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जावेद अनीस

लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे, पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़  कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द  के मुद्दों पर काम कर रहे हैं,  विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है !जावेद नियमित रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं.

Monday, 18 April 2016 00:00

समाज की मूलभूत मान्यताओं से टकराने का साहस जुटाती “की एंड का”

जावेद अनीस

हमारे समाज की  मानसिकता बड़ी अजीब है एक तरफ तो महिलाओं को देवी की तरह पूजा जाता है तो वहीँ दूसरी तरफ उन्हें एक तरह से प्रापर्टी के रुप में देखते हुए उनके साथ हिंसा, भेदभाव और गैरबराबरी भरा व्यवहार किया जाता है। इस मानसिकता के पीछे समाज में मर्दानगी और पितृसत्तात्मक विचारधारा का हावी होना है। इस सोच के चलते  महिलाओं के साथ पुरषों को भी समस्या होती है । कोई भी व्यक्ति  इस तरह की सोच को लेकर पैदा नहीं होता है बल्कि बचपन से ही हमारे परिवार और समाज में ऐसा सामाजिकरण होता है जिसमें महिलाओं और लड़कियों को कमतर व पुरुषों और लड़कों को ज्यादा महत्वपूर्ण मानने के सोच को बढ़ावा दिया जाता है। लोगों को समाज,परिवार और व्यवस्थाओं द्वारा तैयार किये गये भूमिका में ढाला जाता है और कई बार ऐसा करने  लिए उन्हें मजबूर भी किया जाता है कि वह इस बनाये हुए भूमिका के आधार पर ही व्यवहार करें।

मर्दानगी का एक रुप नही होता है यह डायनमिक है, हर व्यक्ति की एक अपनी निजी,  सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनीतिक सोच होता है जो उसके व्यक्तित्व और व्यवहार का मूल आधार होता है, इसी के हिसाब से मर्दानगी भी बार-बार बदलती रहती है । एक ही परिवार के दो लोग अलग अलग होते हैं एक व्यक्ति जो व्यवहार करता है उसके पीछे बहुत सारी चीजों का योगदान होता है। आधुनिक समय में इस मानसिकता को बनाने में मीडि़या का भी बड़ा रोल है, 1990 के बाद भूमंडलीकरण के बाद से तो मर्दानगी के पीछे आर्थिक पक्ष भी जुड़ गया और अब इसका सम्बन्ध बाजार से भी होने लगा है। अब महिलायें,बच्चे ,प्यार,सेक्स,व्यवहार और रिश्ते  एक तरह से कमोडिटी बन चुकी हैं, कमोडिटी यानी ऐसी वस्तु जिसे खरीदा,बेचा या अदला बदला जा सकता है जिसकी एक एक्स्पाइरी डेट भी होती है। आज महिलाओं और पुरुषों दोनों को बाजार बता रहा है कि उन्हें कैसे दिखना है,कैसे व्यवहार करना है,क्या खाना है, किसके साथ संबंध बनाना है। यानी मानव जीवन के हर क्षेत्र को बाजार नियंत्रित करके अपने हिसाब से चला रहा है, वहां भी पुरुष ही स्तरीकरण में पहले स्थान पर है।

इस पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष होना एक विषेषाधिकार को जन्म देता है, उसे हर वो चीज आसानी से मिल जाती है जिसके लिए महिलाओं को संघर्ष करना पड़ता है। अगर महिलाऐं इस व्यवस्था द्वारा बनाये गये भूमिका के अनुसार चलती हैं तो उन्हें अच्छा और संस्कारी कहा जाता हैं लेकिन जैसे ही वो इन नियमों और बंधनों को तोड़ने लगती है,समस्याऐं सामने आने लगती हैं। लेकिन इसी के साथ  इस व्यवस्था में महिलाओं के साथ पुरषों से भी एक खास तरीके से ही जीने की उम्मीद  करती है और दोनों को ही इसकी कसौटियों पर खरा उतरना होता है। जो इसके नियमों को नहीं मानता वह इस व्यवस्था में बेमेल हो जाता है । लैंगिक असमानता एक ऐसी विचारधारा है जो एक समाज में महिलाओं और पुरुषों दोनों में विकसीत हो सकती है और इसे बनाये रखने में महिला और पुरुष दोनो ही सहयोग करते हैं।कुल मिलाकर  यह एक जटिल मुद्दा है।

आर बाल्की के यहाँ कोई चलताऊ फार्मूला नहीं होती है, वह तय किये गये रास्ते पर नहीं चलते हैं और उनका ट्रैक स्थापित मान्यातों से  उल्टा होता है । बाल्की अपनी  फिल्मों में नये और अनछुए विषयों को छूने को कोशिश करते हैं 'चीनी कम' और 'पा' और शमिताभ  जैसी उनकी पिछली फिल्में इसी लिए जानी जाती हैं। आर बाल्की कहते भी हैं कि  मैं तब तक कोई फिल्म शुरू नहीं करता, जब तक मुझे नहीं लग जाता है कि यह मेरे पिछले अनुभवों से कुछ अलग है लेकिन वह संदेश देने के लिए फिल्म नहीं बनाते, बल्कि उनका उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन करना होता है। एक तरह से उनकी फिल्में  कमर्शियल सिनेमा का  अच्छा  उदाहरण होती ।“शमिताभ” की बाक्स ऑफिस पर असफलता के बाद वह  अपनी नयी फिल्म फिल्म 'की एंड का' के साथ वापस आये हैं। हमेशा की तरह उनकी इस फिल्म का कंसेप्ट भी  नया और ताजा है और यह अपने विषय के हिसाब से एक गैर-पारंपरिक फिल्म है। 'की एंड का'  परदे भी दिखाए जाने वाले आम कहानियों से अलग है जो आम धारणाओं को तोड़ने की कोशिश करती है  और जेंडर भूमिकाओं और परिवारों में शक्ति संतुलन जैसे सवालों से टकराती है.

फिल्म की कहानी एक लड़की व लड़का की है, जिनके नाम किया व कबीर है, दोनों की शख्सियत बहुत अलग है लेकिन कई मसलों पर उनके सोचने का तरीके और हित सामान है.  “किया” एक कामकाजी लड़की है और अपने जीवन को लेकर बहुत ऐम्बिशस है वहीँ कबीर का जीवन को लेकर दर्शन अलग है एक बड़े बिजनेसमैन का बेटा होने के बावजूद वह “कॉरपोरेट  रोबो” नहीं बनना चाहता है और ना ही वह कभी खत्म होने वाले इस खेल का हिस्सा बनना चाहता है उसकी महत्वाकांक्षायें भी अलग है जो  बाजार ही नहीं सामाजिक मान्यताओं से भी मेल नहीं खाती हैं, कबीर अपनी मां जैसा बनना चाहता है जो एक हाउस वाइफ थीं। उसे घर संभालना, खाना बनाना पसंद है ,वह ‘हाउसहसबैंड’ बनकर रहना चाहता है, ऐसा नहीं है कि वह कामचोर है और इस काम को आसन समझता है इसलिए इसे करना चाहता है, वह सही में इसे महत्वपूर्ण काम मानता है और उसे लगता है कि इस काम को करने में उसे ज्यादा मजा आयेगा और वह खुश रह सकेगा।

बहरहाल दोनों मिलते हैं और हितों के मिलने के बाद एक दुसरे से शादी कर लेते है, शादी के बाद कुछ दिनों तक सब कुछ ठीक चलता है, दोनों के के बीच  टकराहट  तब पैदा होती है जब अर्जुन कपूर अपने अलग से लगने वाले काम की वजह से धीरे-धीरे मशहूर हो जाते हैं, बाजार की ताकतें  और मीडिया  उन्हें लैंगिक समानता का प्रतीक बना देती हैं और वे अचानक  मशहूर सेलेब्रिटी बन जाता है, इन सब से महत्वाकांक्षी, “किया” को जलन और तकलीफ होने लगती है और अहंकार को चोट पहुचती है. उसे लगता है कि कबीर को घर का काम ही करना चाहिए और चूंकि वह बाहर रहकर “कमाने वाला “ काम करती है इसलिए मशहूर होने और नियंत्रण रखने का स्वाभाविक हक उसी को है,यही टकराहट फिल्म को अपने अंत तक ले जाती है।

भारतीय समाज की बनावट के हिसाब से  “की एंड का” एक जबरदस्त विचार है, लेकिन दुर्भाग्य से इस विचार को सिनेमा की भाषा में अच्छे तरीके से उतारा नहीं जा सका और आखिर में फिल्म पति-पत्नी के पारंपरिक भूमिकाओं की एक रूमानी अदला-बदली बन कर रह जाती है।  फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी  थानक और प्रस्तुतिकरण है, कई जगह दोहराव भी देखने को मिलता है जो इसे  उबाऊ बनता है खासकर सेकंड हाफ और प्रभावहीन क्लाइमेक्स। इन सबके बावजूद “की एंड का” अपने विषय की वजह से एक ऐसे  साहसिक फिल्म के रूप में याद की जायेगी जो हमारे समाज के मूलभूत मान्यताओं से टकराने का साहस  जुटाती है।

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जावेद अनीस

भारत में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून लागू है जिसे 1 अप्रैल को 6 साल पूरे हो गये हैं, आरटीई तक पहुचने में हमें  पूरे सौ साल का समय लगा है ,1910 में गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा सभी बच्चों के लिए बुनियादी शिक्षा के अधिकार की मांग की गयी थी, इसके बाद 1932 वर्धा में हुए शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में महात्मा गांधी ने इस मांग को दोहराया था लेकिन बात बनी नहीं. आजादी के बाद शिक्षा को संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में ही स्थान मिल सका जो कि अनिवार्य नहीं था और यह सरकारों की मंशा पर ही निर्भर था. 2002 में भारत की संसद में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा इसे मूल अधिकार के रूप में शामिल कर लिया गया. इस तरह से शिक्षा को मूल अधिकार का दर्जा मिल सका.1अप्रैल 2010 को “शिक्षा का अधिकार कानून 2009” पूरे देश में लागू हुआ, अब यह एक अधिकार है जिसके तहत राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना है कि उनके राज्य में 6 से 14 साल के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ-साथ अन्य जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हों और इसके लिए उनसे किसी भी तरह की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शुल्क नहीं लिया जा सकेगा.
 
इस कानून को लागू करने से पहले भी भारत में बुनियादी शिक्षा को लेकर काफी समस्याएँ थीं और कानून आने के बाद इसमें कुछ नयी दिक्कतें भी जुडी हैं, जैसे पर्याप्त और प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, शिक्षकों से दूसरे काम कराया जाना, सतत एवं व्यापक मूल्यांकन व्यवस्था को लेकर जटिलतायें, नामांकन के बाद स्कूलों में बच्चों की रूकावट और बच्चों के बीच में पढाई छोड़ने देने की दर अभी की बड़ी चुनौतियाँ है लेकिन इसके सकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं, आरटीई लागू होने के बाद आज हम लगभग सौ फीसदी नामांकन तक पहुँच गये हैं जो की एक बड़ी उपलब्धि है और अब शहर से लेकर दूर-दराज के गावों में लगभग हर बसाहट या उसके आसपास स्कूल खुल गये हैं.

उपलब्धियाँ होने के बावजूद  हमारी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था लगातार आलोचनाओं से घेरे में रही है. इस दौरान भारत में बुनियादी शिक्षा को लेकर जितनी भी रिपोर्टें आई हैं वे अमूमन नकारात्मक रही हैं.मीडिया में भी इसकी बदहाली की ही खबरें प्रकाशित होती हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इसकी वजह क्या है? क्या कानून में कोई कमी रह गयी है? या फिर हम इसे ठीक से लागू ही नहीं कर पा रहे हैं ? इस बात की भी गुंजाइश है कि इस कानून के खिलाफ जान-बूझ कर इसे निकम्मा साबित करने के लिए दुष्प्रचार किया जा रहा हो जिससे इसे एक ऐसे निष्क्रिय व अनावश्यक व्यवस्था के रूप स्थापित किया जा सके जिसमें सुधार करना नामुमकिन है. निश्चित रूप से इसका कोई एक कारण नहीं हैं और इसके लिए ऊपर गिनाई गयी  कोई भी वजह गलत नहीं है.
 
सबसे पहले आलोचनाओं और दुष्प्रचार की बात करते हैं, इसके चलते सरकारी स्कूलों से लोगों का भरोसा लगातार कम हुआ है और छोटे शहरों,कस्बों और गावों तक में बड़ी संख्या में निजी स्कूल खुले हैं, इनमें से ज्यादातर प्रायवेट स्कूलों की स्थिति सरकारी स्कूलों से भी खराब हैं और उनका मुख्य फोकस शिक्षा नहीं ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कूटना है, ‘उद्योग व्यापार जगत्’ के एक अन्य संगठन (एसोचैम) के एक हालिया अध्ययन के अनुसार बीते दस वर्षों के दौरान निजी स्कूलों ने अपनी फीस में लगभग 150 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. एजुकेशन सेक्टर एक व्यापार को रूप में स्थापित हो चूका है जो सफल भी है, इस सफलता का कारण यह है कि प्राइवेट स्कूल जो लोग चला रहे हैं उनमें समाज के सबसे प्रभावशाली वर्ग के लोग शामिल हैं. इधर सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या लगातार घट रही हैं जबकि प्राइवेट स्कूलों में इसका उल्टा हो रहा है. देश के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक (कैग) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार सरकारी स्कूलों में वर्ष 2010-11 में कुल नामांकन 1 करोड़ 11लाख था,जो 2014-15 में 92 लाख 51 हजार रह गया है, जबकि दूसरी ओर प्राइवेट स्कूलों में छात्रों की संख्या में 2011-12 से 14-15 में 38 प्रतिशत बढ़ी है. इन सबके बावजूद भारत के 66 फीसदी प्राथमिक विद्यालय के छात्र सरकारी स्कूल या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में जाते हैं.

