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मध्यप्रदेश में 70 वर्षीय व्हिसलब्लोअर जेल में! Featured

संदीप पौराणिक

मध्यप्रदेश में अब हक के लिए आवाज उठाना और ताकतवर लोगों के खिलाफ मोर्चा लेना आसान नहीं रहा है, जो ऐसा करेगा उसे गंभीर नतीजे भुगतना पड़ सकते हैं। इस बात का प्रमाण है 70 वर्षीय सेवानिवृत्त अधिकारी और व्हिसलब्लोअर जे.के. जैन का जेल जाना और उनकी पत्नी शोभा जैन पर धोखाधड़ी का मामला दर्ज होना।

जैन का कसूर सिर्फ इतना है कि वह राजधानी की रोहित गृह निर्माण सहकारी संस्था में भूखंड आवंटन में हुए फर्जीवाड़े के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे है।

राजधानी के बावड़िया कलां क्षेत्र में लगभग सौ एकड़ में फैली रोहित गृह निर्माण सहकारी संस्था का गठन 1983 में हुआ, तब कुछ लोगों ने मिलकर यह संस्था बनाई थी, शुरुआत में इस संस्था में 1500 सदस्य थे, जो बढ़कर दो हजार को पार कर गए हैं।

इस संस्था के आगे चलकर कई ऐसे लोग भी सदस्य बन गए, जिनकी सत्ता में गहरी पैठ है। मजे की बात तो यह है कि इनमें से कई लोग ऐसे हैं जिन पर गलत तरीके से भूखंड हथियाने के आरोप लगे हैं। वास्तविक हकदार अपना भूखंड पाने के लिए सहकारिता विभाग से लेकर न्यायालय तक के चक्कर लगाने को मजबूर हैं और ताकतवर लोग अवैध कब्जा कर उनके मालिक बन बैठे हैं।

राज्य के सहकारिता मंत्री गोपाल भार्गव ने भी दो मार्च, 2016 को विधानसभा में माना है कि इस सहकारी संस्था में 137 ऐसे लोग हैं, जिन्होंने अवैध तरीके से भूखंडों पर कब्जा कर रखा है। साथ ही भरोसा दिलाया कि वे आगामी तीन माह में इस संस्था में गड़बड़ी करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करेंगे।

इस संस्था के संचालक मंडल को भंग करके विभाग ने 11 जून, 2015 को ही विभाग की ओर से एक अधिकारी को बतौर प्रशासन नियुक्त कर दिया गया है।

राज्य सरकार के मंत्री ने जो बात विधानसभा में स्वीकारी है, यही लड़ाई संस्था के पूर्व निदेशक जे.के. जैन वर्ष 2003 से लड़ते आ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने सरकारी अफसरों, सरकार के मंत्रियों और मुख्यमंत्री से लेकर उच्च न्यायालय तक का दरवाजा खटखटाया।

जैन की पत्नी शोभा जैन जो स्वयं सेवानिवृत्त अधिकारी हैं, ने आईएएनएस को बताया कि उच्च न्यायालय ने 30 जून, 2013 को जनहित याचिका पर एक आदेश पारित कर सहकारिता विभाग को निर्देश दिए। इस आदेश का पालन न होने पर उन्होंने (जे.के. जैन) अवमानना का आवेदन उच्च न्यायालय को दिया। इस पर एक मई, 2015 को उच्च न्यायालय ने सहकारिता विभाग के अधिकारियों को नोटिस भी जारी किया।

शोभा जैन का आरोप है कि एक तरफ उच्च न्यायालय द्वारा अवमानना का नोटिस जारी किए जाने और दूसरी ओर जे के जैन द्वारा अपनी लड़ाई जारी रखने से बौखलाए संस्था से जुड़े रहे राजनीतिक तौर पर ताकतवर लोगों ने साजिश रचकर ए.के. शुक्ला, जो अपने को संस्था का प्रबंधक बताता है, ने शाहपुरा थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी। यह रिपोर्ट 15 जनवरी, 2016 को दर्ज हुई।

शाहपुरा थाने के उपनिरीक्षक और जांच अधिकारी आर.के. मिश्रा ने आईएएनएस से कहा कि जैन के खिलाफ शुक्ला ने रिपोर्ट दर्ज कराई है, जिसमें जैन पर आरोप है कि उन्होंने कूट रचित दस्तावेजों से भूखंड अपने और पत्नी शोभा जैन के नाम हथियाया।

