ब्रजेश राजपूत
भैय्या आपका चैनल बहुत बहस कराता है बहुत बडे बडे लोगों से सवाल पूछता है। आप एक हमारे सवाल का जबाव भी दे दो। फोन पर ये हमारे कैलाश भाई थे जो घनघोर समाचार प्रेमी व्यक्ति हैं सुबह से लेकर शाम तक समाचार चैनल ही देखते हैं और सभी चैनलों पर चलने वाली हर छोटी बडी खबरों पर हमें प्रतिक्रिया देने को बेताब रहते हैं। हमने कहा पूछिये। भैय्या हम कौन सा चैनल देखें जो सच्ची खबरें दिखाता हो। आजकल तो सच में किसी चैनल पर भरोसा ही नहीं होता। सारे चैनल हर बडी खबर को अपने अपने तरीके से पेश करते हैं। कोई कन्हैया को देशद्रोही बताता है तो कोई देशभक्त। कोई कहता है कश्मीर की आजादी के नारे लगे तो कोई कहता है नहीं लगे। आखिर सच क्या है हमें कौन बतायेगा। यकीन मानिये ये वो सवाल था जिसने मुझे निरूत्तर कर दिया।
दरअसल कैलाश जी का ये अबोध सवाल मुझ से नहीं देश के पूरे मीडिया जगत से था जो इन दिनों हर बात बात पर बंटा हुआ दिखता है। कन्हैया एपीसोड पर तो मीडिया में दो धडे साफ दिखे। कुछ समाचार चैनल नये नये वीडियो चैनल पर चलाकर कन्हैया और उसके साथियों को देशद्रोही ओर जेएनयू को देशद्रोहियों का अडडा साबित करने तुले थे तो दूसरे चैनल इन वीडियो की असलियत बताने में लगे थे। कुछ जेएनयू को बंद कराने पर आमादा थे तो कुछ बता रहे थे कि जेएनयू हमेशा से ऐसा ही है। असहमति से सुर वहां हमेशा से फूटते रहे हैं। टीवी चैनलों के लाइव प्रसारणों के चलते दर्शकों को जेएनयू के स्टूडेंट लीडर के भापण सुनने मिले मगर वो तो हमेशा से ही ऐसी ही गरीबी और जातिवाद से आजादी की बात करते हैं। कश्मीर की आजादी जानबूझ कर डाली गयी है भापणों और वीडियो में।
किसी मुददे को लेकर समाचार माध्यमों में ये बंटवारा नया नहीं है। विचारधाराओं से वशीभूत होकर अखबार तो आजादी के बाद से ही निकलते रहे है। युगधर्म, स्वदेश, आर्गनाइजर, पांज्जन्य जहां आरएसएस बीजेपी की विचारधारा के अखबार रहे तो नेशनल हेराल्ड, नवजीवन, कौमी आवाज कांगे्रस की विचारधारा को आगे बढाने के लिये निकाले गये। वामपंथी भी पीछे नहीं रहे नवयुग और न्यू ऐज अखबार उनकी बात कहते थे। पढने वाले इन अखबारों को पढते थे और अपनी राय बनाते थे। मगर अब वक्त टेलीविजन चैनल की तेज गति से भागती पत्रकारिता का है। बुलेट टेन की गति से खबर दिखाने की दौड है तथ्यों को परखने का वक्त नहीं है। इसे टीआरपी की दौड भी आप मान सकते हैं। किसी खबर से जुडा कोई पहलू आप दिखाने में देरी करेंगे तो दर्शक आपके चैनल को छोडकर दूसरे चैनल से जुड जायेंगे। ये खतरा हमेशा बना रहता है और यही तनाव चैनलों में जल्दबाजी करवाता है। मगर अब बात इससे भी आगे को बढ गयी है। अब बडी खबर पर समाचार चैनल अपना स्टेंड लेने लगे हैं। पहले से ही मानकर चलते हैं कि हमें ये दिखाना है इस तरह दिखाना है और ठप्पे से दिखाना है। इस खबर के सारे पक्ष नहीं दिखायेंगे जो हमें अच्छा लगता है वही दिखायेंगे। कहने वाले कुछ भी कहें हमारी नजर में कन्हैया देशद्रोही है तो हैं अदालत बाद में फैसला करेगी हमारे चैनल