निश्चित रूप से कानून की भी सीमायें हैं जिसका दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहा है, यह कानून 6 से 14 साल की उम्र के ही बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है और इसमें  6 वर्ष के कम आयु वर्ग के बच्चों की कोई बात नहीं की गई है, यानी कानों में  बच्चों के प्री-एजुकेशन नजरअंदाज किया गया है, 15 से 18 आयु समूह के बच्चे भी कानून के दायरे से बाहर रखे गये हैं इसी तरह से निजी स्कूलों में  25 फीसदी सीटों पर कमजोर आय वर्ग के बच्चों के आरक्षण की व्यवस्था की गयी है, यह एक तरह से गैर बराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा देता है और  सरकारी शालाओं में पढ़ने वालों का भी पूरा जोर प्राइवेट स्कूलों की ओर हो जाता है. जो परिवार थोड़े-बहुत सक्षम हैं वेअपने बच्चों को पहले से ही प्राइवेट स्कूलों में भेज रहे हैं लेकिन जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति कमजोर हैं व भी इस ओर प्रेरित किया जा रहे हैं.
 
कानून को लागू करने में भी भारी कोताही देखने को मिल रही है, बीस प्रतिशत स्कूल तो एक ही शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं और उनका भी ज्यादातर समय रजिस्टर भरने और मिड-डे मील का इन्तेजाम करने में चला जाता है. इसी तरह से स्कूलों को अतिथि शिक्षकों के हवाले कर दिया गया है जो शिक्षक कम और ठेके का कर्मचारी ज्यादा लगता है. इन सबका असर शिक्षा की गुणवत्ता और स्कूलों में बच्चों की रूकावट पर देखने को मिल रहा है. बजट को लेकर भी समस्याएँ देखने को मिल रही हैं. नवीनतम बजट में, वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा सर्व शिक्षा अभियान के लिए आधे से थोड़ी अधिक राशि (52 फीसदी) ही आवंटित की गई है, लेकिन सबसे बड़ी समस्या तो सरकारों के रवैये में है, कानून बन जाने के बाद वे इसे सब्सिडी और योजना के नजरिये से ही देख रही है.

जन-भागीदारी और निगरानी की बात करें तो आरटीई के तहत स्कूलों के प्रबंधन में स्थानीय निकायों और स्कूल प्रबंध समितियों को बड़ी भूमिका दी गयी है,कानून के अनुसार  एसएमसी स्कूल के विकास के लिए योजनाएं बनाएंगी और सरकार द्वारा दिए गए अनुदान का इस्तेमाल करेंगीं और पूरे स्कूल के वातावरण को नियंत्रित करेंगी लेकिन ऐसा हो नहीं पाया हैं, इसके पीछे कारण यह है कि या तो लोग पर्याप्त जानकारी और प्रशिक्षण के आभाव में निष्क्रिय हैं या फिर एक दुसरे पर दोष मढ़ने और अपना निजी फायदा देखने में व्यस्त हैं. आरटीई  के क्रियान्वयन गुणवत्ता समेत सहित सभी पहलुओं पर निगरानी के लिए राष्ट्रीय  और राज्य बाल अधिकार आयोगों को भूमिका दी गयी थी आयोग बन भी गये हैं लेकिन निगरानी का तंत्र भी अभी तक विकसित नहीं हो पाया है.

इन सब रुकावटों के बावजूद कुछ ऐसी कहानियाँ और प्रयोग हैं जो उम्मीदों को बनाये हुए हैं यह कहानी जबलपुर विकासखंड का बरगी क्षेत्र में स्थित गावं  सालीवाड़ा में तो 65 वर्षीय राम कुंअर नेताम की हैं जिन्होंने आपने गांव में मिडिल स्कूल के लिए जमीन नही मिल रही थी तो उसके लिये अपनी जमीन दान में दे दी .वे खुद चैथी तक ही पढ़ सके थे लेकिन वे शिक्षा के महत्त्व को  बखूबी जानते है उनका कहना है कि “मै और मेरे बच्चे नहीं पढ़ सके तो क्या मेरे गांव के बच्चे आगे तक पढ़ सकें  बस यही सपना है”.

देश की अलग-अलग राज्यों में कई छोटे- छोटे प्रयोग हो रहे हैं इसी तरह का एक प्रयोग दिल्ली में हो रहा है जिसे  कुछ युवा अंजाम दे रहे हैं उन्हने इस पहल को नाम दिया है “साझा”, यह लोग दिल्ली के स्कूलों में बेहतरी के लिए काम कर रहे है, इनकी कोशिश है कि कैसे शिक्षकों , पालकों और शाला प्रबंधन कमेटी को एक दूसरे से जोड़ते हुए काम किया जाये। “साझा” मानवीय भावनाओं पर जोर देते हुए ये कोशिश करती है कि कैसे स्कूल और समाज और एसएमसी को जोड़ा कर  बदलाव लाया जाए ।

हमें इन प्रयोगों से सीखने और उन्हें व्यापक बनाने की जरूरत है जिससे यह दूसरों के लिए उदाहरण और माडल बन सकें. हमें यह समझना होगा कि शिक्षा केवल राज्य का ही विषय नहीं है और केवल ठीकरा फोड़ने से मामला और बिगड़ सकता है. स्कूलों को सरकार और समाज मिल कर ही सुधार सकते हैं. सरकारों को भी कोशिश करनी होगी कि स्थानीय स्तर पर समुदाय को लोग और पालक आगे आकर जिम्मेदारियों को उठा सकें. 6 साल बाद यह भी देखना होगा कि शिक्षा का अधिकार कानून अपने ही रास्ते में रोड़ा तो नहीं बन रहा है. 2009 में हम ने जहाँ से शुरुवात की थी अब उससे पीछे नहीं जा सकते हैं इसलिए अब  जरूरत केवल आरटीई के प्रभावी क्रियान्वयन की नहीं है बल्कि इसे कानूनी और सामाजिक दोनों रूपों में विस्तार देने की जरूरत है.  

जावेद अनीस

विश्वविद्यालयों  का काम क्रिटिकल सोच को बढ़ावा देना है और ये अलग अलग विचारधाराओं के नर्सरी होते हैं लेकिन हमारे उच्च शैक्षणिक संस्थान निशाने पर हैं, मामला केवल जेएनयू और एचसीयू (हैदराबाद सेंट्रल युनिवर्सिटी) का नहीं है, इस सूची में अभी तक आधा दर्जन से अधिक संस्थान शामिल किये जा चुके हैं. इस पूरे कवायद का मकसद इन शैक्षणिक संस्थानों की वैचारिक स्वायत्तता पर काबू पाना और इनपर भगवाकरण थोपना जान पड़ता है. जेएनयू और एचसीयू  ऐसे चुनिन्दा संस्थान हैं जहाँ वाम,अम्बेडकरवादी  और प्रगतिशील  विचारों को मानने वालों का दबदबा रहा है और तमाम  कोशिशों के बावजूद संघ परिवार अपनी विचारधारा को यहाँ जमा नहीं पाया है और वैचारिक रूप से संघ को जिस तरह की खुली चुनौती इन संस्थानों से मिलती है वह देश का कोई दूसरा संस्थान दे नहीं पाता है. इन संस्थानों का  अपना मिजाज  है और  यहाँ के दरवाजे भेड़चाल और अंधभक्ति के लिए बंद है,किसी भी विचारधारा को अपनी जगह बनाने के लिए बहस मुहावसे की रस्साकशी से गुजरना पड़ता है ,यहीं पर संघ विचारधारा के लोग मात खा जाते हैं.

जेएनयू के नाम पर उठा राष्ट्रीय हंगामा  अभी थोड़ा नार्मल हुआ ही था कि हैदराबाद विश्वविद्यालय कैंपस की शांति एक बार फिर भंग हो गयी. इसकी वजह थी रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद अनिश्चितकालीन अवकाश  पर भेज दिए गये कुलपति अप्पा राव पोडिले को वापस बुला लिया जाना. जिसके विरोध में छात्र भड़क गये और  कथित रूप से उन्होंने कुलपति के दफ़्तर में तोड़फोड़ किया, जवाब में पुलिस द्वारा छात्रों की जमकर पिटाई की गयी और  25 छात्रों सहित  कुछ संकाय सदस्यों को गिरफ्तार के लिया गया. विश्वविद्यालय में बिजली, पानी, खाने और इंटरनेट तक की सुविधाएं बंद करने की भी खबरें आयीं। इससे पहले हैदराबाद यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला के आत्महत्या के बाद इसका जोरदार प्रतिरोध हुआ, रोहित ने जाति के सवाल को एजेंडे पर ला दिया था,   सरकार दबाव में आ गयी थी, लेकिन जेएनयू प्रकरण ने सरकार औरसं घ परिवार को  एक ऐसा मौका दे दिया जिससे वे एजेंडे पर आये जाति के सवाल को बायपास करते हुए “राष्ट्रवाद व साम्प्रदायिकता” अपने पसंदीदा  पिच पर वापस लौट सकें .

जेएनयू विवाद की शुरुआत 9 फरवरी को हुई थी  जब अतिवादी वाम संगठन डीएसयू के पूर्व सदस्यों द्वारा जेएनयू परिसर में अफजल गुरू की फांसी के विरोध में आयोजित कार्यक्रम को लेकर  कुछ टी.वी. चैनलों द्वारा दावा किया गया कि इसमें कथित रूप से भारत-विरोधी नारे लगाये गये हैं. बाद में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन से जुड़े जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. कुछ दिनों बाद उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य की भी गिरफ्तारी हुई. इसके साथ ही  पूरे देश में एक खास तरह का माहौल बनाया गया और वामपंथियों, बुद्धिजीवियों व इसके खिलाफ आवाज उठाने वाले दूसरे विचारों,आवाजों को देशद्रोही साबित करने की होड़ सी मच गयी,जेएनयू जैसे संस्थान को देशद्रोह का अड्डा साबित करने की कोशिश की गयी, गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने तो यह दावा कर डाला कि जेएनयू की घटना को हाफिज सईद का समर्थन था, जिस मसले को यूनिवर्सिटी के स्तर पर ही सुलझाया जा सकता था उसे एक राष्ट्रीय संकट के तौर पर पेश किया गया. इस मामले को लेकर जेएनयू की एक उच्च स्तरीय आंतरिक कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कार्यक्रम में बाहरी लोगों देश विरोधी नारे लगाये थे.
 
शैक्षणिक संस्थानों में जो कुछ भी हो रहा है उसे  सामान्य नहीं कहा जा सकता इसका  असर देशव्यापी है,कुछ लोग इसे संघ परिवार की नयी परियोजना बता रहे हैं जो संघ के राष्ट्रवाद के परिभाषा के आधार पर जनमत तैयार करने की उसकी लम्बी रणनीति का एक हिस्सा है.इतिहासकार रोमिला थापर इसे धार्मिक राष्ट्रवाद और सेक्युलर राष्ट्रवाद के बीच की लडाई मानती हैं. कुछ भी हो इन सबके बीच आज राष्ट्रवाद धुर्वीकरण का नया हथियार है जिसका इस्तेमाल वैचारिक राजनीति और आने वाले चुनावों  दोनों में देखने को मिलेगा. 19 और 20 मार्च को हुए को भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जिस तरह से राष्ट्रवाद पर राजनीतिक संकल्प पारित किया गया उससे यह स्पष्ट हो गया है कि पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में भाजपा इसे प्रमुख  मुद्दा बनाने जा रही है, इससे पहले 11-13 मार्च को नागौर में  हुए आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में भी सरकार्यवाह द्वारा ‘राष्ट्रीय परिदृश्य’ पर जो रिपोर्ट पेश की गई थी उसमें भी जेएनयू और हैदराबाद विश्वविद्यालय के बारे में चर्चा करते हुए कहा गया था कि यहाँ  “योजनापूर्वक देश विरोधी गतिविधि चलानेवाले व्यक्ति एवं संस्थाओं के प्रति समाज सजग हो और प्रशासन कठोर कार्रवाई करें”।

सोसायटी अगेंस्ट कनफ्लिक्ट एंड हेट(सच) नाम की संघ की एक करीबी संस्था है, “सच” का कहना है कि वह देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में मोदी सरकार के खिलाफ तैयार किए जा रहे माहौल के खिलाफ अभियान चलाएगी, और इस काम में देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में राष्ट्रवादी सोच रखने वाले छात्रों, शिक्षकों व बुद्धिजीवियों को जोड़ा जाएगा.सरकार में बैठे लोग भी इसे  वैचारिक लड़ाई मान रहे हैं वित्तमंत्री अरूण जेटली का कहना है कि “राष्ट्रवाद की 'वैचारिक लड़ाई' का पहला दौर हमने जीत लिया है”, इससे पहले भारतीय जनता युवा मोर्चा के दो दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन के समापन भाषण में भी  उन्होंने कहा था कि जेएनयू मामले में हमारी वैचारिक जीत हुई है.

अरूण जेटली इसे भले ही अपनी वैचारिक जीत बता रहे हों लेकिन बिना किसी पुख्ता सबूत के कन्हैया कुमार की हड़बड़ी में की गयी गिरफ्तारी एक ऐसी गलती थी जिसके खामियाजे का उन्हें अंदाजा भी नहीं था, जेल से वापस आने के बाद कन्हैया कुमार ने कहा भी था कि “जब लड़ाई विचारधारा की हो तो व्यक्ति को बिना मतलब का पब्लिसिटी नहीं देना चाहिये”. कन्हैया के मामले में भाजपा ने यही गलती की है, ज़मानत के बाद जिस तरह से कन्हैया कुमार ने अपना पक्ष रखते हुए लगातार संघ परिवार और मोदी सरकार को वैचारिक रूप से निशाना बनाया है उससे सभी  हैरान है और उनकी गिरफ्तारी को बड़ी भूल बता रहे हैं, अपनी रिहाई के कुछ घंटों बाद ही  उन्होंने जेएनयू कैम्पस में जो धारदार और समझदारी  भरा भाषण दिया था वह कुछ ही घंटों में पूरे मुल्क में जंगल की आग की तरह फ़ैल गया भाषण इतना असरदार था कि टी.वी. चैनलों द्वारा इसका कई बार प्रसारण किया गया जिसकी वजह से उनकी बातों को देश के सभी हिस्सों में सुना-समझा गया. इसके बाद लोग कहने लगे कि कि जोरदार भाषण देने के मामले में प्रधानमंत्री मोदी को इस जोशीले स्टुडेंट के रूप में अपना जोड़ीदार मिल गया है. अब उन्हें एक उभरते हुए रहनुमा के तौर पर देखा जा रहा है जो लिबरल सोच और मार्क्सवाद का हामी है, एक अंग्रेजी अखबार ने तो उन्हें भारत का सुर्ख सितारा करार दिया, अपनी रिहाई के पहले हफ्ते में उन्होंने 50 से ज्यादा इंटरव्यू दिए. वे लगातार जिस आक्रमकता और तीखे तरीके से मोदी सहित पूरे संघ परिवार की विचारधारा पर हमला बोल रहे हैं उसने उन्हें  मोदी और संघ विरोधियों का चहेता बना दिया और वे हिन्दुतत्ववादी राजनीति के खिलाफ एक चहेरा बन कर उभरे हैं, दक्षिणपंथियों ने एक तरह से दूसरे खेमे के एक नौजवान को हीरो बना दिया है.

