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जीवन के अर्थ खोजती ' सारांश '

संजय पराते

वह महेश भट्ट की फिल्म थी -- उनकी सबसे प्रिय फिल्म, जिसके जरिये 28 साल की उम्र में अनुपम खेर ने फिल्म जगत में प्रवेश किया था. लेकिन यह दानिश इकबाल का नाटक था, जिसे उन्होंने महेश भट्ट के मार्गदर्शन में ही तैयार किया है. इस प्रकार यह एक मिली-जुली कृति है. खचाखच खरे रायपुर के मुक्ताकाशी मंच पर रंग दर्शक सांस थामे मंचन देखते रहे. जबरदस्त तालियों के साथ उन्होंने दिल खोलकर कलाकारों के अभिनय की सराहना की. फिल्म पर रंगमंच का पलड़ा भारी दिखा.

ऊपरी तौर पर यह एक रिटायर्ड हेड मास्टर बी वी प्रधान की कहानी है, जो अपने बेटे की अकारण हत्या के बाद अपनी पत्नी पार्वती के साथ मिलकर जीवन के नए अर्थों की तलाश करता है. इस ' तलाश ' में वह टूटता-बिखरता है, लेकिन हारता नहीं. वह अपनी पत्नी के चेहरे की झुर्रियों में अपने जीवन का ' सारांश ' खोजता है.

लेकिन गहरे अर्थों में यह आज़ादी के बाद बने पतनशील समाज की कहानी है, जिसके मूल्य बिखर रहे हैं, सपने हवा हो रहे हैं. इस समाज पर भ्रष्टाचार का रोग लगा है. राजनीति पर अपराधीकरण हावी है और इस राजनीति का मुख्य लक्ष्य केवल चुनाव जीतना और पैसे बनाना रह गया है. यह राजनीति इतनी संवेदनहीन हो चुकी है कि कोख में पनप रहे बच्चे की भी हत्या पर वह उतारू है.

लेकिन पतनशीलता के खिलाफ एक लड़ाई हमेशा जारी रहती है. अपने बेटे अजय की हत्या प्रधान और उसकी पत्नी भूल नहीं पाते. सुजाता की कोख में पार्वती अपने बेटे अजय को देखती है.दोनों मिलकर इस बच्चे को जन्म देना ठानते हैं. लेकिन प्रधान नहीं चाहते कि उनकी पत्नी कल्पना-स्वप्न में जीयें. वे कठोरता से सुजाता व विलास को घर से अलग करके बच्चे का जन्म सुनिश्चित करते हैं. प्रधान दंपत्ति जिंदगी का सामना करने फिर से तैयार होते हैं, क्योंकि मृत कभी वापस नहीं आते और जीवन असीमित है.

' सारांश ' में अनुपम खेर ने प्रधान की भूमिका निभाई थी और असहिष्णुता के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. जिस संघर्ष को उन्होंने परदे पर लड़ा -- वह केवल अभिनय था, वास्तविक नहीं. वास्तविकता तो यह है कि आज वे असहिष्णुता की उन्हीं ताकतों के साथ हैं, जो न केवल राजनैतिक गुंडागर्दी कर रही है, बल्कि उनका बस चले तो अपनी विरोधी ताकतों को ' देशनिकाला ' दे दें. पर्दे पर वे अपने बेटे अजय की हत्या से विचलित दिख सकते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में एक अफवाह पर भीड़ द्वारा इखलाक की हत्या कर देने से वे विचलित नहीं होते. वे उस राजनीति के पक्ष में खड़े हैं, जो इखलाक, पानसारे, कलबुर्गी की हत्या के लिए जिम्मेदार है. वे उन लोगों की अगुवाई कर रहे हैं, जो इस समाज की ' उदार ' मानसिकता को ' असहिष्णु ' मानसिकता में बदल देना चाहते हैं और जो ताकतें असहिष्णुता के खिलाफ लड़ रही है, उन्हें ही ' असहिष्णु ' बताते हुए गरिया रही है. यह जरूरी भी नहीं कि एक अच्छा अभिनेता, एक अच्छा इंसान भी हो.

अनुपम खेर के ' सारांश ' से एकदम जुदा है दानिश इकबाल का ' सारांश ' . फिल्म का नायक तो आज खलनायक बन चूका है और रंगमंच आज नायक की भूमिका अदा कर रहा है -- एक ' असहिष्णु ' समाज के निर्माण के प्रयासों के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ रहा है.

यह मुक्तिबोध के नाम पर आयोजित इप्टा के 19वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का आखिरी दिन था, जिस पर समर्पण और श्रद्धांजलि विवाद हावी रहा. लेकिन कलबुर्गी, पानसारे-जैसे इस देश के अप्रतिम योद्धाओं के लिए न कोई श्रद्धांजलि थी, न कोई समर्पण. कहीं यह इप्टा के जेबी संगठन बनने और वैचारिक क्षरण का लक्षण तो नहीं ?  मुक्तिबोध आज इप्टा से ही पूछ रहे हैं -- किस ओर खड़े हो तुम ? दंगाईयों के साथ या दंगों के खिलाफ ??
(लेखक की टिप्पणी -- बतौर एक दर्शक ही)

About Author

संजय पराते

लेखक राजनितिक कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र लेखक हैं।
मोबाइल-9425231650

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    संजय पराते

    एक कृति के कितने पाठ हो सकते हैं ? निश्चय ही उतने, जितनी एक घटना की व्याख्याएं. कई-कई पाठ और कई-कई व्याख्याएं बहुलतावाद को जन्म देती है. इन पाठों और व्याख्याओं का एक साथ रहना-गुनना ही सहनशीलता की संस्कृति को जन्म देता है. आज यही संस्कृति हिंदुत्ववादियों के निशाने पर है. वे अपनी एकरंगी व्याख्या से बहुलतावाद को हड़पना चाहते हैं और इस कोशिश में वे हमारी संस्कृति के महानायकों का भी हरण करने से नहीं चूक रहे हैं. वे महात्मा गांधी और भगतसिंह का हरण कर रहे हैं, तो ' महाप्राण ' निराला को भी उग्र हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में व्याख्यायित कर रहे हैं. निराला को हड़पने की कोशिश में वे ' वह तोड़ती पत्थर ' को ठुकराते हैं, ' राम की शक्ति-पूजा ' का सहारा लेते हैं.

    आधुनिक हिंदी साहित्य में निराला का एक विशेष स्थान है. ' राम की शक्ति-पूजा ' उनकी कालजयी रचना है. लेकिन ये राम न वाल्मिकी के ' अवतारी ' पुरूष हैं और न तुलसी के ' चमत्कारी ' भगवान ' . वे महज़ एक संशययुक्त साधारण मानव है, जो लड़ता है, हताश-निराश होता है, फिर प्रकृति से शक्ति प्राप्त करता है और शक्ति के संबल से विजय प्राप्त करता है. द्वितीय विश्व युद्ध में आम जनता के आत्मोत्सर्ग से हिटलर के नेतृत्व वाली फासीवादी ताकतों की पराजय सुनिश्चित होती है. इस विश्व युद्ध की पूर्वबेला में निराला ' राम की शक्ति-पूजा ' करते हैं. वे मानस के कथा-अंश को नए शिल्प में ढालते हैं.

    लोक परंपरा से मिथक शक्ति ग्रहण करते हैं. यदि ये मिथक गलत हाथों में चले जाएं, तो उसका दुरूपयोग संभव है. भारतीय राजनीति की हकीकत भी आज यही है कि यहां गलत हाथों में मिथक चले गए हैं और पूरी राजनीति ' राम ' और ' गाय ' के मिथकों के सहारे लड़ी जा रही है. इसीलिए बहुलतावादी संस्कृति की रक्षा में इन मिथकों के पुनर्पाठ, पुनर्व्याख्या की जरूरत है.

    व्योमेश शुक्ल का रंगमंच इसकी पूर्ति करता है. भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक ताकतें जिन मिथकों का सहारा ले रही हैं, उन्हीं मिथकों का सहारा वे उन्हें पछाड़ने के लिए कर रहे हैं. अपनी बहुलतावादी परंपरा की खोज में वे दिनकर, प्रसाद, निराला और भास तक जा रहे हैं और रंगमंच पर राम और महाभारत का बहुलतावादी पुनर्सृजन कर रहे हैं. भारतीय संस्कृति की बहुलतावादी परंपरा की खोज में वे बहुत कुछ तोड़ रहे हैं, बहुत-कुछ जोड़ रहे हैं और इस जोड़-तोड़ से रंगमंच की लोक परंपरा को पुनर्सृजित कर रहे हैं. इस पुनर्सृजन में वे सितारा देवी के ' हनुमान परन ' का भी उपयोग कर रहे हैं, ' राणायनी संप्रदाय ' के बापटजी के ' सामगान ' का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, तो पंडित जसराज के भजन भी उनके रंगमंचीय साधन है. लेकिन लोक परंपरा के इस पुनर्सृजन धार्मिकता कहीं हावी नहीं है. वे राम की एक ऐसी लोक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, जो देश-काल-धर्म के परे स्थापित होती है. राजनीति और संस्कृति में धर्म के इस्तेमाल के खतरे से वे वाकिफ हैं. उन्हें मालूम है कि राजनीति का चेहरा गहरे अर्थों में सांस्कृतिक भी होता है और यदि संस्कृति के क्षेत्र में धर्म को हावी होने दिया जाएगा, तो राजनीति के चेहरे को सांप्रदायिक होने से कौन रोक सकता है ?

    सो, व्योमेश शुक्ल की ' राम की शक्ति-पूजा ' निराला की साहित्यिक परंपरा का रंगमंचीय सृजन है. उनकी यह नृत्य-नाटिका अभिनय और नृत्य का अदभुत मिश्रण है. पात्रों का रंगाभिनय मूक अभिनय का निषेध करता है और नृत्य के लय-ताल-गति को स्थापित करता है. शास्त्रीय संगीत में डूबी बनारसी राम लीला के इस मंचन में भरतनाट्यम और छाऊ नृत्यों का अदभुत संगम स्थापित किया गया है.

    व्योमेश शुक्ल की कल की दूसरी प्रस्तुति ' पंचरात्रम ' भी महाभारत के एक दूसरे पाठ को सामने लाती है, जिसकी रचना महाकवि भास ने की है. यहां " सुईं के नोंक के बराबर भी जमीन नहीं दूंगा " का अंध-राष्ट्रोंन्माद नहीं है, बल्कि द्रोणाचार्य को दक्षिणा के रूप में आधे राज्य को देने को तैयार दुर्योधन खड़ा है. यहां दुर्योधन की ओर से लड़ने वाला अभिमन्यु है, जो विराट के गायों के अपहरण के लिए अर्जुन से लड़ता है और भीम से पराजित होता है. पांच दिनों में पांडवों को खोजने की दुर्योधन की शर्त पूरी होती है और पांडवों को आधा राज्य मिलता है. भास की यह कृति ' महाभारत ' का निषेध है. जिसका साहसिक मंचन कल व्योमेश ने किया. इस देश में जब बहुलतावाद और सहिष्णुता की संस्कृति संघी गिरोह के निशाने पर है, व्योमेश के इस सांस्कृतिक हस्तक्षेप की सराहना की जानी चाहिए.

    (लेखक की टिप्पणी -- बतौर एक दर्शक ही)

  • इप्टा नाट्य समारोह: रंग-भावनाओं की झमाझम बारिश

    संजय पराते

    'महाभारत ' समाज में मातृसत्ता के लोप और दासत्व की स्थापना का महाकाव्य है. विभिन्न कला-माध्यमों में यह काव्य पुनर्रचित, पुनर्सृजित होता रहा है. राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर ने इसकी पुनर्रचना ' रश्मिरथी ' के रूप में की है, तो नाट्य संस्था ' रूपवाणी ' के जरिये व्योमेश शुक्ल ने इसे मंच पर नृत्य नाटिका के जरिये साकार किया है.

