था| गाँव-देहात में लोग दशकों से ऐसे कुर्ते, उससे भी शार्ट, जैसे आज बनते हैं, पहनते आ रहे हैं| पर, वे कभी फैशन आईकॉन नहीं बने|
 
 
मैं आपको बताऊँ, बहुत बाद में उस डिजाईन का कुरता राजेश खन्ना ने फिल्म सच्चा झूठा में पहना था| यह तब भी सामान्य रूप से फैशन में नहीं आया| इसका कारण देश का अविकसित और पिछड़ा रेडीमेड गारमेंट उद्योग था| अब कारपोरेट प्रबल है और वह पहले आईकान बनाता है और फिर मार्केट में सामग्री| आधी बांह का कुरता मैं 1998 से लगभग लगातार पहन रहा हूँ और वह भी सिलवाकर, यहीं रायपुर में| कुर्ता टी शर्ट भी मैं लगभग 1982 से पहन रहा हूँ| आज का आधी बांह का कुर्ता उसी का रूप है| इसकी शुरुवात बंगाल से हुई है|
 
 
वे फेंकने की कला के माहिर हैं, उन्हें फेंकने दीजिये | दो तीन पीढियां गुजरने के बाद , विशेषकर राजनीति में ऐसे लोग आ ही जाते हैं, मानो उन अकेले ने सब त्रासदियाँ भोगी हैं| लेम्प/दिए की रोशनी, स्ट्रीट लाईट में पढाई , यह भारत की अधिकाँश जनता ने की है और यहाँ तक की मध्यम वर्ग ने भी की है, उस समय देश का विकास, संसाधनों का विकास उतना ही हुआ था| वह देश पर कोई अहसान नहीं है| पर, बिजली युग में पैदा हुई पीढ़ी को ऐसा लगता है, मानो इन नेताओं ने कोई बड़ी कुरबानी की है|
 
 
अभी के राष्ट्रपति ने, अभी, और जब वह वित्तमंत्री थे तब भी, ऐसा ही सब कहा था| अब माननीय प्रधानमंत्री कह रहे हैं|  दोनों ने कहा कि वे शुरू में तीन चार साल स्कूल ही नहीं गए| यदि उनके कहने का तात्पर्य यह है कि वे स्कूल जाने योग्य आयु होने के बाद स्कूल नहीं गए, तब भी यह गलत सन्देश है और यदि वे यह कह रहे हैं कि स्कूल में प्रवेश के बाद वे स्कूल बंक करते थे तो वे राष्ट्र के बच्चों के सामने बहुत ही गलत उदाहरण पेश कर रहे हैं|  
 
 
इसी तरह बच्चों से यह कहना कि वे बहुत शरारती थे, एक गलत संवाद है| आप सरल दिखने के लिए, जोकि माननीय प्रधानमंत्री की आदत है, गलत उदाहरण बनाकर प्रस्तुत न हों, बेहतर यही होगा| पिछली बार उन्होंने अपनी शरारती स्वभाव का उदाहरण देते हुए कहा था कि वे किसी भी शादी के पंडाल में घुसकर खाना खाकर आ जाते थे और दोनों पक्ष समझते थे कि यह उनका आदमी है| यह एक गलत सन्देश है और आपराधिक कृत्य को बढ़ावा देना है| इसी तरह शादी में शहनाई बजाने वाले के सामने इमली या आचार का टुकड़ा हिलाना ताकि उसके मुंह में पानी आये और वह शहनाई न बजा पाये, एक गलत शरारत है और ऐसे बच्चों की ढूंढकर बेतहाशा पिटाई की जाती थी|
 
 
ऐसा नहीं है कि इतिहास में कभी महापुरुषों ने बचपन की अपनी शरारतों, गलतियों और भूलों को स्वीकार नहीं किया है|  गांधी इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं| उन्होंने बीड़ी पीने से लेकर पैसा चुराने और कस्तूरबा को मारने जैसी सभी बातों को स्वीकार किया पर उन्हें महिमामंडित नहीं किया| उनकी स्वीकारोक्ति से अपराध करने, शरारत करने की प्रेरणा नहीं मिलती बल्कि ऐसा न किया जाए कि भावना प्रगट होती है क्योंकि हर घटना के साथ उन्होंने बताया कि उन्हें अपराध बोध हुआ और उन्होंने पश्चाताप किया तथा वैसे कृत्य पुन: न करने का संकल्प लिया|  इनकी बातों में उसका अभाव है और यह अभाव इनकी राजनीति में भी दिखता है| धो न सको तो बांह काट देने की राजनीति में, गलतियों को महिमामंडित करने तथा अपराधों और भूलों के लिए प्रायश्चित न करने की राजनीति में|

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Wednesday, 09 September 2015 00:00

अरुण कान्त शुक्ला के पांच दोहे..