भाषण और इंटरव्यू देने के अलावा उनकी शख्सियत के कई और पहलु हैं, देशद्रोह का  इतना बड़ा आरोप लगने और जेल की हवा खाने के बाद जिस विलक्षण तरीके से अपने आप को व पुरसुकून और नार्मल बनाये रहे,उनको उकसाना भी आसन नहीं है, दिल से कही गयी उनकी बातों में गहराई होती है और उनकी मुहावरेदार भाषा में देसीपन, संजीदगी और हास्यबोध की मिलावट है. जब वे कहते हैं कि अनुपम खैर और परेश रावल उनके पसंदीदा कलाकार हैं तो फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि यह बात उन्होंने गंभीरता से कही है या शोखी से. वे वामपंथ के पारंपरिक “टर्मिनालाजी” से परहेज करते है, उअर “लाल” व “नीले” को जोड़ने की बात करते हैं. कई मसलों पर उनमें जो स्पष्टता देखने में आई है वह लेफ्ट खेमे में दुर्लभ है, जैसे कि उनका यह कहना कि वर्तमान समय में अगर संघ परिवार से मुकाबला करना है तो भाजपा और कांग्रेस के बीच बुनियादी फर्क को देखना होगा, इसी तरह से शुद्धतावादी नजरिये पर भी वे सवाल खड़ा करते हुए कहते  हैं कि कि भारत में किसी भी तरह का अतिवाद सफल नहीं हो सकता है.
 
जेएनयू से लेकर एचसीयू तक जो प्रतिरोध हो रहा है उसमें  'नीला' और 'लाल' में मेल और इसे एक   एक नए राजनीतिक प्रतीक में बदलने की ध्वनि सुनाई पड़ रही है यही इसका नयापन है , अब देखना यह है कि इस प्रतीक को धरातल पर उतारने के लिए दोनों तरफ से क्या प्रयास किये जाते हैं. भविष्य में  अगर  वामपंथ भारतीय समाज को देखने–समझने के अपने पुराने आर्थिक नजरिये व रणनीति में बदलाव ला सका और बहुजन-दलित संगठनों वामपंथ के प्रति अपने द्रष्टिकोण को व्यापक कर सके तो आने वाले सालों में हमें एक नया राजनीतिक प्रयोग देखने को मिल सकता है.यह भारत में ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद के खिलाफ सांझी लडाई होगी जिसके प्रतीक बाबा साहेब अम्बेडकर और शहीद भगत सिंह होंगें ,फिलहाल रोहित वेमुला और कन्हैया नई उम्मीद,अपेक्षाओं और संघर्षों के प्रतीक बन चुके हैं, लेकिन क्या भारत के वामपंथी और अंबेडकरवादी ताकतें खुद को इतना बदल पायेंगें कि वहां कन्हैया और रोहित को एक साथ अपने में समा सकें. यकीनन इसका जवाब भविष्य के गर्भ में है.

जावेद अनीस

देश की राजधानी दिल्ली में डॉक्टर पंकज नारंग की मामूली झगड़े के बाद जिस तरह पीट-पीटकर हत्या कर दी गयी वह दहला देने वाला है, इस हत्या को अंजाम देने वालों में चार नाबालिग भी थे. यह हमारे समाज के लगातार हिंसक और छोटी-छोटी बातों पर एक दूसरे के खून के प्यासे होते जाने का एक और उदाहरण हैं लेकिन इस दुखद हत्या के बाद जिस तरह से इसे पहचान आधारित अपराध का रंग दिया गया और इसके बुनियाद पर धार्मिक उन्माद पैदा करने की कोशिश की गयी वह बहुत ही घातक है, अब हम ऐसे दौर में पहुँच गये हैं जहाँ अपराधों का भी समुदायिकरण होने लगा है और हमारी सियासत व समाज के ठेकेदार आग को बुझाने की जगह उसमें घी डालने का काम कर रहे हैं और उन्हें जहाँ भी मौका मिलता है अवाम को बांटने की अपनी कोशिशों में लग जाते हैं. तो क्या समाज के तौर पर भी हम इतने बौने और खोखले हो चुके हैं कि अपने ही बनाये खुदाओं के एक इशारे पर आपसी भिडंत के लिये  तैयार हो जाते है बिना ये सोचे समझे कि आखिरकार इसका खामियाजा सभी को मिलजुल कर ही साँझा करना होगा.

इस दौर में सोशल मीडिया जन संवाद के एक जबरदस्त माध्यम के रूप में उभरा है, जहाँ यह लोगों के आपस में जुड़ने का एक मजबूत मंच है तो दुर्भाग्य से इसे नफरतों और अफवाहों को बांटने का ई-चौपाल भी बन दिया गया है, कभी-कभी तो लगता है सोशल मीडिया ने हमारे समाज की पोल खोल दी है और वहां अन्दर तक बैठे गंद को सामने ला दिया है. पिछले कुछ सालों में दंगे, झूठ और अफवाहों को फैलाने में इस माध्यम का जबरदस्त इस्तेमाल देखने को मिला है. डॉक्टर पंकज नारंग के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ है. इस मामले में भी धर्म, वर्ग और क्षेत्रीयता  के आधार पर अफवाह फैलाने की कोशिश की गयी,बहुत ही सुनियोजित तरीके से व्हाट्स एप, फेसबुक और ट्विटर पर कई तरह के सन्देश वायरल किये गये जिसमें कुछ लोगों का कहना था कि इस काम को झोपड़पट्टी वालों ने अंजाम दिया है और वे अनपढ़ और अपराधी किस्म के लोग होते हैं जिनके रहते हम सुरक्षित नहीं हैं तो कई लोगों ने हमलावरों को बांग्लादेशी और मुसलमान के रूप में प्रचारित किया.

लेकिन इन सबके बीच नारंग परिवार और पुलिस की भूमिका बहुत सराहनीय रही है. अफवाहों के बाद  डॉ पंकज नारंग के भतीजे तुषार नारंग सामने आये और उन्होंने फेसबुक सन्देश पोस्ट  करते हुए लिखा  कि “किसी भी परिवार के लिए किसी भी सदस्य की मौत बहुत ही दुखद होती है, यह दुख तब और भी बढ़ जाता है जब मौत को राजनीतिक मुद्दा बना दिया जाता है, इस मौत का कारण सांप्रदायिक मतभेद बताया है क्या इस तरह की झुठी अफवाह फैलाना सही है, जिम्मेदार बनिये जब सब ये जानते है कि हिन्दु-मुस्लिम मुद्दा कितना नाजुक है”.

इस मामले में दिल्ली पुलिस के अधिकारियों की भूमिका भी उम्मीद बधाने वाली रही है. इस मामले में एडिशनल डीसीपी मोनिका भारद्वाज के ट्वीट ने अफवाहों के ज्वार को थामने का काम किया है. उन्होंने जब यह खुलासा किया कि अरेस्ट किए गए 9 आरोपियों में से 5 हिंदू हैं और अरेस्ट किया गया मुस्लिम आरोपी यूपी का रहने वाला है ना कि बांग्लादेश से” तो अफवाह फैलाने वालों के मंसूबे धरे रह गये और जिस तरह से उन्होंने सामने आकर लोगों से इस घटना को सांप्रदायिक रंग न देने और शांति बनाए रखने की अपील की है उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है. इसी तरह से दिल्ली पुलिस के ज्वाइंट कमिश्नर का बयान कि “अफ़वाह फैलाने वालों पर कार्रवाई होगी” भी असरदार रहा. एक तरह से इन संवेदनशील और मुस्तैद अधिकारियों ने दिल्ली को दंगों की आग से बचा लिए जिसमें कई लोगों की जान भी जा सकती थी.

कायदे से होना तो यह चाहिए था कि मोनिका भारद्वाज जैसे पुलिस अधिकारी या तुषार नारंग जैसे नागरिक को सावर्जनिक सम्मान किया जाता और समाज इन्हें अपना नायक बनाता जिन्होंने 'खुराफाती दंगाईयों को मात देने का काम करते हुए समाज में अमन और भाई-चारा बनाये रखने की मिसाल कायम की हैं जिसकी हमें आज सबसे ज्यादा जरूरत है. लेकिन हुआ इसका उल्टा है, सोशल मीडिया पर मोनिका भारद्वाज को निशाना बनाया गया है और उन्हें गन्दी व भद्दी गालियां का सामना करना पड़ा है,उनके उनके पोस्ट के जवाब में उन्हें गाली-गलौज से नवाजा गया.

संयोग से डाक्टर पंकज नारंग के हत्यारों में दोनों समुदायों के लोग शामिल हैं और ये लोग बांग्लादेशी नहीं हैं,कल्पना कीजिये अगर ये केवल मुस्लिम या बांग्लादेशी होते तो क्या होता? दरअसल विविधताओं से भरे इस देश में एक दूसरे के हम सॉफ्ट टारगेट बना दिए गये हैं,यह एक ऐसा खेल हैं जहाँ हम सब कठपुतलियां हैं,इस खेल में कोई भी सुरक्षित नहीं है सिवाए उनके जो इसके सूत्र धार हैं. पूरे देश को एक ऐसे बारूद के ढेर पर बैठाने की कोशिश हो रही है जिसे जब चाहे फोड़ा जा सके, ऐसे माहौल में कोई देश कितना मजबूत हो सकता है?  इन परिस्थितियों में जॉन एलिया की दो लाईनें सटीक बैठती हैं
“अब नहीं कोई बात खतरे की
अब सभी को सभी से खतरा है”

Wednesday, 30 March 2016 00:00

सरकारी स्कूल अगर बीमार हैं तो इसकी जिम्मेदार कोई और नहीं सरकारें हैं

जावेद अनीस

सरकारी स्कूल हमारे देश के सावर्जनिक शिक्षा वयवस्था की बुनियाद हैं, ये  देश के सबसे वंचित  व हाशिये पर  पंहुचा दिए गये समुदायों की शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. देश की  शिक्षा व्यवस्था के निजीकरण और  इसे  मुनाफा आधारित बना डालने का मंसूबा पाले लोगों के रास्ते में भी सरकारी स्कूल सबसे बड़ी रूकावट हैं. तमाम हमलों और विफल बना दिए जाने की साजिशों के बीच इनका वजूद कायम है और आज भी जो लोग सामान शिक्षा व्यस्था का सपना पाले हुए हैं उनके लिए यह उम्मीद बनाये रखने का काम कर रहे हैं.

नब्बे के दशक में उदारीकरण आने के बाद से सावर्जनिक सेवाओं पर बहुत ही सुनोयोजित तरीके से हमले हो रहे हैं और उन्हें नाकारा,चुका हुआ व अनुउपयोगी साबित करने हर कोशिश की जा रही है. एक तरह से सावर्जनिक सेवाओं का उपयोग करने वालों को पिछड़ा और सब्सिडी धारी गरीब के तौर पर पेश किया जा रहा है. उच्च मध्यवर्ग और यहाँ तक कि मध्यवर्ग भी अब सावर्जनिक सेवाओं के इस्तेमाल में बेइज्जती सा महसूस करने लगे हैं उनको लगता है इससे उनका क्लास स्टेटस कम हो जाएगा. इसकी वजह से  सरकारी सेवाओं पर  भरोसा लगातार  कम हो रहा है. कायदे से तो इसे लेकर सरकार को चिंतित होना चाहिए था लेकिन सरकारी तंत्र ,राजनेता और नौकरशाही इन सबसे खुश नजर आ रहे हैं, चूंकि निवेश और निजीकरण सरकारों के एजेंडे में सबसे ऊपर आ चुके हैं इसलिए सामाजिक सेवाओं में सरकारी निवेश को सब्सिडी कह कर मुफ्तखोरी के ताने माने जा रहे हैं और इन्हें कम या बंद करने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं दिया जा रहा है.

