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पद्मभूषण मिल गया, लेकिन तानसेन सम्मान के लायक नहीं है पंडित जसराज Featured

राकेश अचल

देश में संगीत सम्राट तानसेन के नाम पर बूते ३५ साल से दिए जा रहे राष्ट्रीय तानसेन सम्मान के लिए अब तक देश के अनेक मूर्धन्य और कुछ अन्य संगीतज्ञों को तानसेन सम्मान से विभूषित किया जा चुका है किन्तु मेवाती घराने के सुस्थापित संगीतज्ञ पंडित जसराज को अब तक जाने-अनजाने इस सम्मान के लायक नहीं समझा गया है,जबकि केंद्र सरकार पंडित जसराज को पद्मभूषण जैसे सम्मान से अलंकृत कर चुकी है.

पंडित जसराज और मध्यप्रदेश सरकार के बीच हालांकि छत्तिस का आंकड़ा नहीं है, इसी तानसेन समारोह में उन्हें दो से अधिक बार प्रस्तुति के लिए आमंत्रित किया जा चुका है किन्तु तानसेन सम्मान के लिए किसी जूरी में आज तक उनके नाम पर विचार नहीं किया गया.1980  में पहला तानसेन सम्मान पंडित कृष्णराव पंडित को दिया गया, तब इसकी सम्मान राशि कुल पांच हजार रूपये थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने इस राशि को बढ़ाकर पहले पचास हजार और बाद में एक लाख रूपये किया. भाजपा सरकार ने इस राशि को दो लाख कर दिया.

पंडित कृष्णराव पंडित के बाद सुश्री हीराबाई बांदोडकर, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पंडित राम चतुर मालिक,पंडित नारायण राव व्यास, पंडित दिलीप चाँद बेदी, उस्ताद निसार हुसैन खान, ठाकुर जयदेव सिंह, बीआर देव धर, सुश्री गंगूबाई हंगल, उस्ताद खादिम हुसैन खान, पंडित गजानन राव जोशी, श्रीमती असगरी बाई, निवृत्ति बुआ सरनाईक, उस्ताद मुस्ताक अली, श्री फिरोज दस्तूर, सुश्री मोंगूबाई कुडीर्कर, उस्ताद नसीर अमीनउद्दीन डागर, पं. भीमसेन जोशी,    पं. रामराव नायर, पं. शरतचंद्र आरोलकर, उस्ताद ज़िया फरीदुद्दीन डागर, पं. एस.सी.आर. भट्ट, उस्ताद असद अली खाँ, राजा छत्रपति सिंह, डॉ. ज्ञान प्रकाश घोष, सुश्री गिरिजा देवी, पं. हनुमान प्रसाद मिश्र, श्री बाला साहेब पूछवाले, पं. सियाराम तिवारी, पं. सी.आर. व्यास उस्ताद अब्दुल हलीम ज़ाफर खाँ, उस्ताद अमजद अली खाँ, श्री नियाज़ अहमद खाँ, पण्डित दिनकर कायकिणी, पण्डित शिव कुमार शर्मा, सुश्री मालिनी राजुरकर, सुश्री सुलोचना बृहस्पति, आचार्य पं. गोस्वामी गोकुलोत्सव जी महाराज, उस्ताद गुलाम मुस्तफा खां, पं. अजय पोहनकर, सुश्री सविता देवी, पं. राजन साजन मिश्र तथा श्री प्रभाकर कारेकर को तानसेन सम्मान से विभूषित किया जा चुका है वर्ष २०१४ और २०१५ के तानसेन सम्मान भी क्रमश:विश्व मोहन भट्ट और अजय चक्रवर्ती को प्रदान किया जा रहा है.

तानसेन सम्मान पाने वाले इन चार दर्जन से अधिक संगीतज्ञों में से अनेक पंडित जसराज से कनिष्ठ हैं, लेकिन वे तानसेन सम्मान के लिए सुपात्र मान लिए गए किन्तु पंडित जसराज को हमेशा की तरह नकार दिया गया. जानकार बताते हैं की पंडित जसराज मध्यप्रदेश में संगीत घरानों की अंदरूनी राजनीति के शिकार बनाये जाते रहे हैं.पंडित जी ने इस बारे में कभी कोई गीला-शिकवा नहीं किया लेकिन जब भी उनसे मैंने इस बारे में सवाल किये उनका मन खिन्न हो गया.वे हरी इच्छा कह कर विवाद से दूर खड़े हो जाते हैं. तानसेन सम्मान हासिल कर चुके उस्ताद अमजद अली खान को तो मध्यप्रदेश सरकार की खुली आलोचना के बाद तानसेन सम्मान देकर उनका मुंह बंद किया गया. उनके बच्चों को भी तानसेन समारोह के मंच पर बैठने का अवसर उनके दबाब में मिला .
संगीत की राजनीति की परतें खोलने के लिए अब कोई शीर्ष संगीतज्ञ सामने नहीं आना चाहता,सबको तानसेन सम्मान की आस जो रहती है. मुझे अब तक तानसेन सम्मान हासिल करने वाले लगभग सभी महान कलाकारों से संवाद का अवसर मिला लेकिन किसी ने भी पंडित जी की उपेक्षा को सही नहीं ठहराया.
पंडित जसराज का जन्म 28 जनवरी 1930 को एक ऐसे परिवार में हुआ जिसे 4 पीढ़ियों तक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को एक से बढ़कर एक शिल्पी देने का गौरव प्राप्त है। उनके पिताजी पंडित मोतीराम जी स्वयं मेवाती घराने के एक विशिष्ट संगीतज्ञ थे। जैसा कि आपने पहले पढ़ा कि पं. जसराज को संगीत की प्राथमिक शिक्षा अपने पिता से ही मिली परन्तु जब वे मात्र 3 वर्ष के थे, प्रकृति ने उनके सर से पिता का साया छीन लिया। पंडित मोतीराम जी का देहांत उसी दिन हुआ जिस दिन उन्हें हैदराबाद और बेरार के आखिरी निज़ाम उस्मान अली खाँ बहादुर के दरबार में राज संगीतज्ञ घोषित किया जाना था। उनके बाद परिवार के लालन-पालन का भार संभाला उनके बडे़ सुपुत्र अर्थात् पं० जसराज के अग्रज, संगीत महामहोपाध्याय पं० मणिराम जी ने। इन्हीं की छत्रछाया में पं० जसराज ने संगीत शिक्षा को आगे बढ़ाया तथा तबला वादन सीखा। पंडित जी के परिवार में उनकी पत्नी मधु जसराज, पुत्र सारंग देव और पुत्री दुर्गा हैं