    ' रश्मिरथी ' महाभारत की कहानी का हिस्सा है. महाभारत का एक अद्वितीय चरित्र है कर्ण. कर्ण एक संपूर्ण व्यक्तित्व नहीं है. उसके व्यक्तित्व का निर्माण महाभारत के विभिन्न पात्रों के आचरण से निर्मित होता है. वह कुंती की अवैध संतान है, क्योंकि कुंती ने उसे कुमारी अवस्था में उत्पन्न किया था. वह सूर्यपुत्र था, लेकिन मातृसत्ता के ध्वंस ने कुंती को इतना असहाय बना दिया था कि उसे अपने सुंदर पुत्र का त्याग करना पड़ा. ' सूर्यपुत्र ' को ' सूतपुत्र '  बनना पड़ा, जिसका पालन-पोषण दरिद्र और मामूली मछुआरों द्वारा किया गया. मनु के वर्ण-विधान में ' सूत ' शूद्रों के अधिक निकट थे. लेकिन फिर भी वह, अपने वैध पांडव भाईयों से अधिक वीर व उदार था. अर्जुन भी हालांकि राजा पांडु की वैध संतान नहीं था, लेकिन उसके पास पितृसत्ता और उससे उत्पन्न कुल-गोत्र की छाया थी. पितृसत्ता और कुल-गोत्र का यह बल कर्ण पर हमेशा भारी पड़ा, बावजूद इसके कि वह अर्जुन से ज्यादा पराक्रमी था. प्रतिद्वंद्वी कर्ण भरी सभा में अपने पिता का नाम नहीं बता सका. कुंती का आंचल दूध से भीगता रहा, लेकिन मातृसत्ता हार चुकी थी. अब संतानों की पहचान पिताओं से होती थी.

    मातृसत्ता के ढहने और पितृसत्ता के स्थापित होने का प्रतीक परशुराम भी है, जिन्होंने अपने पिता के कहने पर अपनी माता की हत्या की थी. कर्ण को इस मातृहंतक ब्राह्मण से भी शापित होना पड़ा.

    इस प्रकार कर्ण को बार-बार अपने पूरे जीवन अपनी अस्मिता से जूझना पड़ा. बार-बार उसका अतीत उसके ' वीरत्व ' को पीछे खींचता रहा. तब दुर्योधन ने उसे पहचान दी, उसका अभिषेक राजा के रूप में किया और कुंतीपुत्र कर्ण अपनी संपूर्णता में दैदीप्यमान कौरव सेनापति के रूप में खड़ा होता है. अपनी अस्मिता के संघर्ष में कर्ण विजयी होता है. कौरवों और पांडवों के बीच का महाभारत ' कर्ण ' की उपस्थिति के बिना अर्थपूर्ण व संभव न था.

    इसीलिए दिनकर की ' रश्मिरथी ' का नायक कर्ण ही है, जिसे व्योमेश शुक्ल ने ठेठ बनारसी रंग में कल मुक्ताकाशी मंच पर साकार किया. इसके विमर्श के केन्द्र में अस्मिता की वही राजनीति है, जो आधुनिक भारत की राजनीति के केन्द्र में आज भी है. अन्याय के खिलाफ सामाजिक लामबंदी के प्रभावशाली साधन के रूप में आज भी इसका प्रयोग किया जा रहा है. शायद यही कारण हो कि दलितों और वंचितों को आज भी सबसे ज्यादा अपील कर्ण ही करते हैं, कृष्ण नहीं.

    व्योमेश शुक्ल अपने अंदाज़ में ' रश्मिरथी ' को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें बार-बार कुंती की आवाजाही और उसका मातृनाद है. इस मातृनाद से विचलित होते हुए भी, कुंती के लिए कर्ण का आश्वासन केवल यही है कि उसके पांच बेटे जीवित रहेंगे, ' पांच पांडवों ' का वे कोई आश्वासन नहीं देते. इस प्रकार वे पितृसत्ता को चुनौती देते हैं. अपनी अस्मिता के संघर्ष में वे जातिप्रथा की अमानवीयता को उजागर करते हैं, जो एक मनुष्य को उसकी मानव जाति से अलग कर दासत्व की श्रेणी में ढकेलती है. कर्ण का संघर्ष क्रमशः स्थापित होती दास प्रथा के खिलाफ हुंकार भी है. कर्ण की मृत्यु दास प्रथा की स्थापना का प्रतीक है. कर्ण, दुर्योधन और कृष्ण के अभिनय में उनके स्त्री-पात्रों ने बहुत कुशलता से रंग भरा है.

    व्योमेश शुक्ल ने कल रंग-भावनाओं की जो झमाझम बारिश की है, वह आज भी जारी रहेगी. यह 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह का दूसरा दिन था -- जो जितेन्द्र रघुवंशी के साथ ही बबन मिश्र की ' अपराजेय ' स्मृति को समर्पित था. इस दिन आयोजकों ने अपनी उस घोषणा से भी ' मुक्ति ' पा ली कि कुमुद देवरस सम्मान जिस महिला नाट्यकर्मी को दिया जाएगा, उसकी एक नाट्य-प्रस्तुति भी मंच पर अवश्य ही होगी. इस वर्ष यह सम्मान रायगढ़ इप्टा की ऊषा आठले को दिया गया, लेकिन उनकी नाट्यकृति की अनुपस्थिति के साथ. इप्टा को अभी बहुत-से झंझटों से मुक्ति पाने के लिए एक लंबी यात्रा करनी होगी.

    (लेखक की टिप्पणी बतौर एक दर्शक ही)

  • इप्टा नाट्य समारोह: प्रेमचंद की बंबईया प्रस्तुति

    संजय पराते

    इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश द्वारा उदघाटन के साथ रायपुर में 19वां मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह प्रारंभ हुआ. 25 नवम्बर तक चलने वाले इस समारोह में 9 नाट्य प्रस्तुतियां होंगी. और पहले दिन की प्रस्तुति थी -- ' आदाब, मैं प्रेमचंद हूं. '  मुजीब खान के निर्देशन में आइडियल ड्रामा एंड इंटरटेनमेंट, मुंबई ने मुंशी प्रेमचंद की पांच कहानियों का नाट्य रूपांतर प्रस्तुत किया. ये कहानियां थीं क्रमशः -- प्रेरणा, मेरी पहली रचना, सवा सेर गेहूं, आप-बीती और रसिक संपादक. मुजीब खान पर प्रेमचंद को मंचित करने का जुनून है. वे प्रेमचंद की 315 कहानियों के 500 से ज्यादा मंचन कर चुके हैं. इसके लिए लिम्का बुक में उनका नाम दर्ज है. गिनीज़ बुक में वे दर्ज होना चाहते हैं और इसकी तैयारी चल रही है. कुछ लोग इतिहास में इसी तरह दर्ज होते हैं. शायद प्रेमचंद को भी सुकून हो कि उन्हें मंचित करने के लिए मुजीब खान ने फिल्म और टेलीविज़न को भी ठुकराया. मंचन का जुनून ऐसा कि ट्रेन में आरक्षण न मिलने पर तत्काल का सहारा लिया -- आने में और जाने में भी. इतने विकट संघर्ष से ही रंगकर्म जिंदा है.

    मुंबई में रंगकर्म को जिंदा रखना आसान नहीं है. जो लोग थियेटर से जुड़ते हैं, वे नाम और पैसे के लिए टीवी व फिल्मों में सरक लेते हैं. रंगकर्म से उनका जुड़ाव 5-6 महीनों तक का होता है. प्रेमचंद पहली सीढ़ी है, जिस पर पांव रखकर आगे बढ़ा जा सकता है. लेकिन मुजीब नींव के पत्थर है, प्रेमचंद को जिंदा रखने के लिए. वे नौसिखियों व नवागतों के सहारे अपने रंगकर्म को खींच रहे हैं और थियेटर से जुड़े रहने का रिकॉर्ड बना रहे हैं.

    प्रेमचंद अपनी लेखनी से महान थे, इसमें किसी को शक नहीं. वे सामंतवादविरोधी-साम्राज्यवादविरोधी प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के अगुआ थे. अपनी लेखनी में उन्होंने न जॉन को बख्शा, न गोविंद को. सांप्रदायिकता हमेशा उनके निशाने पर रही कि किस तरह वह संस्कृति की खाल ओढ़कर सामने आती है और आम जनता को बरगलाती है. जिस ' गाय ' पर आज भारतीय राजनीति में घमासान मचा हुआ है, उस गाय के विविध चित्र अपने पूरे रंग में उनकी कहानियों में छाये हुए हैं -- दो बैलों की कथा से लेकर पंच परमेश्वर और गोदान तक फैली हुई. सामाजिक कुरीतियों पर जिस तरह उन्होंने करारा व्यंग्य किया, बहुत ही कम लोगों ने किया और इसके लिए उन्हें ' घृणा का प्रचारक ' कहा गया. महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होंने अपने शिक्षकीय पेशे से त्यागपत्र दिया. आज यदि वह ऐसा काम करते, तो शायद हमारा संघी गिरोह उन्हें अपनी गालियों से नवाजता. वैसे तब भी वे सांप्रदायिक ताकतों के निशाने पर थे.

    सभी कहानियां मंचन योग्य नहीं होती. प्रेमचंद पर भी यह लागू होती है. ऐसी कहानियों को मंचित करने की कोशिश की जाएं, तो उसके मंच पर कहानी-पाठ बनकर रह जाने का खतरा रहता है. ऐसी कहानियां सूत्रधारों के बल पर चलती है. सूत्रधारों का रंगाभिनय रंग-दर्शकों की रंग-कल्पना को उत्तेजित करता है और उसके रंग-मानस में दृश्य रचता है. इस मायने में सूत्रधार कमजोर, तो पूरे मंचन के बैठ जाने का खतरा रहता है. यह मुजीब का ही साहस है कि वे इस खतरे को उठा रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद, जहां भी हास्य-व्यंग्य की उपस्थिति रही, कलाकारों ने जमकर नाटक खेला है और दर्शकों को प्रेमचंद से जोड़ने में सफलता हासिल की है.  

    आज समूचा प्रगतिशील कला-जगत संघी गिरोह के निशाने पर है. वे पूरे समाज को धर्म और जाति के आधार पर बांट देना चाहते हैं, ताकि अपने ' हिंदू-राष्ट्र ' के निर्माण के लक्ष्य की ओर बढ़ सकें. हिंदुत्व की मानसिकता पैदा करने की कोशिश कितनी नापाक है, यह निर्दोष ईखलाक की भीड़ द्वारा हत्या से पता चलता है. एक बहुलतावादी, धर्म-निरपेक्ष और सहिष्णु समाज को एकरंगी, पोंगापंथी और असहिष्णु समाज में बदलने की कोशिश जोर-शोर से जारी है. इसके खिलाफ संघर्ष में प्रेमचंद मशाल लिए आगे-आगे चल रहे हैं. प्रेमचंद की इस मशाल को मुक्तिबोध ने थामा था और हिंदुत्ववादियों ने उनकी पुस्तकों की होली जलाई थी. प्रेमचंद और मुक्तिबोध की इस मशाल को गोविंद पानसारे, नरेन्द्र दाभोलकर और कलबुर्गी ने थामा था और उन्हें शहादत देनी पड़ी.

    लेकिन इस समारोह ने स्थापित किया कि प्रगतिशील विचारधारा से ज्यादा सहिष्णु और कोई विचारधारा नहीं हो सकती. जिस देश में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारों का सम्मान किया जा सकता है, उस देश में इप्टा को संघी पत्रकार के निधन पर श्रद्धांजलि देने से कोई हिचक नहीं हो सकती. इस समारोह के इस पत्रकार के नाम पर समर्पित होने की ख़बरें तो हवा में चल ही रही है.