हमारे सरकारी स्कूलों में भी धीरे- धीरे नेताओं, नौकरशाहों ,बिजनेस और नौकरी पेशा लोगों के बच्चों का जाना लगभग बंद हो चुका है, अब जो लोग महंगी और निजी स्कूलों की सेवाओं को अफोर्ड नहीं कर सकते हैं उनके लिए सस्ते प्राइवेट स्कूल भी उपलब्ध हैं इनमें से कई तो सरकारी स्कूलों के सामने किसी भी तरह से नहीं टिकते हैं, लेकिन फिर भी लोग अपने बच्चों को  सरकारी स्कूल की जगह कमतर लेकिन निजी स्कूलों में भेजना ज्यादा पसंद करते हैं. और  तो और अब स्वयं सरकारी स्कूल के अध्यापक भी अपने बच्चों को प्राईवेट स्कूलों में भेजने को तरजीह देने लगे हैं. यह स्थिति हमारी सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था की त्रासदी ब्यान करती है. आज हमारे स्कूल भी हमारे आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी के नए प्रतीक बन गये हैं. सत्ताधारियों की मदद से शिक्षा को एक व्यवसाय के रूप में पनपने के सबूत भी है. यह बहुत आम जानकारी हो चुकी है कि किस तरह से नेताओं, अफसरों और व्यपारियों की गठजोड़ ने सावर्जनिक शिक्षा को दीमक की तरह  धीरे-धीरे को चौपट किया है ताकि यह दम तोड़ दें और उनकी जगह पर प्राइवेट क्षेत्र को मौका मिल सके.
इसलिए जब कुछ अपवाद सामने आते है तो वे राष्ट्रीय खबर बन जाते हैं 2011 में इसी तरह की एक खबर  तमिलनाडु से आई थी जहाँ इरोड जिले के कलेक्टर डॉ आर. आनंदकुमार ने जब  अपनी छह साल की बेटी को एक सरकारी स्कूल में दर्ज कराया तो यह घटना एक राष्ट्रीय खबर बन गयी, स्कूल स्तर पर भी इसका असर देखने तो मिला था कलेक्टर की बच्ची के सरकारी स्कूल में जाते ही सरकारी अमले ने उस स्कूल की सुध लेनी शुरु कर दी और उसकी दशा पहले से बेहतर हो गयी, जाहिर है अगर यह अपवाद आम बन जाये तो बड़े बदलाव देखने को मिल सकता है. शायद इसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सितम्बर 2014 में  केंद्र सरकार से कहा था जिस तरह से  सरकारी मेडिकल कॉलेज सबसे अच्छे माने जाते हैं उसी तरह से सरकार देशभर  में अच्छे स्कूल क्यों नहीं खोलती है,  इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी पिछले साल अगस्त में एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए यूपी सरकार से कहा था कि जन-प्रतिनिधियों व सरकारी खजाने से वेतन या मानदेय पाने वाले हर व्यक्ति के बच्चे का सरकारी स्कूल में पढ़ना अनिवार्य किया जाए और इसकी अवहेलना करने वालों पर कड़ी कार्यवाही हो. इस फैसले का आम जनता द्वारा तो खूब स्वागत किया गया लेकिन संपन्न वर्ग की प्रतिक्रिया थी कि पालकों को यह आजादी होनी चाहिए कि उन्हें अपने बच्चों को कहां पढ़ाना है। हाईकोर्ट के इस आदेश के बावजूद उत्तर प्रदेश के मंत्री और नौकरशाह इ सपर अमल के लिए तैयार नहीं हुए, पिछले दिनों जो खबरें आई हैं उसके अनुसार यूपी सरकार हाईकोर्ट के इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दाखिल करने की तैयारी में है।

यह एक ऐसा दौर है जब तमाम ताकतवर और रुतबे वाले लोग ‘सरकारी स्कूलों के निजीकरण’ के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं, इसके लिए खुले तौर लाबिंग की जा रही है, यह लोग सरकारी स्कूलों को ऐसा सफ़ेद हाथी बता रहे हैं जो चुका हुआ भ्रष्ट,निष्क्रिय, और बोझ बन चूका है. सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी नाम की कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी नुमा एक सामाजिक संस्था है जिसका मानना है कि सरकारी स्कूल भारत के बच्चों की जरूरतों पर खरे नहीं उतर रहे है इसीलिए यह निजी स्कूलों की वकालत करती है और जनमत बनाने का काम करती है। सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी  द्वारा “स्कूल चयन अभियान” नाम से एक परियोजना चलायी जा रही है जिसके तहत स्कूलों की जगह छात्रों को फंड देने की वकालत जा रही है जिसे वे “स्कूल वाउचर” का नाम दे रहे हैं, उनका तर्क है कि इस वाउचर के सहारे गरीब और वंचित परिवारों के बच्चे भी अपने चुने हुए स्कूलों में पढ़ सकेंगें, जाहिर सी बात है इससे उनका मतलब निजी स्कूलों से है .सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी की एक प्रमुख मांग यह भी है कि आरटीई कानून को लेकर उस गुजरात मॉडल को अपनाया जाए जहाँ निजी स्कूलों की मान्यता के लिए जमीन व अन्य आवश्यक संसाधनों में छूट मिली हुई है और लर्निग आउटपुट के आधार पर मान्यता का निर्धारण होता है।

इस साल फरवरी में निजी स्कूलों के संगठन नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल्स एलांयस (नीसा) द्वारा इसी मांग को लेकर दिल्ले के जंतर-मंतर पर एक प्रदर्शन भी किया गया है जिसमें  प्रधानमंत्री से स्कूलों की मान्यता के मामले में गुजरात मॉडल को देशभर मे लागू करने की मांग की गयी थी. दरअसल यह ढील इसलिए मांगी जा रही है क्योंकि लाखों की संख्या में प्राइवेट स्कूल शिक्षा अधिकार कानून के मानकों को पूरा नहीं कररहे हैं इसलिए उनपर बंद होने का खतरा मंडरा रहा है. दरअसल हमारी शिक्षा व्यवस्था सफ़ेद नहीं बीमार हाथी की तरह है जिसे गंभीर इलाज की जरूरत है लेकिन समस्या यह है कि हर कोई इसका अपने तरह से इलाज करना चाहता है ,यहाँ सूंड और पूंछ की कहानी सच साबित हो रही है और कुछ लोग इस भ्रम को और बढ़ाकर शिक्षा को अपनी दूकानों में सजाना चाहते हैं.

सरकारी स्कूल अगर बीमार हैं तो इसकी जिम्मेदार कोई और नहीं सरकारें हैं, शिक्षा को स्कूलों के एजेंडे से गायब कर दिया गया है और इसकी जगह पर शौचालय, एमडीएम एवं  सतत व व्यापक मूल्यांकन प्रणाली (सीसीई) को प्राथमिकता मिल गयी है, सारा जोर आंकड़े दुरुस्त करने पर है, और स्कूल एक तरह से  ‘डाटा कलेक्शन एजेंसी’ बना दिए गये हैं, कागजी काम बहुत हो गया है और शिक्षकों का काफी समय आँकड़े जुटाने व रजिस्टरों को भरने में ही चला जाता है. हर काम के लिए लक्ष्य और निश्चित समयावधि निर्धारित कर दी गयी है हमारे शिक्षकों का सारा ध्यान इसी लक्ष्य को पूरा करने की जोड़-तोड़ लगा रहता है. हमारे स्कूल ऐसे प्रयोगशाला बना दिए गये हैं जहाँ हर कोई विचारों और नवाचारों को  आजमाना चाहता है। देश के लगभग 20 फीसदी स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं, समुदाय के लोगों की ज्यादा रुचि  स्कूल में होने वाली शिक्षा की जगह वहां हो रहे आर्थिक कामों में अपना हिस्सा मांगने में दिखाई पड़ने लगी है. शिक्षकों के लिए किसी भी तरह के प्रोत्साहन की वयवस्था नहीं है उलटे  सारी नाकामियों का ठीकरा उन्हीं  के सर पर थोप दिया जाता है.

इन तमाम समस्याओं से जूझते हुए भी हमारी सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था अपने आप को बनाये और  बचाए हुए है और दौड़ नहीं तो कम से कम चल रही है, मानव संसाधन विकास मंत्रालय के  अनुसार देश भर  में  करीब  दो  लाख  सरकारी  स्कूल  हैं जहाँ 13.8 करोड़  बच्चे  पढ़ते  हैं  जबकि  प्राइवेट  स्कूलों  में  करीब  9.2 करोड़  छात्र  पढ़ते  हैं, यानी अभी भी सरकारी स्कूल ही है जो तमाम कमजोरियों  के बावजूद  हमारी शिक्षा व्यवस्था को अपने कंधे पर उठाये हुए हैं  और आज भी सबसे ज्यादा बच्चे अपनी शिक्षा के लिए इन्हीं पर निर्भर हैं जिनमें ज्यादातर गरीब और हाशिये पर पंहुचा दिए गये समुदायों से हैं, इसलिए जरूरी है कि इन्हें मजबूत बनाया जाए लेकिन यह काम सभी की सहभागिता और सहयोग के बिना नहीं हो सकता है, इस दिशा में राज्य , समाज शिक्षकों और  स्कूल प्रबंधन समिति आदि को मिलकर अपना योगदान देना होगा। कोठारी कमीशन द्वारा साठ के दशक में ही समान शिक्षा प्रणाली की वकालत की गयी थी . मजबूत सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था हमें उस सपने के और करीब ला सकती है.

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Wednesday, 30 March 2016 00:00

जाट आरक्षण आंदोलन का नया अल्टीमेटम

जावेद अनीस

जाट आरक्षण आंदोलन फिलहाल आगामी तीन अप्रैल तक के लिए टल गयी है, इसी के साथ  ही जाट नेताओं ने हरियाणा सरकार को एक नयी डेडलाइन देते हुए कहा है कि वह 31 मार्च तक चलने वाले विधानसभा के मौजूदा सत्र में आरक्षण विधेयक पारित कराये । अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष यशपाल मलिक उम्‍मीद जतायी है कि सरकार उनके सुझावों पर गौर करेगी लेकिन अगर सरकार 31 मार्च तक आरक्षण विधेयक पारित नहीं करती तो वे तीन अप्रैल को दिल्ली में अपनी बैठक में अपनी आगे की रणनीति के बारे में फैसला करेंगे। इससे पहले जाट  नेताओं द्वारा हरियाणा सरकार को 17 मार्च तक दी गयी अल्टीमेटम की समय सीमा  समाप्त होने से एक बार फिर  आंदोलन की आशंका  बन गयी थी और जाटों की तरफ से यह चेतावनी आने लगी थी कि अगर उनकी आरक्षण की मांग पूरी नहीं की गयी तो वे फिर से आंदोलन करेंगें और इस बार अगर जाट समुदाय के लोग बाहर निकले तो अपनी सभी माँगो को पूरा करवाकर ही घर वापस लौटेंगे। इसके बाद हरियाणा सरकार द्वारा आनन-फानन में इस नयी बन रही स्थिति पर काबू पाने के लिए जाट नेताओं बात–चीत के एक नए दौर की शुरुवात की गयी । मुख्‍यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भी जाट नेताओं से मिले हैं ।

दरअसल राजनीति में सारा खेल टाइमिंग का होता है , इस समय विधानसभा चल रही है और जाट नेताओं का पूरा जोर इसी पर है कि राज्य सरकार उनके समुदाय के आरक्षण के लिए विधानसभा के मौजूदा बजट सत्र में एक विधेयक पेश करे, फिलहाल इसलिए यह दबाव बनाया जा रहा है । पिछली बार हुए बेकाबू जाट आन्दोलन पर नियंत्रण ना पा सकने की वजह से सवालों के घेरे में आयीं केंद्र और राज्य की दोनों सरकारें चौकन्नी नजर आना चाहती हैं।शायद इसीलिए  पिछली बार की तरह इस बार जाट आरक्षण की आग पूरे राज्य में न फैले इसके लिए पहले से ही पूरी तैयारी कर ली गयी थी ।इस सम्बन्ध में केंद्र सरकार कितनी चौकन्नी थी इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि  प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा हरियाणा सरकार को बाकायदा आगाह किया गया कि इस बार हालात को किसी भी कीमत पर बेकाबू ना होने दिया जाए। केंद्र सरकार द्वारा अर्धसैनिक बलों की 80 कंपनियां भी हरियाणा भेजी गयीं । पिछले महीने जाट आंदोलन के दौरान भड़की हिंसा ने 30 लोग मारे गये थे और इस दौरान हुई व्यापक, लूटपाट और बलात्कार की घटनाओं के पूरे देश शर्मशार हुआ था। हरियाणा में करीब 20 साल बाद ग़ैर जाट बिरादरी का कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री बना है कुछ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इस हिंसक और आक्रमक आन्दोलन का एक निशाना जाट लैंड के गैर जाट मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भी हो सकते हैं. पिछली बार शायद उन्हें भी इसका अंदाजा नहीं रहा होगा कि आंदोलन इतना बड़ा और हिंसक हो जाएगा क्योंकि पिछले महीने जो कुछ भी हुआ है उसे हर कोई खट्टर  सरकार की विफलता के तौर पर भी देख रहा है।

सदियों पहले समुह बनाकर खेती करने वाली और वर्तमान समय में सामाजिक –राजनीतिक रूप से संगठित जाट समुदाय की हरियाणा में करीब 30 प्रतिशत आबादी है। यह लोग ओबीसी कैटेगरी में आरक्षण की मांग कर रहे हैं। लेकिन उनके द्वारा आंदोलन के नाम भी जो कुछ भी किया गया है उसे किसी भी कीमत  उचित नहीं ठहराया जा सकता है। आंदोलोनों का लक्ष्य देश और समाज का हित होता हैं लेकिन यहाँ आन्दोलन के नाम जिस तरह से अराजकता को अंजाम दिया गया है उससे किसी का हित नहीं हुआ है।हमारे देश में प्रभावशाली समुदायों द्वारा आरक्षण के लिए हिंसक संघर्ष नयी समस्या के तौर पर सामने आये हैं, नवउदारीकरण और बेलगाम पूँजीवाद के इस दौर में जो समुदाय शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़ गए हैं वे अब  आन्दोलन की मांग करने लगे हैं, जैसे कि गुजरात में पटेल राजस्थान में गुर्जर और हरियाणा में जाट समुदाय। इस परिघटना से आरक्षण के मुद्दे पर एक नई तरह के बहस शुरू हुई है जो सदियों से छुआछात और उत्पीड़न के आधार पर आरक्षण पाने वाले समुदायों के विमर्श से अलग है। प्रभावशाली समुदायों के ये तथाकथित आन्दोलन एक तरह से आरक्षण और स्वयं आन्दोलन की नयी परिभाषायें भी तय रहे हैं।

हमारी सरकारें आरक्षण की इन नयी मांगों से खौफ भी खाती हैं और उनकी पूरी कोशिश इनकी मनमानियों पर सवाल उठाने के बजाये चुप बैठ जाने या समझौता करने की होती है। जाट आन्दोलन को लेकर भी यही हुआ है जिसकी शुरुवात 2006 में गाजियाबाद में आयोजित एक जाट महासम्मेलन से हुई थी। पिछली कांग्रेस सरकार ने 2012 में स्पेशल बैकवर्ड क्लास (एसबीसी) के तहत जाट, जट सिख, रोड, बिश्नोई और त्यागी समुदाय को आरक्षण दे भी दिया था लकिन चूंकि हरियाणा में 67 प्रतिशत आरक्षण पहले से ही लागू है इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के आदेश रद्द कर दिया। खट्टर सरकार द्वारा भी सितंबर 2015 में जाटों सहित पांच जातियों को आरक्षण देने की एक अधिसूचना जारी की गयी थी जिसे पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद वापस लेना पड़ा था । अब जाट आन्दोलनकारी हरियाणा सरकार पर नया रास्ता तलाशने का दबाव बना रहे हैं और उनकी पूरी कोशिश है कि इसके लिए हरियाणा सरकार 31 मार्च तक चलने वाले विधान सभा के मौजूदा बजट सत्र में विधेयक पारित कराये। बीजीपी के जाट नेता हरियाणा के वित्त मंत्री कैप्टन अभिमन्यु का इस सम्बन्ध में एक बयान आया है कि जिसमें उन्होंने ने कहा कि विधेयक का मसौदा तैयार करने में समय लग रहा हैक्योंकि सरकार सुनिश्चित करना चाहती है कि नया कानून किसी कानूनी पचड़े में नहीं फंस जाए लेकिन वे इसे मौजूदा बजट सत्र में ही पेश करने की पूरी कोशिश करेंगें। संभव है कि आने वाले दिनों में जाट आरक्षण आन्दोलन काकोई समाधान निकल आये लेकिन क्या वह वास्तव में समाधान ही होगा ? या इसके द्वारा दुसरे आंदोलोनों को अपनी मंजिल पाने का रास्ता मिल जाएगा ।