इतना ही नहीं, जैन ने डायरेक्टर रहते हुए कई भूखंडों में गड़बड़ी की। उन पर आरोप यह भी है कि वे एक से ज्यादा तरीके से हस्ताक्षर करते हैं, साथ ही निवास के पते दो हैं, लिहाजा उनके खिलाफ धोखाधड़ी सहित अन्य धाराओं में मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर जेल भेजा गया है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य विधानसभा में सहकारिता मंत्री भार्गव ने दो मार्च को रोहित गृह निर्माण सहकारी संस्था में गड़बड़ी की बात स्वीकारते हुए सख्त कार्रवाई और मामला विशेष जांच दल (एसआईटी) केा सौंपने की मंशा जाहिर की थी, और उसके दो दिन बाद यानी चार मार्च को जैन को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।

वहीं जैन की पत्नी शोभा जैन को भी धोखाधड़ी का आरोपी बनाया गया है, जो अग्रिम जमानत पर हैं।

यहां बताना लाजिमी है कि वर्ष 2012 में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने सीधे तौर पर इस सोसायटी में अवैध कब्जों को लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर हमला बोलते हुए कहा था कि इन अवैध कब्जाधारियों में तो कई चौहान के रिश्तेदार हैं। चौहान ने आरोपों को नकारते हुए कहा था कि कानून अपना काम करेगा। तब से लगभग चार वर्ष गुजर गए मगर किसी पर कार्रवाई नहीं हुई।

पिछले डेढ़ माह से भोपाल की केंद्रीय जेल में बंद जैन अरसे से पुलिस अफसरों से लेकर राज्य मानवाधिकार आयोग तक को आवेदन देकर अपनी हत्या की आशंका जताते आ रहे हैं। इन आवेदनों में कहा गया है कि उनके खिलाफ साजिश रचकर हिरासत में ही हत्या कराई जा सकती है। उनकी एक आशंका तो सच साबित हो रही है कि उन्हें जेल भेजा जा सकता है।

जैन के खिलाफ मामला दर्ज कर जेल भेजे जाने पर कई सवाल उठ रहे है, क्योंकि जैन 1983 से 2000 तक संस्था के डायरेक्टर रहे, अगर इस अवधि में गड़बड़ी की है तो शिकायत 2016 यानी जैन के पद से हटने के 16 वर्ष बाद क्यों की गई, दूसरी ओर सरकार सहकारी संस्था के कागज उपलब्ध न होने की बात कह रही है, वहीं संस्था के पदाधिकारी कथित तौर पर जैन द्वारा कूटरचित दस्तावेज पुलिस को सौंप रहे हैं।

इतना ही नहीं सहकारिता मंत्री भार्गव द्वारा जांच कर सख्त कार्रवाई किए जाने के आश्वासन के दो दिन बाद ही जैन की गिरफ्तार क्यों हो जाती है, क्या 70 वर्ष का बुजुर्ग फरार हो सकता है। जैन की पत्नी की माने तो जैन को सहकारिता विभाग के दफ्तर से गिरफ्तार किया गया है।

जैन की पत्नी शोभा जैन मानती हैं कि वह और उनके पति वर्ष 1983 में संस्था के सदस्य बने थे, भूखंड के लिए तय राशि भी जमा की, जिस भूखंड का उन्हें आवंटन हुआ है, उस पर कब्जा दूसरों ने कर रखा है। जहां तक जैन पर कूटरचित दस्तावेज रखने का सवाल है, तो वह सब पूरी तरह झूठ है और संस्था के कुछ पदाधिकारियों ने मिलकर ही यह दस्तावेज तैयार कर जैन को फंसाया है, क्योंकि वे फर्जीवाड़े के खिलाफ लंबे अरसे से लड़ाई लड़ते आ रहे हैं।

सरकार द्वारा सहकारिता विभाग के अंकेक्षण अधिकारी (ऑडिट ऑफिसर) एन.एस. हाडा को रोहित गृह निर्माण सहकारी समिति का जून 2015 को प्रशासक बनाया गया था, मगर 10 माह गुजर जाने के बाद न तो उन्हें कोई दस्तावेज मिले हैं और न ही समिति के सदस्य सहयेाग कर रहे हैं। उनका कहना है कि विभाग ने उन्हें प्रशासक बनाया है, मगर वह नाम के ही प्रशासक हैं।

सहकारिता विभाग से जुड़े सूत्रों का कहना है कि रोहित समिति का जिन्न एक बार फि र बाहर आने से फर्जीवाड़े में शामिल लोग राजनीतिक पहुंच के बावजूद अपने को मुसीबत से घिरा पा रहे हैं। लिहाजा, उन्होंने साजिश रचकर जैन को जेल भिजवाया है, क्योंकि जैन ही एक मात्र ऐसा व्यक्ति हैं, जो कई लोगों को जेल का रास्ता दिखवा सकते हैं।

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संदीप पौराणिक

लेखक देश की प्रमुख न्यूज़ एजेंसी IANS के मध्यप्रदेश के ब्यूरो चीफ हैं.