ने तो कर दिया। दर्शक मानें तो ठीक ना मानें तो अपनी बला से। खबरों में इस खतरनाक प्रवृत्ति की होड अरविंद केजरीवाल के उभार के दिनोें से सामने आयी। केजरीवाल परंपरागत तरीके से राजनीति करने वाले नेता नहीं हैं। वो मीडिया के नेता के पैमाने पर खरे नहीं उतरते। जबकि मीडिया चाहता है कि मेरी नजर में नेता जैसा होना चाहिये वैसा ही रहे और दिखे। वरना मीडिया दुश्मनी करने में कोई कसर नहीं छोडता। केजरीवाल, स्मृति ईरानी और कन्हैया मीडिया की इसी ग्रंथि का शिकार बन रहे हैं। इसलिये दिल्ली चुनाव के दौरान कुछ खास चैनल बीजेपी की सरकार बनवा रहे थे, केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को कम दिखा रहे थे तो कुछ तो ब्लैकआउट करने पर ही आमादा थे। मगर केजरीवाल जीते। यही हाल बिहार चुनाव के दौरान रहा। सर्वेक्षणों में कुछ चैनल एनडीए की सरकार बना रहे थे तो मोदी की रैली में उमड रही भीड को ही बीजेपी का राज्याभिपेक बताने पर आमादा थे मगर जनता के मन में कुछ और ही था। कठिन और फंसे हुये कहे जाने वाले दोनो राज्यों की विधानसभा के चुनावों में पूरे बहुमत से उनकी सरकार बनी जो एक खास मीडिया वर्ग की आंखों के तारे नहीं थे।
ये उदाहरण मीडिया की विश्वसनीयता को धरातल पर पहुंचाने का काम कर रहे हैं। मीडिया की सबसे बडी ताकत और उसका गहना विश्वसनीयता ही है। मगर इसी विश्वसनीयता को इन दिनों तार तार करने की कोशिश हो रही है। जैसा कि मीडिया चाहता है समाज और नेता वैसा दिखे जैसा वो देखना चाहता है तो वैसे ही इन दिनों एक खास वर्ग मीडिया से भी अपेक्षा रखता हैं कि वो जैसा चाहता है मीडिया वैसा ही दिखाये। मैंने अपने पिछले कालम में लिखा था कि धार में भोजशाला के मौके पर मुझसे कहा गया था कि आपका चैनल राष्ट्रवादी नहीं है। राष्ट्रवादी बनिये। ये प्रवृत्ति उसी और इशारा कर रही है हम जैसा चाहते हैं वैसा दिखिये। विश्वसनीयता की इस छीना झपटी के दौर में सबसे ज्यादा मुश्किल हो गयी है जमीन पर काम करने वाले पत्रकारों की। चाहे अखबार हो या चैनल खबरों पर अपना स्टेंड लेते हैं। जो कभी सच तो कभी सच के पास तो कभी सच जैसा दिखता है। मगर अब अधिकतर मौकों पर मीडिया जो परोस रहा होता है वो उसे दर्शक या पाठक सच नहीं मानता। वो याद रखता है कि फलां खबर आपने गलत दिखायी थी उसे सच्चाई बाद में पता चली। ऐसे में दर्शक पाठक् का विश्वास डोल गया है मीडिया और समाचार माध्यमों से। शायद यही वजह है कि पहले प्रणय राय, विनोद दुआ और एसपी सिंह सरीखे एंकर खबरों को सधे हुये स्वरों में पढते थे तो खबर दिल में उतरती थी मगर अब तो एंकर चैनलों के पर्दे पर चीखते भी हैं तो उनकी खबर पर भरोसा नहीं होता। ये मीडिया की विश्वसनीयता में गिरावट का दौर है। ये दौर लंबा चला तो दर्शक मीडिया से दूर हो जायेगा। खबरें तो उसे अपने मोबाइल पर व्हाटसअप पर मिल हीं रहीं है अधपकी और गैर विश्वसनीय हैं तो क्या हुआ। यहां भी वो अपने विवेक का इस्तेमाल कर ही लेगा जैसा कि इन दिनों टेलीविजन मीडिया की खबरों को देखते हुये कर रहा हैं।