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Friday, 18 March 2016 00:00

सतपुड़ा की पहाड़ियों में बसे पातालकोट के नन्हे जुगनू

जावेद अनीस

मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के तामिया ब्लॉक में स्थित पातालकोट मानो धरती के गर्भ में समाया है। तकरीबन 89 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली यह एक घाटी है जो सदियों तक बाहरी दुनिया के लिए अनजान और अछूती बनी रही। पातालकोट में 12 गाँव समाये हुए हैं ये गाँव हैं- गैलडुब्बा, कारेआम, रातेड़, घटलिंगा-गुढ़ीछत्री, घाना कोड़िया, चिमटीपुर, जड़-मांदल, घर्राकछार, खमारपुर, शेरपंचगेल, सुखाभंड-हरमुहुभंजलाम और मालती-डोमिनी। बाहरी दुनिया का यहाँ के लोगों से संपर्क हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है, इनमें से कई गावं ऐसे हैं जहां आज भी पहुँचना बहुत मुश्किल है, जमीन से काफी नीचे होने और विशाल पहाड़ियों से घिरे होने के कारण इसके कई हिस्सों में सूरज की रौशनी भी देर से और कम पहुँचती है, मानसून में बादल पूरी घाटी को ढक लेते हैं और बादल यहाँ तैरते हुए नजर आते हैं। इन सब को देख सुन कर लगता है कि मानो धरती के भीतर बसी यह एक अलग ही दुनिया हो। सतपुड़ा की पहाड़ियों में करीब 1700 फुट नीचे बसे ये गावं भले ही तिलिस्म का एहसास कराते हों लेकिन यहाँ बसने वाले लोग हम और आपकी तरह हांड-मांस के इंसान ही हैं, यह लोग भारिया और गौंड आदिवासी समुदाय के हैं जो अभी भी हमारे पुरखों की तरह अपने आप को पूरी तरह से प्रकृति से जोड़े हुए हैं, मुनाफा आधारित व्यवस्था और दमघोंटू प्रतियोगिता से दूर इनकी जरूरतें सीमित हैं, प्राकृतिक संसाधनों के साथ इनका रिश्ता सहअस्तित्व का है और अपनी  संस्कृति, परम्परा, जिंदगी जीने व आपसी व्यवहार के तरीके को भी इन्होनें अभी भी काफी हद तक पुरातन बनाया हुआ है बिलकुल सहज सरल और निश्छल। अगर उनके रहन–सहन, खान-पान, दवा-दारू की बात करें तो इस मामले में भी वे अभी भी काफी हद तक जंगल और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं लेकिन इधर बाहरी दुनिया से संपर्क और सदियों से उनके द्वारा संजो कर रखे गये प्रकृति से छेड़-छाड़ की वजह से अब वे संकट में दिखाई दे रहे हैं, दूसरी तरफ आधुनिक विकास भी उन तक नहीं पहुँची है और इससे होने वाले फायदे के दायरे से उन्हें  बेदखल रखा गया है।

पाताललोक को लेकर भले ही कई मिथक हों लेकिन यहाँ की समस्याएँ यथार्थ  हैं, वैसे तो देश के सभी हिस्सों की तरह यहाँ भी विकास की तमाम योजनाएं चल रही हैं लेकिन इसका लाभ ज़्यादातर लोगों तक पहुँच नहीं पाया है, 2007 में यहां पहला आंगनवाड़ी केंद्र खुला था, मध्यप्रदेश सरकार द्वारा स्थापित पातालकोट विकास प्राधिकरण की वजह से यहाँ स्कूली शिक्षा, आईसीडीएस, प्राथमिक स्वास्थ्य जैसी सेवाएँ पहुँच गयी हैं लेकिन कई सुविधायें अभी भी पहुँच से दूर हैं। गैलडुब्बा तक पक्की सड़क की वजह से यहाँ आना जाना आसान हो गया है लेकिन बाकि क्षेत्र अभी भी कटे हुए हैं, इसी तरह से इनकी खेती  परंपरागत और नये तरीकों के बीच ही उलझ कर रह गयी है, वे अपने पहले के फसलों से तकरीबन हाथ धो चुके हैं, नये नगदी फसलों से भी कोई खास फायदा नजर नहीं आ रहा है, इस तरह से  उनके पुराने खाद्य सुरक्षा तंत्र के बिखरने का असर पोषण पर पड़  रहा है जिसकी वजह से जानलेवा  कुपोषण वहां अपना पैठ बना चुकी है।

यहाँ पानी की समस्या गंभीर रूप धारण कर चुकी है, यहाँ के लोगों के लिए पानी का एकमात्र स्रोत पहाड़ों से निकलने वाली जलधाराएँ रही हैं। पहले इन जलधाराओं में साल भर पानी रहता था लेकिन अब अपेक्षाकृत ठंढे महीनों में भी यह सूख जाते हैं, यह सब जलवायु परिवर्तन और बाहरी हस्तक्षेप की वजह से हुआ है।  पातालकोट की जैविक विवधता, प्राकृतिक संसाधन और वन-संपदा खतरे में हैं। यहाँ की दुर्लभ जड़ी बूटियों पर लालची व्यापारियों की नजर पड़ चुकी है और वे इसका बड़ी बेरहमी से दोहन करना शुरू कर चुके हैं, अगर जल्दी ही इस पर रोक नहीं लगी तो पातालकोट का यह बहुमूल्य खजाना खत्म हो जाएगा।

स्वैच्छिक संस्था विज्ञान सभा 1997 से पातालकोट में वैज्ञानिक चेतना, स्वास्थ्य, आजीविका खेती आदि को लेकर काम कर रही है, संस्था के तामिया स्थित सेंटर के समन्वयक आरिफ खान बताते हैं कि विज्ञान सभा द्वारा यहाँ लोगों की आजीविका और स्वास्थ्य को लेकर काफी काम हुआ है, जिसमें लोगों को वैज्ञानिक तरीके से शहद निकालने की ट्रेनिंग दी गयी है, इसके लिए उन्हें पोशाक भी उपलब्ध कराए गये हैं, गैलडुब्बा सेंटर में शहद की हारवेस्टिंग के लिए मशीन भी लगाए गये थे, इसी तरह से वनोपज को लेकर भी उनमें यह जागरूकता लायी गयी है कि किस समय इन्हें तोड़ना चाहिए जिससे इनकी मेडिसिन वैल्यू खत्म ना होने पाए। इन उत्पादों को बेचने में भी संस्था द्वारा सहयोग किया जाता है।   

पिछले कुछ सालों से विज्ञान सभा द्वारा यूनिसेफ के साथ मिलकर बाल अभिव्यक्ति एवं सहभागिता को लेकर भी काम किया जा रहा है जिसका मकसद यहाँ के बच्चों में आत्मविश्वास, कौशल, अभिव्यक्ति और शिक्षा को बढ़ावा देना है और उन्हें एक मंच उपलब्ध कराना है जहाँ बच्चे अपने अनुभवों एवं विचारों को सामने रख सकें। इसके तहत बच्चों की रचनात्मक अभिव्यक्ति उभारने के लिए चित्रकलां, फोटोग्राफी, लेखन, विज्ञान से जुड़ाव आदि से सम्बंधित गतिविधियाँ आयोजित की जाती हैं, बच्चों के अभिव्यक्तियों को बाल पत्रिका ‘गुइयां’ में प्रकाशित भी किया जाता है। कुछ समय पहले ही यहाँ के गावों में ‘ज्ञान-विज्ञान पोटली’ (पुस्तकालय) की शुरुआत भी की गयी है जिससे यहाँ के बच्चों को किताबों और शैक्षणिक गतिविधियों से जोडा जा सके। पातालकोट में इन सब का प्रभाव भी देखने को मिल रहा है, आरिफ खान बताते हैं कि “पहले यह बच्चे बात करने में झिझकते थे अब वे खुल कर बात करने लगे हैं और अपनी आस पास की समस्याओं को भी वे चित्रों, फोटोग्राफी और लेखन के माध्यम से सामने लाने लगे हैं”।

यह बदलाव बच्चों में महसूस भी किया जा सकता है, उनकी रचनात्मकता तो बढ़ी ही है, हिचक भी टूटी है, एक नागरिक के तौर पर वे अपने अधिकारों के बारे में  भी जान और समझ रहे हैं, उनके सपनों के दायरे का भी विस्तार हुआ है, पिछले दिनों विज्ञान सभा के इसी तरह के एक फोटोग्राफी कार्यशाला में पातालकोट के गैलडुब्बा गावं जाने का मौका मिला, उस दौरान 26 जनवरी भी थी, लम्बे समय बाद देखने को मिला कि बच्चों के साथ बड़े भी गणतंत्र दिवस इतने उत्साह के साथ मना रहे है, बाद में लोगों ने बताया कि दरअसल इस क्षेत्र में 1997 में पहले स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को लेकर जागरूकता नहीं थी, जानकारी ना होने के कारण इसे मनाया भी नहीं जाता था, शायद इस वजह से यह लोग गणतंत्र दिवस की इतनी शिद्दत और उत्साह की तरह मना रहे थे। यह उत्सव एक तरह से स्थानीय और बाहरी दुनिया का फ्यूजन था। यह पांच स्कूलों का संयुक्त आयोजन था जहाँ गणतंत्र दिवस मनाने के लिए पातालकोट के आसपास के कई गावों के महिला, पुरुष और बच्चे इकठ्ठा हुए थे, दो दिन के इस आयोजन में पहले दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा दूसरे दिन खेल प्रतियोगिता का आयोजन किया गया, इस दौरान टेंट और साउंड सिस्टम की भी व्यवस्था थी, सांस्कृतिक कार्यक्रम में बड़ों से लेकर बच्चों तक भागीदारी की गयी, जिसमें परंपरागत सामूहिक नृत्य से लेकर “देश रंगीला” और “जलवा तेरा जलवा” जैसे गीतोँ पर परफॉरमेंस शामिल था । हर प्रस्तुति के बाद मंच संचालक लोगों द्वारा दिए गये इनाम का एलान भी करता जा रहा था, गणतंत्र दिवस का यह अनोखा उत्सव देखना एक सुखद अहसास था जहाँ उन्माद नहीं, खुशी थी और इस देशभक्ति में किसी के लिए भी नफरत नदारद थी।

फोटोग्राफी कार्यशाला में गैलडुब्बा के अलावा पातालकोट के अन्य गावों के बच्चे भी शामिल हुए थे. बच्चे अपने आसपास के माहौल जिसमें घर, पहाड़, नदियाँ, पेड़-पौधों की तस्वीरें कैमरे में कैद करके बहुत खुश नजर आ रहे थे, कई बच्चों की कैमरे से दोस्ती देखते ही बनती थी। यह बच्चे पातालकोट की पथरीली जमीन से बाहर भी जीवन के सपने देख रहे हैं, वे डाक्टर, नर्स ,फोटोग्राफर, वैज्ञानिक, टीचर, इंजीनियर, चित्रकार आदि बनना चाहते हैं। जाहिर है यह सपने बड़े हैं लेकिन यह बच्चे बाहरी दुनिया की भाषा और तौर तरीकों से अपने आप को अभिव्यक्ति करना सीख रहे हैं, उनके इस बदलाव के सपने में एक हिस्सा पातालकोट का भी हैं जिसमें वे यहाँ जीवन जीने के लिए बुनियादी सुविधायें उपलब्ध हों, साथ ही उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति में कहीं अवचेतन से यह भी निकल कर आ रहा है कि उनके पहाड़, जंगल, पेड़-पौधे यहाँ मिलने वाली वनोपज भी सलामत रहें जो की उनकी धरोहर है।
 
यक़ीनन से ही कोई शुरुवात होती है, उम्मीद कर सकते हैं पातालकोट के यह  जुगनू आने वाले समय में पातालकोट के घाटियों सहित देश के अलग अलग कोनों में अपनी चमक बिखेरेंगें।

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Friday, 12 February 2016 00:00

सन्दर्भ - वर्ल्ड रेड हैंड डे: हथियारबंद संघर्षों में बच्चों का इस्तेमाल

जावेद अनीस

कहने को तो हम अपने आपको  अभी तक के मानव इतिहास का सबसे सभ्य और विकसित समाज मानते है लेकिन दुनिया के एक बड़े हिस्से में  हम अक्सर  मानवता को शर्मशार कर देने वाली ऐसी छवियाँ देखते हैं जिस्में बच्चे अपने मासूम हाथों में बन्दूक, मशीनगन,बम  जैसे विनाशक हथियारों को उठाये हुए बड़ो कि लड़ाईयों को अंजाम दे रहे हैं। विश्व के कई देशों में चल रहे आंतरिक उग्रवाद, हिंसक आंदोलोन, आतंकवाद गतिविधियों  में  बड़े पैमाने  पर बच्चों का इस्तेमाल किया जा रहा है इनमें से ज़्यादातर को जबरदस्ती लड़ाई में झोंका जाता है। बड़ों द्वारा रचे गये  इस खूनी खेल  में बच्चों को एक मोहरे के तौर पर शामिल किया जाता है जिससे इस तरह के संगठन अपनी कारनामों को आसानी से अंजाम दे सकें। दूसरा मकसद शायद आने वाली पीढ़ी को अपने लक्ष्य के लिए तैयार करना भी होता है,एक अनुमान के मुताबिक आज पूरी दुनिया में  लगभग 2,50,000 बच्चों का इस्तेमाल विभिन्न सशस्त्र संघर्षों में हो रहा है। इनमें से भी करीब एक तिहाई संख्या लड़कियों की है ।दुनिया के जिन राष्ट्रों में यह काम प्रमुखता से हो रहा है उसमें उनमें, आफगानिस्तान, सीरिया, अंगोला, लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो, इराक, इजराइल,पिफलीस्तीन, सोमलिया, सूडान, रंवाडा, इंडोनेशिया, म्यामांर, भारत, नेपाल, श्रीलंका, लाइबेरिया, थाईलैंड और पिफलीपिंस जैसे देश शामिल हैं।

