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भाजपा-पीडीपी गठबंधन में दरार अब बन रही 'घाटी' Featured

शेख कयूम

जम्मू एवं कश्मीर में पीडीपी के नेताओं ने कहा है कि पीडीपी और भाजपा के बीच अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, लेकिन जैसा प्रतीत होता है उसके मुताबिक अब इसमें थोड़ा ही संदेह रह गया है कि दोनों पार्टियों का गठबंधन अंतिम सांस नहीं गिन रहा है।

पिछले दिनों पीडीपी की प्रमुख महबूबा मुफ्ती और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के बीच हुई कथित गुप्त वार्ता से महबूबा की प्रधानमंत्री से मुलाकात का मार्ग प्रशस्त नहीं हुआ, जो केसरिया ब्रिगेड के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के स्पष्ट संकेतों को जाहिर करता है।

भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और जम्मू-कश्मीर के प्रभारी राम माधव ने कहा, "जम्मू एवं कश्मीर में सरकार पूर्व शर्तो पर आधारित नहीं हो सकती है। विश्वास शर्तो पर आधारित नहीं होता है।"

राम माधव ने नई दिल्ली में संवाददाताओं से कहा, "हकीकत यह है कि मुफ्ती साहब के निधन के बाद भी पीडीपी ने अभी तक किसी को औपचारिक तौर पर मुख्यमंत्री पद के लिए नामित नहीं किया है। हालांकि यह कश्मीर से नई दिल्ली तक हर कोई जानता है कि नामित व्यक्ति कौन है।"

माधव ने कहा कि मुख्यमंत्री पद के लिए नामित होने के बाद महबूबा अपनी मांगें रख सकती हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री केंद्र के समक्ष अमूमन अपनी मांगें रखते ही हैं।

उन्होंने कहा कि महबूबा को विनम्रता के साथ यह स्पष्ट संकेत दे दिया गया है कि या तो वे 'हमारी शर्तो' पर शपथ ग्रहण करें, अन्यथा भूल जाएं।

ज्यों ही राममाधव का यह बयान जारी हुया, पीडीपी के संस्थापक सदस्य और वरिष्ठ नेता मुजफ्फर हुसैन बेग, जो पीडीपी-भाजपा गठबंधन के पक्ष में हैं, ने पार्टी का बचाव करते हुए संवाददाताओं से कहा, "संवाद में गड़बड़ी हुई है। हमने कोई नई शर्त नहीं रखी है, बल्कि पूर्व निर्धारित शर्तो पर ही समय सीमा की बात कही है।"

उधर, पीडीपी के प्रवक्ता नीम अख्तर ने कहा, "गतिरोध का तात्पर्य यह नहीं है कि वार्ता खत्म हो गई। यह हमारे लिए झटका है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वार्ता का अंत हो गया है।"

महबूबा शनिवार को पहली उड़ान से श्रीनगर पहुंच गईं। प्रधानमंत्री मोदी से उनकी मुलाकात नहीं हो सकी और इसी बीच राम माधव की यह टिप्पणी सामने आ गई।

वहीं, भाजपा-पीडीपी के बीच गतिरोध का उपहास उड़ाते हुए राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री ऊमर अब्दुल्ला ने ट्वीट कर कहा, "ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्वयं नहीं जानतीं कि केंद्र से उन्हें क्या चाहिए? उनकी मांगें भी अस्पष्ट हैं। यदि वह गठबंधन के पूर्व निर्धारित एजेंडे पर आगे बढ़ना चाहती थीं तो इसे छह साल में लागू किया जाना था। फिर इसमें समय सीमा को लेकर क्या समस्या है?"

उमर ने आगे कहा, "देखिये, अब किस प्रकार महबूबा कहेंगी कि उनकी पार्टी ने कुछ नया नहीं मांगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू एवं कश्मीर को नीचा दिखाया।"

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  • निर्माण क्षेत्र की सूरत बदल सकता है 'ड्रेज्ड' मैटेरियल (आईएएनएस विशेष)
    अरुण बापट
    नई दिल्ली, 13 मई (आईएएनएस)। विकासशील देशों में बुनियादी ढांचे को लेकर काम अनवरत चलता रहता है। देश को अगर विकास के पथ पर अग्रसर रखना है, तो निर्माण कार्य को जारी रखना ही होगा। लेकिन क्या यह कार्य सतत तौर पर जारी रखा जा सकता है? भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह प्रश्न बेहद महत्वपूर्ण है।

    रेलवे, सड़कों, हवाईअड्डे, स्मार्ट शहरों, बड़ी औद्योगिक इकाइयों, सुपर प्रौद्योगिकी संचार प्रणाली जैसे क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास की अपार संभावनाएं हैं। बुनियादी ढांचे के विकास में एक महत्वपूर्ण तथ्य सिविल निर्माण कार्य है। इसके लिए बालू, मिट्टी, सीमेंट, स्टील मुख्य अवयव हैं।

    इन संसाधनों के घटने, पर्यावरण संबंधी प्रतिबंधों तथा स्थिरता की जरूरतों के कारण निर्माण कार्य की कीमतें धीरे-धीरे बढ़ती जा रही हैं।