आवाज़ ही पहचान है

पं० जसराज के आवाज़ का फैलाव साढ़े तीन सप्तकों तक है। उनके गायन में पाया जाने वाला शुद्ध उच्चारण और स्पष्टता मेवाती घराने की 'ख़याल' शैली की विशिष्टता को झलकाता है। उन्होंने बाबा श्याम मनोहर गोस्वामी महाराज के सान्निध्य में 'हवेली संगीत' पर व्यापक अनुसंधान कर कई नवीन बंदिशों की रचना भी की है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनके द्वारा अवधारित एक अद्वितीय एवं अनोखी जुगलबन्दी, जो 'मूर्छना' की प्राचीन शैली पर आधारित है। इसमें एक महिला और एक पुरुष गायक अपने-अपने सुर में भिन्न रागों को एक साथ गाते हैं। पंडित जसराज के सम्मान में इस जुगलबन्दी का नाम 'जसरंगी' रखा गया है।

About Author

राकेश अचल

लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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  • बिहार का सन्देश, देश सबसे बड़ा है, गाय या दूसरे मुद्दे बाद में

    राकेश अचल

    बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन की करारी शिकस्त और महा गठबंधन की जीत और कांग्रेस की वापसी से बहुत ज्यादा खुश होने की बात नहीं है लेकिन इन चुनाव परिणामों से एक ही संकेत मिलता है की देश सबसे बड़ा है, गाय या दूसरे मुद्दे बाद में है. देश का मतलब सर्व धर्म समभाव, धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता होता है और इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. 243  सदस्यों की विधानसभा में एनडीए गठबंधन को 59, महागठबंधन को 178  तथा अन्य को 6 सीटें मिली हैं.

    दिल्ली विधानसभा के चुनाव के बाद बिहार विधानसभा चुनावों पर पूरे देश की नजर थी. इन चुनावों को लेकर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बहुत तैयारी से मोर्चा सम्हाला था. बिहार को जीत कर बीजेपी ये साबित करना चाहती थी की दुनिया में प्रधानमंत्री जी ने भारत का जो डंका बजाया था उसका लाभ बीजेपी को मिलेगा, लेकिन ऐसा हो नहीं सका. एक तरफ भ्रष्टाचार, जंगलराज और जातिवाद के लिए बदनाम लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार तथा बुरी तरह से ख़ारिज की जा चुकी कांग्रेस का गठबंधन था और दूसरी तरफ केंद्र की सत्ता में बैठी बीजेपी के नेतृत्व वाला ऐसा गठबंधन था जिसके पास बिहार  के जयचंद और दलबदलुओं के साथ है केंद्रीय खजाने से निकले आकर्षक पैकेज थे बावजूद इसके बीजेपी बिहार नहीं जीत सकी, उलटे पहले से कमजोर हो गयी.

    पिछले कुछ महीनों से देश में असहिष्णुता को लेकर जो वातावरण बना था उसकी अनदेखी कर बीजेपी लगातार आगे बढ़ रही थी और बीजेपी के एकमेव स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी तथा अमितशाह ताल ठोंक कर कह रहे थे की वे विकास के नाम पर चुनाव लड़ रहे हैं और असहिष्णुता के बनावटी मुद्दों से नहीं डरते. बीजेपी ने असहिष्णुता के विरोध में देश के सम्माननीय लेखकों, कलाकारों, इतिहासकारों के अभियान को कागजी बगावत बताते हुए उसका मखौल उड़ाया था सो अलग.इन सभी कारकों को बिहार के चुनाव नतीजों से अब बाबस्ता किया रहा है.

    इस बात में  कोई दो राय नहीं हो सकती की बिहार की राजनीति को समझना आसान नहीं है. बिहार में राजनीति की चाहे जैसी बुनावट हो किन्तु उसमें राष्ट्रीय चेतना का स्वर सबसे ज्यादा मुखर है. बिहार ने महात्मा गांधी के आंदोलनों को जगह और पहचान दी और आजादी के बाद जब देश पर आपातकाल लादा गया तो सम्पूर्णक्रांति का बिगुल भी बिहार से ही फूँका गया. हिंदुत्व को उग्र बनाने के लिए निकले गए भाजपा के अश्वमेध के घोड़े को भी बिहार ने ही रोका और सहिष्णुता तथा असहिष्णुता के बीच विवाद के बीच स्पष्ट सन्देश भी बिहार से ही आया है.

    तय बात है की बीजेपी बिहार विधानसभा चुनावों को अपने दो साल के शासन के खिलाफ जनमत संग्रह नहीं मानेगी, लेकिन हकीकत में ये जनमत संग्रह  ही है. इन चुनाव नतीजों से बीजेपी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की सेहत पर कोई फौरी असर पड़ने वाला नहीं है किन्तु ये नतीजे बीजेपी सरकार को ये सोचने के लिए विवश जरूर करेंगे की पार्टी जिस रास्ते पर देश को ले जाने का प्रयास कर रही है, वो रास्ता सही है या नहीं? बीजेपी की सरकार अकेले नहीं चल रही है, उसे आरएसएस भी चला रहा है. जिन मुद्दों पर विवाद होता है उन पर बीजेपी से ज्यादा आरएसएस बोलता है और जहां आरएसएस को चुप किया जाता है उन पर बीजेपी बोलती है. जनता की समझ में ये साफ़-साफ़ आ गया है.

    देश में असहिष्णुता के मुद्दे से पहले दाल और प्याज के मुद्दे थे, ये मुद्दे पुराने पड़े तो छोटा राजन हिन्दू शेर के रूप में मुद्दा बनते-बनते रह गया. संसद से बाहर जनता की जेब काटने के नए कदम भी मुद्दे हैं लेकिन ये रेखांकित ही नहीं हो पा रहे थे. अब सभी मुद्दों पर नए सिरे से बात होगी. अब केवल घरेलू मुद्दे ही नहीं विदेश नीति जैसे मुद्दे भी विमर्श के लिए सामने आएंगे. कालाधन, भूमि सुधर विधेयक और ऐसे ही तमाम विषय रेखांकित करने में बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे काफी मदद करेंगे. बिहार से पहले जब बीजेपी दिल्ली विधानसभा में हारी थी तब बीजेपी की और  से अनेक  बहाने  बनाये  गए थे, लेकिन बिहार में बीजेपी की हार के बाद किसी के पास कोई बहाना  नहीं है, इसलिए  सभी बीजेपी नेताओं  को सर झुका कर बिहार के जनादेश को स्वीकार करना पड़ रहा है.  अब केंद्र ने यदि बिहार के लिए चुनावों के समय  घोषित  अरबों  करोड़  रूपये  का विशेष  पैकेज देने  में आनाकानी  की तो केंद्र को लेने  के देने पड़ जायेंगे .