सशस्त्र संघर्षों में इस्तेमाल किये जा रहे बच्चों का जीवन बहुत ही खतरनाक और कठिन परिस्थितियों में बीतात है, यहाँ वे लगातार हिंसा के के साए में रहते हैं और  उन्हें हर समय गोली या बम के शिकार होने का खतरा बना रहता है ।  उनका जीवन बहुत कम होता है और वे छोटी उम्र में ही कई तरह की शारीरिक व मानसिक बीमारियों का के भेंट चढ़ जाते हैं। उनका लगातार यौन शोषण होता है और कई बच्चे एच.आई.वी. एड्स का शिकार भी हो जाते हैं । यह सब कुछ दुनिया की सबसे बड़ी पंचायत संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा बच्चों को दिये गये अधिकार के हनन की पराकाष्ठा है।ऐसा नहीं है दुनिया ने इसपर ध्यान ना दिया हो 12 फरवरी 2002 को संयुक्त राष्ट्र बाल-अधिकार कन्वेंशन में एक अतिरिक्त प्रोटोकोल जोड़ा गया था, जो सशस्त्र संघर्षों में नाबालिग बच्चों के सैनिकों के तौर पर उपयोग पर प्रतिबंध लगाता है, इसके बावजूद अभी भी नाबालिग बच्चों का सशस्त्र संघर्षों में भर्ती जारी है, बच्चों के सैनिक उपयोग की निंदा और इसके अंत के लिए हर साल 12 फरवरी को पूरी दुनिया में  में रेड हैंड डे  नाम से एक विशेष दिन मनाया जाता है। इस आयोजन का मकसद मकसद  दुनियाभर में कहीं भी हो रहे  बच्चों को सशस्त्र संघर्ष में शामिल करने का विरोध जताना है।

यह एक ऐसा चलन है जो बच्चों के साथ सबसे  क्रूरतम व्यवहार करता है, इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया के कई देश अपनी राष्ट्रीय सेनाओं में भी बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच ने 2010 में रिपोर्ट जारी की थी जिसके अनुसार म्यंमार की सरकारी सेना और सरकार विरोधी संगठनों के हथियारबंद दस्तों में 77 हज़ार बाल सैनिक काम कर रहे थे। श्रीलंका के तमिल टाईगर्स पर भी इस तरह के आरोप थे, तालिबान पर भी यह आरोप लगते रहे हैं कि वह अपने अपने कथित जिहाद में बच्चों का इस्तेमाल करतारहा है, और इसकी शुरुआत सोवियत-अफगान लड़ाई से हो गयी थी ,अफगान सेना के पूर्व कमांडर जनरल अतिकुल्लाह मरखेल ने कुछ वर्षों पहले बताया था कि "सोवियत संघ के साथ युद्ध में किशोरों और युवाओं को जबरदस्ती सेना में भर्ती कर उन्हें युद्ध के लिए धकेला गया था. तब उन्हें जिहाद के नाम पर तैयार किया जाता था." और यह कारनामा अपने आप को मानव अधिकारों का सबसे बड़ा दरोगा धोषित करने वाले मुल्क संयुक्त राज्य अमरीका के संरक्षण में अंजाम दिया गया था। वर्तमान में अतिवादी संगठन बोको हराम और आईएस जैसे संगठन बच्चों का अपहरण करने उनकी हत्या करने ,स्कूलों और अस्पतालों पर हमले करने के के साथ-साथ उनका अपने आतंकवादी गतिविधियों में उपयोग को लेकर कुख्यात है. पिछले कुछ दशकों से आत्मघाती हमलों में बच्चों और युवाओं की संलिप्ता बढ़ी है, गरीबी की मजबूरी और जन्नत के लालच में बच्चे और युवा जिहादी संगठनों चंगुल में फंस कर आत्मघाती हमलावर बनने के लिए तैयार हो जाते हैं। भारत के सन्दर्भ में बात करें तो संयुक्त राष्ट्र भारत में माओवादियों द्वारा बच्चों की भर्ती करने और मानव ढाल के तौर पर उनका इस्तेमाल करने को लेकर चिंता जाहिर कर चूका है । भारत के पूर्वतर राज्यों में भी सशस्त्र समूहों द्वारा बच्चों के इस्तेमाल की खबरें आती रही हैं। पिछले दिनों हिंदू स्वाभिमान संगठन द्वारादिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तरप्रदेश के इलाकों में इस्लामिक स्टेट से निपटने के नाम पर युवाओं और बच्चों की “धर्म सेना’ गठित कर उन्हें पारंपरिक हथियारों के प्रशिक्षण देने की खबर सामने आई थी।

सशस्त्र संघर्षों में लगाए गये बच्चों पर दोतरफा मार पड़ती है, हर देश का कानून   बच्चों की हथियारबंद संघर्षों में  भर्ती और उनके इस्तेमाल को एक अपराध तो मानता  ही हैं साथ ही साथ इन बच्चों को भी उसी नजर से देखता है। ऐसे में कई बार यह भी देखने को मिला है कि सरकारें  सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार बच्चों को वयस्कों के साथ हिरासत में रखती है और उनके खिलाफ किशोर न्याय तंत्र के तहत मामला नहीं चलाया जाता है जो कि एक तरह से उनके अधिकारों का उल्लंघन है।

यूनिसेफ़ के अनुसार  2015 में एक करोड़ साठ लाख से अधिक बच्चे युद्ध क्षेत्रों में पैदा हुए हैं और दुनियाभर में पैदा होने वाले हर आठ बच्चों में से एक बच्चा ऐसे क्षेत्रों में पैदा हो रहा है जहां हालात सामान्य नहीं हैं. इन युद्ध क्षेत्र में पैदा हो रहे  बच्चों की दयनीय स्थिति का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है, युद्ध और हथियारबंद संघर्ष वाले स्थानों पर बच्चे सबसे ज्यादा विपरीत परस्थितियों में रहने को मजबूर होते हैं, उनका भविष्य अनिश्चित होता है, ऐसे इलाकों में सशस्त्र गुट बच्चों को लड़ाई के तरीक़े सिखाकर उन्हें अपने खुनी संघर्ष में शामिल करते हैं ।

अगर हम बच्चों की सुरक्षा को लेकर गंभीर हैं तो हर साल  बच्चों को लड़ाकों के तौर पर इस्तेमाल करने का विरोध करने के लिए अन्तरराष्ट्रीय दिवस मानाने के साथ-साथ दुनिया के सभी मुल्कों को एकजुट होकर बच्चों को लड़ाई में झोंककर मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के इस चलन को रोकने के लिए ठोस कदम भी उठाने होंगें. बच्चों को इस क्रूर दुनिया से बहार निकलने के लिए जवाबदेही तय करना इसके लिए पहला कदम हो सकता है।

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जावेद अनीस

2014 का लोकसभा चुनाव संघ परिवार के लिए मील का पत्थर था, यह एक गेम-चेंजर साबित हुआ जिसमें ऐसी विचारधारा की जीत हुई थी जिसका सीधा टकराव भारत की बहुलतावादी स्वरूप से है। जीत के बाद तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसे ऐतिहासिक बताते हुए कहा था कि “इस जीत के बाद हम देश में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन लाने में सक्षम होगें”। विश्व हिंदू परिषद के दिवगंत नेता अशोक सिंघल ने तो इसे 800 वर्ष की दासता का अंत बताते हुए क्रांति करार दिया था और दावा करते हुए कहा था कि साल 2020 तक भारत हिंदू राष्ट्र बन जाएगा। सबसे दिलचस्प बयान संघ विचारक एम जी वैद्य का था जिसमें वे कहते हैं कि “चुनाव एक विशेष आयोजन है. मतदाताओं को आकर्षित करने हेतु किसी एक प्रतीक की आवश्यकता होती है. श्री नरेन्द्रभाई ने उसको पूरा किया है. यह प्रतीक फायदेमंद साबित हुआ है. ...लेकिन यह भी हमें समझना चाहिये कि नरेन्द्र भाई को इस प्रतीकावाद की मर्यादाओं का ध्यान है. वे संघ के प्रचारक रहे हैं और संघ की संस्कृति के मूल को समझते हैं वे प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं और शाश्वत, समयानुकूल और आपद्घर्म के बीच का अंतर जानते है”.

हालाकि इस जीत के लिए वायदे तो “अच्छे दिनों” के किये गये थे, लेकिन तथाकथित “विकास” का मुद्दा तो एक साल में ही किसी भी प्रतीक की तरह काफूर हो गया और सारे वायदे ताक पे रख दिए गये,इसकी जगह पर गाय, मंदिर, हिन्दू राष्ट्र, असहिष्णुता और संस्थानों के भगवाकरण जैसे मुद्दों को विमर्श के केंद्र में ले आया गया. यह एक ऐसा फरेब है जिसकी जड़ें “राष्ट्री य स्वसयंसेवक संघ” नाम के संगठन की विचारधारा में है जो बहुत ही अनौपचारिक तरीके से अपने नितांत औपचारिक कामों को अंजाम देता है. हालाकि बहुत ही खोखले तरीके से यह फर्क  करने की कोशिश भी हो रही है कि प्रधानमंत्री का फोकस तो केवल विकास से जुड़े मुद्दों पर है  और यह तो संघ परिवार से जुड़े कुछ सिरफरे हैं जो इस तरह के हरकतों को अंजाम दे रहे हैं. लेकिन यह केवल एक भ्रम ही है, नरेंद्र मोदी ना केवल एक समर्पित स्वयंसेवक है बल्कि बचपन से ही उनकी परवरिश संघ में हुई है. वह पूरी तरह से संघ के सांचे में बने और तपे हैं, इसलिए वे संघ के सपनों के भारत का निर्माण अनौपचारिक तरीके से ही करेंगें. यह एक ऐसा काम है जिससे देश का बुनियादी स्वरूप बदल सकता है, एम.जी.वैद्य जिस शाश्वत, समयानुकूल और आपद्घर्म को विवेक की बात कर रहे थे वह हिन्दुत्व है, ध्यान रहे हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म में फर्क है, हिन्दुतत्व धर्म नहीं धर्म का राजनीतिक प्रयोग है .पिछले सालों में सांप्रदायिक शक्तियों को जिस तरह से खुली छूट मिली है उससे अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना बढ़ी है. आने वाले सालों में अगर यह सब कुछ ठीक–ठाक तरीके से चलता रहा तो भारत की तस्वीर बदल सकती है. यह तस्वीर हमारे कट्टर और अशांत पड़ोसी मुल्क की अक्स होगी.   

असहिष्णुताओं भरा बीता साल
पिछले करीब उन्नीस महीनों में मोदी सरकार ने संघ ने हिन्दुत्व, मजहबी राष्ट्रवाद और पुरातनपंथी एजेंडे को बखूबी आगे बढ़ाया है. बीता साल 2015 तो बहुत उठा पटक वाला साल रहा है, लव जिहाद का झूठ, अल्पसंख्यकों को हिन्दू बनाकर उनकी तथाकथित ‘घर-वापसी', अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचारकों पर जानलेवा हमले, दूसरे विचारों के लिए जगह का लगातार सिकुड़ते जाना, गोमांस खाने का मात्र संदेह होने पर हत्या आदि ने ऐसा माहौल पैदा किया जिसे असहिष्णुता कहा गया. इसी तरह से कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने जब टीपू सुल्तान की जयंती मनाने का निर्णय लिया तो उस पर भी खूब हंगामा हुआ और टीपू सुल्तान जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा संभाला था, उन्हें एक क्रूर और हिन्दू विरोधी शासक के रूप में पेश किया गया.  
इन सबको देखते हुए हमारे राष्ट्रपति को कई बार यह याद दिलाना पड़ा कि बहुलता, विविधता और सहिष्णुता ही भारत के मूल्य हैं और इसमें हो रही गिरावट को रोका जाना चाहिए. माहौल इतना “असहिष्णु” हो गया कि लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवीयों को मोर्चा सँभालने के लिए आगे आना पड़ा. लेकिन इन सरोकारों पर कान धरने के बजाये खुद सरकार के ताकतवर मंत्री उलटे आवाज उठाने वालों के खिलाफ की मोर्चा सँभालते हुए दिखयी दिए. इन सब को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो हर मुद्दे पर बोलते रहने के लिए मशहूर हैं लंबे समय तक चुप्पी साधे रहे, बाद में उनका बहुत ही ढीला-ढाला बयान सामने आया.

टूटता खुमार
2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को उसकी उम्मीदों से बढ़ कर अकेले ही 280 से अधिक सीटें मिलीं थीं और इसके बाद उसने हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों को लगातार फतह किया था, इन सब से विपक्ष के खेमे में सन्नाटा पसरा था और वह पूरी तरह से पस्त था. लेकिन 2015 की कहानी बिलकुल ही अलग है. साल की शुरुआत में ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए. भाजपा द्वारा पूरी मशीनरी झोंक देने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पूरे केंद्रीय मंत्रिमंडल के दिल्ली विधानसभा चुनावों में लग जाने के बावजूद भी 70 सदस्यों वाली दिल्ली विधानसभा में भाजपा सिर्फ तीन सीटों पर सिमट कर रह गई. इसके बाद साल के आखिरी महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के धुंआधार प्रचार और संघ द्वारा अपनी पूरी ताकत झोंक देने के बाद भी बिहार की करारी हार ने तो जैसे मोदी लहर को शांत होने की घोषणा कर डाली. अब खुद भाजपा वाले मोदी लहर का नाम लेने से परहेज करने लगे हैं, इधर विपक्ष यह यकीन  करने लगा है कि मोदी को रोका भी जा सकता है. यह सब कुछ राजीव गाँधी की याद दिलाता है जिन्होंने 80 प्रतिशत सीटें जीत कर लोकसभा चुनाव की सबसे बड़ी जीत हासिल की थी और चंद सालों में अपनी चमक खोते गये. मोदी लहर हवाई उम्मीदों के टूटने से रुकी है, इस दौरान महंगाई पर रोक लगने की जगह इसमें बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है, रूपया लगातार गिर ही रहा है, पाकिस्तान के हमले जारी हैं, देश की अर्थव्यवस्था में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है, कालाधन वापस लाने को चुनावी जुमला करार दे दिया गया है, मनरेगा, इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम, इंटीग्रेटेड चाइल्ड प्रोटेक्शन प्रोग्राम, सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मील स्कीम, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और नेशनल ड्रिंकिंग वाटर प्रोग्राम जैसी सामाजिक कल्याण की योजनाओं में कटौती की वजह से ग़रीब और हाशिये रह रही जनता की परेशानी बढ़ी है.