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  • बुंदेलखंड : 13 बांध सूखे, और बढ़ेगा जल संकट!
    आर. जयन
    बांदा, 17 मई (आईएएनएस)। उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड क्षेत्र के बांदा, चित्रकूट और महोबा जिलों में जल संचय के लिए बने तेरह बांध सूख गए हैं, अगर पिछले साल की भांति मानसून ने दगा दिया तो आने वाले दिनों में यहां और जल संकट बढ़ सकता है।

    उत्तर प्रदेश के हिस्से वाला बुंदेलखंड क्षेत्र पिछले कई सालों से सूखे की चपेट में है, पर्याप्त बारिश न होने से यहां हमेशा जल संकट छाया रहता है। बांदा, चित्रकूट और महोबा जिलों में सिंचाई और पेयजल संकट से उबरने के लिए तेरह बांध बने हुए हैं।

    पिछले साल इन बांधों में काफी पानी संचयित था, लेकिन इस साल कम बारिश की वजह से बांधों में पानी का संचयन नहीं हो पाया। जो थोड़ा हुआ भी, वह भीषण गर्मी की चपेट में आकर गायब हो गया।

    चित्रकूट जिले के दो बांध ओहन व बरुआ और महोबा जिले के चार अर्जुन बांध, चंद्रावल बांध, कबरई व मझगवां बांध बिल्कुल सूख गए हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा में बांदा जिले के रनगवां, बरियारपुर व गंगऊ बांध, महोबा के उर्मिल, मौदहा एवं चित्रकूट जिले के रसिन और गुंता बांध में नाम मात्र का पानी बचा है। यहां केन, बागै, चंद्रावल जैसी आधा दर्जन नदियों की जलधारा भी सिकुड़कर पतली हो गई हैं।

    बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी के लिए एक दशक से 'नदी बचाओ-तालाब बचाओ' आंदोलन चला रहे सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश रैकवार ने बताया, "चित्रकूट जिले के ओहन और बरुआ बांध और महोबा जिले के अर्जुन, चंद्रावल, कबरई व मझगवां बांध विल्कुल सूख गए हैं। बांदा के रनगवां, बरियारपुर, गंगउ, महोबा के उर्मिल, मौदहा, और चित्रकूट जिले में रसिन व गुंता बांध में नाम मात्र का पानी बचा है।"

    उन्होंने बताया कि जीवन दायिनी नदियां- केन, बागै, बान गंगा, मंदाकिनी व चंद्रावल की धाराएं सिकुड़ चुकी हैं, जिससे गांवों से लेकर शहरों व कस्बों तक में जल संकट की काली छाया मंडरा रही है। यदि समय से बुंदेलखंड में मानसून की आमद न हुई तो जलसंकट और बढ़ सकता है।

    इस सामाजिक कार्यकर्ता की मानें तो बुंदेलखंड में अब भी प्राकृतिक जलस्रोत मौजूद हैं, जिनको पुनर्जीवित कर सरकार जलसंकट से निजात दिला सकती है।

    उन्होंने बताया कि बांदा जिले के फतेहगंज इलाके में गोबरी, गोड़रामपुर, गोंड़ी बाबा का पुरवा, बिलरियामठ, कुरुहूं गांवों में लगे सरकारी हैंडपंप पानी देना बंद कर दिए तो वहां के ग्रामीणों के समूह ने कंड़ैली नाला की झील की सफाई कर पीने योग्य पानी निकाल लिया है, इस तरह के कई जलस्रोत मौजूद हैं।

    चित्रकूटधाम परिक्षेत्र बांदा के आयुक्त एल. वेंकटेश्वरलू ने भी बांधों के सूखने की बात स्वीकार की है, समय से बारिश होने के अलावा इनमें पानी संचय का दूसरा उपाय नहीं है, पर पेयजल संकट से निपटने में प्रशासन सक्षम है।

    --आईएएनएस
  • 'वाट्सएप' महज किताब नहीं, लेखक के जीवन का अंश (पुस्तक परिचय)
    रीतू तोमर
    नई दिल्ली, 17 मई (आईएएनएस)। हिंदी साहित्य में कहानी विधा हमेशा से पाठक वर्ग पर एक अलग छाप छोड़ती आई है। कहानियां कभी गुदगुदाती तो कभी अंतर्मन को झकझोरती रही हैं। कथाकार रामनाथ राजेश का सद्य: प्रकाशित कहानी संग्रह 'वाट्सएप' की कहानियां भी मन को गहराई तक छू लेने की क्षमता रखती हैं, बल्कि ये तो लेखक के जीवन का अंश ही हैं।