    बिहार में पराजय के पीछे प्रधानमंत्री और बीजेपी अध्यक्ष का निजी व्यवहार भी कोई कारक हो सकता है इसकी समीक्षा करने की जरूरत नहीं है, इसमें कोई दो राय नहीं है की प्रधानमंत्री जी ने पिछले दिनों में जिस तरह देश के कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों की समाधियों को अछूत समझने की गलती की है उसे इस देश के जनमानस ने स्वीकार नहीं किया है. इस देश इतना असहिष्णु भी नहीं है की दिवंगत आत्माओं से भी बैर भंजाये.यहां उदारता ही राजनीति, समाज और देश का प्रमुख जीवन मूल्य रही है.

    नए जीवन मूल्य और नया इतिहास लिखने का दुःसाहस कभी-कभी मंहगा भी पड़ता है ये भी शायद बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों का निहित सन्देश है. मुमकिन है की ये आकलन सही न हो, लेकिन इसे खारिज करने के लिए भी कुछ तर्कों की जरूरत होगी. समय सबके साथ न्याय करेगा, इस विश्वास के साथ बिहार और देश को आगे बढ़ना होगा. जिस अहमन्यता की वजह से मोदी जी को ये दिन देखना पड़े उससे बचना महागठबंधन के लिए भी जरूरी है. कांग्रेस के लिए भी ये चुनाव एक अवसर देते हैं की यदि कांग्रेस का नेतृत्व समझदारी और गंभीरता से काम ले तो उसे उसका खोया हुआ स्थान आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों वापस मिल सकता है. हाँ गाय किसी के काम की चीज नहीं है. उसका इस्तेमाल किसी को अपने निहित स्वार्थ के लिए नहीं करना चाहिए.

  • ऐसे गंभीर और क्रूर समय में क्या चुप बैठ जाना ही एक मात्र रास्ता बचा है?

    राकेश अचल

    विरोध का कोई तरिका सरकार को मंजूर नहीं, विरोध करना अब अचानक राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध हो चला है. सरकार के किसी फैसले, चाल-चलन के बारे में कोई भी प्रतिकूल टिप्पणी किसी को स्वीकार ही नहीं, ऐसा करने वालों को सरकार के प्रवक्ताओं की और से सीधे पाकिस्तान भेजने की अनुशंसाएं होने लगती हैं, कोई रेप की धमकी देता है तो कोई सर उतारने की. ऐसे गंभीर और क्रूर समय में क्या चुप बैठ जाना ही क्या एक मात्र रास्ता बचा है?

    लगभग 68 साल के भारतीय लोकतंत्र में ये दूसरा मौक़ा है जब गलत को गलत कहने पर सजाओं का प्रावधान किया जा रहा है.1977 में ये सब ऐलानिया किया गया था, 2015 में ये सब बिना ऐलान किया जा रहा है. फर्क सिर्फ इतना है की अभी जेलें नहीं भरी गयीं हैं, धमकियों और अनदेखियों से काम चलाया जा रहा है. जो गलत को गलत कहने की सामर्थ रखते हैं उन्हें 'ब्रेन डैड' बना दिया गया है और जो शेष हैं उन्हें राष्ट्रद्रोही बता कर पिटवाने का प्रबंध किया जा रहा है. सवाल ये है की ऐसे में बोलने वाले कहाँ जाएँ? जो नहीं बोलते वे तो सत्ता पर काबिज हैं लेकिन जो बोलते हैं वे सड़कों पर भी नहीं आ सकते. उनका बोलना अपराध है, साजिश है, प्रायोजित असहिष्णुता है और पता नहीं जाने क्या-क्या है?

    कहते हैं की दूध से जला आदमी पानी भी फूंक-कर पीता है, लेकिन दूध से जला ये देश तो फिर से उबलते दूध को बिना फूंके ही पीने पर आमादा दिखाई दे रहा है, उसे जलने का भय ही नहीं है. बीस महीने जेलों में रहने के बाद दिल से सारा भय जाता रहा है जैसे? अब तो हिसाब बराबर करने की बारी है. न राष्ट्रपति की नसीहत का सम्मान किया जा रहा है और न जनता के प्रतिरोध का. सबकी अनसुनी को ही राष्ट्रधर्म बना दिया गया है. आप चाहे मार्च कीजिए, चाहे धरने दीजिये, चाहे सम्मान लौटा दीजिये आपसे कोई ये पूछने वाला ही नहीं है की-आपकी तकलीफ क्या है?

    बात होगी नहीं और ऊपर से आपको देशद्रोही करार दे दिया जाएगा तब आप क्या करेंगे? देश छोड़ कर तो जाएंगे नहीं, यहीं मरेंगे, खपेंगे, चाहे लाठियां खाकर मरें, चाहे धमकियां सुनकर, मरना तय है. जीना है तो हाँ में हाँ मिलाने का हुनर सीखना पडेगा आपको. क्या आप इसके लिए तैयार हैं? अगर हैं तो आपके लिए इस देश में कोई असुविधा नहीं है. असुविधा उनके लिए है जो अपने मुंह में जबान रखते हैं. बोलना जानते हैं, प्रतिकार करने में दक्ष हैं. समय मुठ्ठी में बंद रेत की भांति हाथ से निकलता जा रहा है लेकिन कोई रास्ता नहीं निकल रहा. प्रौढ़ हो चुके लोकतंत्र के लिए ये चुनौती का समय है. दुनिया की निगाहें भारत के लोकतंत्र और उसके सहिष्णु उर असहिष्णु होने के विवाद पर लगीं हैं. दुनिया में हम ही थे जो अब तक धर्मनिरपेक्ष और संप्रभुता के साथ विविधता में एकता का दम्भ भरते हुए दुनिया को रास्ता बता रहे थे, लेकिन आज हम खुद चौराहे पर हैं, पता नहीं हमारा डंका कहाँ बज रहा है?

  • मुद्दों पै बहस हो, तो है मजा

    राकेश अचल

    बातों से बतंगड़ बनता है, हर बार यही तो मुश्किल है
    चुप साध के बैठी रहती है, सरकार यही तो मुश्किल है

    मुद्दों पै बहस हो तो है मजा, बेकार की बातें होती हैं
    भौंपू है हमारी बस्ती के अखबार, यही तो मुश्किल है

    ढपली हों जुदा पर राग न हों जिद है ये बजाने वालों की
    बिखरी है शुरू से बाजों की झंकार, यही तो मुश्किल है

    बर्तन हैं अगर तो टकरा कर, आवाज करेंगे जाहिर है
    चुभती है जमाने को लेकिन तकरार यही तो मुश्किल है

    आये थे गिराने की कह कर, देखो तो उठाये जाते हैं
    रिश्तों में अचानक आई है दीवार, यही तो मुश्किल है

    तुम लिखते रहो,तुम गाते रहो, दिन रात अचल तो अच्छा है
    होना है इसे भी दुनिया में, दुश्वार, यही तो मुश्किल है