    (लेखक की टिप्पणी बतौर एक दर्शक ही)

  • मिथक मुस्लिमों के बहुसंख्यक होने का

    संजय पराते

    वर्ष 2011 में धार्मिक समुदायों की जनगणना के आंकड़े सामने हैं. इस देश में हिन्दू आज भी सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय है, जिसकी आबादी पिछले एक दशक में 13.87 करोड़ बढ़ी है, लेकिन देश की कुल जनसंख्या में उसकी प्रतिशत आबादी में 0.7 प्रतिशत की कमी हुई है. दूसरा सबसे बड़ा समुदाय मुस्लिम है, जिसकी आबादी भी बढ़ी है -- एक दशक में 3.4 करोड़ और उसकी प्रतिशत आबादी भी बढ़ी है 0.8 प्रतिशत. यह हकीकत है. इस वास्तविकता का उपयोग संघी गिरोह अपने उस मिथक को स्थापित करने के लिए कर रहा है, जिससे 'हिन्दू राष्ट्र' निर्माण का उसका लक्ष्य आसान हो. वह मिथक है, निकट भविष्य में मुस्लिम बहुसंख्यक हो जायेंगे और हिन्दू अल्पसंख्यक. इसलिए हे हिन्दुओं ! जागो, अपनी जनसंख्या को बढाओ. घर में भले ही खाने के लिए दाने न हो, लेकिन धर्म को बचाओ और धर्म तभी बचेगा, जब तुम्हारी आबादी बढ़ेगी. लेकिन केवल आबादी बढाने से ही काम नहीं चलेगा, साथ ही मुस्लिमों की आबादी भी कम करनी होगी, उनके धर्म को नष्ट भी करना होगा. इसलिए हे हिन्दुओं, अपना सबसे बड़ा दुश्मन मुस्लिमों को मानो, उन्हें ख़त्म करने के लिए दंगे-फसाद-नफ़रत का ब्रह्मास्त्र चलाओ और इसके बावजूद जो बच रहे, उन्हें पाकिस्तान की राह दिखाओ.

    तो ये  धार्मिक असहिष्णुता का अल्पसंख्यक मुस्लिमों के खिलाफ इतना बड़ा वातावरण जो देख रहे हैं न आप, उसकी जड़ों में संघी गिरोह की यही 'बीमार ग्रंथि' है. जो भी आम या ख़ास नागरिक इस बीमारी पर चोट करेंगे, वे इस गिरोह के ख़ास निशाने पर होंगे. वे मारे जायेंगे केवल इस अपराध में कि वे इस देश की बहुलतावादी संस्कृति एवं धर्म-निरपेक्षता की रक्षा के लिए संघी गिरोह की सोच के खिलाफ तनकर खड़े हैं. ऐसे लोगों को वामपंथी कहकर गरियाया जायेगा और खुले-आम सर कलम करने की धमकियां दी जायेंगी. अपनी नस्लवादी सोच के समर्थन में वे ललकार कर कहेंगे -- जरा ऐसी बात पाकिस्तान, ईरान या इराक में कहकर देखें, तुम्हारा क्या हाल होता है !! सन्देश स्पष्ट है. हम भी पाकिस्तान, ईरान और इराक बनने की लाईन में खड़े हैं, आईये इस पुण्य काम में हाथ बंटाएं. संघियों के इस मिथक को तोडना जरूरी है.

    भारत के ज्ञात इतिहास में एक धार्मिक समुदाय के रूप में हिन्दू हमेशा ही बहुसंख्यक रहे हैं. संघी गिरोह जिस जिस मुस्लिम शासन को 'अत्याचारी राज्य' के रूप में पेश करता है, वह भी हिन्दुओं को अल्पसंख्यक नहीं बना पाया. अंग्रेजों के राज में भी आबादी के गठन का यह स्वरुप बरकरार रहा. पिछली तीन बार के जनगणना के आंकड़ों पर गौर करें :

    धर्म...        कुल जनसंख्या में प्रतिशत...        कुल जनसंख्या (करोड़)...       दशकवार वृद्धि का प्रतिशत
                      1991     2001     2011            2001      2011                     1981-91    91-2001     01-11
    हिन्दू.          81.5     80.5      79.8             82.76    96.63                        22.7         19.9         16.8
    मुस्लिम       12.6     13.4      14.2.           13.82     17.22.                       32.9         29.3         24.6.

    इन आंकड़ों से निम्न बातें स्वतः स्पष्ट है :
    1. हिन्दू और मुस्लिम दोनों धार्मिक समुदायों की आबादी में वृद्धि हुई है. आज भी हिन्दुओं की आबादी मुस्लिमों की तुलना में 5.6 गुना से ज्यादा है.
    2. पिछले दो दशकों में हिन्दुओं की आबादी की वृद्धि दर में 5.9% की गिरावट आई है, तो मुस्लिमों की वृद्धि दर में गिरावट इससे भी ज्यादा तेज है -- 8.3% की.

    इन आंकड़ों के मद्देनजर पहला सवाल तो यही हो सकता है कि यदि हिन्दुओं में दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर 16.8% तथा मुस्लिमों में 24.6% बनी रहे, तो कितने सालों बाद दोनों धार्मिक समुदायों की आबादी बराबर होगी? गणित का चक्रवृद्धि सूत्र बताता है कि इसमें कम-से-कम 300 साल लग जायेंगे. 300 साल बाद इस देश में हिन्दुओं की आबादी 102 अरब होगी, तो मुस्लिमों की भी. लेकिन इस पृथ्वी में 204 अरब लोगों के रहने की जगह है? ...और दूसरे देशों के बाकी लोग कहां जायेंगे?? निश्चित ही, जनसंख्या संतुलन का प्राकृतिक सिद्धांत इसकी इज़ाज़त नहीं देता. संघी मिथक वास्तविकता से बहुत-बहुत दूर है.

    लेकिन जनसंख्या की वृद्धि दर स्थिर नहीं है. दोनों धार्मिक समुदायों में यह गिरावट जारी है और हिन्दुओं की तुलना में मुस्लिमों में तेज गिरावट जारी है. तो दूसरा सवाल यही हो सकता है कि दोनों समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दर कितने सालों बाद शून्य पर आ जाएगी? एक मोटा गणितीय विश्लेषण यही बताता है कि आज से लगभग 60 सालों बाद याने वर्ष 1971 की जनगणना तक दोनों समुदायों की जनसंख्या वृद्धि दर लगभग शून्य होकर जनसंख्या स्थिर हो जाएगी. 'प्यू रिसर्च' की रिपोर्ट के अनुसार तो वास्तव में ऐसा वर्ष 2050 तक ही हो जायेगा.

    इससे तीसरा सवाल पैदा होता है, तब दोनों समुदायों की अनुमानित आबादी क्या होगी? वर्ष 2011 की जनसंख्या वृद्धि दर को स्थिर मानें, तो वर्ष 2051 में हिन्दुओं की आबादी 180 करोड़, तो मुस्लिमों की 41 करोड़ होगी. वर्ष 2071 में हिन्दुओं की अनुमानित आबादी 245 करोड़ होगी, तो मुस्लिमों की 65 करोड़ तक ही पहुंचेगी. आज हिन्दू और मुस्लिमों की आबादी में 79.41 करोड़ का अंतर है, तो वर्ष 2071 तक बढ़कर वह 180 करोड़ हो जायेगा.

    इसका अर्थ है कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों की आबादी बढ़ सकती है, उनकी आबादियों की कुल जनसंख्या में प्रतिशत हिस्सेदारी भी बदल सकती है, लेकिन किसी भी स्थिति में हिन्दू धार्मिक आबादी के 'बहुसंख्यक' होने का चरित्र नहीं बदला जा सकता. इसलिए इस संघी मिथक का कि चूंकि मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर हिन्दुओं से ज्यादा है, इसलिए हिन्दू अल्पसंख्यक होने वाले है, का वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है.

    संघी गिरोह भी यह जानता है, लेकिन अपने मिथक को इसलिए प्रचारित करता रहता है कि उसका मूल उद्देश्य 'हिन्दू राष्ट्र' की स्थापना करना है. इसके लिए एक काल्पनिक दुश्मन की हमेशा जरूरत रहती है, जिसके खिलाफ वह हिन्दुओं को भड़काते रह सके. वह इस काल्पनिक दुश्मन को सब वास्तविक समस्याओं की जड़ और हिन्दुओं की बदहाली का कारण बताता है, ताकि देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटा जा सके और इसकी गंगा-जमुनी तहजीब और बहुलतावादी परंपराओं को नष्ट किया जा सके. संघी गिरोह के लिए मुस्लिमों को ऐसे दुश्मन के रूप में स्थापित करना बहुत आसान है. इसलिए आज वह उनके खान-पान, रहन-सहन, विचार श्रृंखला सबको निशाना बना रहा है. चाहे बाबरी मस्जिद का विध्वंस हो या गुजरात के दंगे, चाहे दाभोलकर-पानसरे-कलबुर्गी की हत्या हो या इखलाक की और असहिष्णुता की इन घटनाओं के खिलाफ देश में खड़े हो रहे 'प्रतिरोध' आंदोलन को निशाना बनाना -- ये सब उसके 'हिन्दू राष्ट्र' के निर्माण के सजग प्रयास हैं. वह एक ऐसी मानसिकता तैयार करना चाहता है, जो तर्क की जगह आस्था को, संवाद की जगह विवाद को, सहिष्णुता की जगह हिंसा और अतार्किक बहुसंख्यकवादी गोलबंदी को बढ़ावा दे.

    जनगणना के आंकड़ों को भारतीय नागरिकों की समूची जनसंख्या में बढ़ोतरी से पेश चुनौती के रूप में देखने के बजाये वह उसे धार्मिक समुदायों के आंकड़ों के सांप्रदायीकरण में इस्तेमाल करता है. वह यह सिद्ध करने में जुट जाता है कि फलां-फलां जगह हिन्दू बहुमत में थे, आज अल्पमत में हो गए. वह इसके सामाजिक-आर्थिक राजनैतिक कारणों को भी देखने से इनकार कर देता है. तब इस खेल में उसके लिए मुस्लिम गैर-राष्ट्रवादी और पाकिस्तानी होते हैं. हालांकि इस गिरोह का भारत से भी कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि भारत को तो वह पाकिस्तान की तर्ज़ पर 'हिंदुस्थान' में बदलने पर आमादा है.

  • मोदी-चाय के साथ 'दाल पर चर्चा'

    संजय पराते

    80-85 रूपये किलो की अरहर 205-210 रूपये चल रही है. दूसरे दालों की कीमतें भी पिछले साल की अक्टूबर की तुलना में दो-ढाई गुना ज्यादा ही है. इसलिए सवाल 'इस दाल को छोड़ो, उस दाल को खाओ' का नहीं है. सवाल विशुद्ध व्यावहारिक है, किसी भोजनालय को अपना मुनाफा बनाए रखने के लिए पानी में कितना दाल मिलाना होगा? इसका उत्तर भी आसान है, पहले की तुलना में आधे से ज्यादा नहीं. लेकिन फिर इस दाल में दाल को खोजना पड़ेगा. लेकिन किसी गृहस्थी में इतनी फुरसत कहां? सो, घर की थाली से तो दाल ही गायब है. दाल-रोटी या दाल-भात अब सब्जी-रोटी या सब्जी-भात में बदल गया है. यदि दाल है, तो किसी 'फीस्ट' की तरह हफ्ते में एक बार. दाल अब 'शाही पकवान' है गरीबों की थाली के लिए.