    पेशे से पत्रकार रामनाथ राजेश की किताब 'वाट्सएप' ऐसे समय में पाठकों के बीच आई है, जब वाट्सएप लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है। इस कहानी संग्रह में कुल 11 कहानियां हैं, जिन्हें बड़े कायदे से एक सूत्र में पिरोकर पेश किया गया है। पुस्तक का नाम भी 21वीं सदी के युवाओं को ध्यान में रखकर बिल्कुल सटीक रखा गया है।

    इस पुस्तक में युवाओं सहित हर उम्र के पाठक वर्ग के लिए कुछ न कुछ संदेश है। रामनाथ राजेश की लेखनी ने यह सिद्ध कर दिया है कि जब एक अध्ययनशील पत्रकार लेखक की भूमिका में आता है तो तथ्यों एवं विश्लेषणों का अद्भुत समायोजन पेश करता है।

    ये कहानियां बदलते सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश का आईना हैं। 'वाट्सएप' की प्रत्येक कहानी का कथानक एक-दूसरे से कमोबेश भिन्न है, लेकिन ये कहानियां एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी पाठकों को अंत तक बांधे रखने में कामयाब हुई हैं।

    पुस्तक की खास बात यह कि लेखक ने अपने जीवन के कुछ निजी अनुभवों को कहानियों के रूप में पेश किया है।

    कुछ प्रमुख कहानियों की बात करें तो पहली कहानी 'बंद के आगे का रास्ता' में शहर में बंद के बीच अपने पति की जिंदगी के लिए जूझती महिला की करुणा झकझोरने वाली है।

    'रिपोर्टर' कहानी में पेशेवर और निजी जिंदगी के बीच चक्की में पिसते एक रिपोर्टर की भावनाओं को बड़े ही सलीके से पेश किया गया है। कहानी का नायक रिपोर्टर फ्लैशबैक में अपने प्यार के साथ बिताए पलों को याद करता है। इस कहानी का एकडायलॉग 'मेरी किरण जिंदा है' जैसे आपको अंदर तक झकझोर देने के लिए काफी है।

    पुस्तक की एक अन्य कहानी 'हरमिया' को इस पुस्तक की प्राणवायु माना जा सकता है। आईएएस बनने की चाह रखने वाला युवा बिचौलियों के बीच फंसते हुए किस तरह हरमिया बनने को मजबूर होता है। अपने सपनों को अपनी आंखों के सामने टूटते देखना किस कदर कष्टदायी होता है, लेखक इसके अपनी लेखनी से पन्नों पर उतारने में सफल रहे हैं।

    इसी तरह 'वाट्सएप' कहानी में वाट्सएप से पिता-बेटी के जिंदगी में आए बदलावों और उन बदलावों से रिश्तों में उतार-चढ़ाव से पाठक वर्ग अछूता नहीं रह पाएगा।

    कुल मिलाकर जिंदगी के उत्साह, उम्मीद, निराशा, तनाव आदि विविध गाढ़े-फीके रंगों और उन पर मनुष्य की प्रतिक्रियाओं का बखूबी चित्रण इन कहानियों में किया गया है।

    इसी तरह अन्य कहानियों में 'केंचुल', 'कटनिहार', 'फेनुस', 'एक अनजाने गांव' जैसी कहानियां कहीं आपको रोने, कहीं हंसने और कहीं-कहीं सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं।

    कहानियों की भाषा-शैली की बात करें तो रामनाथ राजेश की भाषा काफी लचीली है, जिसमें वे बातचीत के अंदाज में ही अपनी बातें बड़ी सहजता से कहने में सक्षम हैं।

    बहरहाल, कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि रामनाथ राजेश की इस पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह अपनी बनावट (डिजाइन) में एकदम अनूठी है। इस एक ही पुस्तक में विभिन्न पाठक वर्गो के लिए कुछ न कुछ मौजूद है। बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक किसी को भी यह निराश नहीं करने वाली।

    उम्मीद है कि इस पुस्तक से अन्य लेखकों को भी कुछ नया, बदलते जमाने को ध्यान में रखकर रचने की प्रेरणा मिलेगी।

    किताब : वाट्सएप
    लेखक : रामनाथ राजेश
    प्रकाशक : बुकमार्ट पब्लिशर्स
    पृष्ठ : 144
    मूल्य : 250 रुपये