  • ये बाबा नाव डूबा कर रहेंगे नदामो की

    राकेश अचल

    असहिष्णुता के मुद्दे पर प्रधानमंत्री की चुप्पी और उनके समर्थक साधुओं और योगियों की तल्खी से लगता है कि ये आग फिलहाल बुझने वाली नहीं है. पद्मश्री के लिए केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के पहले से शीर्षासन कर रहे बाबा रामदेव की मांग है कि  ‘अगर शाहरुख सच्चे देशभक्त हैं तो उन्हें पद्मश्री सम्मान मिलने के बाद की अपनी सारी कमाई दान कर देनी चाहिए या फिर पीएम राहत कोष में डाल देनी चाहिए। नहीं तो हम समझेंगे कि जिसकी चाकरी करके उन्होंने अवॉर्ड पाया, उसे ही खुश करने के लिए शाहरुख खान असहिष्णुता की बात कर रहे हैं।’शाहरुख को 2005 में पद्मश्री मिला था, तब देश में यूपीए की सरकार थी.

    बाबा रामदेव ने लोकसभा चुनाव से पहले राजनीति में कूदने का मन भी बनाया था और देश व्यापी दौरा कर जनता की नब्ज भी टटोली थी लेकिन जब उन्हें भाजपा के श्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में हवा जान पड़ी तो वे घर जाकर बैठ गए थे. बाबा रामदेव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ विधि समारोह का भी बहिष्कार किया था लेकिन बाद में मोदी जी के सामने आत्म समर्पण कर दिया। अब बाबा मोदीमय हैं,हालांकि वे कालाधन का मुद्दा लील चुके हैं.उसका जिक्र कहीं भी नहीं करते.

    अब कोई बाबा से कहे की वे केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद अपने कारोबार में हुए इजाफे को प्रधानमंत्री राहत कोष में डाल दें तो क्या ऐसा मुमकिन होगा? बाबा ने बीते देश साल में जमकर कमाई की है. पातंजलि पीठ के नाम पर देश के भाजपा शासित राज्यों में ठीक उसी तरह सरकारी जमीने हड़पन हैं जिस तरह की बाबा आसाराम ने हड़पीं थी.

    उधर  बीजेपी सांसद आदित्यनाथ ने शाहरुख और आतंकी हाफिज सईद की भाषा को एक जैसा बता कर इस विवाद को और भड़काने का प्रयास किया है, शायद बीजेपी परदे के पीछे से ऐसा ही चाहती है. योगी आदित्यनाथ ने कहा, ''इस देश का बहुसंख्यक समाज अगर उनका बहिष्कार कर देगा तो उन्हें भी आम मुसलमान की तरह भटकना होगा। योगी कहते हैं की मुद्दों पर तथ्यों के साथ बहस होनी चाहिए। उनका आरोप है की  दुनिया के सबसे सहिष्णु हिंदू समाज को बदनाम करने की कोई साजिश हो रही है तो उसकी सामूहिक निंदा होनी चाहिए।''

    शाहरुख  खान के बोलते ही भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव श्री कैलाश विजयवर्गीय ने कह दिया की  अगर भारत में असहिष्णुता होती तो अमिताभ के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेता शाहरुख़ न होते,विजयवर्गीय के पोस्ट की जब भाजपा के ही नेताओं ने विरोध किया तो उन्होंने सफाई देते हुए कहा की  मेरे ट्वीट को कुछ लोगो ने अलग अर्थो में लिया है। मेरा उद्देश्य किसी को भी ठेस पहुँचाना कतई नहीं थाइसलिए मैं अपना कथन  वापिस लेता हूं।

    असहिष्णुता  और सहिष्णुता पर चल रहे मुबाहिसे का मजा पड़ौसी देश पाकिस्तान में बैठे भारत के दुश्मन और मुंबई हमलों के गुनहगार सईद नेभी लिया.सईद ने पाकिस्तान में बैठे-बैठे कह दिया की  ''खेल,कला और संस्कृति  के क्षेत्र में काम कर रहे मशहूर भारतीय मुस्लिम भी भारत में अपनी पहचान को लेकर लगातार लड़ाई लड़ रहे हैं। कोई भी मुस्लिम, यहां तक कि शाहरुख खान, जो भारत में मुश्किलों और भेदभाव का सामना कर रहे हैं, वे इस्लाम की वजह से पाकिस्तान आकर रह सकते हैं।''

    जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं वैसे-वैसे लगने लगा है की बिहार चुनाव के बाद भाजपा इस विवाद ओर विरोधियों से या तो आरपार की लडाइलडेग़ी या फिर हथियार डाल देगी,क्योंकि इस विवाद के चलते ही बिहार का फैसला होने की उम्मीद है.यदि बीजेपी जीतती है तो विरोधी और असहिष्णुता का मुद्दा टांय-टांय फिस्स हो जाएगा और यदि हारती है तो बीजेपी को लेने के देने पड़ जायेंगे .मुद्दे का पटाक्षेप होए में अब कुछ   ही दिन बाकी है,इन बाकी दिनों में जो भी अपने जौहर दिखा सकता है,दिखा कर मानेगा,चाहे फिर वो बाबा हो,स्वामी हो,या कोई तीसरा.

  • शाबास राजन, बोले तो सही

    राकेश अचल 

    भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को शाबासी दी जाना चाहिए की उन्होंने  देश में बढ़ती असहिष्णुता पर चल रही बहस को आगे बढ़ाते हुए अपने मन की बात बिना भय के सार्वजनिक की, राजन चाहते हैं की - विचारों के लिये माहौल बेहतर बनाने के वास्ते सहिष्णुता तथा परस्पर सम्मान जरूरी है और किसी समूह विशेष को शारीरिक क्षति पहुंचाने या अपमानजनक शब्द कहने की अनुमति नहीं होनी चाहिए।

    असहिष्णुता के खिलाफ सम्मान वापस करने वाले साहित्यकार, इतिहासकार और वैज्ञानिक भी तो कमोवेश यही बात कह रहे हैं लेकिन हमारी सरकार है की उनके विरोध को सुनने और समझने के लिए तैयार ही नहीं है, सरकार और सरकारी पार्टी को इस विरोध के पीछे साजिश की बू आती है, सबको लगता है की प्रतिकार करने वाले या तो राष्ट्रद्रोही हैं या सरकार का तख्ता पलटना चाहते हैं. प्रतिकार के स्वरों की अनसुनी करने वाले भूल जाते हैं की प्रचंड बहुमत से बनी सरकार को बुद्धिजीवियों का प्रतिकार सत्ता से बेदखल नहीं कर सकता, ये काम तो आगामी आम चुनाव के समय वोट के जरिये ही मुमकिन है, इसलिए सरकार को बेख़ौफ़ होकर सरकार चलने के साथ ही प्रतिकार के सुरों को भी सुनना चाहिए. सिर्फ सुनना ही नहीं चाहिए बल्कि उनकी चिंताओं का संतोषजनक, सम्मानजनक समाधान भी करना चाहिए, क्योंकि वे सब इसी समाज और सरकार द्वारा सम्मानित किये गए लोग हैं. उनके बारे में ये सोचना की वे सब के सब कांग्रेसी या वामपंथी हैं, संकीर्णता के अलावा कुछ नहीं है।

