पुण्य प्रसून बाजपेयी
इतिहास के पन्नों के आसरे जिस तरह की कवायद संसद के भीतर राजनीतिक दलों ने की उसने झटके में यह एहसास तो करा ही दिया कि राजनीतिक दलों की समूची विचारधारा अब सत्ता ही है। यानी सत्ता के लिये आंबेडकर। सत्ता में बने रहने के लिये अंबेडकर। संविधान की प्रस्तावना में लिखे शब्द, 'हम भारत के
लोग' को जबाव ना दे पाने के हालात में बेडकर और इतिहास का सहारा। कही इतिहास को हथियार बनाकर सामने वाले पर चोट तो कभी अपने लिये ढाल।संसद की बहस ने कई सवालो ने दो दिन में जन्म दे दिया । कभी लगा संघ परिवार हो या बीजेपी दोनो के भीतर आंबेडकर को लेकर जो प्रेम और श्रध्दा उभरी है वह सिर्फ संविधान निर्माता के तौर पर नहीं बल्कि सियासी तौर पर कही ज्यादा है । तो कभी लगा कांग्रेस आजादी के वक्त की कांग्रेस को भी मौजूदा कांग्रेस की ही तर्ज पर देखना चाह रही है । कभी लगा संसद के लिये अब देश के नागरिक मायने नहीं रखते बल्कि सांसद और सरकार या फिर सत्ता और संविधान ही नागरिक है । हम भारत के लोग हैं। याद कीजिये एक वक्त कांग्रेस को सरमायेदारो की सरकार कहा जाता था। टाटा, बिरला और डालमिया इन्ही तीनों का नाम तो काग्रेस से जुडता था । जनसंघ के साथ बडे सरमायेदार कभी नहीं आये । सिर्फ व्यापारी तबका साथ रहा । तो राजनीति के व्यवसायिकरण में भी एक तरह का चैक-एंड बैलेंस रहा और एक वक्त मुस्लिम लीग के साथ रिपब्लिकन पार्टी खडी हुई तो देश ने, 'जाटव-मुस्लिम भाई भाई, काफिर कौम कहा से आई' के नारे भी सुने और तब कांग्रेस को भी समझ नहीं आया कि सियासी रास्ता जायेगा किधर । लेकिन मौजूदा दौर तो छोटे-बडे व्यवसाय से कही आगे निकलकर कारपोरेट, विदेशी पूंजी और देश की खनिज संपदा की लूट में हिस्सेदारी से जा जुडा है तो सियासत विचार को तिलांजलि देकर आंबेडकर के नाम पर जो मथना चाहती है वह तो मथा नहीं जा रहा उल्टे जहर ज्यादा निकल रहा है । क्योंकि सत्ता, सियासत, सरकार और संविधान के नाम पर सरमायेदारो की भागेदारी से राजनेता चकाचौंध है । इसीलिये मौजूदा सियासत की महीन लकीर को समझे तो सवाल सिर्फ दलितो के मसीहा आंबेडकर को नयी पहचान देकर अपने भीतर समाहित करने भर का नहीं है । सवाल नेहरु पर हावी किये जाते सरदार पटेल का भी है । सवाल गांधी जयंती को स्वच्छता दिवस के तौर पर मनाने का भी है ।
सवाल शिक्षक दिवस को पीएम का बच्चो से संवाद दिवस बनाने का भी है । सवाल नेहरु और इंदिरा गांधी की जयंती को सरकारी कार्यक्रमो में भुलाया जाना भी है । यानी कांग्रेस जिन प्रतीकों के माध्यमों से राष्ट्र की कल्पना को मूर्त करती आई है उसे मोदी सरकार के दौर में अगर डिगाया जा रहा है तो राजनीतिक तौर पर यह सवाल हो सकता है कि क्या बीजेपी नये प्रतीकों को गढना चाह रही है। तो लड़ाई सीधी है तो क्या सडक क्या संसद। सोनिया गांधी भी आंबेडकर का आसरा लेकर यह कहने से नहीं चूकी कि जिन्हें संविधान से कोई मतलब नहीं रहा वह संविधान पर चर्चा करा रहे है। यानी उन पन्नो को सोनिया गांधी ने खोल दिया जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिये सरदार पटेल ने संघ से संविधान पर भरोसा जताने की बात कही थी। अन्यथा आरएसस के ख्याल में तो उस वक्त भी मनुस्मृति से बेहतर कोई संविधान था ही नहीं ।