    --आईएएनएस
  • न्यायपालिका बनाम विधायिका : तू-तू मैं-मैं बनाम इंसाफ

    ऋतुपर्ण दवे
    एक बड़ा राजनीतिक तबका बहुत चिंतित है। देश के राजनीतिज्ञ जब-तब चिंतित होते हैं तो उसके कई मायने निकाले जाते हैं। सरकारें बदल जाती है, चिंता वही रहती है। लेकिन जब राजतंत्र और लोकतंत्र में एक ही बात को लेकर दो धुरी बन जाएं तो विषय गंभीर लगने लगते हैं। बस कुछ ऐसा ही माहौल बनाया जा रहा है कि क्या आने वाले दिनों में विधायिका और न्यायपालिका में जबरदस्त टकराव देखने को मिलेगा?

    इन सबके बीच यह क्यों भुला दिया जाता है कि अदालतों के वो आदेश, जो सरकारों के फैसलों में रोड़े बनते हैं, जनहित याचिका के जरिए ही अदालतों के संज्ञान में लाए जाते हैं।

    जनहित के मायने क्या हैं, सबको पता है। हां, कई बार दृश्य, श्रव्य, विश्वनीय मुद्रित माध्यमों या फिर एक अकेली चिट्ठी पर भी अदालतें जनहित का स्वत: संज्ञान ले, सरकारों की तंद्रा भंग कर, उनके कामकाज को कटघरे में खड़ा कर देती हैं।

    स्वाभाविक है कि किसी भी सरकार को यह भला क्यों लगेगा? बस यही स्थिति जब-तब बनती रहती है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि अब टकराव हुआ कि तब, क्योंकि अब तक जितने भी ऐसे अदालती आदेश हुए हैं, सरकारों को नसीहतें मिली हैं और फैसलों को व्यापक जनसमर्थन मिला है।

    इसका सीधा मतलब यह हुआ कि उसी लोकतंत्र ने न्यायतंत्र को सदैव सर्वोपरि माना है जिसने विधायिका को पर्याप्त हैसियत दी है। यही भारतीय न्याय प्रणाली की सर्वोपरिता है, सर्वस्वीकारिता है और न्यायालयों के प्रति अगाध विश्वसनीयता है।

    इस सबके बावजूद भारत में न्यायापलिका और विधायिका में टकराव की चिंता नई नहीं है। पहले भी दर्जनों बार ऐसी स्थिति बनी और खुद-ब-खुद खत्म भी हुई।

    बड़ा सवाल यह कि ऐसी स्थिति बनती क्यों है? इस विषय में कभी चिंतन हुआ या संसद में हमारे लोकतंत्र के भगवानों ने खुले मन से विचार विमर्श किया? या फिर महज औपचारिकता या झुंझलाहट से ज्यादा कुछ नहीं?

    अगर बिना किसी पूर्वाग्रह के अब तक के सभी घटनाक्रमों पर ध्यान दिया जाए तो कभी यह सिद्धांत की लड़ाई लगती है तो कभी अहं की और राजनीति के चश्मे से देखें तो यह बहुमत के हुंकार की लड़ाई भी लगने लगती है। इन सबके बीच बड़ा सवाल यही कि कौन बड़ा, न्यायपालिका या विधायिका? उत्तर क्या होगा कहने की जरूरत नहीं है, सभी को पता है।

    12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले में इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षो तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन इंदिरा गांधी ने मानने से ही इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करवा दिया। यह टकराव काफी चर्चित रहा।

    मामला 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया था। लेकिन चार साल बाद राज नारायण ने उच्च न्यायालय में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। उनकी दलील थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, तय सीमा से अधिक खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने, गलत तरीकों का इस्तेमाल किया। अदालत ने आरोपों को सही ठहराया लेकिन इंदिरा गांधी पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा।

    भारतीय संसद और सर्वोच्च न्यायालय के बीच खींचतान को लेकर वर्ष 2007 में भी एक जबरदस्त प्रसंग सामने आया जब भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई.के. सब्बरवाल की अध्यक्षता में 9 सदस्यीय खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों के विपरीत जाने वाले कानूनों की समीक्षा का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को है भले ही वह कानून 9वीं अनुसूची का हिस्सा क्यों न हो।

    संविधान में यह अनुसूची प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 के द्वारा जोड़ी गई थी। इसमें राज्य द्वारा संपत्ति के अधिग्रहण की विधियों का उल्लेख किया गया और प्रावधान किया गया कि इन अनुसूची में सम्मिलित विषयों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

    इस अनुसूची में 284 अधिनियम हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि 24 अप्रैल 1973 के बाद नौवीं अनुसूची में डाले गए सभी कानूनों की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।