चुनावी समीकरणों परे है उनकी राजनीति
वर्तमान में प्रधानमंत्री के साथ-साथ 11 राज्यों में मुख्यमंत्री भाजपा या सहयोगी दलों के हैं, 2019 तक कुल नौ राज्यों में विधान सभा होने वाले हैं और संभव है भाजपा इनमें से ज्यादातर  राज्यों में 2014 का धमाका न कर सके. लेकिन राजनीति मात्र चुनावी खेल नहीं है और यहाँ चीज़ें जैसी दिखाई देती हैं हमेशा वैसी होती नहीं हैं, भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अघोषित राजनीतिक विंग है, लेकिन मात्र यही आरएसएस की राजनीति नहीं है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सुबह उठकर लाठी भाजने वालों का संगठन नहीं है और जैसा कि राकेश सिन्हा कहते हैं कि ‘यह केवल झाल मंजीरा बजाने वाला सांस्कृतिक संगठन भी नहीं है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वर्तमान के किसी राजनीतिक पार्टी, सामाजिक संस्था या संगठन के ढांचे में फिट नहीं बैठता है इसलिये उसे समझने में हमेशा चूक कर दी जाती है’,आरएसएस के 80 से ज्यादा आनुषांगिक संगठन हैं जिन्हें संघ परिवार कहा जाता है, ये संगठन जीवन के लगभग हर क्षेत्र में सक्रिय हैं, यह सभी संगठन संघ की आइडीयोलोजी से संचालित होते हैं और इन्हीं के जरिये संघ परोक्ष रूप से हर क्षेत्र में हस्तेक्षप करता हैं. इन सभी संगठनों के प्रतिनिधि हर साल आयोजित होने वाले संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में शामिल होकर अपने कामों के बारे में जानकारी देते हैं. इस तरह से आरएसएस भारत की एक मात्र आइडीयोलोजिकल संगठन है जो चुनावी राजनीति सहित जीवन के सभी हलको में काम करती है.

अगर कोई संगठन इतने ग्रान्ड स्तर पर काम कर रहा है जो जाहिर सी बात है कि उसका  लक्ष्य भी ग्रान्ड ही होगा, संघ अपने आप को संपूर्ण समाज का संगठन मानता है ना कि समाज की किसी अंश का, इसे ध्यान से समझना होगा, समाज के अन्दर किसी वर्ग विशेष या गुट का संगठन करने हेतु संघ की स्थापना नहीं हुई है. उसका लक्ष्य तो खुद समाज बन जाना है. इस बात को और गहराई से समझने के लिए एम जी वैद्य के पास जाना होगा जो कहते हैं “यद्यपि राजनीति समाजिक जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं फिर भी वही सब कुछ नहीं है. इसलिये संघ की तुलना किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं हो सकती. संघ का हमेशा यह आग्रह रहता है कि हम एक सांस्कृतिक राष्ट्र हैं और स्वयंसेवकों को जिस किसी भी क्षेत्र में वे कार्य करते हैं, यह भूलना नहीं चाहिये और उनके सब प्रयास इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता को शक्तिशाली और महिमामंडित करने की दिशा में ही होने चाहिये इस संस्कृति का ऐतिहासिक नाम हिन्दू हैं”.

तथाकथित सांस्कृतिक (हिंदू) राष्ट्रवादी अल्पसंख्यकों को बाहरी और अपने हिंदू राष्ट्र के परियोजना के लिये अनफिट मानते हैं। वे अल्पसंख्यकों की अलग पहचान, संस्कृति को स्वीकार ही नहीं करते हैं और अल्पसंख्यक समूहों से यह उम्मीद करते हैं कि वे बहुसंख्यक (ब्राह्मणवादी) संस्कृति में ढल जायें।

आरएसएस के काम करने का तरीका भी बहुत अनौपचारिक है, जिसे सीधे तौर पर समझा नहीं जा सकता है, इसलिए हम देखते हैं कि इतने व्यापक स्तर पर सक्रिय रहने के बावजूद संघ बहुत आसानी से अपने किये या कहे से पलड़ा झाड़ लेता है, चंद महीने पहले ही जब संघ के मुखपत्र पाञ्चजन्य में दादरी में मारे गए अख़लाक़ की हत्या को यह कहकर जायज बताया कि ‘वेदो में लिखा है कि गौहत्या की सजा मौत है’ तो इसको लेकर बहुत हंगामा हुआ और सवाल उठाये गये। इसके तुरंत बाद हम देखते हैं कि संघ ने इस बात से यह कहते हुए अपना पलड़ा झाड़ लिया कि ‘पाञ्चजन्य उसका मुख्यपत्र नहीं है.’ इसी तरह से पिछले साल बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से ही कई हिंदूवादी संगठन गोडसे की विरासत को सम्मान देने की कोशिशों में जुट गए थे. पिछले साल नवम्बर में जब हिंदू महासभा ने नाथूराम गोडसे के मृत्यु को बलिदान दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की तो जानकार इसमें संघ परिवार की सहमती भी देख रहे थे, लेकिन जब इसकी चारों तरफ आलोचना होने लगी तो आरएसएस की तरफ से एक बयान आया जिसमें उसने कहा है कि नाथूराम गोडसे का महिमामंडन से हिंदुत्व का नाम खराब होगा.मालूम हो कि महात्मा गांधी की हत्या करने वाला नाथूराम गोडसे आरएसएस से जुड़ा था. हालांकि आरएसएस हमेशा से कहता आया है कि गांधी की हत्या के बहुत पहले ही गोडसे आरएसएस छोड़ चुका था. लेकिन आज तक आरएसएस अपनी बात की पुष्टि करने के लिए कोई सबूत नहीं दे पाया है.

असली अजेंडा
संघ परिवार के लोग अब यह नहीं कहते है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है, वे अब इसे स्वभाविक रूप से हिन्दू राष्ट्र बताने लगे हैं, पिछले दिनों सरसंघचालक मोहन भागवत कई बार यह दोहरा चुके हैं कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और हिन्दुत्व इसकी पहचान है जो कि अन्य (धर्मों) को स्वयं में समाहित कर सकता है। 26 नवंबर 2015 को संसद भवन में संविधान दिवस के आयोजन के मौके पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि “धर्मनिरपेक्षता” देश में सबसे ज्यादा गलत प्रयुक्त होने वाला शब्द बन चुका है, जिससे सामाजिक तनाव पैदा हो रहा है। उन्होंने आरएसएस विचारकों की पुरानी दलीलों को दोहराया कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द की कोई जरूरत नहीं है। इससे पहले कि 26 जनवरी 2015 के मौके पर मोदी सरकार ने जो विज्ञापन जारी किया था उसमें धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द गायब थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी धर्मनिरपेक्षता के बरअक्स ‘इंडिया फर्स्ट’ जैसे खोखले जुमले उछाल रहे हैं. आज भी आरएसएस-भाजपा के हिंदू राष्ट्रवाद के एजेंडे के लिए सबसे बड़ी बाधा धर्मनिरपेक्ष संविधान ही है जिसकी जड़ें राष्ट्रीय आंदोलन के मूल्य हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मूल विचारधारा ‘हिंदू राष्ट्र’ की ही है.जो विश्वास करती है कि हिंदू समाज इस देश का राष्ट्रीय समाज है. संघ मानता है कि हिन्दू अपने इस राष्ट्रीय पहचान को भूल गये हैं. इसलिए उन्हें इसकी पहचान कराना है. संघ के यही विचारधारा अल्पसंख्यकों को अलग पहचान को नकारते हुए उन्हें दोयम दर्जे का मानती है. यह वह मूल विचार संघ को  मुस्लिम और ईसाई विरोधी बनाती है. संघ के सिद्धांतकार गुरू गोलवलकर कहते हैं कि “वैसे तो भारत हिन्दुओं का एक प्राचीन देश है। इस देश में पारसी और यहूदी मेहमान की तरह रहे हैं परन्तु ईसाई और मुसलमान आक्रामक बन कर रह रहे हैं। मुसलमान और ईसाई भारत में रह सकते हैं परन्तु उन्हें हिन्दू राष्ट्र के प्रति पूरे समर्पण के साथ रहना पड़ेगा”.

भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में संघ की कोई भूमिका नहीं थी और यह मूल रूप से हिंदुओं को एकजुट करने के लिए शुरू हुआ था. इतिहासकार इरफान हबीब के अनुसार ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा,हमेशा से ही सिर्फ साम्प्रदायिक संगठन रहे हैं, न कि राष्ट्रवादी. इसलिए इतिहास में झाकने पर हम पाते हैं कि हमारे देश में जो मौजूदा लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संघात्मक ढांचा है, उसका संघ ने विरोध किया था। धर्मनिरपेक्ष राज्य का गोलवलकर ने यह कहते हुए विरोध किया था कि ‘असांप्रदायिक (धर्मनिरपेक्ष) राज्य का कोई अर्थ नहीं।’

स्वाधीनता आन्दोलन से उपजा भारतीय राष्ट्रवाद जो कि समावेशी और लचीला था नेपथ्य में चला गया है इसकी विरासत का दावा करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज इस स्थिति में ही नहीं है की वह इसे आगे ले जा सके, इसके बरअक्स पिछले कुछ दशकों से संघ परिवार अपने आप को राष्ट्रवादी और देशभक्ति के चोले में पेश करने में कामयाब रहा है, उनके इस राष्ट्रवाद का अर्थ है एक संस्कृति और एक मजहब का वर्चस्व और लक्ष्य है समाज को धर्म के आधार पर बाँट कर एकाधिकारवादी, अनुदार राज्य की स्थापना करना.

2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 साल पूरे हो रहे हैं. संघ के लोगों का मानना है कि  अगर दस साल तक मोदी सत्ता में रह जाएं तो 2025 में संघ के 100 साल पूरा होने तक  भारत के हिन्दू राष्ट्र बनाने में आसानी हो सकती है.

जो दावं पर रहेगा
2016 में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुडुचेरी जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इसलिए इस साल कई खेल खेले जायेंगें.भाजपा को सबसे ज्यादा उम्मीद असम और बंगाल से है. दिल्ली और बिहार में ब्रांड मोदी की चमक फीकी पड़ने के बाद अब ब्रांड मंदिर वापस लाया जा रहा है है. यूपी विधानसभा चुनाव को सिर्फ डेढ़ साल का वक्त बचा है। ऐसे में संघ परिवार देश के सबसे बड़े राज्य की सत्ता करने के लिए एक बार फिर धार्मिक उन्माद के भरोसे है। मोहन भगवत ने पिछले साल नवम्बर में बयान दिया था कि “उम्मीद है कि मंदिर मेरी जिंदगी में ही बन जाएगा। हो सकता है कि हम इसे अपनी आंखों से देख पाएं। ये कोई नहीं कह सकता कि कब और कैसे मंदिर बनेगा लेकिन इसके लिए हमें तैयारी भी करनी होगी और यदि मंदिर निर्माण में जान भी गंवानी पड़े तब भी हमे तैयार रहना चाहिए।“ महंत नृत्य गोपालदास ने तो दावा किया है कि उन्हें मोदी सरकार की तरफ से राम मंदिर निर्माण के 'संकेत' मिले हैं. इसके बाद केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा का बयान आता है जिसमें वे कहते हैं कि ‘मोदी सरकार अयोध्या में भव्य राम मंदिर के लिए संकल्पित है’. इधर विश्व हिन्दू परिषद से एक बार फिर मंदिर निर्माण के लिए पत्थर इकट्ठा करने की खबरें आ रही हैं. उत्तर प्रदेश को लेकर जिस तरह की तैयारी की जा रही है वह अच्छा संकेत नहीं है, आने वाले साल यू.पी. के लिए बहुत भारी साबित होने वाले हैं.  

लेकिन इससे पहले असम का चुनाव है जहाँ पिछले पंद्रह सालों से कांग्रेस की सरकार है, भाजपा को सबसे ज्यादा उम्मीद इसी राज्य से हैं, शायद इसीलिए असम के राज्यपाल पी बी आचार्य ने कई महीने पहले वहां के चुनाव का अजेंडा तय करने की कोशिश शुरू कर दी थी. पहले तो उन्होंने कहा कि ‘भारत तो हिंदुओं के लिए है और हिन्दू जहां कहीं भी प्रताड़ित हैं, वे भारत में शरण ले सकते हैं’ बाद में जब विवाद हुआ तो उन्होंने यह भी कह डाला कि ‘मुसलमान जहां कहीं जाना चाहें, जाने के लिए स्वतंत्र हैं’. दरअसल असम में बंगलादेशी घुसपैठ बहुत ही नाजुक मुद्दा है और जाहिर है भाजपा का इरादा इस संवदेनशील मुद्दे उछाल का चुनावी फायदा उठाने का है.

पश्चिम बंगाल में भी इसी साल चुनाव होने वाले हैं जहाँ भाजपा अपने लिए संभावनायें तलाश रही है, बंगाल चुनाव में एक बार फिर नेहरु को सुभाष चन्द्र बोस के खिलाफ खड़ा किया जाएगा, ध्यान रहे नेहरु जो कि आधुनिक भारत के प्रतीक हैं और जिनके बनाये गए मजबूत संस्थान आज भी हिन्दू राष्ट्र के रास्ते में सब से बड़े रोड़े हैं, इसलिए नेहरू से टकराने के लिए उनका कद घटाना जरूरी है। पश्चिम बंगाल बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है और अभी जो कुछ भी मालदा में घटा है उससे आने वाले दिनों में वहां पर साम्प्रदायिक विभाजन का खतरा बढ़ गया है.

