संजय पराते
अट्टीपद कृष्णस्वामी रामानुजन दक्षिण-एशियाई संस्कृति की बहुलतावादी परंपरा के अध्येता थे. वे यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो में दक्षिण-एशियाई अध्ययन के शिक्षक थे. दक्षिण एशिया का लोक साहित्य और भाषा-विज्ञान उनके अध्ययन की विषय-वस्तु थी और इस अध्ययन के क्रम में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर की दर्जनों प्रतिष्ठित पुस्तकें लिखी हैं. उनके इस अध्ययन में लोक साहित्य के एक अंग के रूप में भारत और इसके विभिन्न भू-भागों, तिब्बत, तुर्किस्तान, थाईलैंड, बर्मा, लाओस, कम्बोडिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, मलय, इंडोनेशिया और चीन में फैली राम कथाओं, इन कथाओं में वस्तुगत और रूपगत भिन्नता तथा बलाघातों का अध्ययन भी शामिल था. इसके लिए उन्होंने एशियाई देशों तथा हमारे देश की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों तथा राज्यों में लोक मानस तथा लोक परम्पराओं में प्रचलित रामायणों का व्यापक अध्ययन किया था.
फरवरी 1987 में रामकथाओं पर अपने अध्ययन पर पिट्सबर्ग यूनिवर्सिटी में उन्होंने एक विचारोत्तेजक आलेख प्रस्तुत किया था, जो "Three Hundred Ramayanas : Five Examples and Three Thoughts on Translation" ( तीन सौ रामायणें : पांच उदाहरण और अनुवाद पर तीन विचार) नामक लेख के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. (आनर्स) के इतिहास के पाठ्यक्रम में पाठ्य सामग्री के तौर पर वर्ष 2005 से ही शामिल था. दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों ने इस लेख को 'हिंदूविरोधी' तथा 'हिन्दू समुदाय की भावनाओं को चोट करने वाला' करार देते हुए इसके खिलाफ एक हिंसक और आक्रामक अभियान चलाया था तथा इलेक्ट्रोनिक मीडिया की उपस्थिति सुनिश्चित करते हुए इस विश्वविद्यालय में तोड़-फोड़ की थी. फिर विश्वविद्यालय ने इस लेख के अकादमिक मूल्यांकन के लिए चार इतिहासकारों की एक समिति बनाई थी, जिसने इस लेख पर लगे आरोपों को खारिज कर दिया था. उन्होंने पाया कि इसमें एक भी ऐसा वाक्य नहीं था, जो इसके हमलावरों को अपने अभियान के लिए औचित्य प्रदान करता हो. इसके बावजूद विश्वविद्यालय प्रबंधन ने दक्षिणपंथी ताकतों के आगे घुटने टेकते हुए इस लेख को पाठ्यक्रम से हटा दिया था.
दरअसल यह अभियान दक्षिणपंथी ताकतों के उसी आक्रामक अभियान का अंग था, जो हमारे देश और इस विशाल महाद्वीप की सांस्कृतिक बहुलता को नकारते हुए उसे इकरंगी बनाने की मुहिम छेड़े हुए हैं और इस क्रम में वे मुक्तिबोध की पुस्तकों की होली जलाते हैं, एम. एफ. हुसैन की पेंटिंगों तथा सहमत की प्रदर्शनियों पर हमले करते हैं, हबीब तनवीर के नाटकों में हंगामा करते हैं और इसी तरह विश्वविद्यालयी बौद्धिकता को आतंकित भी करते हैं. उनका यह अभियान सांस्कृतिक कम, राजनीतिक ज्यादा है -- राम नाम की लूट जो है. इसके लिए वे इस उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक बहुलता को निशाना बनाते हैं और तर्क-वितर्क और वाद-विवाद-संवाद की बौद्धिक और सांस्कृतिक अनुशीलन की प्रक्रिया का ही अपहरण करना चाहते हैं. दिल्ली के अंदर ऐसी शर्मनाक घटना का घटना भी केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस गठबंधन सरकार की 'धर्मनिरपेक्षता के प्रति वफ़ादारी' के दावे की कलई खोलने के लिए काफी था. यह घटना भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण के उस दौर में होती है, जब केंद्र सरकार शिक्षा के द्वार विदेशी निवेशकों के लिए चौपट खोलने के लिए तैयार बैठी है और विदेशी विश्वविद्यालयों को अपने देश में स्थापित करने के लिए आमंत्रित कर रही हैं. स्पष्ट है कि आज सरकारों की दिलचस्पी 'ज्ञान के प्रसार' में नहीं, बल्कि केवल उस बाज़ार में है, जो ज्ञान के प्रसार के नाम पर तो चलाया जायेगा, लेकिन जिसका असली मकसद मुनाफा कूटना ही है.