    दरअसल, 1951 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संविधान में संशोधन करके नौवीं अनुसूची का प्रावधान किया था ताकि भूमि सुधारों को अदालत में चुनौती न दी जा सके।

    विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराहट का एक और ऐतिहासिक प्रसंग बीते वर्ष 16 अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय में दिखा जिसके लिए सभी उत्सुक थे। इस दिन संविधान के 99वें संशोधन 2014 को असंवैधानिक करार देकर निरस्त घोषित किया गया।

    इस तरह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून 2014 अस्तित्वहीन हो गया और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति, उच्चच न्यायालय में मुख्य न्यायाधीशों और न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रू्व प्रचलित 'कॉलेजियम प्रणाली' को जारी रखने का फैसला दिया।

    यह फैसला 31 दिनों की मैराथन सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की पीठ ने दिया। इस फैसले के बाद सरकार फिर सकते में आ गई और विधि मंत्री डी.वी. सदानंद गौड़ा ने जहां इस फैसले पर हैरानी जताई, वहीं वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सोशल मीडिया में टिप्पणी करते हुए इसे अनिर्वाचितों की तानाशाही बताया।

    ताजे घटनाक्रम में जेटली के बजट सत्र के दूसरे सोपान के आखिरी दिन के बयान 'विधायिका और कार्यपालिका के कामों में न्यायपालिका का दखल बढ़ रहा है। केंद्र सरकार का काम सिर्फ बजट बनाना और टैक्स लेना रह गया है' से ऐसा लगता है कि न्यायपालिका की दखलंदाजी से सरकार नाखुश है।

    उत्तराखंड का घटनाक्रम, दिल्ली में प्रदूषण पर सरकार को फटकार, सूखे पर सर्वोच्च अदालत की लताड़, जेएनयू विवाद में राजद्रोह के आरोप पर सवाल यानी हर बार निशाने पर सिर्फ सरकार!

    कानून व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त और लोकोपयोगी बनाने की पूरी जिम्मेदारी सरकारों की होती हैं। इसके लिए उसके पास पर्याप्त अधिकार और पूरा तंत्र होता है। लेकिन जब इसमें ही सरकारें नाकाम होने लगती हैं तो अंततोगत्वा उसी कानून को अपना डंडा चलाना पड़ना है जिसका अधिकार हमारे उसी संविधान ने दिया है जिसकी पवित्रता और सर्वोच्चता की शपथ को अपने लोकतंत्र के संस्कार और गरिमा समझते हैं।

    न्यायपालिका भी तो इसी गरिमा के 'चीरहरण' को रोकने के लिए कड़े फैसले सुनाती है और वह भी अपनी सीमाओं में रहकर। इसके बाद भी यदि राजनीतिज्ञ इसे टकराहट कहें तो यह दुनिया के सबसे लोकतंत्र के साथ कैसा इंसाफ?

    (लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

    --आईएएनएस
  • मेरी कला बदलाव लाई तो खुशी होगी : नृत्यांगना मंजरी

    प्रीता नायर
    नई दिल्ली, 17 मई (आईएएनएस)। लखनऊ की मंजरी चतुर्वेदी ने कथक की युवा छात्रा के रूप में अपने पहले सबक 1992 के बाबरी विध्वंस के दौरान सांप्रदायिक सद्भाव में सीखे थे। वह घटना देश में अप्रिय सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं का सबब बनी।

    मंजरी भारत की एकमात्र सूफी कथक नृत्यांगना हैं। उन दिनों मंजरी व उनके दोस्त (अधिकांश हिंदू) कर्फ्यू हटते ही घराना पहुंच जाते थे और उनके मुस्लिम संगीतकार भी पूर्ण रूप से उपस्थित रहते थे। मंजरी ने कहा, "यह एक अलिखित नियम था कि कर्फ्यू हटते ही हमें वहां (घराना) पहुंचना होगा..ज्यादातर विद्यार्थी हिंदू और संगीतकार मुस्लिम थे।"

    सूफीवाद को कथक में मिलाना लीक से हटकर किया गया प्रयास था। शास्त्रीय नृत्य बहुत हद तक हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित होता है, जबकि सूफीवाद खुदा को नहीं बल्कि मोहब्बत व प्यार को कबूल करता है।

    मंजरी को 24 वर्षो बाद सूफी कथा के प्रस्तावक के रूप में नाज है कि लोगों की उस सोच में कुछ अंतर ला सकीं, जो लोगों के बीच धर्म के नाम पर भेदभाव करती है।