    इन हालातों से निपटने के लिए निर्माण कार्य में विभिन्न बंदरगाहों से भारी मात्रा में प्राप्त तलकर्षक पदार्थो (ड्रेज्ड मैटेरियल) का इस्तेमाल संभव है।

    प्रत्येक साल कोलकाता, पारादीप, विशाखापत्तनम तथा चेन्नई जैसे पूर्वी तट के बंदरगाह लाखों टन ड्रेज्ड मेटेरियल का उत्पादन करते हैं। पश्चिमी तट का भी यही हाल है।

    जल की विद्यमान गहराई को बढ़ाने, सागर तट से दूर जलक्षेत्रों को नौचालन के योग्य गहरा बनाने और उस गहराई को बनाए रखने के लिए तलकर्षण (ड्रेजिंग) आवश्यक है।

    ड्रेज्ड मेटेरियल का इस्तेमाल निर्माण व आवासों के निर्माण में प्राथमिक संसाधनों की जरूरतों को कम कर सकता है। कुछ देश पहले से ही ड्रेज्ड मेटेरियल का व्यापक तौर पर इस्तेमाल करते आ रहे हैं। जापान में अतीत में 90 फीसदी से अधिक ड्रेज्ड मेटेरियल का इस्तेमाल किया जा चुका है।

    भारत में अमरावती में आंध्र प्रदेश की नई राजधानी अस्तित्व में आ रही है। अमरावती शहर से लगभग 35 किलोमीटर दूर विजयवाड़ा से गुंटूर के बीच 30 गांवों को नई राजधानी के विकास के लिए चिन्हित किया गया है।

    नदी के किनारे स्थित विश्वस्तरीय राजधानी अमरावती एक ऊर्जा कुशल व हरित शहर होगा। यहां तमाम तरह के औद्योगिक केंद्र होंगे। आंध्र प्रदेश सरकार के राजधानी क्षेत्र विकास प्राधिकार ने इसके लिए लगभग 30 हजार एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया है।

    साल 2018-19 में संभावित तौर पर तैयार 16.7 किलोमीटर इलाके में फैला सीड कैपिटल एरिया (एससीए) लगभग तीन लाख लोगों का आशियाना होगा। व्यापार केंद्र में सरकारी सहित विभिन्न क्षेत्रों में सात लाख लोगों को रोजगार मिलेगा।

    शहर में 12 किलोमीटर मेट्रो रेल का एक एकीकृत नेटवर्क होगा, 15 किलोमीटर का बस ट्रांजिट सिस्टम, सात किलोमीटर शहरी सड़कें, 26 किलोमीटर आर्टेरियल व सब-आर्टेरियल सड़कें तथा 53 किलोमीटर लंबी कलेक्टर सड़कें होंगी।

    राजधानी शहर की योजना में बुनियादी ढांचा, सिविल इंजिनियरिंग तथा निर्माण गतिविधियों की बड़ी क्षमता निहित है।

    पूर्वी तट के बंदरगाहों से निकले ड्रेज्ड मेटेरियल का अमरावती में इस्तेमाल होने की पूरी संभावना है। इसका इस्तेमाल ईंटों के निर्माण में हो सकता है, हालांकि इसके लिए कुछ प्रारंभिक परीक्षण की जरूरत होगी। लेकिन एक बार जब यह उपयोगी साबित हो जाएगी, यह विकास के लिए सबसे टिकाऊ प्रक्रिया साबित होगी।

    ड्रेज्ड मेटेरियल का इस्तेमाल कुछ अन्य उद्देश्यों जैसे गड्ढों को भरने, समुद्र तटों को सुंदर बनाने, खनन के परिणामस्वरूप गड्ढों को भरने के साथ ही पार्को, कृषि, वन्य, मत्स्यपालन व बागवानी में इसका इस्तेमाल हो सकता है।

    अगर ड्रेज्ड मेटेरियल को अमरावती राजधानी परियोजना के लिए बेचा जाए, तो इससे एक बड़े व्यापार का सृजन होगा। राजधानी परियोजना का विकास तीन चरणों में करने की है और इससे 10 वर्षो से अधिक समय लगेगा। वित्तीय रूप से यह तमाम ड्रेजिंग कंपनियों तथा आंध्र प्रदेश सरकार के लिए बेहद लाभकारी होगा, जो सतत विकास के लिए ड्रेज्ड मेटेरियल का इस्तेमाल करेगी।

    इस तरह के सतत विकास के ऐतिहासिक उदाहरण हैं।

    बीती सदी के साठवें दशक में प्रयोगशाला में इस बात का परीक्षण किया गया था कि तापीय संयंत्रों से निकला फ्लाई ऐश सीमेंट की जगह ले सकता है या नहीं। सफल परीक्षण में यह बात सामने आई कि फ्लाई ऐश का इस्तेमाल कंक्रीट के निर्माण में हो सकता है। वर्तमान दौर में फ्लाई ऐश ने सीमेंट की एक तिहाई जगह ले ली है।

    जब फ्लाई ऐश का इस्तेमाल निर्माण उद्योग में हो सकता है, तो ड्रेजिंग मैटेरियल का क्यों नहीं हो सकता।