तो सवाल है कि क्या मौजूदा वक्त में सियासी बिसात पर संविधान और संविधान निर्माता आंबेडकर को ही प्यादा बनाकर चाल चली जा रही है या फिर सियासी बिसात इतनी बडी हो चुकी है कि देश चले कैसे इसके लिये संविधान नहीं सत्ता की जरुरते बडी हो चुकी है । क्योकि सोनिया गांधी ने वहीं किया जो हर दौर की राजनीति कर सकती है यानी अतीत के जो शब्द मौजूदा वक्त में अनुकुल है उन शब्दो को चुनकर इतिहास का जिक्र कर खुश हुआ जाये। जाहिर है बीजेपी संविधान बनाते वक्त बनी नहीं थी और जनसंघ भी बाद में बनी लेकिन कांग्रेस ने जिस तरह 1935 के कानून का पहले विरोध किया और फिर इसी के तहत चुनाव भी लडे और कानून को भी यह कहकर अमल में लाये कि हम इसे भीतर जाकर तोड़ेंगे। लेकिन नेता खुद टूटे और संघर्ष के मार्ग से हटाकर संविधान को सुधारवादी मार्ग पर ठेल दिया गया । ऐसा भी नहीं है कि आंबेडकर इसे समझ नहीं रहे थे उन्होंने बाखूबी समझा और कहा भी 1935 के कानून से पहले भारत ब्रिट्रीश सरकार की संपत्ति थी और 1935 के कानून में भारत की संपत्ति और देनदारी दो हिस्सों में बंट गई। एक हिस्सा केन्द्र का दूसरा प्रांत का । यानी सेकेट्रेरी आफ स्टेट के बदले संपत्ति-देनदारी बादशाह सलामत के हाथ में आ गई और ध्यान दे तो मौजूदा सियासत उसी राह पर पहुंच चुकी है क्योंकि पीएम हो या राज्यो के सीएम उनकी हैसियत उनके जीने के तरीके किसी बादशाह से कम नहीं है। आलम तो यह भी है कि अब महाराष्ट्र के सीएम अपने लिये एक करोड की बुलेट प्रूफ गाड़ी खरीद रहे हैं। जबकि मुंबई हमलो के वक्त मुंबई पुलिस के पास बुलेट प्रूफ जैकेट तक नहीं थी और आज भी नहीं है।
इन हालातों से आंबेडकर वाकिफ तब भी थे । इसलिये इतिहास में इसका भी जिक्र है कि जब 13 दिसबंर 1946 को नेहरु संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यो के बारे में अपना प्रस्ताव पेश किया तो आंबेडकर ने उसकी आलोचना करते हुये कहा, ‘समाजवादी के रुप में नेहरु की जो ख्याती है उसे देखते हुये यह प्रस्ताव निराशाजनक है । ‘ दरअसल आंबेडकर ने इसके बाद विस्तार के साथ संविधान के उद्देश्यों का जो जिक्र किया संयोग से वह आज भी अधूरे है । क्योकि आंबेडकर ने तीन बाते रखी, पहली देश में सामाजिक आर्थिक न्याय हो । दूसरी उघोग-धंधो और भूमि का राष्ट्रीयकरण हो । तीसरी समाजवादी अर्थतंत्र अपनाया जाये। जाहिर है वोट देने की बराबरी के अलावे असमानता का भाव समाज में रहेगा उसका अंदेशा आंबेडकर को तब भी था । इसलिये वह सवाल भी खडा करते थे कि अंग्रेजो के बनाये संवैधानिक मार्ग से हटकर क्या कोई दूसरा रास्ता है, जिसपर चलने से देश अपना आर्थिक और राजनीतिक विकास कर सकता था । आंबेडर के बारे में इसी लिये कहा गया कि वह काम संविधानवादी की तरह करते लेकिन सोचते क्रातिकारी की तरह । जो नेहरु नहीं थे । तो क्या इसीलिये संविधान की मूल धारणा से ही हर सत्ता भटक गई । क्योकि संविधान के प्रस्तावना में तो , 'वी द पीपुल..फार द पीपल ...बाय द पीपल' का जिक्र है । लेकिन संविधान की व्याख्या करते करते काग्रेस और बीजेपी ने अपने इतिहास को इस तरीके से सहेजना शुरु किया कि सामने वाला कटघरे में खडा हो जाये । लेकिन जनता का कोई जिक्र कही नहीं हुआ । किसी ने नहीं कहा कि देश की मौजूदा हालात में तो करीब बीस करोड लोगो को दो जून की रोटी तक मुहैया नहीं है । इतना ही नहीं सरकार की तरफ से जब यह आंकडा जारी किया गया कि देश में नब्बे लाख लोगो के पास एक अदद छत तक नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट ने 12 दिसबंर 2014 को सरकार से कहा कि आप दोबारा आंकडे दिजिये ।