    राजन की तारीफ़ इसलिए भी की जाना चाहिए की उन्हने अपने मन की बात कहने के लिए किसी राजनितिक दल का मंच नहीं, बल्कि देश के दिल आईआईटी दिल्ली की चुना. संस्थान के  दीक्षांत समारोह को सम्बोधित करते हुए राजन ने कहा की ‘आखिरकार, ऐसे दुर्लभ मामलों में जहां विचार किसी समूह के मूल चरित्र से गहरे जुड़े हों वहां सम्मान की जरूरत है और ऐसे मामलों में चुनौती देते समय हमें अतिरिक्त सावधानी बरतनी होती है।’ उन्होंने कहा कि सहिष्णुता से विचार-विमर्श में आने वाला रोष खत्म किया जा सकता है और सम्मान भी बना रह सकता है।

    मुमकिन है की राजन के इस रुख से भाजपा के नेताओं को असुविधा हो, वे राजन को भला-बुरा भी कहें, लेकिन इससे कुछ होने वाला नहीं है. यदि भाजपा नेतृत्व में ज़रा भी गाम्भीर्य होगा तो कोई भी राजन की बात का न विरोध करेगा और न ही बुरा मानेगा, उलटे राजन की कही बात पर विमर्श का श्रीगणेश करेगा, राजन न नेता हैं और न उनका किसी राजनितिक दल से कोई वास्ता है, उन्हें जो जिम्मेदारी मिली है, वो उनकी क्षमताओं और अनुभवों के आधार पर मिली है. कोई उनकी निष्ठा तथा राष्ट्रभक्ति पर भी ऊँगली नहीं उठा सकता. दूसरा कोई होता तो अब तक भाजपा के अनेक नेता राजन को पाकिस्तान जाने की सलाह दे चुके होते. बहरहाल सहिष्णुता और असहिष्णुता के बीच जंग तेज हो रही है. इस जंग में अंतत: जीत सहिष्णुता की ही होगी।

  • दंगे और असहिष्णुता का क्या रिश्ता ?

    राकेश अचल

    दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल मानते हैं की यदि 1984  के सिख दंगों के आरोपियों को सजा मिली होती तो दादरी जैसी घटनाएँ नहीं होतीं और देश में असहिष्णुता नहीं बढ़ती. मुमकिन है की ऐसा होता और शायद नहीं भी. इसकी वजह ये है की देश की जनता की एक तो याददास्त क्षीण है और ऊपर से जनता बेहद सहिष्णु है. 84 के दंगे इस देश के इतिहास का काला अध्याय हैं. इन दंगों के दोषियों को भले अदालत से सजा न मिली हो लेकिन जनता की अदालत ने दोषियों को नहीं बख्शा. जब मौक़ा मिला सजा दी और आज तक सजा दे रही है. लेकिन दंगे ही सजा का आधार होते तो फिर गोधरा के दंगों के आरोपी इस देश की सल्तनत पर काबिज न हो जाते. दंगे चाहे 84  के हों या 2000  के दंगे हैं और इनके दोषियों को क्षमादान नहीं मिलना चाहिए, किन्तु कोई क्या कर सकता है? इस देश का विधि-विधान ऐसा है की कोई भी जनता का समर्थन हासिल कर संविधान की शपथ लेकर संवैधानिक पद पर काबिज हो सकता है.

    वास्तविकता ये है की असहिष्णुता अब हमारी राजनीति का एक अघोषित हिस्सा बन चुका है, कोई भी दल सत्ता में आये असहिष्णुता उसके लिए एक औजार है, जिसके दम पर विरोधियों का सफाया किया जाता है, गालियां देकर या गला तराश कर. ये होता आया है और होता जा रहा है. इस प्रवृत्ति का प्रतिकार भी होता है किन्तु ये प्रवृत्ति लगातार पनपती ही जा रही है, इसलिए सबको मिलजुल कर इसका इलाज खोजना चाहिए. क्योंकि असहिष्णुता चाहे इनकी हो या उनकी विकास की सबसे बड़ी बाधा है. असहिष्णु समाज में, देश तरक्की कर ही नहीं सकता.

    हाल के दिनों में असहिष्णुता के खिलाफ बुद्धिजीवियों के सांकेतिक अभियान का मखौल उड़ाया  गया, मुझे लगता है की ये ज्यादती है. असहिष्णुता के खिलाफ जब भी कोई शुरुवात हो, उसका स्वागत किया जाना चाहिए. इन सवालों का कोई अर्थ नहीं होता की ये अभियान अब शुरू किये जा रहे हैं, तब शुरू क्यों नहीं किये गए थे? अरे भाई जब जागो तभी सवेरा होता है. मुमकिन है की तब असहिष्णुता का चेहरा इतना विद्रूप लोगों को न लगता हो? मेरे हिसाब से तो अतीत में हो चुकी घटनाओं को बार-बार सियासत के लिए जीवित कर लेना भी एक तरह की असहिष्णुता है. ये कभी समाप्त नहीं हो सकती. यदि असहिष्णुता सियासत का अभिन्न अंग बनी रहेगी तो फिर तो हो गया देश का कल्याण. इसलिए जरूरी है की असहिष्णुता जहाँ भी हो उसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए. राजनीति में जब तक असहिष्णुता का स्थान उदारता नहीं लेगी तब तक विकास नेपथ्य में ही रहने वाला है.

    सत्ता का इस्तेमाल देश के बजाय अपने संगठनों के लिए करने वाले लोग देश का भला कर ही नहीं सकते. भले ही वे किसी भी राजनितिक विचारधारा के पोषक हों. अनपढ़ अयोग्य हाथों में जिम्मेदारी देना भी असहिष्णुता ही है, किन्यु कोई करे क्या? ये परम्परा बन गयी है. कांग्रेस हो भाजपा, सपा हो या बसपा सभी को अनपढ़ लोग चाहिए, क्योंकि ऐसे लोग कुर्सी के लिए खतरा नहीं होते. जिस देश में वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, कलाकारों और साहित्यकारों को राजनीति के चश्मे से देखा जाता है वहां कभी भी सहिष्णुता राजनीति का स्थायी भाव कैसे बन सकती है. इसलिए जनता को भी चाहिए की वो दोषियों को अपनी अदालत में खड़ा देखे तो तुरत-फुरत न्याय करे. अदालतों में तो उनका फैसला सालों-साल तक नहीं हो पाता. त्वरित न्याय से शायद सहिष्णुता बच जाए?