    --आईएएनएस
  • भारतीय महिलाओं में बढ़ रहा कैंसर : विशेषज्ञ

    रशेल वी. थॉमस
    नई दिल्ली, 13 मई (आईएएनएस)। ऐसे समय में जब अनुवांशिक, पर्यावरणीय और जीवनशैली के कारकों के कारण दुनियाभर में कैंसर पैर पसार रहा है, भारत में भी कैंसर के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। खासतौर पर ज्यादा से ज्यादा महिलाएं कैंसर की चपेट में आ रही हैं। शीर्ष स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इस पर चिंता जताई है।

    नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट (एनसीआई) के मुताबिक, दुनिया में कैंसर का हर 13वां नया रोगी भारतीय है और देश में स्तन, गर्भाशय ग्रीवा और मुंह का कैंसर सबसे ज्यादा फैल रहा है। एनसीआई 'यूएस डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसिजस' (यूएसडीएचएच) का हिस्सा है।

    राजधानी में मैक्स सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में निदेशक (ऑन्कोलोजी सेवाएं) डॉ. (कर्नल) रंगा राव रंगराजू ने कहा, "भारत में हर साल कैंसर के 12.5 लाख नए रोगियों में से सात लाख से भी ज्यादा महिलाएं हैं।"

    डॉ. रंगराजू ने आईएएनएस से कहा, "हर साल कैंसर के कारण 3.5 लाख महिलाओं की मौत हो जाती है और 2025 तक यह आंकड़ा बढ़कर 4.5 लाख होने की आशंका है।"

    नींद की कमी, व्यायाम की कमी, खानपान की गलत आदतें, काम से जुड़ा तनाव, सिगरेट और शराब के सेवन के कारण सर्केडियन क्लॉक (शारीरिक घड़ी) असंतुलित हो जाती है। यह कैंसर के कारण महिलाओं की मौतों का एक प्रमुख कारण है।

    बीएलके सुपरस्पेशियलिटी अस्पताल के वरिष्ठ कंसलटेंट डॉ. संदीप बत्रा के मुताबिक, "हमारी निष्क्रिय जीवनशैली कैंसर के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है।"

    पेशेवर जीवन को ज्यादा महत्व देने के कारण शहरी महिलाएं देर से शादी करती हैं और देर से बच्चों को जन्म देती हैं। इनमें से कुछ होर्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपियां भी लेती हैं, जिसके कारण कैंसर का खतरा और बढ़ जाता है।

    डॉ. बत्रा ने कहा, "अप्राकृतिक होर्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपी लेने से बचना चाहिए।"

    इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ कंसल्टेंट (सर्जिकल ओंकोलोजी और रोबोटिक) डॉ. समीर कौल के मुताबिक, "महत्वकांक्षी होना सही है, लेकिन साथ ही सही समय पर गर्भाधान भी जरूरी है।"

    डॉ. कौल सलाह देते हैं कि स्वस्थ जीवनशैली अपनाना, सही वजन रखना और पर्याप्त व्यायाम के साथ ही सुरक्षित यौन जीवन कैंसर को दूर रखने में मददगार हो सकता है।

    हाल ही में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, मुख्यतौर पर खराब जीवनशैली के कारण भारत में कैंसर के रोगियों की संख्या में 7.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।

    विश्व स्वास्थ्य संगठन की 'कैंसर पर शोध के लिए अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी' द्वारा कराए गए अध्ययन 'ग्लोबोकैन' के मुताबिक खराब जीवनशैली के कारण स्तन, डिंबग्रंथी और गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर के मामलों में वृद्धि हुई है।

    विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि महिलाओं को वार्षिक स्वास्थ्य जांच भी अवश्य करानी चाहिए। 35 साल की उम्र के बाद स्त्री रोगों से बचाव के लिए भी पूरी जांच करानी जरूरी है।

    गुड़गांव के फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीटयूट के निदेशक (सर्जिकल ऑनकोलोजी) डॉ. वेदांत काबड़ा के मुताबिक, "कैंसर का ईलाज केवल सरकार के दिशा-निर्देशों पर चलने वाले प्रमाणित केंद्रों पर ही कराना चाहिए।"

    महिलाओं में जागरूकता बढ़ाना भी जरूरी है क्योंकि इससे समय पर समस्या का निदान हो जाता है जो कि कैंसर के ईलाज के लिए बेहद जरूरी है।

    कई बार जागरूकता की कमी के साथ ही सामाजिक-आर्थिक कारणों से, कई महिलाएं कैंसर से जुड़े खतरों और संकेतों को नजरअंदाज कर देती हैं। यह बेहद जोखिमभरा हो सकता है क्योंकि ऐसे मामलों में कैंसर का निदान बेहद देर में होता है, जिसके बाद ईलाज अप्रभावी हो जाता है।

    डॉ. बत्रा ने कहा कि दैनिक व्यायाम के साथ ताजे फल और सब्जियां खाना और तनाव रहित माहौल कैंसर के खतरे से दूर रखने में मददगार है।