यानी देश के हालात बद से बदतर है और सरकारी आंकडों को लेकर ही भरोसा संवैधानिक संस्थाओ का डिगा हुआ है । यू संविधान ही नहीं बल्कि महात्मा गांधी ने तो आजादी का मतलब ही रोटी कपडा मकान से जोडा और सविधान सभा में अपनी बात भी पहुंचायी कि शिक्षा और पीने का साफ पानी तो सभी को मिलना चाहिये । लेकिन खुद सरकार के आंकडे कहते है कि देश में 30 करोड़ लोग कभी स्कूल नहीं गए और आज भी 6 से 11 साल उम्र के 14 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूल से बाहर हैं। बासठ फीसदी गांव तक पीने का साफ पानी आजतक नहीं पहुंचा है । फिर दिलचस्प यह भी है कि लोगों की बुनियादी जरुरतें पूरी होनी चाहिये इसका जिक्र संविधान में है । लेकिन हर राजनीतिक दल ने आजतक सिर्फ इतना ही किया कि अपने चुनावी मैनिपेस्टो में इन्ही बुनिय़ादी जरुरतों को जोड कर जनता को बेवकूफ बनान जारी रखा और अब तो इसे विकास का नाम दिया जा रहा है ।
दरअसल, संविधान की प्रस्तावना में जिस भारत का ख्वाब देखा गया-उसके आधार स्तंभ न्याय, ,स्वतंत्रता , समानता ,बंधुत्व है। जिसके मायने सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक विचार से जुडे है । विचार-अभिव्यक्ति-विश्वास-धर्म से जुडे है । पद एवं बराबर के अवसर से जुडे है । व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता के लिए जीने मरने से भी जुडे है । लेकिन देश का सच है कि - इस साल 19 सितंबर तक 2,02,86,233 .मामले न्यायलय में लंबित पड़े थे । जिसके दायरे में एक करोड से ज्यादा परिवार त्रासदी झेल रहे है । क्योकि उनका पैसा, वक्त और जहालत तीनो न्याय की आस में जी रहा है । फिर जेलों में इस वक्त 2.82,879 कैदी तो ऐसे हैं, जो अंडरट्रायल हैं। 13540 कैदी सिर्फ इसलिए बंद हैं क्योंकि उनकी ज़मानत देने वाला कोई नहीं। और इन सबके बीच अब बोलने की आजादी का मामला कुछ यूं हो चला है कि एक बड़े तबके को आपकी बात नागवार गुजरे तो राष्ट्रदोही करार देने में वक्त नहीं लगता । और जब तक आप हालात को समझे तब तक आप समाज के लिये खलनायक करार दिये जा चुके होते हो । मौजूदा दौर में इस आग को सत्ता से दूर तबका बाखूबी महसूस कर रहा है । और जिस सेक्यूलरइज्म की नींव पर संविधान खडा है उसपर नई बहस इस बात को शुऱु हो रही है कि सेक्यूलरइज्म को धर्म निरपेक्ष नहीं पंथनिरपेक्ष कहे ।
लेकिन इसकी किसी को फिक्र नहीं कि आजादी के बाद से विभाजन के दौर की त्रासदी से ज्यादा मौते साप्रदायिक दंगो में बीते 66 बरस में हो गई । दंगे कभी नही रुके मनमोहन सिंह के दौर में 2014 के पहले छह महीनो में 252 दंगे हुये । तो मोदी सरकार के दौर में इस बरस पहले छह महीनो में 330 दंगे हुये । लेकिन संसद बुनियाद पर खामोशी बरस संविधान की अपनी व्याख्या करने में व्यस्त है और जो दो शब्द समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता 42 वें संशोधन में संविधान के प्रस्तावना में जुडे संयोग से दोनो ही शब्द मौजूदा वक्त में कहीं ज्यादा बेमानी से हो गये ।