संस्कृति एक सतत प्रवाहित धारा है, जिसे आम जनता व उसका लोक मानस रचता-गढ़ता है. इसी धारा में वह डुबकी भी लगाता है और सांस्कृतिक अवरोधों से टकराता भी है. यह एक काल से दूसरे काल, एक समाज से दूसरे समाज तथा एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता की ओर निरंतर प्रवाहमान रहती है और इस प्रक्रिया में सांस्कृतिक सम्मिश्रण नए मूल्य और विचार पैदा करती है और सांस्कृतिक रूपांतरण की इस प्रक्रिया से एक नई संस्कृति का जन्म होता है.
राम कथा भी हमारी सतत प्रवाहमान सांस्कृतिक धारा की एक अमूल्य धरोहर है. इस कथा ने लोगों को शिक्षित किया है, समाज में नए मूल्य दिए हैं तथा हमारी सभ्यता को परिष्कृत किया है. इस कथा में आम जनता का मनोरंजन है, तो लोक का लोकरंजन भी. जिस तरह संस्कृति का प्रवाह लिखित कम, मौखिक और वाचिक रूप में ही ज्यादा होता है, उसी तरह राम कथा भी समय-प्रवाह के साथ एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता में जाकर, एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में घुलते-मिलते हुए, लोक मानस में पैठते हुए, लिखित कम तथा मौखिक और वाचिक रूप में अधिक, परिष्कृत व परिवर्धित होती गई. इसलिए वाल्मिकी के लौकिक राम कालान्तर में विष्णु के अवतार और थाई संस्कृति में पहुंचकर शिव के अवतार में बदल जाते हैं. वाल्मिकी रामायण के नायक राम होते हैं, तो जैन रामायण के नायक रावण. और यह सब कपोल-कल्पित इसलिए नहीं कहे जा सकते कि उत्तर भारत में आज भी राम पूज्य है, तो दक्षिण में राम की वैसी महत्ता नहीं, जैसी कि रावण की. उस समाज-संस्कृति में रावण नायक है.
इस प्रकार काल के सतत प्रवाह के साथ प्रवाहमान रामकथा की सांस्कृतिक धारा ने ही नए-नए रूप और रंग ग्रहण किये हैं. पूरे उपमहाद्वीप में इतनी रामकथाएं बिखरी पड़ी हैं कि गिनना मुश्किल है. इन कथाओं के रूप-रंग-स्वाद में व्यापक रूप से भिन्नता है-चाहे वह राम-लक्ष्मण-सीता के जन्म की कहानी हो, अहिल्या प्रकरण हो, रावण वध का प्रसंग हो या सीता की अग्नि-परीक्षा और निर्वासन का संदर्भ. एक कथा से दूसरी कथा, एक रामायण से दूसरी रामायण और एक परंपरा से दूसरी परंपरा में जाने पर इन कहानियों में पर्याप्त भिन्नता मिलती है -- वस्तुगत और रूपगत दोनों मामलों में. ए. के.रामानुजन बताते हैं कि इस उपमहाद्वीप में सैकड़ों रामायणें और हजारों रामकथाएं प्रचलित हैं. इन पर प्रचुर मात्र में टीका-टिप्पणियां और व्याख्याएं भी उपलब्ध हैं, जो हमारी गौरवशाली सांस्कृतिक-बौद्धिक समृद्धता का ही प्रतीक है.