    उन्होंने कहा, "दूषित और हानिकारक जंक फूड के सेवन से बचें, क्योंकि यह शरीर के सामान्य तंत्र को प्रभावित करके कैंसर के खतरे को बढ़ा सकता है।"

    --आईएएनएस
  • उत्तराखंड : संविधान और राजनीति पर सवाल
    प्रभुनाथ शुक्ल
    उत्तराखंड में एक बार फिर कांग्रेस की सरकार बनने जा रही है और हरीश रावत 'आफ्टर द ब्रेक' मुख्यमंत्री पद संभालने जा रहे हैं। सर्वोच्च अदालत ने विधानसभा में बहुमत साबित होने के बाद कांग्रेस की तकदीर का फैसला कर दिया है। राज्य की कमान रावत के हाथ में ही रहेगी।

    अभी कांग्रेस के बागी 9 विधायकों पर फैसला हलांकि नहीं आया है। अदालत जुलाई में उस पर फैसला लेगी, लेकिन अब कांग्रेस की रावत सरकार पर कोई संकट नहीं है।

    जिस केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी। उसी ने फिर महामहिम से अपने ही फैसले को बदलने की सिफारिश भेजी है। यह कैसी बिडंबना है!

    सबसे बड़ा सवाल लोकतांत्रिक व्यवस्था और उसकी आत्मा के साथ संवैधानिक अधिकारों का है। राजनीति की इस घिनौनी साजिश ने लोकतंत्र को बेनकाब किया है। दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था का तमगा हासिल करने वाली हमारी लोक और संवैधानिक व्यवस्था पर गहरा हथौड़ा चला है।

    यह हथौड़ा क्यों चला, किसने चलाया? चलाने वाले हाथ चाहे भाजपा के हों या कांग्रेस के, कोई फर्क नहीं। यहां बहस का मसला राजनैतिक महत्वाकांक्षा और संवैधानिक अधिकारों का है।

    50 दिन से अधिक चले इस नंगे नाच में किसको क्या मिला, यह तो विश्लेषण का विषय है, लेकिन सबसे अधिक लोकतंत्र और आम जनता का नुकसान हुआ है। उत्तराखंड में राजनीति ने लोकतंत्र का खुलेआम चीरहरण किया। लोकतंत्र कराह रहा था और उसका चीरहरण किया जा रहा था। इसे बेजह अदालत के चौखट पर घसीटा गया। बेगुनाह होते हुए भी इसे अदालत में अपनी बेगुनाही साबित करनी पड़ी।

    भला हो उस सर्वोच्च अदालत का, जिसकी ओर से लोकतांत्रितक व्यवस्था और गरिमा का पूरा खयाल और सम्मान रखा गया। सियासत के इस गंदे खेल में कौन हंस और कौन कौवा की पहचान आखिर उसी व्यवस्था के तहत हुई जिसकी नींव 28 मार्च को राज्यपाल के माध्यम से राष्ट्रपति को अगवगत कराई गई थी।

    सर्वोच्च अदालत ने जिस बात को 10 मई को साबित किया, उसी बात को उत्तराखंड का सदन 28 मार्च को ही करता, लेकिन इस 'राजनीतिक नौटंकी' का अभिप्राय क्या निकला, यह करनेवाले ही जानें।

    लोक व्यवस्था के इतिहास में उत्तराखंड की राजनैतिक घटना हमें सबक देती है। जब राज्यपाल की तरफ से हरीश रावत सरकार को बहुमत सिद्ध करने का समय दिया गया था, उसके पहले ही केंद्रीय मंत्रिमंडल 27 मार्च को राष्ट्रपति शासन की सिफारिश क्यों की? मोदी सरकार की इस जल्दबाजी ने महामहिम के अधिकार और संवैधानिक व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर दिया।

    अदालत के इस फैसले से कहीं न कहीं से महामहिम भी चोटिल हुए होंगे। यह फैसला उन्हें भी कहीं न कहीं से नैतिक रूप से विचलित किया होगा, क्योंकि नैनीताल उच्च न्यायलय ने भी एक टिप्पणी की थी जिसके कोर्ट में कहा था कि राष्ट्रपति से भी गलती हो सकती है।

    निश्चित तौर पर कोर्ट की इस टिप्पणी का कोई गहरा मतलब था। हलांकि हामहिम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते थे। अगर वे केंद्रीय मंत्रिमंडल के फैसले पर सवाल उठाते तो उनकी भी राजनैतिक नुक्ताचीनी होती, क्योंकि महामहिम कांग्रेसी पृष्ठभूमि से हैं। उस स्थिति में सरकार और महामहिम के अधिकारों के बीच टकराव होता।

    दूसरी बात कि केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश को वे टाल भी नहीं सकते थे, क्यांेकि उनके अधिकार सीमित हैं। इसका नतीजा था कि मंत्रिमंडल के फैसले पर उन्होंने अपनी मोहर लगा दी।

    निश्चित तौर पर इसके पीछे भाजपा की राजनैतिक महत्वाकांक्षा थी। क्योंकि कांग्रेस के सभी बागी विधायकों और भाजपा के बीच सरकार बनाने का रास्ता साफ हो चुका था। जिस तरह राज्य भाजपा नेताओं न के साथ बागी कांग्रेस विधायक देखे गए और सीधे दिल्ली की उड़ान भरी, उससे यह साफ हो गया था कि रावत सरकार के पतन के बाद राज्य में भाजपा सत्ता की कमान संभाल सकती है।