    प्रधानमंत्री मोदी का अर्थशास्त्र भले ही बढ़ती जीडीपी को महंगाई से जोड़ता हो, लेकिन आम आदमी का अर्थशास्त्र तो महंगाई को दाल की पतली होती धार से ही जोड़ता है. इस अर्थशास्त्र का आम आदमी के बजट से संबंध समझना है, तो एनडीटीवी के रवीश कुमार का 'दाल-दाल दिल्ली-दिल्ली' देखिये. यह आम आदमी दसियों किलोमीटर दूर से चलकर मिठाई पुल पर आ रहा है - सड़ी दाल खरीदने के लिए. महंगाई की मार ने इस दाल को भी उसकी थाली से बाहर कर दिया है. यह आम आदमी अपने नुक्कड़ भोजनालय पर दो किलो दाल सौ लोगों को खिला रहा है भात का माड़ मिलाकर. इससे लोगों का पेट तो भर जाता है, लेकिन शरीर को पोषण-आहार नहीं मिलता. महंगाई के कारण लोगों में बढ़ता कुपोषण और अच्छे खाद्यान्न तक उसकी पहुंच से दूरी 'मोदी के विकास मॉडल' की धज्जियां उड़ा रहा है. विकास के इसी मॉडल को तब कांग्रेस ने अपनाया था, जिसे मोदी आज अपना बता रहे हैं. फिर यह मॉडल कांग्रेस का हो या भाजपा का, यदि आम आदमी अपने पेट की आग को नहीं बुझा पा रहा है, तो यह समझना आसान है कि इस देश की बढ़ती जीडीपी वास्तव में किसका विकास कर रही है? कारपोरेटों के मुनाफों के लिए अर्थव्यवस्था को ढाला जायेगा, तो दाल का महंगा होना तो तय है. इसी बात को समझने-समझाने के लिए मध्यप्रदेश में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 'दाल पर चर्चा' का आयोजन किया था. चुनावों के पहले जनता 'चाय पर चर्चा' कर रही थी, चुनावों के बाद 'दाल पर चर्चा' हो रही है. पहले का लक्ष्य मोदी को प्रधानमंत्री बनाना था, तो दूसरे का लक्ष्य इस देश की सरकार की पूंजीपतिपरस्त नीतियों को बेनकाब कर एक वैकल्पिक राजनीति को आगे बढाने का है.

    इस देश में हर साल 2.2 करोड़ टन दालों की  जरूरत पड़ती है और इसकी पूर्ति के लिए औसतन 35 लाख टन दालों का आयात करना पड़ता है. हमारे देश में दालों का उत्पादन कभी इतना नहीं रहा कि हमारी जरूरतें पूरी हो सकें. कभी उत्पादन ज्यादा हुआ, तो कभी कम. वर्ष 1960-61 में दालों की पैदावार 1.3 करोड़ टन थी, जो 2013-14 में बढ़कर 1.925 करोड़ टन हो गई. वर्ष 2014-15 में 1.738 करोड़ टन दाल का उत्पादन हुआ. आज़ादी के बाद दाल उत्पादन में वृद्धि के बावजूद सच्चाई यही है कि देश में प्रति व्यक्ति दाल उपलब्धता में भयंकर गिरावट आई. 1960-61 में यह उपलब्धता 69 ग्राम प्रतिदिन थी, तो आज मात्र 30-35 ग्राम, जबकि विभिन्न पोषण शोध संस्थाएं आहार के लिए 65-80 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन का उपभोग जरूरी बताती है. स्पष्ट है कि प्रति व्यक्ति दाल का उपभोग आधे से भी कम है, जबकि दाल ही इस देश का प्रमुख प्रोटीन-स्रोत है. दालों की उपभोग मात्रा शरीर के स्वास्थ्य को निर्धारित करती है. हमारे देश में आधे से ज्यादा महिलायें और बच्चे कुपोषित एवं रक्ताल्पता के शिकार हैं, तो केवल इसलिए कि प्रोटीन-स्रोत के रूप में पर्याप्त दाल-आहार से वंचित हैं.

    हमारे देश के नीति-निर्माताओं ने दालों में उत्पादन में बढ़ोतरी की योजनायें तो बनाई, लेकिन वे केवल 'कागजी' इसलिए साबित हुई कि लाभकारी भाव का व्यावहारिक सहारा उसे कभी नहीं मिला. लाभकारी मूल्य तो छोडिये, दालों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी विगत चार दशकों में उतना नहीं बढ़ा, जितना कि अन्य फसलों का. नतीजा यह रहा कि जहां खेती-किसानी घाटे का सौदा है, वहीँ दालों का उत्पादन महाघाटे का सौदा रहा. इसके बावजूद हमारे देश में दालों का उत्पादन डेढ़ गुना बढ़ा, तो हमारे देश के किसानों के हौसलों को ही सलाम करना चाहिए.

    दाल उत्पादन में पिछड़ने का एक कारण तो उस अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में देखा जा सकता है, जो नहीं चाहती कि विकासशील देश खाद्यान्न उत्पादन में आत्म-निर्भर बनें. दालों का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विकसित देशों के पक्ष में झुका हुआ है और उन्हें डॉलर कमाने का मौका देता है. वर्ष 2014-15 में हमने 169 अरब रूपये के मूल्य के बराबर दालों का आयात किया था, तो इस वर्ष दाल उत्पादन में 20 लाख टन गिरावट के मद्देनज़र, 292 अरब रूपये के दाल आयात की संभावना है. विश्व व्यापार संगठन का विकासशील देशों पर हमेशा एक दबाव बना हुआ है कि वे किसानों को दी जा रही सब्सिडी तथा उनकी सुविधाओं में कटौती करें. उनका रूख न्यूनतम समर्थन मूल्य तक के खिलाफ है. इसीलिए, खाद्यान्नों के लिए सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य कभी इतना नहीं रहा कि वे वार्षिक मुद्रास्फीति तक को निष्प्रभावी कर सके. दालों के मामले में तो यह सच सिर चढ़कर बोलता है. जो सरकार अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से 8000 रूपये क्विंटल की औसत दर पर दालों का आयात कर रही है, वह हमारे किसानों को 4000 रूपये का भाव भी देने को तैयार नहीं है. अब तो मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ही यह हलफनामा दे दिया है कि वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के लिए तैयार नहीं है. उल्लेखनीय है कि किसान आयोग ने फसलों की लागत मूल्य का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में देने की सिफारिश की थी, जिसका चुनाव के पहले भाजपा ने भी समर्थन किया था. छत्तीसगढ़ में तो भाजपा ने बाकायदा 300 रूपये बोनस सहित धान का समर्थन मूल्य 2400 रूपये क्विंटल देने का वादा अपने घोषणा पत्र में किया था.

    लेकिन कम उत्पादन के बावजूद देश में दाल की किल्लत और महंगाई कभी ऐसी नहीं रही, जैसी कि आज देखी जा रही है. इसका प्रमुख कारण वायदा व्यापार है, जो कल्पित मुनाफे पर आधारित होता है. कल्पना को वास्तविकता में बदलने के लिए यह जमाखोरी को बढ़ावा देता है और बाज़ार में कृत्रिम संकट पैदा करता है. यह व्यापार अनाज मगरमच्छों के बीच ही होता है. इस व्यापार में माल न एक जगह से उठता है और न दूसरी जगह गिरता है. इस व्यापार से किसानों को कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि उसकी फसल तो औने-पौने दामों में पहले ही अनाज मगरमच्छों के हाथों में पहुंच चुकी होती है और अब वे ही इस 'सट्टा बाज़ार' के नियंता होते हैं. आज इस सट्टाबाज़ार में टाटा, महिन्द्रा, रिलायंस जैसी कम्पनियाँ भी अपना खेल खेल रही है.देश का कृषि क्षेत्र और खाद्यान्न बाज़ार इन्हीं कार्पोरेट घरानों के हाथों कैद है.

    इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि दाल के भाव चढ़ने तो फरवरी-मार्च में ही शुरू हो गए थे, लेकिन सरकार अक्टूबर में ही हरकत में आई. यह देरी जानबूझकर की गई देरी थी. इन छः-सात महीनों मे बाज़ार आम जनता को जितना निचोड़ सकता था, उसने निचोड़ लिया ; जिनकी तिजोरियां भरनी थी, भर चुकी थी. जनता के लुटने-पिटने के बाद अब छापा मारो या दाल आयात करो, जमाखोरों की सेहत पर कोई फर्क पड़ना न था. 80000 टन दाल बाहर निकल आई, लेकिन कोई जमाखोर, कोई सटोरिया, कोई कालाबाजारिया गिरफ्तार तक नहीं!!

    सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार,  देश में 8394 छापों में 82463 टन दाल -- प्रति छापा लगभग 10 टन दाल -- जब्त की गई. इसमें से पांच भाजपा शासित राज्य -- महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश -- में ही 70246 टन दाल जब्त की गई. यह देश में कुल जब्त दाल का 85% से अधिक है. ये सब राज्य भाजपा के 'सुराज मॉडल' है, जो सटोरियों के स्वर्ग बने हुए हैं. लेकिन सात माह बाद जागी सरकार का दम दो दिन में ही फूल गया और छापेमारी को चुपचाप रोक दिया गया. इसीलिए 'दाल पर चर्चा' में आम जनता का सवाल था -- "इतनी देरी में छापे क्यों, इतनी जल्दी रोके क्यों?" इस देरी और जल्दी का राज किसी से छुपा नहीं है.

    82463 टन दाल बाहर निकल आई, लेकिन बाज़ार में दाल की कीमतों पर कोई फर्क नहीं पड़ा, तो 5000 टन दाल के आयात से ही क्या फर्क पड़ना था !! पूरा मामला तो फिक्सिंग का था. सरकार ने दाल बेचने के लिए आउटलेट्स खोले 140 रूपये किलो के भाव से, तो फिर बाजार में दाल 200 रूपये किलो से नीचे क्योंकर उतरे? अब सरकार छापा मारे या आयात करे, जनता सरकारी आउटलेट्स से खरीदे या खुले बाज़ार से -- अरहर दाल के भाव तो अब 80-85 रूपये किलो तो पहुंचने से रहे ! आम जनता की दाल में पानी की मात्रा जो बढ़ी, वह भी कम होने से रही. हां, सटोरियों और अनाज मगरमच्छों की तिजोरियां जरूर भरती रहेगी पहले की तरह -- जनता चाहे 140 रूपये में खरीदे या 200 रूपये किलो के भाव से खरीदे. सरकार भी इन्हीं सटोरियों के साथ खड़ी हैं, 80 रूपये की दाल 140 रूपये में खरीदने का हांका जो लगा रही है !!

    आईये मित्रों, 'दाल पर चर्चा' के साथ 'मोदी-चाय' की कुछ चुस्कियां ही लें - यदि पहले की तरह वह मुफ्त में कहीं बांटी जा रही हो तो. 'मुफ्त' चाय पिलाकर दाल का भाव बढ़ने की राजनीति को अब आम जनता को समझने की जरूरत है.

  • अरे यार, इतना भी दाल-दाल न चिल्लाओ कि सरकार को शर्म से पानी-पानी होना पड़े

    संजय पराते

    60-65 रूपये किलो की अरहर दाल 200 रूपये पर चल रही है. सवाल है कि किसी भोजनालय को अपना मुनाफा बनाए रखने के लिए दाल में कितना पानी बढ़ाना पड़ेगा? या फिर, पानी में दाल कितनी कम करनी पड़ेगी?? उत्तर भी आसान है -- पहले से तीन-चार गुना ज्यादा पानी, या फिर दाल की मात्रा पहले की तिहाई-चौथाई. लेकिन फिर तो पानी में दाल को खोजना पड़ेगा ! लेकिन किसी गृहस्थी में इतनी फुर्सत कहां कि इतना झंझट पाले ! सो घर की थाली से दाल गायब है और सब्जी के शोरबे से ही काम चलाया जा रहा है या यदि दाल है, तो किसी 'फीस्ट' के रूप में हफ्ते में एक बार ! दाल-रोटी अब सब्जी-रोटी में और दाल-भात अब सब्जी-भात में बदल गया है. दाल अब 'शाही पकवान' है गरीबों की थाली के लिए.