तो फिर दक्षिणपंथियों को इस लेख से क्या दुश्मनी थी? दुश्मनी सिर्फ यही थी और असली बात भी यही है-कि वे हमारे देश और भारतीय उपमहाद्वीप की उस सांस्कृतिक बहुलता के ही दुश्मन है, जो भिन्न संस्कृतियों, राष्ट्रीयताओं, जातियों, नस्लों, धर्मों व भाषाओँ के मिलन से पुष्पित-पल्लवित हुई है और जिसने मानव समाज को आगे बढाया है. रामानुजन का असली अपराध यही है कि उन्होंने राम को संघी गिरोह द्वारा प्रचारित राम की उत्तर भारतीय छवि से बाहर निकला है और उन्हें अपने लौकिक स्वरुप में स्थापित कर दिया है. अतः रामानुजन की यह ज्ञान-मीमांसा राम की आड़ में संघी गिरोह द्वारा हमारे देश की इकरंगी छवि पेश कर अपनी हिन्दुत्ववादी आक्रामक मुहिम चलाने के आड़े आती है, जो चाहती है कि भारत की आम जनता उनकी हिंदूवादी राजनीति को आगे बढ़ने के लिए राम को उनके भगवे चश्मे से ही देखे. संघी गिरोह के जो समर्थक रामानुजन के खिलाफ लट्ठ लेकर खड़े हैं, उनमें से किसी ने उनके आलेख को पढ़ा भी नहीं होगा.
हालांकि वाल्मिकीकृत रामायण को आदि रामायण माना जाता है, लेकिन इस बात के पर्याप्त संकेत मिलते हैं कि वाल्मिकी से पूर्व भी अपनी मौखिक परंपरा में रामकथाएं प्रचलित थीं. वाल्मिकी ने तो सिर्फ इसे लिपिबद्ध किया था . फादर कामिल बुल्के, जो राम कथा के मर्मज्ञ थे, ने अपनी पुस्तक 'राम कथा : उत्पत्ति और विकास' मे यह बताया है कि वाल्मिकी की मूल रामायण में केवल 12000 श्लोक थे. बाद में लोगों द्वारा इसमें कई उल्लेखनीय घटना-प्रसंग जोड़े गए हैं और आज वाल्मिकी रामायण में श्लोकों की संख्या 25000 से ज्यादा है. कालांतर में रामकथा को केंद्र में रचकर खेली गई लीलाओं में इसे और अधिक मनोरंजक और लोकरंजक बनाने की दृष्टि से नए-नए प्रसंग जोड़े गए.
वाल्मिकी के समांतर ही ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी से ही रामकथाओं के विविध रूप बौद्ध और जैन पाठों में प्रचलित होने लगे थे. ये रामकथाएं और रामायणें वाल्मिकी रामायण और तुलसीदास कृत रामचरित मानस से पर्याप्त भिन्न हैं. जैन रामायण के अनुसार, सीता रावण की पुत्री है और रावण दानव नहीं है. यहां रावण का वध लक्ष्मण करते हैं, राम नहीं. बौद्ध परंपरा में राम और सीता भाई-बहन है.
थाई 'रामकीर्ति' में हनुमान न ही रामभक्त है और न ही ब्रह्मचारी, बल्कि वे शौक़ीन मिजाज़ व्यक्ति हैं, जो लंका के शयन कक्षों में झांकने और दूसरों की सोती हुई पत्नियों को देखने में न तो संकोच करते हैं और न ही इसे अनैतिक मानते हैं. संथाली परंपरा में तो सीता को व्यभिचारिणी माना जाता है, जिसका शीलभंग रावण और लक्ष्मण दोनों द्वारा किया जाता है. इन रामायणों और परम्पराओं को मानने वाले लोग न केवल भारत, बल्कि इसके बाहर भी फैले हुए हैं. इन लोगों की सम्मिलित संख्या संघी गिरोह के अनुयायियों से भी अधिक होगी.
तुलसीदास भी राम के कई अवतारों और रामायण के कई पाठों पर बल देते हैं -- "नाना भांति राम अवतारा, रामायन कोटि अपारा." लेकिन वे भी न तो अपनी कथा को श्रेष्ठ बताते हैं और न ही दूसरी कथाओं का मखौल उड़ाते हैं, क्योंकि घट-घट में राम रमे. असली बात यह है कि आप राम को और रामकथा को किस रूप में लेते हैं और अपना सांस्कृतिक-आध्यात्मिक परिष्कार करते हैं. यह जरूरी नहीं कि राम सबके आराध्य देव हों -- असली जोर रामकथा पर है, लेकिन संघी गिरोह का गोस्वामी तुलसीदास की इस बात से भी कोई लेना-देना नहीं.
संघी गिरोह के दबाव में तत्कालीन कांग्रेस सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन ने रामानुजन के लेख को पाठ्यक्रम से तो निकाल दिया था, लेकिन राम की उत्तर भारतीय परिकल्पना से भिन्न बहुलतावादी, बहुरंगी परम्पराओं को मानने वालों को क्या देश निकाला और इस उपमहाद्वीप से ही निर्वासित कर सकेगी??