    लेकिन विधाता और न्याय को कुछ और ही मंजूर था। बागियों की साजिश नाकाम हो गई और विधायिका की सदस्यता से वे खुद हाथ धो बैठे। हलांकि अभी बागियों पर अदालत का फैसला आना है।

    राज्य में इस राजनीतिक नौटंकी की कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि राज्य में ठीक आठ माह बाद चुनाव होना है। ऐसी स्थिति में किसी सरकार के बनने और बिगड़ने का क्या मतलब था? लेकिन मोदी सरकार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने जिस तरह लोकतंत्र का गला घोंटा, उसे कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता।

    आंकड़ों के इस खेल में जय और पराजय जिस किसी की हुई, लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान उत्तराखंड की आम जनता और उसके विकास का हुआ है। उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग राज्य को बर्बाद कर रही थी, इधर सियासी खेल खेला जा रहा था।

    चारधाम यात्रा प्रारंभ हो गई है, लेकिन वहां सरकार नाम की कोई चीज नहीं थी। जबकि राज्य तीन साल पूर्व कितनी भयावह प्राकृतिक त्रासदी झेल चुका है। राजनीति को अपना सर्वोपरि धर्म मानने वाले धर्मियों की सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

    अब उन बागियों का क्या होगा? जाहिर सी बात है, बेचारे बागियों को काफी छटपटाहट होगी। अपने किए पर पछता रहे होंगे। बेचारों की अनायास कुर्सी चली गई। अभी उनके पास आठ माह का वक्त था। तब तक रुतबा कायम रहता, लेकिन अब क्या करेंगे? भाजपा का दामन थामने के सिवाय उनके पास बचा ही क्या है।

    उत्तराखंड की जनता क्या इन बागियों को सबक सिखाएगी? जिन लोगों ने राज्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था को खाई में ढकेलने का षड्यंत्र रचा, क्या उसका दंड उन्हें मिलेगा? संभवत: ऐसा होने से रहा।

    मुझे दुख है कि उत्तराखंड में जीत कर भी लोकतंत्र हार गया। इस घटना से सबक लेने की आवश्यकता है। कम से कम अब ऐसा नहीं होना चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था से चुनी गई सरकारों को काम करने का पूरा मौका दिया जाना चाहिए। दलबदल कानून को और प्रभावी बनाया जाना चाहिए।

    केंद्र और राज्य के संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने की जरुरत है। हितों के टकराव से व्यवस्था की बलि नहीं होनी चाहिए। संवैधानिक मर्यादा और लोकतांत्रित व्यवस्था में सभी को काम करने का अधिकार होना चाहिए। लोकतांत्रित व्यवस्था में साम्राज्यवादी और सत्ता विस्तारवादी नीति का अंकुरण नहीं होना चाहिए। यह लोकतंत्र के लिए घातक है।

    लोकतंत्रात्मक प्रणाली में विस्तारवादी नीति का नहीं विकासवादी नीति का महत्व होना चाहिए। यहीं सभ्य और संवैधानिक व्यवस्था वाले लोकतंत्रात्मक प्रणाली के लिए शुभ संकेत है। अब वक्त आ गया है, जब इस घटना से सबक लेते हुए हमें राजनीति की दिशा बदलने की जरूरत है। हमें राज्य-विस्तारवादी नीति में कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देखना बंद करना चाहिए। अगर यह जरूरी है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के जरिए देखिए, जिसमें किसी के खोने या डूब जाने का डर न हो। वह चाहे लोकतंत्र हो या संविधान। (आईएएनएस/आईपीएन)

    (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं)

    --आईएएनएस
  • छत्तीसगढ़ में आसमान से उतरता है उम्मीदों का खटोला
    अजीत कुमार शर्मा
    रायपुर, 12 मई (आईएएनएस)। 44 डिग्री सेल्सियस की तपती दोपहरी में चमकते आसमान से अचानक उम्मीदों की आवाज आती है। कहर बरसाती सूरज की तपिश के बावजूद नजरें यकायक आसमान की ओर उठ जाती है। गड़गड़ाहट तेज होती है, धड़कनें बढ़ती हैं औ कुछ क्षण बाद उम्मीदों का पंख लगाए मुख्यमंत्री का उड़नखटोला गांव से होकर गुजर जाता है।

    लोगों की उम्मीद एक बार फिर सबल हो उठती है और आसमान की ओर आस लगाए सोचता है, काश ये उड़नखटोला हमारे गांव में उतर जाए। देखते ही देखते उड़नखटोला गांव के सरहद पर मंडराता है और उतरने लगता है। ग्रामीणों में उत्सुकता का माहौल, एक उम्मीद और विश्वास की किरण हर किसी के मन में प्रस्फुटित होता है।