    प्रधानमंत्री मोदी का अर्थशास्त्र भले ही बढ़ती महंगाई को बढ़ती जीडीपी से जोड़ लें, आम आदमी के लिए बढ़ती महंगाई दाल को पतली-और पतली ही करती है तथा थाली में उसके आहार-पोषण में कटौती ही करती है. यही आम आदमी का अर्थशास्त्र है. इस अर्थशास्त्र का आम आदमी के बजट से संबंध समझना हो, तो आप रवीश कुमार का एनडीटीवी में 'दाल-दाल दिल्ली-दिल्ली' देखिये. पता चल जायेगा कि मोदी राज में आम आदमी को अपनी पेट की आग को शांत करने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ रहे हैं. वह पचासों किलोमीटर चलकर मिठाई पुल पर सड़ी दाल खरीदने के लिए आ रहा है. यह सड़ी दाल भी इतनी महंगी हो गई है कि खरीदना उसके बस में नहीं रहा. सड़क किनारे के भोजनालय दो किलो दाल सौ लोगों को खिला रहे हैं, भात का माड़ मिलाकर. इससे लोगों का पेट तो भर जाता है, लेकिन पोषण-आहार नहीं मिलता. यदि जीडीपी में वृद्धि दर विकास का मानक है, तो महंगाई के कारण लोगों में बढ़ता कुपोषण, अच्छे खाद्यान्न तक पहुंच से उसकी दूरी विकास के उसके इस दावे की धज्जियां उड़ाने के लिए काफी है. तो फिर यह समझने में कोई देरी नहीं लगेगी कि बढ़ती जीडीपी वास्तव में किसका विकास कर रही है?

    दाल के भाव चढ़ने तो अप्रैल से ही शुरू हो गए थे, लेकिन सितम्बर-अक्टूबर में तो वह सर चढ़कर बोलने लगे. अप्रैल में सोई सरकार अक्टूबर में ही हरकत में आई. लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. इन छः महीनों में सट्टाबाज़ार को जितना खेलना था, खेल चुकी थी. बाज़ार आम जनता को जितना निचोड़ सकता था, उसने निचोड़ लिया. जनता के लुटने-पिटने के बाद सरकार के अर्ध-जागरण का कोई अर्थ नहीं था. जिनकी तिजोरियां भरनी थी, भर चुकी थी. अब छापा मारो या दाल आयात करो, जमाखोरों की सेहत पर न कोई फर्क पड़ना था, न पड़ा. 80000 टन दाल बाहर निकल आई, लेकिन कोई जमाखोर गिरफ्तार नहीं ! 5000 टन दाल आयात हो गई, लेकिन चढ़े दाल के भाव न नीचे उतरने थे, न उतरे. सरकार ने ही आउटलेट्स खोल दिए दाल बेचने के लिए 140 रूपये किलो के भाव से, तो फिर बाज़ार में 200 रूपये से नीचे क्योंकर उतरे? बेचारी मोदी सरकार इससे ज्यादा कर भी क्या सकती थी? अनाज के वायदा व्यापार पर रोक लगाना तो उसके बस की बात नहीं, सो 'बेचारी सरकार' से इसकी मांग न की जाएं, तो ही अच्छा. आखिर कार्पोरेट घरानों को वायदा व्यापार से रोकना देश की प्रगति में ग्रहण लगाना ही होगा !! यदि कारपोरेटों का ही विकास नहीं होगा, तो 'सबका साथ, सबका विकास' कैसे होगा?

    वे लोग तो 'अकल के अंधे' ही हो सकते हैं, जो दाल की चढ़ती जवानी को देश के बढ़ते विकास में न समझें. यदि देश विकास कर रहा है, तो लोगों की आय भी बढ़ेगी. इस देश का दुर्भाग्य यह है कि दुनिया के सबसे ज्यादा 'भुक्खड़' लोग इसी देश में है. सो आय बढ़ी नहीं कि दौड़ पड़े आलू-प्याज-दाल के लिए. यह नहीं कि कुछ पैसे सट्टाबजार में इन्वेस्ट कर दे, ताकि सटोरियों की भी आय बढ़ें. तो पहले आलू-प्याज उछली. इस उछल-कूद पर ले-देकर सरकार ने कुछ काबू पाया, तो दाल चढ़ने लगी. चढ़ती दाल को रोकने की कोशिश कर रहे हैं कि आलू-प्याज ने फिर हाथ-पैर पटकने शुरू कर दिए हैं. आलू-प्याज-दाल को देखकर बाकी भी क्यों चुप बैठे भला ! त्यौहार का सीजन है, सो चावल-गेंहू-तेल-सब्जी भी दम दिखा रहे हैं. अकेली सरकार क्या-क्या करें? इन सब का दम देखकर बेचारी 'बेदम' हुई जा रही है. घोषणा तो छापेमारी की थी, लेकिन जमाखोरों ने दो-तीन दिनों में ही नानी याद दिला दी. आलू-प्याज के बाद अब दालों ने भी कह दिया कि हम जमाखोरों के साथ. चावल-गेहूं-तेल भी उनके गोदामों से बाहर आने को तैयार नहीं. एक को बाहर लाओ, तो दूसरा अंदर. ले-देकर दूसरे को बाहर निकालो, तो बाकी सब फिर अंदर !

    तो मित्रों, सरकार की कोशिश तो चल रही हैं. लेकिन ये जनता !? जिस जनता के लिए ये बेचारी सरकार बेदम हो रही है, वही जनता सरकार को कोस रही है. वह जनता सरकार को कोस रही है, जो मांग बढाने के लिए जिम्मेदार है. भला बताईये, आलू-प्याज-दाल खाना जरूरी है !! जनता ही भाव नहीं देगी, तो ये सब गोदाम में पड़े सड़ते थोड़े रहेंगे !! निकलेंगे बाहर, हाथ जोड़कर कहेंगे, माई-बाप ले लो हमें, अपने घर की सैर कराओ, अपनी थाली में हमें सजाओ. हाथ जोड़कर कहेंगे कि हे देशवासियों, हमारी धृष्टता पर हमें माफ़ करो और हमें उदरस्थ करो. तब देखना, इन जमाखोरों के कस-बल कैसे ढीले होते हैं.

    लेकिन नहीं ! इस जनता को तो आलू-प्याज-दाल के साथ चावल-गेहूं-तेल भी चाहिए. अरे ये देश ऋषि-मुनियों का है. लेकिन इस देश के आध्यात्मवाद पर अब तो भौतिकवाद हावी हो चुका हैं. कहां तो ऋषि-मुनि कंद-मूल खाकर या निर्जला उपवास रखकर सालों कठिन तपस्या करते थे. कहां यह भुक्खड़ जनता कि काम करने के लिए उसे चावल-गेहूं-तेल-दाल ही चाहिए. कंद-मूल का तो  वह नाम भी नहीं लेना चाहती. कंद-मूलों ने इस 'मनस्वी' देश को आध्यात्मवाद की बहार दी, तो गेहूं-चावल-दाल ने इस देश को भौतिकवाद का रोग ही दिया. तो इस देश की रूग्ण जनता को खाने-पीने के सिवा कुछ दिखता नहीं, वर्ना बात-बात पर वह आत्महत्या करने की धमकी देने लगती है. पिछले ढाई दशक में तीन लाख से ज्यादा लोगों ने ऐसा करके भी दिखा दिया.

    तो नागरिक बंधुओं, इस देश की गौरवशाली संस्कृति, सनातनी परंपरा और वैदिक सभ्यता को याद रखो. याद रखो कि हमारा उन्नयन इसी में निहित है. हमारी सरकार इसी संस्कृति, परंपरा और सभ्यता को आगे बढाने में लगी है. इसलिए हे आर्यपुत्रो, महंगाई का रोना छोड़ो -- देखो कि कौन गौ-मांस खा रहा है? हे आर्यपुत्रों, केवल हिन्दू धर्म को याद रखो -- देखो कि कौन-सा विदेशी धर्म इस पवित्र भूमि को अपनी जनसंख्या बढ़ाकर कब्ज़ा करने की कोशिश कर रहा है. हे आर्यपुत्रों, धर्मनिरपेक्षता को छोड़ो -- देखो कि कहां दंगे किये-फैलाए जा सकते हैं? हे आर्यपुत्रों, केवल ब्राह्मणों की पूजा करो -- म्लेच्छों का या तो संहार करो या फिर उन्हें ब्राह्मणों की सेवा में लगाओं !!

    हे हिन्दूराष्ट्र के ध्वजवाहकों, अपने अध्यात्मवाद को जगाओ. अरे यार, इतना भी दाल-दाल न चिल्लाओ कि हमारी हिन्दू सरकार को शर्म से पानी-पानी होना पड़े.

  • घट-घट में राम रमे

    संजय पराते

    अट्टीपद कृष्णस्वामी रामानुजन दक्षिण-एशियाई संस्कृति की बहुलतावादी परंपरा के अध्येता थे. वे यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो में दक्षिण-एशियाई अध्ययन के शिक्षक थे. दक्षिण एशिया का लोक साहित्य और भाषा-विज्ञान उनके अध्ययन की विषय-वस्तु थी और इस अध्ययन के क्रम में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर की दर्जनों प्रतिष्ठित पुस्तकें लिखी हैं. उनके इस अध्ययन में लोक साहित्य के एक अंग के रूप में भारत और इसके विभिन्न भू-भागों, तिब्बत, तुर्किस्तान, थाईलैंड, बर्मा, लाओस, कम्बोडिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, मलय, इंडोनेशिया और चीन में फैली राम कथाओं, इन कथाओं में वस्तुगत और रूपगत भिन्नता तथा बलाघातों का अध्ययन भी शामिल था. इसके लिए उन्होंने एशियाई देशों तथा हमारे देश की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों तथा राज्यों में लोक मानस तथा लोक परम्पराओं में प्रचलित रामायणों का व्यापक अध्ययन किया था.

    फरवरी 1987 में रामकथाओं पर अपने अध्ययन पर पिट्सबर्ग यूनिवर्सिटी में उन्होंने एक विचारोत्तेजक आलेख प्रस्तुत किया था, जो "Three Hundred Ramayanas : Five Examples and Three Thoughts on Translation" ( तीन सौ रामायणें : पांच उदाहरण और  अनुवाद पर तीन विचार) नामक  लेख के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. (आनर्स) के इतिहास के पाठ्यक्रम में पाठ्य सामग्री के तौर पर वर्ष 2005 से ही शामिल था. दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों ने इस लेख को 'हिंदूविरोधी' तथा 'हिन्दू समुदाय की भावनाओं को चोट करने वाला' करार देते हुए इसके खिलाफ एक हिंसक और आक्रामक अभियान चलाया था तथा इलेक्ट्रोनिक मीडिया की उपस्थिति सुनिश्चित करते हुए इस विश्वविद्यालय में तोड़-फोड़ की थी. फिर विश्वविद्यालय ने इस लेख के अकादमिक मूल्यांकन के लिए चार इतिहासकारों की एक समिति बनाई थी, जिसने इस लेख पर लगे आरोपों को खारिज कर दिया था. उन्होंने पाया कि इसमें एक भी ऐसा वाक्य नहीं था, जो इसके हमलावरों को अपने अभियान के लिए औचित्य प्रदान करता हो. इसके बावजूद विश्वविद्यालय प्रबंधन ने दक्षिणपंथी ताकतों के आगे घुटने टेकते हुए इस लेख को पाठ्यक्रम से हटा दिया था.       