जग बदले, बदले जग की रीत,
मैं 'अरुण' क्यों बदलूं, मुझे सबसे है प्रीत,
 
रार रखना है तो सुनो मित्र, रखो खुद से रार,
छवि न बदले कभी किसी की, चाहे दर्पण तोड़ो सौ बार,
 
समझ बूझकर लो फैसले, समझ बूझकर करो बात,
गोली जैसी घाव करे, मुंह से निकली बात,
 
काग के सिर मुकुट रखे से, काग न होत होशियार,
उड़ उड़ बैठे मुंडेर पर, कांव कांव करे हर बार,
 
कहे ‘अरुण’ सीख उसे दीजिये, जो पाकर न बोराय,
करे चाकरी राजा की, सीख उसे कभी न भाय.

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Tuesday, 01 September 2015 00:00

मेहनतकश का जबाब है 2 सितम्बर की हड़ताल

अरुण कान्त शुक्ला

सत्ता संभालने के साथ ही श्रम सुधारों को लागू करने की जो कवायद, हड़बड़ी एनडीए की सरकार ने दिखाई, उसकी हिम्मत तो सुधारों के पितामह मनमोहनसिंह भी नहीं कर पाए थे| सरकार बनने के दो महीने बाद ही, 30 जुलाई को मोदी कैबिनेट ने फ़ैक्ट्रीज़ एक्ट 1948, अप्रेंटिसेज़ एक्ट 1961 और लेबर लॉज़ एक्ट 1988 जैसे श्रम क़ानूनों में कुल 54 संशोधन पास किए| यह सर्वविदित और स्थापित सत्य है कि मजदूरों के अधिकारों और सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए जितने भी क़ानून/कायदे गुलाम/आजाद भारत में बनाये गए, उनका पूरा क्या आंशिक लाभ भी देश के मेहनतकश के अधिकाँश हिस्से को नहीं मिला| इसका प्रत्यक्ष प्रमाण तो सार्वजनिक/सरकारी क्षेत्र के उद्योगों से लेकर निजी क्षेत्र के उद्योगों में ठेके/आकस्मिक आधार पर रखे गए मजदूरों और कर्मचारियों की लगातार बढ़ती संख्या ही है| जहां न छुट्टियां हैं, न भविष्यनिधी है, न स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, नौकरी की गारंटी तो है ही नहीं|  
 
संगठित क्षेत्र के कुछ मजदूर/कर्मचारी अवश्य उन कानूनों को अपनी संगठित शक्ति के अनुसार अपनी ओर मोड़ने में सफल हुए, पर अधिकाँश समय उन्हें भी कोर्ट/कचहरी के चक्कर लगाते रहना पड़ा और अधिकाँश मामलों में ऐसे सभी कानूनों को बदल दिया गया, जिनसे वे लाभ प्राप्त करने के योग्य हुए थे| पर, एक साथ इतना बड़ा आक्रमण भारत के मेहनतकश समुदाय के उपर कभी नहीं हुआ, जो दो दशक के बाद बहुमत से चुनी गयी एनडीए की सरकार ने किया है| यही कारण है कि स्वयं को देश का सबसे बड़ा मजदूर बताने वाले प्रधानमंत्री आज देश के मेहनतकश के निशाने पर हैं| यहाँ तक कि जब 26 मई को दिल्ली में हुए कामगारों के राष्ट्रीय सम्मलेन में देश की 11 केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों और बैक, बीमा, केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, रेलवे, रक्षा, टेलीकॉम और अन्य संस्थानों के कर्मचारियों के संगठनों ने 2 सितम्बर की हड़ताल का निर्णय लिया तो उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा से संबद्ध केन्द्रीय युनियन भारतीय मजदूर संघ भी भी शामिल थी| राष्ट्रीय सम्मलेन के तुरंत बाद पत्रकारों के सवालों के जबाब में भारतीय मज़दूर संघ (बीएमएस) के उपाध्यक्ष वृजेश उपाध्याय ने कहा था कि  ''पूर्व की सरकारों की नीति को ही मोदी सरकार ने आगे बढ़ाया है और हम इसकी हर तरह से मुख़ालफ़त करेंगे|” इतना ही नहीं वृजेश उपाध्याय ने सम्मलेन को संबोधित भी किया था| आज भले ही सरकार और संघ के दबाव में बीएमएस ने स्वयं को हड़ताल से अलग कर लिया हो, पर यह निश्चित है कि मोदी सरकार के श्रम सुधारों के जहर को बीएमएस उससे जुड़े मजदूरों के गले तो नहीं ही उतार पायेगी और वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 2 सितम्बर की हड़ताल के समर्थन में ही रहेंगे|
 