    धूल भरी आंधी और तेज हवाओं के स्थिर होते ही एक दमकता हुआ चेहरा नजर आता है। आसमान से उतरा हुआ उम्मीदों का फरिश्ता कोई और नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ के मुखिया डॉ. रमन सिंह होते हैं।

    उम्मीदों और विश्वास के माहौल में लोगों की अपलक निहारते नजरें मुखिया पर टिकी रहती है, उन्हें लगता है आज कोई सपना साकार हुआ है। जी हां, लोक सुराज अभियान के दौरान यही नजारा और उत्सुकता देखने को मिलती है।

    जिस सादगी और आत्मीयता के साथ मुख्यमंत्री रमन सिंह लोगों से मिलते हैं और उनके बीच उनकी बोली में संवाद करते हैं, वह लोगों के दिल में उतर जाता है। मुख्यमंत्री से दुख-दर्द बांटने वालों में समाज के अंतिम वर्ग के व्यक्ति से लेकर गांव के मुखिया, युवा और नेतृत्वकर्ता सहित सभी वर्ग के लोग भी रहते हैं।

    मुख्यमंत्री को अपने बीच पाकर लोगों की उम्मीद और हौसला दोनों बढ़ जाते हैं। पेशे से डॉक्टर रहे मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह लोगों की नब्ज को बखूबी जानते हैं। जरूरत के मुताबिक अपने पिटारा में सौगात लेकर चलते हैं, किसी को नाउम्मीद नहीं करते।

    बीते 9 मई को गरियाबंद जिले के मैनपुर विकासखंड के आदिवासी ग्राम बोईरगांव में पहुंचे मुख्यमंत्री को देखकर ग्रामीणों के खुशी का ठिकाना नहीं रहा। चौपाल में ग्रामीणों ने दिल खोलकर अपनी बात रखी। पंचायत के तीन आश्रित ग्राम डुमरघाट, ठेमली और पर्थी में बिजली पहुंचाने के आदेश पर लोगों के मन में खुशी का करंट बहने लगा।

    बहुप्रतिक्षित मांग पूरा होने पर मुख्यमंत्री को लोगों ने हृदय से साधुवाद दिया। ग्राम ठेमली के शिवकुमार, पर्थी के कोमल, डुमरघाट के बंशीराम, भक्तिराम, बरदुला के जबल सिंह, कमलेश, रहिमत बाई और बोईरगांव के सुखमती बाई ने मुख्यमंत्री के इस घोषणा की जमकर सराहना की।

    उन्होंने एक स्वर में कहा- 'अब हमर गांव में उजाला आही, हमर भाग जागही'।

    डॉ. रमन सिंह द्वारा इन आदिवासी गांवों में बिजली पहुंचाने का आदेश वास्तव में अंधेरे से उजाले की ओर बढ़ता कदम है। इस फैसले से लोगों के जीवन में उजाला आएगी। इसी तरह इस दूरस्थ अंचल में कमार और भुंजिया विद्यार्थी के लिए हॉस्टल की स्वीकृति, भविष्य की नींव को मजबूत करेगा।

    सरगुजा से सुकमा तक के दूरस्थ अंचलों में इस तरह के संवेदनशील निर्णयों से मुख्यमंत्री जनता के दिलों-दिमाग में छाए हुए हैं और उम्मीद की लौ जला रहे हैं। ग्रामीणजन कहते हैं, मुख्यमंत्री देवदूत बनकर आते है, खुशियां लुटाते हैं और विश्वास की एक नई अलख जगा देते हैं।

    लोक सुराज अभियान वास्तव में एक उम्मीद और नए विश्वास का अभियान है।

    --आईएएनएस
  • उत्तराखंड का घटनाक्रम भाजपा पर कितना भारी!
    ऋतुपर्ण दवे
    उत्तराखंड में देश की सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद, हरीश रावत सरकार का विधानसभा में बहुमत साबित कर, 33 मत हासिल करना, भाजपा के लिए बड़ा झटका है। लेकिन राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के तौर तरीकों पर एक बार फिर से बड़ी बहस शुरू हो गई है।

    उत्तराखंड में मंगलवार को दो घंटे के लिए राष्ट्रपति शासन हटाने के बाद हुए शक्ति परीक्षण के बाद ही साफ हो गया था कि रावत सरकार ने बहुमत हासिल कर लिया है। लगता नहीं कि कहीं भाजपा खुद ही अपने बुने जाल में तो नहीं उलझ गई? बड़ा सवाल यह भी कि कितना वाजि़ब था राष्ट्रपति शासन का लगाया जाना? हो सकता है कि अब वहां पर हरीश रावत आनन-फानन में विधानसभा भंग करने का फैसला ले लें और चुनाव की ओर बढ़ जाएं क्योंकि उनको लग रहा है कि सहानुभूति का फायदा मिलना तय है और वह खुद को शहीद के रूप में पेश करने से नहीं चूकेंगे।

    भाजपा ने यह सब इतनी जल्दबाजी में किया गया कि कांग्रेस से बागवत करने वाले 9 विधायकों का साथ लेते समय, एक तिहाई संख्या बल का भी ध्यान नहीं रखा। लगता है केंद्र में भाजपा की सरकार होने के उत्साह के चलते, उत्तराखंड में मौजूदा सरकार को धराशायी करते वक्त राज्यपाल की भूमिका को भी नजरअंदाज किया गया क्योंकि उनकी ऐसी कोई रिपोर्ट ही नहीं थी जिससे लगे कि वहां सरकार संविधान से इतर चल रही है।