    दरअसल यह अभियान दक्षिणपंथी ताकतों के उसी आक्रामक अभियान का अंग था, जो हमारे देश और इस विशाल महाद्वीप की सांस्कृतिक बहुलता को नकारते हुए उसे इकरंगी बनाने की मुहिम छेड़े हुए हैं और इस क्रम में वे मुक्तिबोध की पुस्तकों की होली जलाते हैं, एम. एफ. हुसैन की पेंटिंगों तथा सहमत की प्रदर्शनियों पर हमले करते हैं, हबीब तनवीर के नाटकों में हंगामा करते हैं और इसी तरह विश्वविद्यालयी बौद्धिकता को आतंकित भी करते हैं. उनका यह अभियान सांस्कृतिक कम, राजनीतिक ज्यादा है -- राम नाम की लूट जो है. इसके लिए वे इस उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक बहुलता को निशाना बनाते हैं और तर्क-वितर्क और वाद-विवाद-संवाद की बौद्धिक और सांस्कृतिक अनुशीलन की प्रक्रिया का ही अपहरण करना चाहते हैं. दिल्ली के अंदर ऐसी शर्मनाक घटना का घटना भी केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस गठबंधन सरकार की 'धर्मनिरपेक्षता के प्रति वफ़ादारी' के दावे की कलई खोलने के लिए काफी था. यह घटना भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण के उस दौर में होती है, जब केंद्र सरकार शिक्षा के द्वार विदेशी निवेशकों के लिए चौपट खोलने के लिए तैयार बैठी है और विदेशी विश्वविद्यालयों को अपने देश में स्थापित करने के लिए आमंत्रित कर रही हैं. स्पष्ट है कि आज सरकारों की दिलचस्पी 'ज्ञान के प्रसार' में नहीं, बल्कि केवल उस बाज़ार में है, जो ज्ञान के प्रसार के नाम पर तो चलाया जायेगा, लेकिन जिसका असली मकसद मुनाफा कूटना ही है.

    संस्कृति एक सतत प्रवाहित धारा है, जिसे आम जनता व उसका लोक मानस रचता-गढ़ता है. इसी धारा में वह डुबकी भी लगाता है और सांस्कृतिक अवरोधों से टकराता भी है. यह एक काल से दूसरे काल, एक समाज से दूसरे समाज तथा एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता की ओर निरंतर प्रवाहमान रहती है और इस प्रक्रिया में सांस्कृतिक सम्मिश्रण नए मूल्य और विचार पैदा करती है और सांस्कृतिक रूपांतरण की इस प्रक्रिया से एक नई संस्कृति का जन्म होता है.

    राम कथा भी हमारी सतत प्रवाहमान सांस्कृतिक धारा की एक अमूल्य धरोहर है. इस कथा ने लोगों को शिक्षित किया है, समाज में नए मूल्य दिए हैं तथा हमारी सभ्यता को परिष्कृत किया है. इस कथा में आम जनता का मनोरंजन है, तो लोक का लोकरंजन भी. जिस तरह संस्कृति का प्रवाह लिखित कम, मौखिक और वाचिक रूप में ही ज्यादा होता है, उसी तरह राम कथा भी समय-प्रवाह के साथ एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता में जाकर, एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में घुलते-मिलते हुए, लोक मानस में पैठते हुए, लिखित कम तथा मौखिक और वाचिक रूप में अधिक, परिष्कृत व परिवर्धित होती गई. इसलिए वाल्मिकी के लौकिक राम कालान्तर में विष्णु के अवतार और थाई संस्कृति में पहुंचकर शिव के अवतार में बदल जाते हैं. वाल्मिकी रामायण के नायक राम होते हैं, तो जैन रामायण के नायक रावण. और यह सब कपोल-कल्पित इसलिए नहीं कहे जा सकते कि उत्तर भारत में आज भी राम पूज्य है, तो दक्षिण में राम की वैसी महत्ता नहीं, जैसी कि रावण की. उस समाज-संस्कृति में रावण नायक है.

    इस प्रकार काल के सतत प्रवाह के साथ प्रवाहमान रामकथा की सांस्कृतिक धारा ने ही नए-नए रूप और रंग ग्रहण किये हैं. पूरे उपमहाद्वीप में इतनी रामकथाएं बिखरी पड़ी हैं कि गिनना मुश्किल है. इन कथाओं के रूप-रंग-स्वाद में व्यापक रूप से भिन्नता है-चाहे वह राम-लक्ष्मण-सीता के जन्म की कहानी हो, अहिल्या प्रकरण हो, रावण वध का प्रसंग हो या सीता की अग्नि-परीक्षा और निर्वासन का संदर्भ. एक कथा से दूसरी कथा, एक रामायण से दूसरी रामायण और एक परंपरा से दूसरी परंपरा में जाने पर इन कहानियों में पर्याप्त भिन्नता मिलती है -- वस्तुगत और रूपगत दोनों मामलों में. ए. के.रामानुजन बताते हैं कि इस उपमहाद्वीप में सैकड़ों रामायणें और हजारों रामकथाएं प्रचलित हैं. इन पर प्रचुर मात्र में टीका-टिप्पणियां और व्याख्याएं भी उपलब्ध हैं, जो हमारी गौरवशाली सांस्कृतिक-बौद्धिक समृद्धता का ही प्रतीक है.

    तो फिर दक्षिणपंथियों को इस लेख से क्या दुश्मनी थी? दुश्मनी सिर्फ यही थी और असली बात भी यही है-कि वे हमारे देश और भारतीय उपमहाद्वीप की उस सांस्कृतिक बहुलता के ही दुश्मन है, जो भिन्न संस्कृतियों, राष्ट्रीयताओं, जातियों, नस्लों, धर्मों व भाषाओँ के मिलन से पुष्पित-पल्लवित हुई है और जिसने मानव समाज को आगे बढाया है. रामानुजन का असली अपराध यही है कि उन्होंने राम को संघी गिरोह द्वारा प्रचारित राम की उत्तर भारतीय छवि से बाहर निकला है और उन्हें अपने लौकिक स्वरुप में स्थापित कर दिया है. अतः रामानुजन की यह ज्ञान-मीमांसा राम की आड़ में संघी गिरोह द्वारा हमारे देश की इकरंगी छवि पेश कर अपनी हिन्दुत्ववादी आक्रामक मुहिम चलाने के आड़े आती है, जो चाहती है कि भारत की आम जनता उनकी हिंदूवादी राजनीति को आगे बढ़ने के लिए राम को उनके भगवे चश्मे से ही देखे. संघी गिरोह के जो समर्थक रामानुजन के खिलाफ लट्ठ लेकर खड़े हैं, उनमें से किसी ने उनके आलेख को पढ़ा भी नहीं होगा.

    हालांकि वाल्मिकीकृत रामायण को आदि रामायण माना जाता है, लेकिन इस बात के पर्याप्त संकेत मिलते हैं कि वाल्मिकी से पूर्व भी अपनी मौखिक परंपरा में रामकथाएं प्रचलित थीं. वाल्मिकी ने तो सिर्फ इसे लिपिबद्ध किया था . फादर कामिल बुल्के, जो राम कथा के मर्मज्ञ थे, ने अपनी पुस्तक 'राम कथा : उत्पत्ति और विकास' मे यह बताया है कि वाल्मिकी की मूल रामायण में केवल 12000 श्लोक थे. बाद में लोगों द्वारा इसमें कई उल्लेखनीय घटना-प्रसंग जोड़े गए हैं और आज वाल्मिकी रामायण में श्लोकों की संख्या 25000 से ज्यादा है. कालांतर में रामकथा को केंद्र में रचकर खेली गई लीलाओं में इसे और अधिक मनोरंजक और लोकरंजक बनाने की दृष्टि से नए-नए प्रसंग जोड़े गए.

    वाल्मिकी के समांतर ही ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी से ही रामकथाओं के विविध रूप बौद्ध और जैन पाठों में प्रचलित होने लगे थे. ये रामकथाएं और रामायणें वाल्मिकी रामायण और तुलसीदास कृत रामचरित मानस से पर्याप्त भिन्न हैं. जैन रामायण के अनुसार, सीता रावण की पुत्री है और रावण दानव नहीं है. यहां रावण का वध लक्ष्मण करते हैं, राम नहीं. बौद्ध परंपरा में राम और सीता भाई-बहन है.

    थाई 'रामकीर्ति' में हनुमान न ही रामभक्त है और न ही ब्रह्मचारी, बल्कि वे शौक़ीन मिजाज़ व्यक्ति हैं, जो लंका के शयन कक्षों में झांकने और दूसरों की सोती हुई पत्नियों को देखने में न तो संकोच करते हैं और न ही इसे अनैतिक मानते हैं. संथाली परंपरा में तो सीता को व्यभिचारिणी माना जाता है, जिसका शीलभंग रावण और लक्ष्मण दोनों द्वारा किया जाता है. इन रामायणों और परम्पराओं को मानने वाले लोग न केवल भारत, बल्कि इसके बाहर भी फैले हुए हैं. इन लोगों की सम्मिलित संख्या संघी गिरोह के अनुयायियों से भी अधिक होगी.

    तुलसीदास भी राम के कई अवतारों और रामायण के कई पाठों पर बल देते हैं -- "नाना भांति राम अवतारा, रामायन कोटि अपारा." लेकिन वे भी न तो अपनी कथा को श्रेष्ठ बताते हैं और न ही दूसरी कथाओं का मखौल उड़ाते हैं, क्योंकि घट-घट में राम रमे. असली बात यह है कि आप राम को और रामकथा को किस रूप में लेते हैं और अपना सांस्कृतिक-आध्यात्मिक परिष्कार करते हैं. यह जरूरी नहीं कि राम सबके आराध्य देव हों -- असली जोर रामकथा पर है, लेकिन संघी गिरोह का गोस्वामी तुलसीदास की इस बात से भी कोई लेना-देना नहीं.

    संघी गिरोह के दबाव में तत्कालीन कांग्रेस सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन ने रामानुजन के लेख को पाठ्यक्रम से तो निकाल दिया था, लेकिन राम की उत्तर भारतीय परिकल्पना से भिन्न बहुलतावादी, बहुरंगी परम्पराओं को मानने वालों को क्या देश निकाला और इस उपमहाद्वीप से ही निर्वासित कर सकेगी??

  • कृषि का अर्थशास्त्र और अकाल आत्महत्याएं

    संजय पराते

    भूख से होने वाली मौतें और किसान आत्महत्याएं कभी भी सत्ताधारी पार्टी और शासक वर्ग के लिए चिंता का विषय नहीं बनती, क्योंकि इससे धनकुबेरों के मुनाफों पर कोई चोट नहीं पहुंचती.लेकिन वे हमेशा इस परिघटना के एक राजनैतिक मुद्दा बनने से जरूर डरते हैं, क्योंकि इससे उनके वोट बैंक को नुकसान पहुंचता है.इसलिए उनकी कोशिश हमेशा यही रहती है कि भूख से मौतें और किसान आत्महत्याएं होती हैं, तो हो, लेकिन राजनैतिक मुद्दा न बनें. इसके लिए वे आंकड़ों को भी बदलने का खेल खेलते हैं, ताकि स्थिति की गंभीरता को दबाया जा सकें.

    1951 से आज तक कृषि पर निर्भर आबादी की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन भूस्वामी कृषकों की जनसंख्या में काफी बड़ी गिरावट आई है. वही भूमिहीन खेत मजदूरों की प्रतिशत जनसंख्या में दुगुनी से ज्यादा वृद्धि हुई है. इसका स्पष्ट अर्थ है कि गरीब किसानों के हाथों से जमीन निकली है और वे अपनी ही जमीन पर दिहाड़ी मजदूरी करने के लिए विवश हैं. वे ऊंची दरों पर जमीन किराए पर ले रहे हैं और नहीं के बराबर लाभ पर गुजारा कर रहे हैं. भूमिहीनता के बावजूद उनका जीवन खेती-किसानी पर ही निर्भर है.

     लेकिन यदि कोई सरकार मात्र उनकी भूमिहीनता के कारण, इन खेत मजदूरों को  किसान ही मानने से इंकार कर दें, तो कोई क्या करें? वन भूमि के पट्टे नहीं होने के कारण सरकार आदिवासियों को भी किसान नहीं मानती. उनको भी किसान नहीं माना जाता, जो पट्टाधारी किसान परिवार के सदस्य होते हैं. इन श्रेणी के लोगों की आत्महत्याओं को सरकार 'किसान आत्महत्याओं' में गिनती ही नहीं.

    राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2001 में छत्तीसगढ़ में 1452 किसान आत्महत्याएं हुई थीं, जो वर्ष 2009 में बढ़कर 1802 हो गई. इन आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि देश में आत्महत्या करने वाले हर 10 किसानों में एक किसान छत्तीसगढ़ का है. वर्ष 2009 में पूरे देश में 17368 किसानों की आत्महत्याएं दर्ज की गई थी. केंद्र में संप्रग सरकार अपने ही ब्यूरो के इन आंकड़ों को नकार रही थी, तो राज्य में भाजपा की सरकार भी. लेकिन इस नकार के बावजूद इन किसान आत्महत्याओं ने देश में व्याप्त कृषि संकट पर बहस को जन्म दिया.