    मंजरी दुनियाभर में 250 से ज्यादा संगीत कार्यक्रमों में प्रस्तुति दे चुकी हैं। उन्होंने आईएएनएस को बताया, "मैं संभवत: दर्जो या वर्गो को खत्म करने में सक्षम न हूं, लेकिन मुझे खुशी होगी अगर मेरी कला उस सोच में बदलाव या परिवर्तन ला सकी, जो धर्म के आधार पर लोगों को बांटती है।"

    कथक में पारंगत मंजरी को लखनऊ की कव्वाली परंपरा ने सूफी कथक संकल्पना की ओर आकर्षित किया।

    सूफीवाद और मुस्लिम फकीरों को और जानने-समझने की जुस्तजू से उन्होंने साल 2000 में मिस्र, तुर्की, उज्बेकिस्तान, किर्गीस्तान जैसे देशों की यात्रा की। उन्होंने कहा, "मेरी नजर में सूफी कथक उस मुकाम पर पहुंच गया है, जहां शरीर के शारीरिक पहलू मायने नहीं रखते। प्रस्तुति के बाद दर्शकों को एक विशुद्ध या कोरी ऊर्जा महसूस होनी चाहिए।"

    मंजरी ने सूफी कथक की संकल्पना को समझाते हुए कहा, "अधिकांश शास्त्रीय नृत्यों में सगुण भक्ति का पालन किया जाता है, जिसमें ईश्वर एक रूप माना जाता है। निर्गुण भक्ति भी है, जिसमें ईश्वर का कोई आकार नहीं होता। इस संकल्पना को शास्त्रीय नृत्यों में नहीं जांचा-परखा गया है, मैं उसे सूफी कथक के जरिए कर रही हूं।"

    उन्होंने सोमवार को महरौली के द किला ऐट सेवन स्टाइल माइल में सूफी संत बुल्ले शाह की कविताओं पर अपनी प्रस्तुति दी।

    'ओ बुल्लाह' की प्रस्तुति '22 ख्वाजा प्रोजेक्ट' का हिस्सा है, जो 2010 में दिल्ली और आसपास स्थित 22 सूफी मजारों के बारे में जागरूकता लाने के लिए शुरू किया गया था।

    --आईएएनएस

  • सूखे पर सामाजिक संगठनों की गोलबंदी
    संदीप पौराणिक
    भोपाल, 16 मई (आईएएनएस)। देश का बड़ा हिस्सा सूखे की विभीषिका झेल रहा है, सरकारों की तमाम योजनाओं के बावजूद प्रभावितों की समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। लिहाजा, देश के चार बड़े सामाजिक संगठनों ने गोलबंद होकर उन इलाकों तक पहुंचने की रणनीति बनाई है, जो समस्या ग्रस्त है।

    ये संगठन सरकार की योजनाओं और अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकारों को दिए गए निर्देशों से गांव और किसानों को अवगत कराने के लिए 'जल-हल यात्रा' निकाल रहे हैं। इस यात्रा के जरिए सूखा प्रभावित इलाकों की जमीनी हकीकत को भी जाना जाएगा।

    ज्ञात हो कि 10 राज्यों के सूखा को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त रुख अपनाया हुआ है और केंद्र व राज्य सरकारों केा बेहतर प्रबंधन के निर्देश दिए हैं। साथ ही कहा है कि गरीबों को राशन, बच्चों को मध्याह्न् भोजन, रोजगार, पीने के पानी आदि उपलब्ध कराने में किसी तरह की कोताही न बरती जाए और धन की भी कमी न आने दी जाए।

    बताना लाजिमी होगा कि गांव और किसान के लिए केंद्र सरकार द्वारा अनेक योजनाएं चलाई जा रही हैं, जिनमें प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, नहर व खेत को पानी, वॉटर शेड, जल स्रोतों की मरम्मत व संरक्षण, राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी मिशन, राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन जैसी कई योजनाएं प्रमुख हैं, उसके बावजूद गांव के हालात नहीं सुधरे हैं।

    सरकारी योजनाओं की जानकारी लेने और उन्हें देने तथा सर्वोच्च न्यायालय ने जो सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए सरकारों को जो हिदायत दी है, उससे अवगत कराने के मकसद से चार संगठन 'जल-हल यात्रा' शुरूकर रहे हैं। इस यात्रा के जरिए सूखा और अकाल की स्थिति से जूझ रहे गांव के लोगों को हालात से लड़ने का संबल प्रदान करते हुए योजनाओं का लाभ लेकर आगामी मानसून में पानी को रोकने के लिए मानसिक रूप से तैयार करने की कोशिश होगी।