    बहरहाल सबसे बड़ी चूक कहें या कानूनी त्रुटि या केन्द्र में सत्तासीन होने का दंभ, वो ये कि भाजपा और कांग्रेस के बागी विधायकों की ओर से राज्यपाल को दिया गया एक ही पत्र, जो यह सिद्ध करने के लिए काफी था कि दोनों मिलकर सरकार को गिराने की वो खिचड़ी पका रहे हैं जो संवैधानिक दायरों की सीमा लांघती है। यदि यही पत्र अलग-अलग दिया गया होता तो हो सकता है कि बागी विधायकों को भी शक्ति परीक्षण में शामिल होने का मौका मिलता और परिदृश्य कुछ अलग हो सकता था।

    उत्तराखंड के घटनाक्रम से देश में एक बार फिर राजनीति का पारा उछाल ले रहा है। इधर मोदी सरकार अपने दो वर्षो के कार्यकाल को पूरा करने जा रही है, उधर दिल्ली का इत्तेफाक, बिहार की हार के बाद 5 राज्यों के नतीजे आने से पहले उत्तराखंड की सियासत कितनी भारी पड़ेगी, कहने की जरूरत नहीं क्योंकि तीन राज्यों तमिलनाडु, केरल, और पुड्डुचेरी में एक ही चरण में 16 मई को मतदान होने वाले हैं।

    उत्तराखण्ड में बागियों को दिखाए सब्जबाग से जहां कई बड़े राजनीतिक नामों के भविष्य पर गहरा धुंधलका छा गया है वहीं भाजपा खुद भी ऊहापोह की स्थिति में आ गई है। कहीं न कहीं रणनीति की कमी या जल्दबाजी जो भी हो, भाजपा अपने ही बुने जाल में खुद तो नहीं उलझ गई? उधर केरल में राजनीतिक बिसात बिछा रही भाजपा के लिए चुनावी दंगल में पूरी ताकत से जुटे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक बयान पर मुख्यमंत्री ओमान चांडी का पलटवार कितना असर डालेगा इसका इंतजार है। एक चुनावी सभा में कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने केरल की तुलना सोमालिया से की थी।

    जवाब में चांडी ने कहा, "क्या केरल देश के बाहर है? जबकि केरल पिछले पांच सालों में आर्थिक और मानव संसाधन विकास की दर में राष्ट्रीय औसत में आगे है! ऐसे में केरल की तुलना सोमालिया जैसे देश से करना, जो जबरदस्त गरीबी और आंतरिक संघर्ष से जूझ रहा है, कितना उचित है।" कहीं न कहीं ओमान चांडी केरल के लोगों को भावनात्मक संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं।

    इन सबके बीच 26 मई को मोदी सरकार के कार्यकाल के दो वर्ष पूरे हो जाएंगे। सरकार की लोकप्रियता और कामकाज को लेकर बहुत से सर्वे कराए जा रहे हैं। कुछ के नतीजे सामने आ गए हैं, कुछ के आने वाले हैं। सभी अपने-अपने तरीके से विश्लेषण कर रहे हैं। मीडिया अध्ययन केन्द्र 'सीएमएस' ने 15 राज्यों के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 40,000 हजार प्रतिभागियों के बीच एक सर्वेक्षण कराया जिसका यह नतीजा सामने आया कि लगभग एक तिहाई से कम लोगों को लगता है कि प्रधानमंत्री ने वादे पूरे किए हैं जबकि 48 प्रतिशत का मानना है कि आंशिक रुप से पूरे किए गए हैं।

    लोगों के जीवन स्तर को लेकर 49 प्रतिशत लोगों का मानना है कि कोई बदलाव नहीं हुआ है। जबकि 15 प्रतिशत का मानना है कि स्थितियां और भी बदतर हो गई हैं। 43 प्रतिशत लोग कहते हैं कि कार्यक्रमों और योजनाओं से गरीब लोगों को लाभ नहीं हो रहा है। लेकिन मोदी सरकार के कामकाज और प्रदर्शन को लेकर किए गए आकलन में बड़ी संख्या में लोगों ने नरेन्द्र मोदी के कामकाज को पसंद भी किया है जिसका प्रतिशत 62 है। इसमें भी 70 प्रतिशत लोग अब भी चाहते हैं वो अपना पहला 5 वर्षीय कार्यकाल तो पूरा करें ही लेकिन अगले कार्यकाल में भी प्रधानमंत्री बनें। इसका मतलब यह है कि व्यक्तिगत रूप से लोगों की पसंद अभी भी नरेन्द्र मोदी हैं। लेकिन यदि टीम वर्क का विश्लेषण किया जाए तो सबकी अपनी अलग राय है। इसके मायने ये लगाए जाएं कि कहीं न कहीं रणनीति की कमी या अति उत्साह, कहीं भाजपा के लिए मुश्किल तो नहीं बनने वाला है?