    स्थिति की गंभीरता को कम दिखाने के लिए अब शुरू हुआ किसान आत्महत्याओं के आंकड़ों में हेरा-फेरी का खेल. नतीजा यह हुआ कि जो छत्तीसगढ़ किसान आत्महत्याओं में देश के प्रथम पांच राज्यों में शामिल था, वहां वर्ष 2011, 2012 व 2013 में कोई किसान आत्महत्या ही नहीं हुई !! छानबीन से स्पष्ट हुआ कि इस सरकार ने किसानी को 'स्वरोजगार' मान लिया है और तमाम किसान आत्महत्याओं को उसने ' स्वरोजगार (अन्य) ' की श्रेणी में डाल दिया है. इस श्रेणी पर इतनी ' सरकारी कृपा ' बरसी कि जहां वर्ष 2009 में यह संख्या 861 ही थी, वर्ष 2013 में इस श्रेणी में 2077 (2.5 गुना से ज्यादा) आत्महत्याएं दर्ज की गई. इस दौरान छत्तीसगढ़ के सामाजिक-आर्थिक कारकों में कोई अंतर नहीं आया. इसलिए प्रदेश में उच्च दर पर दर्ज हो रही किसान आत्महत्याओं का 'शून्य' हो जाना पूरी तरह से संदेहास्पद था. इस पर हो-हल्ला तो होना ही था. इस हो-हल्ले का नतीजा यह हुआ कि वर्ष 2014 में 755 किसानों की आत्महत्याएं दर्ज की गई. इस वर्ष पूरे देश में 12360 किसानों ने आत्महत्याएं की थी. इस प्रकार, देश में आत्महत्या करने वाले किसानों में छत्तीसगढ़ के 6% किसान थे, जबकि छत्तीसगढ़ की आबादी पूरे देश की आबादी का महज 2% ही है.

    यदि किसान आत्महत्याएं ' कृषि संकट ' का एक संकेतक है, तो इस संकट की गहराई को समझने की जरूरत है. एनसीआरबी के 2009 तक के आंकड़ें 'विश्वसनीय' माने जा सकते हैं, लेकिन उसके बाद के नहीं. 2009के बाद के आंकड़ों के विश्लेषण के लिए ' सामान्य विवेक ' का सहारा लेना पड़ेगा. वर्ष 2013 में 'स्वरोजगार (अन्य)' की श्रेणी में 1216 की 'असामान्य' बढ़ोतरी दर्ज की गई है. यदि इसे वर्ष 2014 में किसान आत्महत्याओं की संख्या से जोड़कर देखा जाएं, तो मोटे तौर पर यह माना जा सकता है कि इस वर्ष किसान समुदाय के बीच 1971 किसानों ने आत्महत्या की. इस प्रकार, प्रति लाख जनसंख्या में 7.73 किसान आत्महत्या कर रहे हैं और प्रति लाख किसान परिवारों के बीच आत्महत्या की दर 49.2 बैठती है. यह आत्महत्या दर देश में सर्वाधिक है.

    यदि छत्तीसगढ़ देश में सबसे गहरे कृषि संकट से गुजर रहा है, तो इसके कारणों की पड़ताल की ही जनि चाहिए. यह वही छत्तीसगढ़ है, जहां 2002-03 से 2012-13 के बीच 10 सालों में जीडीपी में औसतन 7% की तेज रफ़्तार से वृद्धि हुई है. जो लोग ' ट्रिकल डाउन थ्योरी ' पर विश्वास करते हैं कि अर्थव्यवस्था में जितना ज्यादा विकास होगा, वह रिसकर निचले तबकों तक उतना ही ज्यादा पहुंचेगा, वे यहां गलत साबित होंगे. वास्तविकता तो यह है कि इस तेज रफ़्तार विकास ने किसानों के ज्यादा बड़े हिस्से पर क़र्ज़ का बोझ लाद दिया है.

    एनएसएसओ के ही अनुसार, पिछले एक दशक में कर्ज़दार किसानों की संख्या 48.6% से बढ़कर 51.7% हो गई है. इन किसानों में 40% किसान महाजनी क़र्ज़ में दबे हैं, जो 60% तक ब्याज वसूलते है. महाजनी क़र्ज़ में फंसे इन किसानों की पहुंच उनकी ' भूमिहीनता ' के कारण बैंकों तक है ही नहीं. एक औसत भारतीय किसान के लिए यह क़र्ज़ एक 'फंदे' में बदल गया है, जो पिछली कई पीढ़ियों का क़र्ज़ ढो रहा है. भारतीय कृषि में जो ' पूंजीवादी विकास ' किया गया है और जो तकनीक विकसित हुई है, उसने उसे फायदा कम पहुंचाया, क़र्ज़ के जाल में ज्यादा फंसाया है. एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1967-2007 के बीच कृषि उपजों की कीमतों में केवल 10 गुना वृद्धि हुई है, लेकिन औद्योगिक उत्पादों की कीमतों में 30 गुना बढ़ोतरी हुई है. अर्थव्यवस्था में जीडीपी में विकास दर के पीछे ' आदिम संचय ' बहुत बड़ा कारण है, जो जल, जंगल, जमीन, खनिज, और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की लूट से प्रेरित है.तो ऐसे विकास का किसानों तक रिसने का सिद्धांत तो कोरी कल्पना ही साबित होनी थी. एक आंकलन के अनुसार, 1995-2007 तक कृषि उपजों के मूल्य निर्धारण के जरिये  इस देश के किसानों को 6 लाख करोड़ रुपयों की चपत लगाई गई है. अपने वादे के बावजूद भाजपा सरकार आज भी किसानों को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में देने को तैयार नहीं हैं. खेती-किसानी घाटे का सौदा हो गई है और किसी विकल्प के अभाव में ही वे इससे चिपके हुए हैं. खेती-किसानी से उन्हें जो कुछ भी आय होती है, उसे उद्योग जगत हड़प कर लेता है. अर्थव्यवस्था में जीडीपी के विकास दर का रहस्य भी यही है.

    छत्तीसगढ़ में लगभग 40 लाख परिवार खेती-किसानी पर ही गुजर-बसर करते हैं. इनमें से केवल 9--10 लाख किसानों की ही बैंकों तक पहुंच हैं. 30 लाख किसान परिवार महाजनी कर्जे में फंसे हैं, जिनकी औसत आमदनी, एनएसएसओ के अनुसार, केवल 3423 रूपये मासिक ही है. पशुपालन भी यहां घाटे का धंधा है, जो उनकी आय में और कमी ही करता है. ये किसान परिवार अपनी औसत आमदनी का 40% तो केवल क़र्ज़ में ही भुगतान ही करते हैं, जबकि 57% अपने भोजन पर. इसके बाद जीवन की अन्य गतिविधियों के लिए उनके पास कुछ नहीं बचता. यदि वे किसी और खर्च को प्राथमिकता देते हैं, तो और ज्यादा कर्जे, और ज्यादा भुखमरी का ही शिकार होते हैं. पिछले माह छत्तीसगढ़ में हुई किसान आत्महत्याओं में, किसानों की ऐसी बदहाली किसी से छुपी नहीं है.

    तो एक किसान पूरे मुल्क का पेट भरता है. वह उद्योगों को पालता-पोसता है .वह अर्थव्यवस्था की जीडीपी दर को बढाता है. वह महाजनों की तिजोरियों को भरता है. लेकिन एक अच्छे बरसात में भी वह भुखमरी से लड़ता है. उसे केवल एक अकाल का इंतजार होता है आत्महत्या करने के लिए.  6 सालों बाद छत्तीसगढ़ में एक अच्छा अकाल पड रहा है. एक अच्छे अकाल का धनकुबेरों को भी इंतजार होता है मुनाफा पैदा करने के लिए !!

  • "अ" से "आ" तक.....Everyone loves a good drought

    संजय पराते

    वर्णमाला में 'अ' से 'आ' तक की जितनी दूरी होती है, 'अकाल' से 'आत्महत्या' तक उतनी दूरी भी नहीं होती. कारण बहुत ही स्पष्ट है कि एक औसत भारतीय किसान बोता तो 'क़र्ज़' है, लेकिन 'अकाल' पड़ने पर उसे 'आत्महत्या' की  फसल काटने को मजबूर होना पड़ता है. छत्तीसगढ़ के किसानों पर यह बात और ज्यादा तल्खी से लागू होती है, चाहे सरकार के आदेश-निर्देश पर राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो (एनसीआरबी) किसान आत्महत्याओं के आंकड़ों को कितना भी छुपाने कि कोशिश क्यों न करें.

    वास्तव में ये आत्महत्याएं तो उन सरकारी नीतियों की ही 'उपज' है, जिसके चलते अकाल की भयावहता और ज्यादा गहरी हो जाती है. छत्तीसगढ़ में पिछले दो महीनों में हुई भुखमरी और आत्महत्याओं की घटनाएं इसी सच्चाई को बयां भी करती है. क्या यह कोई कम शर्म की बात है कि सरकारी खजाने में मनरेगाके 3272 करोड़ रूपये पड़े रहे और इस वित्तीय वर्ष के पहले तीन महीनों अप्रैल-जून में केवल 1.86 लाख मानव दिवस रोजगार ही पैदा किये जाएं, काम के अभाव में लोग गांवों से पलायन करें तथा भूख से मर जाएं. इस पर भी क्या हमको शर्म नहीं आनी चाहिए कि शून्य प्रतिशत ब्याज दरों पर फसल ऋण वितरण का हम ढिंढोरा तो पीटते हैं , लेकिन आर्थिक तंगी और क़र्ज़ से बेहाल किसान फांसी के फंदे पर झूलकर या ट्रेन के सामने कूदकर अपनी आत्माहूति दें. क्या इस पर भी हमें शर्म नहीं आनी चाहिए कि 'ये तेरा क्षेत्र - ये मेरा क्षेत्र' की तर्ज़ पर पीड़ित परिवारों को राहत पहुँचाने के मामले में भी हम भेदभाव करें.

    यदि ऐसा ही है, तो ऐसा गंभीर कृषि संकट प्रकृति से ज्यादा मानवनिर्मित ही माना जायेगा-- लेकिन ये वे 'मानव' है, जो 'महामानव' बनकर सत्ता के शीर्ष पर बैठे हैं. यह सत्ता ही तय करती है कि हमारे बजट का कितना हिस्सा कृषि तक पहुंचे और आंकड़े दिखाते हैं कि पिछले 25 सालों में हमारे देश के 70% किसानों के लिए कुल बजट का केवल 0.1% (जी हां, शून्य दशमलव एक प्रतिशत) ही दिया गया. तो सिंचाई की योजनाएं तो बनी, लेकिन नहरों-बांधों को कागजों पर ही खुदना था. मनरेगा में नए तालाब निर्माण व् पुरानों के गहरीकरण कि योजना तो बनी, लेकिन फर्जी मस्टर रोलों के लिए ही. किसानों को क़र्ज़ तो मिला, लेकिन महाजनों द्वारा उसकी केवल फसल लूटने के लिए ही. तो इस लुटे-पिटे किसान के पास, जिसके पास ईज्जत से जीने का कोई सहारा न हो, 'आत्महत्या' के सिवा कोई चारा बचता है? उसकी इस अंतिम कोशिश को भी सत्ताके मदांध, प्रेम-प्रसंगों या नपुंसकता से जोड़ दें, तो अलग बात है. 'नैतिकता के ठेकेदारों' को किसानों को देने के लिए इससे ज्यादा और कुछ हो भी नहीं सकता. उनकी 'नैतिकता' का तकाजा यही है कि किसानों के उपजाए अन्न के एक-एक दाने पर पहरा बैठा दे और उसे अनाज मगरमच्छों के हवाले कर दें !!