  • रहने भी दो दादा, अपने पितृ पुरषों को ब्रेन डैड घोषित करने वाले आपकी सीख पर क्यों ध्यान देंगे?

    राकेश अचल 

    देश के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी देश की सरकार को समझा-समझा कर थक चुके हैं लेकिन सरकार समझने के लिए तैयार ही नहीं है. दादा प्रणब मुखर्जी की दिक्कत ये है की वे देश के राष्ट्रपति हैं और बीते पांच दशकों से किसी न किसी रूप में देश की सेवा करते आ रहे हैं, इसलिए जब सरकार को भटकते देखते हैं तो हटक देते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं की जो सरकार अपने पितृ पुरषों को ब्रेन डैड घोषित कर चुकी है,वो उनकी सीख पर क्यों ध्यान देने लगी?

    विज्ञान भवन में दिल्ली हाईकोर्ट के स्वर्ण जयंती समारोह को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने  एक बार फिर केंद्र  सरकार को चेताया और इशारों-इशारों में कहा कि -'असहिष्णुता से भारी नुकसान हो रहा है. प्रणब ने शनिवार को कहा कि सबको आत्मसात करने और सहिष्णुता की अपनी शक्ति के कारण ही भारत समृद्ध हुआ है. विविधता भारत की ताकत है और हमें हर कीमत पर इसकी रक्षा करनी है.'उन्होंने कहा कि भारत तीन जातीय समूहों - भारोपीय, द्रविड़ और मंगोल के 1.3 अरब लोगों का देश है. यहां 122 भाषाएं और 1,600 बोलियां बोली जाती हैं. यहां सात धर्मों के अनुयायी हैं.वे इससे पहले भी सरकार  को सहिष्णुता का पाठ पढ़ा चुके हैं.

    इस मुद्दे पर देश के साहित्यकारों, इतिहासकारों, कलाकारों और वैज्ञानिकों के गोलबंद होने के बाद से राष्ट्रपति ने तीसरी मर्तबा सरकार को टोका है. ख़ास बात ये है की राष्ट्रपति जी अपनी सीमाओं में रहते हुए अपने मन की बात कहते जा रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं की राष्ट्रपति जी की पृष्ठभूमि कांग्रेस की है. उनकी नियुक्ति कांग्रेस के शासनकाल में हुयी, वे देश के प्रधानमंत्री बनने के अपने सपने को तिलांजलि देकर राष्ट्रपति बने बावजूद उन्होंने अपने पद की गरिमा और प्रतिष्ठा को कभी आंच नहीं आने दी. शायद यही वजह है की बार-बार की टोका-टाकी के बाद भी भाजपा और उसके इतर भाजपा का कोई दूसरा शुभचिंतक कुछ बोलने की स्थित में नहीं है. वर्ना भाजपा के पास स्वामियों, संतों, महंतों की कोई कमी नहीं है.

    राष्ट्रपति से पहले देश के रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी इसी मुद्दे को रेखांकित करते हुए अपने मन की बात सबके सामने रखी. अब सरकार धर्मसंकट में है की असहिष्णुता के मुद्दे से वो अपने आप को कैसे अलग करे? देश में जब तक सरकार बचाव के लिए कोई रास्ता तलाश करती है तब तक कोई नई वारदात सामने आ जाती है. इसके पीछ कोई साजिश नहीं है लेकिन ये सरकार की बदनसीबी है की वो देश को इस बारे में कोई सन्देश साफ़ तौर पर दे ही नहीं पा रही है. देश में असहिष्णुता के लिए सरकार या सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी भले ही सीधे तौर पर जिम्मेदार न हों किन्तु उनके मौन से आशंकाएं लगातार गहरी होती जा रही हैं. एक ख़ास विचारधारा के लोगों को किनारे कर भी दिया जाये तो अब आम जनता को भी लगने लगा है की सहिष्णुता और असहिष्णुता का मुद्दा हवा-हवाई नहीं है. कहीं न कहीं कुछ तो पक रहा है?

    अब इस मुद्दे पर हम उम्मीद ही कर सकते हैं की सरकार राष्ट्रपति जी की चिंताओं को समझेगी और इस दिशा में जरूरी कदम जल्द से जल्द उठाएगी. न भी उठाये तो कोई सरकार को इसके लिए विवश तो नहीं कर सकता. राष्ट्रपति जी भी नहीं, क्योंकि सरकार प्रचंड बहुमत से चुनी गयी सरकार है, जोड़-तोड़ की सरकार नहीं है, भले ही सरकार को देश के ३३ फीसदी मतदाताओं ने ही क्यों न चुना हो? देश में इससे पहले भी ऐसे अनेक अवसर आये हैं जब राष्ट्रपतियों ने अपनी 'रबर स्टाम्प' की छवी से हटकर विवादास्पद मुद्दों पर अपनी राय सार्वजनिक कर सरकार को अपने फैसलों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया, हालांकि उस समय भी देश में ताकतवर सरकारें हुआ करतीं थीं.

  • वैचारिक असहिष्णुता के शिकार है मोदी ?

    राकेश अचल

    वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पहली बार सच्ची बात कही है, जेटली का कहना है की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कांग्रेस, वाम विचारकों की ‘वैचारिक असहिष्णुता’ का शिकार बनाये जा रहे हैं उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री 2002 से इस तरह की असहिष्णुता से सबसे ज्यादा पीड़ित रहे हैं। वित्त मंत्री ने भाजपा के सत्ता में होने के विचार को कभी बौद्धिक रूप से स्वीकार नहीं करने वालों पर प्रहार करते हुए उन पर संगठित दुष्प्रचार के जरिये भारत को असहिष्णु समाज के रूप में पेश करने की कोशिश करने का आरोप लगाया।

    देश में असहिष्णुता के वातावरण को लेकर बुद्धिजीवियों के प्रदर्शन के बीच जेटली ने भारत और वर्तमान सरकार के हर शुभचिंतक से ऐसे बयान नहीं देने की अपील की जो माहौल खराब करता हो और विकास में बाधा डालता हो। लेकिन सवाल ये है की जेटली की सुन कौन रहा है? भले ही जेटली अब दादरी काण्ड को दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय बताते हुए दोषियों को सजा दिलाये जाने की बात कह रहे हैं, जेटली का दुःख देखने लायक है।