    उत्तराखंड का हश्र, उत्तर प्रदेश में कितना असर डालेगा इसको लेकर भी भाजपा खेमे में गहन चिंता का दौर होगा जो स्वाभाविक है। उधर उत्तराखंड के बहाने बहुजन समाज पार्टी ने भी भाजपा से दूरी बनाकर दलितों और अल्पसंख्यकों को बहुत बड़ा संकेत देकर समाजवादी पार्टी के आरोपों को झुठला दिया है जिसमें कहा जा रहा था कि बसपा और भाजपा में गुप्त समझौता हो गया।

    यहां पर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और दिलचस्प बात यह है कि कभी नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार लिए ब्रांड वैल्यू रहे प्रशांत किशोर, बिहार में नीतिश कुमार के बाद अब उत्तर प्रदेश और पंजाब में कांग्रेस के साथ हैं। प्रशांत किशोर की अगुवाई वाली 'सिटीजन फॉर एकाउंटेबल गवर्नेन्स' ने ही 2014 के आम चुनावों में भाजपा के लिए रणनीति बनाई थी जिसका युवाओं को आकर्षित करने में जबरदस्त लाभ भी मिला। देखना होगा कि राजनीति में इस नए प्रयोग का अब वो उत्तर प्रदेश और पंजाब में अपने हुनर का कितना कमाल दिखा पाते हैं?

    बहरहाल उत्तराखंड में लोकतंत्र के युद्ध की रणभेरी में भाजपा की रणनीतिक चूक, कहां कितना नफा-नुकसान पहुंचाएगी ये 19 मई को पता लग जाएगा जब 16 मई को हुए तमिलनाडु, केरल और पुड्डुचेरी के चुनाव परिणामों के नतीजे सामने होंगे और इसके बाद उत्तर प्रदेश व पंजाब के लिए कयास लगने शुरू हो जाएंगे।

    (ये लेखक के निजी विचार हैं।)

    -- आईएएनएस
  • मप्र में सूखा प्रभावित किसानों को 4664 करोड़ की राहत वितरित : शिवराज

    भोपाल, 10 मई (आईएएनएस)। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंगलवार को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राज्य में सूखे की स्थिति और उससे निपटने के लिए किए गए प्रयासों से अवगत करवाया। मुख्यमंत्री ने बताया कि मध्यप्रदेश में 61 लाख सूखा प्रभावित किसानों को 4,664 करोड़ की राहत वितरित की गई है।

    राज्य के जनसंपर्क विभाग द्वारा जारी विज्ञप्ति में बताया गया है कि सूखा प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मुलाकात के क्रम में मंगलवार को राज्य के मुख्यमंत्री की प्रधानमंत्री के साथ बैठक हुई।

    मुख्यमंत्री चौहान ने प्रधानमंत्री को बताया कि बीते 10 वर्ष में राज्य सरकार द्वारा जो ठोस कदम उठाए गए हैं, उसके कारण प्रदेश में सूखा की स्थिति से निपटने में बेहद मदद मिली है। राज्य शासन द्वारा किए गए प्रयासों में जल-भंडारण संरचनाओं का निर्माण विशेष रूप से शामिल है। उन्होंने कहा कि दो वर्ष से लगातार कम वर्षा होने के बावजूद प्रदेश में फिलहाल 50 हजार गांव में से सिर्फ 113 गांव में पानी के परिवहन की आवश्यकता हो रही है। अगर जून के अंत तक भी पानी नहीं गिरता, तब भी सिर्फ 400 गांव में जल-परिवहन की स्थिति बनेगी।

    मुख्यमंत्री चौहान ने सूखा प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति आभार व्यक्त किया।

    मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को बताया कि राज्य सरकार द्वारा प्रदेश में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के क्रियान्वयन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है। उन्होंने कहा कि प्रदेश में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के क्रियान्वयन की तैयारी कर ली गयी है।

    प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री चौहान ने सूक्ष्म सिंचाई, द्रव्य, खाद, स्पेस टेक्नालॉजी के उपयोग तथा खेत-तालाबों पर ध्यान केन्द्रित करने के संबंध में चर्चा की। उन्होंने जल-संरक्षण और भंडारण तथा एनसीसी, एनएसएस, एनवाईकेएस और स्काउट एण्ड गाइड्स जैसे युवाओं के संगठनों को इन गतिविधियों से जोड़ने की रणनीति पर भी विचार-विमर्श किया। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री चौहान ने नर्मदा नदी के जल-ग्रहण क्षेत्र में वृक्षारोपण और वृक्षों के संरक्षण पर भी चर्चा की।

    बैठक में बताया गया कि मध्यप्रदेश को एनडीआरएफ के अंतर्गत 1875़80 करोड़ की राशि जारी कर दी गयी है। यह एसडीआरएफ के अंतर्गत वर्ष 2015-16 में जारी 657़75 करोड़ की केन्द्रीय सहायता के अतिरिक्त है। वर्ष 2016-17 के लिए एसडीआरएफ के अंतर्गत पहली किस्त के रूप में 345़375 करोड़ की राशि जारी की गयी है।

    -- आईएएनएस

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