    जल-जन जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक संजय सिंह ने सोमवार को आईएएनएस को बताया कि स्वराज अभियान, एकता परिषद, नेशनल एलॉयंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) और जल बिरादरी मिलकर इस माह से तीन सूखा प्रभावित क्षेत्रों की यात्रा करने जा रहे हैं।

    उन्होंने बताया कि यात्रा की शुरुआत 21 मई को मराठवाड़ा से होगी और वहां के विभिन्न हिस्सों में 25 मई तक रहेगी। इसके बाद बुंदेलखंड में यह यात्रा 27 मई से 31 मई तक चलेगी और दो से छह जून तक तेलंगाना में यह यात्रा होगी।

    जिन चार सामाजिक संगठनों ने गोलबंदी की है, उनका प्रभाव अपने अपने क्षेत्रों में है। स्वराज अभियान जिसका नेतृत्व योगेंद्र यादव कर रहे हैं, वह सूखा की स्थिति पर लड़ाई लड़ रहा है।

    एकता परिषद के मुखिया पी.वी. राजगोपाल हैं, जो अरसे से आदिवासी हित और जमीन के लिए संघर्ष करते आ रहे हैं। इसी तरह नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर और जलपुरुष राजेंद्र सिंह का भी एनएपीएम से नाता है। लिहाजा, इन संगठनों से जुड़े लोगों की समाज के विभिन्न वर्गो में पहुंच है और वे अपने स्तर से समाज को जगाएंगे।

    सिंह ने आगे बताया कि इस यात्रा का मूल मकसद सूखा प्रभावित लोगों से जानकारी लेना और देना है। उन्हें यह बताना है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उनके लिए सरकारों को किस तरह के निर्देश दिए हैं, उसके साथ यह भी देखा जाएगा कि वास्तव में इन निर्देशों पर कितना अमल हो रहा है।

    देश में संभवत : पहली बार हुई चार बड़े सामाजिक संगठनों की गोलबंदी समाज को उनके हक के प्रति जागृत करने में अहम भूमिका निभा सकती है, वहीं उन सरकारों के लिए यह सुखद संदेश नहीं है, जो सूखे को राजनीतिक रंग देकर अपने लिए 'सुरक्षा कवच' हासिल कर बचती रही हैं।

    --आईएएनएस
  • बुंदेलखंड : तापमान 47.2 डिग्री के पार, लोग हो रहे बीमार

    हमीरपुर (उप्र), 16 मई (आईएएनएस/आईपीएन)। बुंदेलखंड का हमीरपुर में सोमवार को तापमान 47.2 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया। तीखी धूप और लू चलने से कई लोग बीमार हो गए। पेड़ों की पत्तियां मुरझा गई हैं, बड़ी तादाद में पक्षियों की मौते होने की भी खबर है।

    नगर के गली कूचे और भीड़भाड़ वाले बाजार में भी सन्नाटा देखा गया। न्यूनतम तापमान 28.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया।

    बढ़ते तापमान से यमुना और बेतवा नदी अब इन दिनों नाले में तब्दील हो चुकी है। इन नदियों में पानी न के बराबर होने से लोग पैदल ही नदी पार करते देखे जा रहे हैं। यमुना नदी का स्वरूप इस कदर बिगड़ चुका है कि लोग नदी के पानी से आचमन करने से भी तौबा करते हैं।

    गर्मी का कहर स्थानीय नदियों पर बरप रहा है। मौदहा क्षेत्र के तहत कभी बड़े भूभाग में बहने वाली चंद्रावल नदी सूख गई है, वहीं तेज धूप से केन नदी का पानी भी रसातल में पहुंच गया है।

    पिछले दो हफ्ते से पड़ रही जबरदस्त गर्मी ने हमीरपुर जनपद का जनजीवन अस्तव्यस्त कर दिया है। लोग पसीने से तरबतर रहते हैं। गर्मी से बेहाल प्यासे लोगों को मुफ्त पीने का पानी भी नसीब नहीं हो रहा है।

    हमीरपुर बस डिपो के अंदर और बाहर लोग दो रुपये में पानी का छोटा पाउच खरीदकर प्यास बुझाने को मजबूर हैं। पाउच वाला पानी संक्रामक बीमारियां दे सकता है, यह समझते हुए भी लोग खरीद रहे हैं। आखिर जान तो बचानी है।

    स्थानीय निवासी शिवराम चौहान ने बताया कि हर साल रेडक्रॉस सोसायटी के तत्वाधान में नि:शुल्क प्याऊ की व्यवस्था बस स्टॉप व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर की जाती रही है, लेकिन प्रशासन ने अबकी बार नि:शुल्क प्याऊ की व्यवस्था नहीं कराई है।

    --आईएएनएस

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