46वें श्रम सम्मलेन के उदघाटन भाषण में प्रधानमंत्री ने मालिक-मजदूरों के बीच परिवार भाव पैदा करने की बात करते हुए कहा था “....एक श्रमिक का दुःख मालिक को रात को बैचेन बना देता हो, और फेक्ट्री का कोई नुकसान श्रमिक को रात को सोने न देता हो, यह परिवार भाव जब पैदा होता है तब विकास की यात्रा को कोई रोक नहीं सकता|” पर, उन्होंने स्वयं अपनी सरकार की पारी की शुरुवात परिवार भाव से नहीं करके श्रमिकों पर हमले के साथ की थी| सरकार जिन तीन श्रम कानूनों को पारित कराना चाहती थी, उनमें से 2 को वह शीतकालीन सत्र में पारित करवा चुकी है, वे हैं फेक्ट्रीज़ संशोधन बिल 2014 और अपरेंटिसेज़ संशोधन बिल 2014| फेक्ट्रीज़ संशोधन बिल 2014 के अनुसार फ़ैक्ट्रियों में कर्मचारियों की संख्या को बढ़ाने का पूरा अधिकार राज्यों को दिया गया है| इससे पहले यह अधिकार केंद्र के पास था|  काम के घंटे को नौ से बढ़ाकर 12 घंटे कर दिया गया है| पहले काम की अवधि आठ घंटे थी और एक घंटा का ब्रेक था| अब कंपनियां 12 घंटे में सुविधानुसार आठ घंटे काम ले सकेंगी|  ओवरटाइम को बढ़ा कर प्रति तिमाही 100 घंटे कर दिया गया है| कुछ मामलों में इसे 125 घंटे तक बढ़ा दिया गया है| पहले यह अधिकतम 50 घंटे था|  औद्योगिक विवाद मामले में केस दर्ज करने का अधिकार राज्य सरकार को दे दिया गया है| पहले यह अधिकार लेबर इंस्पेक्टर के पास था|
 
अपरेंटिसेज़ संशोधन बिल 2014 के अनुसार, कारखानों में अधिक से अधिक प्रशिक्षु श्रमिक रखे जा सकेंगे जिन्हें न्यूनतम वेतन से 30 प्रतिशत कम वेतन मिलेगा और तमाम श्रम क़ानूनों के दायरे में वे नहीं आएंगे|  हालांकि, सरकार का (हास्यास्पद) तर्क है कि इससे ग़ैर इंजीनियरिंग क्षेत्र के स्नातकों और डिप्लोमा होल्डरों के लिए उद्योगों में नौकरी की संभावनाएं खुल जाएंगी| कंपनियां पहले की अपेक्षा अधिक से अधिक प्रशिक्षु कर्मचारी रख सकेंगी| पहले वे कुछ निश्चित प्रतिशत में ही प्रशिक्षु कर्मचारी रख सकती थीं|  प्रशिक्षण कार्यक्रमों को पूरी तरह आउटसोर्स करने की अनुमति दी गई है| पहले यह फ़ैक्ट्री की ज़िम्मेदारी थी|  प्रशिक्षु रखने के लिए पांच सौ नए ट्रेड को खोल दिए गए हैं|  प्रशिक्षु कर्मचारियों को दिए जाने वाले स्टाइपेंड का पचास प्रतिशत हिस्सा सरकार देगी, जबकि पहले पूरी ज़िम्मेदारी फ़ैक्ट्री की थी|
 
वर्तमान में सरकार का मंथन वेतन अधिनियम को संशोधित करने पर चल रहा है| यदि यह भी संसद से पारित होता है तो न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, सामान वेतन अधिनियम 1976, वेतन भुगतान क़ानून 1936, बोनस एक्ट 1965 में ऐसे बदलाव सामने आयेंगे, जो एक ही उद्योग में एक समान कार्य करने वालों के बीच भी भेदभाव पैदा करेंगे| न्यूनतम वेतन तय करने का अधिकार राज्य के पास चला जाएगा| श्रम मामलों के इतिहासकार और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर प्रभु महापात्रा के अनुसार यदि ये बिल पास होते हैं तो ‘हायर एंड फॉयर’ की नीति क़ानूनी हो जाएगी और महिलाओं से नाइट शिफ्ट में भी काम लिया जा सकेगा|''
 
आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार भी वही कर रही है, जो देश का श्रमिक नवउदारवाद के पिछले 25 वर्षों में देखता आया है| भारत निर्माण, चमकता भारत, विकास पथ पर अग्रसित भारत, ढांचागत सुधार, रोजगार मिलेगा, विदेशी निवेश लाना है, जैसे नारों/वायदों की आड़ में श्रमिक/श्रम के उपर हमले और मालिकों को रियायतें, लूट की छूट, तभी तो इस बजट में पूंजीपति घरानों को 5 लाख करोड़ रूपये की भारी छूट दी गयी है और जान न्यौछावर करने वाले सेना के जवान जंतर-मंतर पर बैठे हैं| 2 सितम्बर की हड़ताल मेहनतकश के उपर सरकार के हमलों का जबाब है|

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