    प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के हनुमान बनने का प्रयास कर रहे जेटली ने कहा कि वर्ष 2002 से ‘प्रधानमंत्री (नरेन्द्र मोदी) खुद ही इस वैचारिक असहिष्णुता के सबसे ज्यादा पीड़ित रहे हैं।’ उन्होंने कहा, ‘उनकी रणनीति के दो भाग हैं। पहला, संसद बाधित करो और ऐसे सुधार मत होने दो जिसका श्रेय मोदी सरकार को जाए। दूसरा, ढांचागत और संगठित दुष्प्रचार से ऐसा माहौल पैदा करो जिससे लगे कि भारत में सामाजिक दरार है। वे भारत को असहिष्णु समाज के तौर पर पेश करना चाहते हैं।’

    जेटली के मुताबिक़ सच कुछ और है। इस दुष्प्रचार की साजिश रचने वालों ने अपने नियंत्रण वाले विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों या सांस्कृतिक संस्थाओं में वैकल्पिक नजरियों को आगे बढने नहीं दिया। उन्होंने कहा, ‘उनकी असहिष्णुता वैकल्पिक विचाराधारा वाले बिन्दु को स्वीकार नहीं करने की हद तक है।’ मंत्री ने कहा, ‘भारत का बहुत सहिष्णु एवं उदारवादी समाज बना रहेगा। हमारे सांस्कृतिक मूल्यों में सह अस्तित्व समाहित है। भारत ने बार बार असहिष्णुता को खारिज किया है। यह उकसावे पर प्रतिक्रिया नहीं देता है।’

    असल सवाल यही है की यदि सरकार विकास को गति देना ही चाहती है तो तथाकथित असहिष्णु वातावरण को समाप्त करने के लिए कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती? क़ानून और व्यवस्था को राज्य का काम बता कर केंद्र सरकार बचना क्यों चाहती है? हरियाणा में तो भाजपा की ही सरकार है, वहां दादरी काण्ड कैसे हो जाता है, मध्यप्रदेश में एक मंत्री किसी नाबालिग भिखारी को लात कैसे मार देतीं हैं? भाजपा के साधू-संत जन प्रतिनिधि सरकार की कथित सहिष्णु नीति के विपरीत बयान कैसे दे देते हैं?

    हकीकत ये ही है की देश को विकास के साथ उन तमाम समस्यायों से भी निजात चाहिए जो जनमानस को परेशान किये हैं. मंहगी दाल और प्याज ही नहीं किसान भी सहिष्णुता के अभाव में जान दे रहे हैं, कोई उन्हें ढांढस बंधने वाला नहीं है. महाराष्ट्र में सरकार की सहयोगी पार्टी ने तो असहिष्णुता के नए कीर्तिमान रचे हैं और आरोप दूसरों के सर मधे जा रहे हैं. अभी भी समय है की सरकार इस नाजुक सवाल पर सबके साथ बैठ कर रास्ता निकाले और दिनों-दिन खराब हो रहे वातावरण को सुधरने के लिए ईमानदार प्रयास करे, आरोप के बदले प्रत्यारोप लगाकर समस्या का समाधान होने वाला नहीं है. इससे तो समस्या और जटिल होती जाएगी।

  • व्यापमं घोटाले की सीबीआई जाँच का सच

    राकेश अचल

    जिस व्यापमं घोटाले की वजह से भाजपा सरकार की भोपाल से दिल्ली तक मिटटी पलीद हुयी उसी व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच की हकीकत अब सामने आने लगी है, सूबे की सरकार सीबीआई को न दफ्तर के लिए जगह देती है और न पीआरवी करने के लिए वकील, सरकार चाहती ही नहीं की व्यापमं घोटाले का सच दुनिया के सामने आये और असली दोषियों को सजा मिले.

    व्यापमं घोटाले की जांच में सीबीआई से असहयोग का आरोप अगर कांग्रेस के नेता लगाएं तो मुमकिन है की उन्हें गलत और राजनीति से प्रेरित माना जाये लेकिन जब खुद सीबीआई ऐसे आरोप हलफनामे के साथ उच्च न्यायालय में लगाये तो कहने को कुछ शेष नहीं रहता. सीबीआई ने वकीलों की कमी की वजह से ट्रायल के अनेक मामलों की जांच अपने हाथों में नहीं ली. सीबीआई 185  मामलों में से अभी केवल 112  मामलों की जांच कर रही है, शेष को उसने हाथ में नहीं लिया क्योंकि उसके पास आावश्यक संख्या में वकील नहीं है. सीबीआई ने प्रदेश सरकार से इस बारे में लिखापढ़ी भी की लेकिन सरकार ने वकीलों की नियक्ति का काम प्रक्रिया में उलझा लिया.

    आपको याद होगा की पहले व्यापमं घोटाले की जांच एसआईटी कर रही थी, मप्र उच्च न्यायालय की निगरानी में चल रही ये जांच बाद में बड़ी जद्दो-जहद के बाद सीबीआई को सौंपी गयी थी इस घोटाले में प्रदेश सरकार के एक मंत्री लक्ष्मी नारायण शर्मा के अलावा सैकड़ों आरोपी जेल में हैं, कुछ को जमानत मिली है लेकिन बाकी अभी भी साल-डेढ़ साल से जमानत का इन्तजार कर रहे हैं, लेकिन जमानत के इन मामलों में पैरवी कौन करे, क्योंकि सरकार ने अब तक सीबीआई को वकील ही नहीं दिए. जाहिर है की सरकार इस मांमले की जांच में अड़ंगा डाल आरही है. अगर ऐसा न होता तो पहले सीबीआई को काम करने के लिए स्थान देने में आनाकानी न की जाती.

    व्यापमं घोटाले की जांच सीबीआई की जांच शुरू होने के बाद भी अनेक रसूखदार आरोपी अभी भी गिरफ्त से बाहर हैं, कुछ जमानत पर बाहर आकर मामले को कमजोर करने के अभियान में शामिल हो गए हैं जिन्हें जमानत मिली है उन्हें भी सरकार की कृपा का फल मिला माना जा रहा है, और जो जमानत से वंचित हैं उनके लिए भी सरकार ही काम कर रही है. सरकार ने मांमले की जांच के चलते व्यापमं का नाम बदल कर अदालत की अवमानना का गुनाह भी कर डाला.

    इस मामले में सरकार और सरकार के विधि मंत्री मौन साध कर बैठे हैं, उन्हें न अदालत की चिंता है और न जनता की, प्रतिपक्ष से तो डरना सरकार कब का छोड़ चुकी है, मडिया मैनेजमेंट में सरकार पहले से सिद्धहस्त है ही. सरकार ने अब पत्रकारों की कलम की धार मौतहरी करने के लिए अब सीधे मीडिया मालिकों को साधना शुरू कर दिया है, विज्ञापन नीति ऐसी बना दी है की छोटे और मझोले अखबार, पत्रिकाएं और चैनल बंद होने के कगार पर हैं.