    उन खेत मजदूरों को भी गणना में ले लिया जाएँ, जिनके पास जमीन का एक टुकड़ा नहीं हैं और पेट पालने के लिए ऊंचे किराए पर ली गई जमीन ही जिनका आसरा है या वे आदिवासी, जो वन भूमि पर निर्भर है, इस प्रदेश में खेती करने वाले परिवारों की  संख्या 40 लाख से ज्यादा बैठेगी. पिछले 15 सालों से इस प्रदेश में 15000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं की हैं-- और इनमें वे दुर्भाग्यशाली आत्महंतक शामिल नहीं हैं, जिनके पास किसान होने का कोई सरकारी सर्टिफिकेट नहीं था. एनसीआरबी के आंकड़ों के चीख-चीखकर यह कहने के बावजूद सरकार इसे मानने के लिए तैयार नहीं थी. लेकिन एनसीआरबी के ये आंकड़ें अचानक 'शून्य' पर पहुंच जाते हैं, जिसे यह सरकार बड़े पैमाने पर प्रचारित करती है. लेकिन एनसीआरबी के पास इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं हैं कि आत्महत्याओं के संबंध में 'अन्य' (स्वरोजगार) श्रेणी के आंकड़ों में जबरदस्त वृद्धि कैसे हो गई? आप आंकड़ों को तो छुपा सकते हैं, लेकिन लाशों को कहां छुपायेंगे?

    लेकिन आंकड़े भी चीख-चीखकर कह रहे हैं कि जीडीपी में वृद्धि और विकास के दावों के बावजूद किसान के हाथों केवल क़र्ज़ ही आया है. इन 40 लाख से ज्यादा किसान परिवारों में से बैंकों के कर्जों तक पहुंच 10  लाख किसानों की भी नहीं हैं. बचे हुए 30 लाख किसान भी खेती करते हैं, वे भी क़र्ज़ लेते हैं. लेकिन किससे? महाजनों से. किस दर पर? 5% प्रति माह -- यानि 60% सालाना की दर पर. है कोई ऐसा व्यवसाय, जो भूखों-नंगों को निचोड़कर इतना मुनाफा दें? लेकिन इस महाजनी कर्जे के बोझ से किसानों को मुक्त करने के बारे में हमारे कर्णधार चुप हैं. सभी जानते हैं कि इन कर्णधारों के इन सामंती महाजनों से क्या रिश्ते है !! तो यह चुप्पी भी स्वाभाविक हैं.

    तो हमारे छत्तीसगढ़ के 28 लाख किसान परिवार महाजनी कर्जे में फंसे हैं. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के 70 वें चक्र के आंकड़े कह रहे हैं कि उनकी औसत कर्जदारी 10000 रुपयों की हैं. इस कर्जदारी पर वे सालाना 6000 रूपये का ब्याज ही पटा रहे हैं -- यानि एक क़र्ज़ छूटता नहीं कि दूसरा सर पर. 'क़र्ज़ के मकडजाल' में फंसे इन किसान परिवारों की प्रति माह औसत आमदनी केवल 3423 रूपये है. एनएसएसओ का सर्वे भी यही बताता है. हाल का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण बता रहा है कि प्रदेश के 75% से ज्यादा किसान परिवारों की मासिक आय 5000 रूपये से कम है, जबकि देश में किसान परिवारों की औसत आय का 40% हिस्सा तो केवल क़र्ज़ चुकाने में चला जाता है. फिर किसानी घाटे का सौदा नहीं, तो और क्या होगी?

    यह हमारे कर्णधारों की असफलता ही है कि वे हमारे अन्नदाताओं को पेट में पत्थर बांधकर सोने को मजबूर कर रहे हैं. वे सो भी रहे हैं. लेकिन यदि एक साल फसल बर्बाद हो जाए, तो गले में फंदा डालने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता.

    क़र्ज़ के इस दुष्चक्र पर प्रसिद्द पत्रकार पी. साईनाथ ने एक पुस्तक लिखी है-- .Everyone loves a good drought.  अकाल की आड़ में चांदी काटने वालों को एक अच्छे अकाल का इंतजार है, इसके लिए भले ही किसानों को आत्महत्या क्यों न करनी पड़ें!! एक अच्छा अकाल कुछ लोगों के सुनहरे भविष्य के लिए बहुत ज़रूरी है -- हमारे कर्णधारों के भविष्य के लिए भी!!

  • एक अदने 'मन की बात'

    संजय पराते

    मोदीजी ने खुश कर दिया. इसे कहते हैं 'सबका साथ, सबका विकास'. देश के विकास की बात है जी, इसमें किसानों का साथ चाहिए और कारपोरेटों का भी.देश के विकास में किसानों का विकास छुपा है कार्पोरेटों का विकास खुला है.  लेकिन विपक्ष ने दोनों के विकास का रास्ता अलग कर दिया था. ' भूमि अधिग्रहण ' के बारे में इतना भ्रम फैला दिया था कि किसान भी नाराज़ था और कार्पोरेट भी. किसान जमीन देने के लिए तैयार नहीं था और कार्पोरेट जमीन छोड़ने के लिए. किसान कह रहा था, जमीन के बिना खेती कैसे करूं? कार्पोरेट पूछ रहा था, इतनी कम जमीन में कारखाना कैसे लगाऊं? दोनों सही थे और समस्या विकट. विपक्ष 56 इंच के सीने को चुनौती दे रहा था, बता रहा था कि यह तो 26 इंच का भी नहीं है ! 56 का आंकड़ा यदि 26 का बना दिया जाएं, तो भ्रम तो फैलता ही है और 16 इंच के टुच्चे भी ताल ठोंकने लगते हैं.

    लेकिन मोदीजी भी कम खेले-खाए नहीं हैं. जिंदगी-भर संघी कसरत की है, आज भी कर रहे हैं. देश बने चाहे बिगड़े, लेकिन इस कसरत से शरीर तो जरूर बना है. एक झटके में बता दिया कि सवा साल पहले तो वे 56 इंची रहे होंगे, लेकिन आज तो 65 इंची है. वर्ना किस्में इतना मजाल कि तराजू के एक पलड़े में 75 करोड़ किसानों को रख दें और दूसरे पलड़े में कुछ  कार्पोरेट घरानों को -- और फिर भी तराजू का काँटा सीधा खड़ा रहे और पलड़ा किसी ओर न झुके. किसान खुश कि अब वे कार्पोरेटों के बराबर है और कार्पोरेट भी खुश कि 75 करोड़ भूखे-नंगे मिलकर भी उनका बाल न बांका कर सकें. जिसके खून में व्यापर होता है जी, उसी को सबको खुश रखने की कला आती है. मोदीजी के खून में व्यापार है, खालिस व्यापार. जिसको भ्रम हो, उसका भ्रम भी दूर हो जाना चाहिए अब.  है कोई व्यापारी, जो एक साथ अमेरिका को भी साध ले और अरब को भी. ईसाई खुश और मुस्लिम भी खुश. इन दोनों की ख़ुशी देखकर संघी भी खुश. इतने सारे देशों से खुशियों का सैलाब मोदीजी ही ला सकते थे. जब खुशियों का सैलाब इस देश में बहेगा, तो ' अच्छे दिन, अच्छे दिन '  चिढाने वाला पूरा विपक्ष बहकर कहां किनारे लग जाएगा, पता नहीं चलेगा. 2002 के खून-खून के खेल को खेलते-खेलते 2015 में व्यापार-व्यापार के खेल में बदलना किसी 65 इंची सीने का ही कारनामा हो सकता है. यह तो मोदीजी के बस की ही बात है कि इस व्यापार-व्यापार के खेल में हो रहा खून किसी को न दिखे. वरना नासपीटे कम्युनिस्ट तो गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रहे हैं कि तीन लाख किसानों ने पिछले बीस सालों में आत्महत्या कर ली.भाई साहब, खेल तो ऐसा ही होना चाहिए कि खून भी हो और खून दिखे भी नहीं. जब खून नहीं दिखेगा तो देखने के लिए केवल ' विकास ' बचा रह जायेगा. सो विकास दिखेगा, शुद्ध विकास, लहलहाता हरा-हरा -- छप्पर फाड़ जीडीपी के साथ बढ़ता हुआ.

    मीन-मेख निकलने वाले तो जीडीपी में भी मीन-मेख निकाल लेते हैं. ऐसे लोग परमानेंट विघ्नसंतोषी होते हैं. मीन-मेख न निकाले, तो रात का खाना न पचे. कुछ नहीं मिला तो यही कहने लगते हैं, जीडीपी बढ़ी तो बढ़ी, लेकिन इससे गरीबी तो दूर नहीं होती. ये लो, हमने कब कहा कि विकास का गरीबी से कोई संबंध है? यदि गरीबी ही दूर हो जाएगी, तो विकास किसका करेंगे?? यदि गरीब ही न रहेंगे, तो विकास के पप्पा-मम्मा को कौन पूछेगा???

    तो प्रिय देशवासियों, मोदीजी 2013 का भूमि अधिग्रहण क़ानून बदल रहे थे, तो विकास के लिए. अध्यादेश जारी कर रहे थे, तो विकास के लिए. भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी नहीं कर रहे हैं, तो भी विकास के लिए. संसदीय समिति पर भरोसा जता रहे हैं, तो विकास के लिए. बिहार चुनाव तक खामोश बैठे हैं, तो विकास के लिए. मोदीजी जी रहे हैं, तो विकास के लिए. मरेंगे, तो भी विकास के लिए. दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्जी जैसे न जीयेंगे, न मरेंगे -- जिन्होंने विकास की जगह केवल भ्रम ही भ्रम फैलाया. प्रगतिशीलों के फैलाए भ्रम के खिलाफ लड़ना ही ' विकास की चुनौती ' है. तो जिस तरह मोदीजी ने बचपन में मगरमच्छ से कुश्ती लड़ी थी, उसी तरह आज वे बुढापे में विकासविरोधियों से लड़ रहे हैं -- पार्टी के अंदर और पार्टी के बाहर भी. उन्होंने अडवानीजी के भ्रम को तोडा है, तो कम्युनिस्टों के गुमान को भी तोड़ेंगे. जिसे तोडना है, तोड़ेंगे ;  जिसे फोड़ना है, फोड़ेंगे ; तोड़-फोड़कर विकास की राह आसान करेंगे.

    मोदीजी ने अपने ' मन की बात ' कह दी कि फैला लो कितना भी भ्रम, लेकिन न वे भ्रमित होंगे, न किसान और न कार्पोरेट. विकास के लिए मोदीजी को सबका साथ चाहिए. यदि किसान को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश नहीं चाहिए, तो मत लो,  लेकिन साथ दो, बिहार चुनाव तक तो जरूर दो. यदि कारपोरेटों को जल, जंगल, जमीन चाहिए, तो ये लो, जमीन हड़पने के 13 कानून अधिसूचना और नियमावली के रूप में लागू कर दिए. जमीन लो और साथ दो, बिहार चुनाव के लिए तो चंदा दो. आगे से न सही, पीछे से लो, लेकिन विकास करो. इस देश को मनमोहन सिंह ने अमेरिका का पिछवाड़ा बनाया है, तो मैं कारपोरेटों का पिछवाड़ा हूं. देश के पिछवाड़े और कारपोरेटों के पिछवाड़े में गणितीय संबंध स्थापित करना ही विकास को स्थापित करना है. यही नीतियों का गठबंधन है -- जमीन दो, विकास लो. विकास के लिए बलिदान लो -- लेकिन कारपोरेटों का नहीं, किसानों का. भूमि अधिग्रहण अध्यादेश न सही, अधिसूचना के लिए नियमावली ही सही.

    किसान भ्रम में न रहें कि उनकी जमीन मोदी के कार्पोरेट राज में सुरक्षित है. बिहार चुनाव के बाद नए सिरे से जोर आजमाईश की जायेगी.

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