  • चिनार के पत्तों की खड़खड़ाहट का अर्थ

    राकेश अचल

    पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत इंदिरा गांधी के निकट सहयोगी रहे एमएल फोतेदार ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर खुलेआम सवाल खड़े किए हैं, मै माखनलाल फोतेदार से निजी रूप से दो-तीन बार मिला हूँ और इसलिए कह सकता हूँ की कांग्रेस के मौजूदा युवा नेता राहुल गांधी के बारे में उनके आकलन को झुठलाया नहीं जा सकता. माखनलाल जी को अब कांग्रेस से ज्यादा कुछ लेना-देना नहीं है लेकिन वे कांग्रेस के बारे में यदि कुछ कहते हैं तो उस पर विचार किया जाना चाहिए.

    फोतेदार ने अपनी पुस्तक 'चिनार लीव्स' में कहा है कि यह केवल समय की बात है कि पार्टी के अंदर इसे कब चुनौती मिलती है उन्होंने लिखा है कि राहुल अपने पिता की ही तरह राजनीति नहीं करना चाहते और उनकी सीमाएं हैं और उन्हें उनके पिता की तरह इस काम के लिए तैयार नहीं किया गया है जैसा कि उनके पिता को स्वयं इंदिरा गांधी ने तैयार किया था.

    केंद्रीय मंत्री रह चुके फोतेदार पहले ऐसे कांग्रेस के दिग्गज नेता हैं जिन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया की आलोचना करते हुए कहा कि उनमें कई गुण होने के बावजूद राजनीतिक प्रबंधन की कमी है और राहुल को आगे बढ़ाने की उनकी इच्छा से पार्टी के अंदर समस्याएं खड़ी हुई हैं. राहुल के कांग्रेस की सत्ता संभालने के समय को लेकर चल रही चर्चा के बीच फोतेदार ने कहा है कि राहुल में कुछ अड़ियलपन है और नेता बनने की उनकी प्रेरणा बहुत मजबूत नहीं है. उन्होंने कहा, राहुल गांधी का नेतृत्व इस देश के लोगों को स्वीकार्य नहीं है और सोनिया गांधी का बेहतरीन समय पीछे छूट गया है. पार्टी को नेतृत्व देने वाला कोई नहीं है. इसने सीखना छोड़ दिया है.

    ये शायद माखनलाल फोतेदार ही कह सकते हैं की सोनिया ने, संसद के दोनों सदनों में विपक्षी नेताओं की नियुक्ति में इसने गलत चुनाव किए हैं. विधानसभा चुनावों में चुनौतियों से निपटने में इसने गलत विकल्प चुने. वास्तव में पार्टी ने कुछ भी सही नहीं किया है या नहीं कर रही है. फोतेदार को दुख है कि नेहरू, इंदिरा की विरासत इतने निचले स्तर पर पहुंच गई है.

    फोतेदार ने लिखा है कि चूंकि सोनिया गांधी खुद ही पार्टी की निर्विरोध नेता हैं इसलिए यह उनकी जिम्मेदारी है कि पार्टी में बदलाव लाएं. उन्होंने कहा कि किसी तरह से भी राहुल को जिम्मेदार ठहराना कांग्रेस अध्यक्ष से जिम्मेदारी हटाकर किसी और को देना है जिसने अभी तक अपने नेतृत्व कौशल का प्रदर्शन नहीं किया है. कांग्रेस नेता ने कहा, इतिहास खुद को दोहराने की चेतावनी दे रहा है. वे कहते हैं की-यह समय की बात है कि कब सोनिया और राहुल के नेतृत्व के समक्ष चुनौती मिलती है. मैं देखता हूं कि वे इस चुनौती से कैसे पार पाते हैं क्योंकि सोनिया इंदिरा नहीं हैं और राहुल संजय नहीं हैं. नेहरू-गांधी परिवार के पूर्व वफादार ने सोनिया के बारे में कहा कि वह इतिहास की सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस अध्यक्ष होंगी भले ही सबसे विशिष्ट नहीं हों.


    आपको याद होगा की 1998 में सोनिया जब पार्टी प्रमुख बनी थीं तो पार्टी टूटने की कगार पर थी और उन्होंने पार्टी को वहां से खड़ा किया जब पार्टी के सीटों की संख्या घटकर 116 रह गई थी. फोतेदार ने कहा कि दुखद बात है कि 16 वर्ष बाद पार्टी फिर बिखरने की तरफ है और बहरहाल इस बार कोई बचाने वाला नहीं है.

    फोतेदार अब भी सीडब्ल्यूसी के सदस्य हैं. उन्होंने कहा, राहुल को ज्यादा काम करने की जरूरत है और शीर्ष पद के लिए मेहनत करना होगा. राहुल को सिखाने के लिए भी कोई नहीं है. सोनिया गांधी इंदिरा गांधी नहीं हैं और उन्हें क्या करना चाहिए इसके लिए वह खुद ही कई लोगों पर निर्भर हैं. उनको सलाह देने वाले कई लोग कई मुद्दों पर उतने ही अनभिज्ञ हैं जितना वह खुद हैं. फोतेदार ने लिखा है, राहुल में कुछ अड़ियलपन है और नेता बनने की उनकी इच्छा मजबूत नहीं है. सोनिया गांधी के आसपास के लोग गुपचुप तरीके से नहीं चाहते कि वह सफल हों क्योंकि उनका मानना है कि अगर राहुल नेता बन गए तो वे खुद ही अप्रासंगिक हो जाएंगे. उन्होंने कहा है, सोनिया के समक्ष स्थिति यह है कि एक तरफ तो वह अपने आसपास के लोगों के बगैर काम नहीं कर सकतीं वहीं वह राजनीति में अपने बेटे को सफल बनाने की इच्छा रखती हैं.

    फोतेदार का आकलन है कि राहुल के चारों तरफ काफी संख्या में निहित स्वार्थ वाले लोग हैं और विचारों की लड़ाई में कांग्रेस के पतन के लिए सोनिया जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने कहा, सोनिया में कई गुण हैं लेकिन उनमें राजनीतिक प्रबंधन का गुण नहीं है. समय के साथ उन्होंने जो हासिल किया उन्हें वह इसलिए बरकरार नहीं रख सकीं कि या तो उनमें कौशल की कमी है या जिन लोगों से वह सलाह लेती हैं उनमें इसकी कमी है. परिणाम यह हुआ कि पार्टी में बिखराव शुरू हो गया.

    फोतेदार की किताब ऐसे समय आई है जब कांग्रेस के बुरे दिन चल रहे हैं, अब ये कांग्रेस पर है की वो अपनी पार्टी के एक अनुभवी नेता के इशारों को समझ कर अपने आप में बदलाव करे या फिर फोतेदार को भी पूरी तरह खारिज कर दे. दूसरे दल तो फोतेदार की टिप्पणियों का अपने तरीके से इस्तेमाल करेंगे ही.

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