जाहिर है चुनाव के दौरान इन राज्यों में सामाजिक तनाव बढ़ेगा, समुदायों के अविश्वास का माहौल पैदा होगा जिसका असर इन राज्यों तक ही सीमित नहीं रहेगा. लेकिन असली दावं तो भारतीयता और इस देश का बहुलतावाद सवरूप पर रहने वाला है. इस साल भगवाकरण की प्रक्रिया तेज होगी, पाठ्यक्रमों में मूलभूत परिवर्तन किया जाएगा, इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा जाएगा. नेहरु, महात्मा गाँधी,बाबा साहेब अम्बेडकर, सुभाष चन्द्र बोस, जैसे विभूतियों की छवि या तो ध्वस्त की जायेगी या उन्हें 'हिंदू आइकन' बनाकर पेश किया जायेगा. धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक और उदारवादी संस्थानों को कमजोर करने का चलन बढेगा और संघ की विचारधारा से जुड़े लोगों को इन पदों में भरा जायेगा जिसका उद्देश्य ऐसे तंत्र की स्थापना है जो संघ की विचारधारा के अनुकूल हो.

इस साल का उपयोग संघ की विचारधारा के अधिपत्य को स्थापित करने के लिए भी किया जायेगा, दरअसल संघ परिवार ने भले ही राजसत्ता हासिल कर ली हो लेकिन बौद्धिक जगत में उसकी विचारधारा अभी भी हाशिये पर है और वहां नरमपंथियों व वाम विचार से जुड़े लोगों का सिक्का चलता है. भाजपा जब सत्ता में आती है तो वह केवल इसी से संतुष्ट नहीं होते हैं, वह सत्ता के साथ अपने विचारधारा के अधिपत्य स्थापित करने के दिशा में भी काम करती है. जब बीजेपी कांग्रेस मुक्त भारत की बात करती है तो इसे इसके पूरे अर्थों में नहीं समझा जाता है, इसका मतलब केवल कांग्रेस को हटाना मात्र ही नहीं होता है बल्कि जनता के बीच एक नए  विचारधारा को स्थापित करना भी है. इस साल इस काम को और तेजी से किया जाएगा ताकि संघ की वैचारिक हिजेमनी को हर स्तर पर स्थापित किया जा सके. पिछले साल जब पूरे देश में असहिष्णुता को बहस चल रही थी तो भाजपा और उसके हिमायती रक्षात्मक होने के बजाये इसका बहुत ही आक्रमक तरीके से जवाब दे रहे थे, यहाँ तक की अनुपम खैर जैसे लोगों ने असहिष्णुता का विरोध करने वालों के खिलाफ सड़क पर मोर्चा निकला, विरोध कर रहे लेखकों की किताब वापसी के लिए अभियान चलाया गया. यह नया चलन था जो बौद्धिक स्तर पर संघ परिवार के बढ़े आत्मविश्वास को दर्शाता है.

राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान जो “आइडिया आफ इंडिया” सामने आये था और जिसे हमारे संविधान निर्माताओं ने आगे बढ़ाया था उसमें धार्मिक और अभिव्यक्ति की आजादी, सभी को सामान नागरिक मानते हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय देने की गारंटी शामिल है, यही एक राष्ट्र के तौर पर हमारी बुनियाद भी है, उनकी विचारधारा उन सभी मूल्यों के विपरीत है जो आज के भारत की नींव हैं। आज के भारत का मुख्य आधार संसदीय प्रजातंत्र हैं -एक ऐसी राजसत्ता, जिसका आधार धर्म नहीं है और जहाँ सभी को समान रूप से नागरिक मानते हुए कुछ मूलभूत अधिकार दिए गये हैं, अल्पसंख्यकों को अपनी पहचान बनाये रखने और उनके सुरक्षा की गारंटी दी गयी है। असली लडाई वैचारिक स्तर पर ही है, आने वाले सालों में भारत  धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाए रखने वालों और इसे हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने का मंसूबा पाले रखने वाले लोगों के बीच वैचारिक संघर्ष जारी रहेगा.

Tuesday, 26 January 2016 00:00

किशोर न्याय अधनियम में बदलाव के मायने

जावेद अनीस

दिसम्बर 2012 में दिल्ली में एक चलती बस में हुई बर्बर घटना में एक नाबालिग के शामिल होने के बाद से किशोर न्याय अधनियम में बदलाव को लेकर पूरे देश में एक बहस की शुरुआत हुई ,कानून के हिसाब से दोषी किशोर का ट्रायल जुवेनाइल कोर्ट में हुआ था, जहाँ हत्या और रेप के जुर्म में उसे तीन साल के लिए सुधार गृह भेज दिया गया था जो कि भारत के किशोर न्याय अधिनयम के हिसाब से अधिकतम मुद्दत है। 20 दिसंबर 2015 को यह समय सीमा पूरा होने से पहले एक बार फिर जुवेनाइल जस्टिस बिल में बदलाव की मांग ने एकबार फिर जोर पकड़ लिया, आरोपी के रिहाई को लेकर भी असमंजस्य की स्थिति बन गयी थी और मीडिया, राजनेताओं, महिला संगठनों और समाज के एक बड़े हिस्से द्वारा इसका विरोध किया जाने लगा. उसके रिहाई पर रोक के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट में अपील भी दायर की गयी. जिस पर अदालतों ने कानून का हवाला देते हुए रिहाई पर रोक लगाने से इनकार कर दिया. इसके बाद दोषी किशोर के रिहाई का रास्ता साफ़ हो गया. इसके साथ ही मीडिया और तथाकथित जनाक्रोश के दबाव की वजह से जुवैनाइल जस्टिस संशोधित बिल भी राज्यसभा में पारित हो गया है. लोकसभा में यह विधेयक मई 2015 में ही पास हो चुका है, राज्यसभा में लगभग सभी दलों ने इस बिल का समर्थन किया. सिर्फ सीपीआई (एम) ने इसके विरोध में वोटिंग से वॉक आउट किया. इस विधेयक में प्रमुख रूप से जघन्य अपराधों में लिप्त 16 से 18 आयुवर्ग के किशोरों वयस्कों की तरह ही सजा दिये जाने प्रावधान किया गया है.
इस संसोधन को लेकर समाज के एक हिस्से, बाल अधिकार कार्यकर्ताओं और सुधारवादियों की आपत्तियां भी रही हैं । उनका कहना था कि कानून का आधार “विधि विवादित बच्चों” का सुधार और पुनर्वास ही बना रहना चाहिए ना कि उनसे प्रतिशोध लेना’. जस्टिस जे.एस. वर्मा कमेटी भी किशोर अपराध के मामलों में आयु-सीमा घटाने के पक्ष में नहीं थी । इसको लेकर दिवंगत जस्टिस वर्मा ने कहा था कि “हमारे सामाजिक ढांचे की वजह से इसका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता”। इस बिल का परीक्षण करने वाली मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संसदीय स्थाई समिति ने भी 16 से 18 साल के बीच के नाबालिगों से वयस्क किशोरों के तौर पर पेश आने के सरकार के प्रस्ताव को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि इससे कानून के साथ संघर्ष की स्थिति पैदा होगी, समिति ने सरकार से 16 साल से अधिक उम्र के बच्चों के लिए अलग बर्ताव करने के प्रस्ताव की समीक्षा करने को कहा था और यह माना था कि 18 साल से कम उम्र के सभी नाबालिगों को सिर्फ बच्चे के तौर पर देखा जाना चाहिए।

नाबालिग होने के कारण कम सजा पाया यह किशोर आज शायद भारत में सब से ज्यादा नफरत किया जाने वाल व्यक्ति बन चुका है. मीडिया,नेताओं और समाज के एक बड़े हिस्से द्वारा उसकी रिहाई को इतिहास का काला दिन और सड़कों पर आतंक लौटने के रूप में व्याखित किया गया. जैसा की हमारी मीडिया ज्यादातर मामलों में करती है, उसने इस मामले को भी शुरू से ही सनसनीखेज तरीके से पेश किया, पहले कुछ अपुष्ट ख़बरों के हवाले से यह बताया गया था कि इस दर्दनाक काण्ड में किशोर ही सबसे बर्बर था, हालाकि इस केस की जांच कर रही टीम ने इसे गलत बताया. इसके बाद यह मांग उठी कि इस किशोर के साथ बड़ों जैसा सलूक हो. कई लोग तो यह तक कहने लगे कि उसे सावर्जनिक रूप से फांसी लगा देनी चाहिए या भीड़ के हवाले कर देना चाहिए जिससे इन्साफ किया जा सके. सोशल मीडिया पर तो इस पूरे मामले को अलग ही रंग देने की कोशिश की गयी,जिसमें आउटलुक में प्रकाशित अलक़ायदा से जु़ड़े एक आतंकी की तस्वीर को निर्भया मामले में दोषी किशोर के रूप में पेश करते हुए उसका नाम अफ़रोज़ बताया गया, अव्वल तो किसी विधि-विवादित नाबालिग का पहचान इस तरह से सामने लाना ही कानूनन गलत है, यहाँ तो उसको मजहब का भी खुलासा किया जा रहा है ,कुल मिलकर इस कवायद की मंशा किसी एक व्यक्ति गुनाह के बहाने पूरी क़ौम को कठघरे में खड़ा करने की रही है । फिर जिस तरह से निर्भया की मां को आगे रख कर उन्मादी अभियान चलाया गया उसके पीछे पीछे कौन लोग थे और उनका क्या स्वार्थ था ? जैसे जैसे निर्भय काण्ड में शामिल इस किशोर के रिहाई के दिन पास आ रहे थे, मीडिया द्वारा एक बार फिर अप्रमाणित श्रोतों के माध्यम से इस तरह की खबरें दी जाने लगीं की कि ‘आईबी के एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दोषी किशोर सुधार गृह में दिल्ली विस्फोट मामले में गिरफ्तार किए गए एक अन्य जुवेनाइल के साथ रहकर कट्टरपंथी हो गया है’, अगर इस खबर को सही भी मान लिया जाये तो सबसे पहले सवाल यह उठता है कि सुधार गृह में रहने वाला किशोर सुधरने के बजाये और बिगड़ कैसे गया? यह किसकी विफलता है? इसकी जिमेदारी कौन लेगा? इतने बहुचर्चित मामले के जुवेनाइल कट्टरपंथी बन सकता है तो अन्य जुवेनाइल दोषियों की हालत क्या होगी? और फिर कानून बदल कर उस जैसे किशोरों को बड़ों के साथ जेल में रखा जाएगा तो वे क्या बन कर निकलेंगें ? इस तरह से तो हम हर साल हजारों के संख्या में किशोरों को कट्टर अपराधी बनाने के लिए जेल भेज रहें होंगें.

हमारे देश में किशोर अपराध के पुनर्वास में जबरदस्त खामियां है, इस केस ने हमें मौका दिया था कि इन खामियों को बाहर लाकर उन्हें दूर करते लेकिन निर्भया कांड के बाद बने जनमत द्वारा कानून में ही बदलाव को लेकर मांग की जाने लगी, बदलाव के पक्ष में कई तर्क दिए गये, जैसे आजकल बच्चे बहुत जल्दी बड़े हो रहे हैं, बलात्कार व हत्या जैसे गंभीर मामलों में किशोर होने की दलील देकर “अपराधी” आसानी से बच निकलते हैं और पेशेवर अपराधी किशोरों का इस्तेमाल जघन्य अपराधों के लिए करते हैं, उन्हें धन का प्रलोभन देकर बताया जाता है कि उन्हें काफी सजा कम होगी और जेल में भी नहीं रखा जाएगा आदि, इन्ही तर्कों के आधार पर यह मांग जोरदार ढंग से रखी गयी कि किशोर अपराधियों का वर्गीकरण किया जाए, किशोर की परिभाषा में उम्र को 16 वर्ष तक किया जाए ताकि नृशंस अपराधियों को फांसी जैसी सख्त सजा मिल सके। शायद इसी जनमत और राजनीतिक नफे – नुक्सान को देखते हुए राज्यसभा ने भी किशोर न्याय (संशोधन) विधेयक पारित कर दिया गया इस विधेयक में जघन्य अपराध करने वाले 16-18 आयुवर्ग के किशोरों पर वयस्कों की तरह मुकदमा चलाए जाने के प्रावधान किये गये हैं. जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड को को यह तय करने की जिम्मेदारी दी गयी है कि किसी बच्चे पर वयस्क की तरह मुकदमा चलाया जाना चाहिए या नहीं. लेकिन किशोर न्याय व्यवस्था का किर्यान्वयन ही तो हमारी सबसे बड़ी समस्या है , बाल सुरक्षा के लिए काम करने वाली संस्था “आंगन” के एक रिपोर्ट किशोरे न्याय व्यवस्था की कार्यशाली और संवेदनहीनता को रेखांकित करती है जिसमें एक तिहाई बच्चों ने बताया कि पेशी के दौरान बोर्ड उनसे कोई सवाल नहीं पुछा और ना ही उनका पक्ष जानने का प्रयास किया। कई बच्चे का कहना था कि पूरे पेशी के दौरान बोर्ड के सदस्यों ने हम पर एक नजर डालने की भी जहमत भी नहीं की । एक संभावना कानून के दुरूपयोग की भी है ,आंकड़े बताते हैं कि 80 % “विधि विवादित बच्चे” ऐसे गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं जिनके परिवारों की वार्षिक आय 50 हजार रुपये के आस-पास होती हैं। हमारे पुलिस की जो ट्रैक- रिकॉर्ड और कार्यशैली है उससे इस बात की पूरी संभावना है कि इस बदलाव के बाद इन गरीब परिवारों के बच्चे पुलिस व्यवस्था का सॉफ्ट टारगेट हो सकते हैं और इन पर गलत व झूठे केस थोपे जा सकते हैं। ऐसे होने पर गरीब परिवार इस स्थिति में नहीं होंगें की वे इसका प्रतिरोध कर सकें ।

सुधार पर आधारित एक किशोर न्याय व्यवस्था तक पहुँचने में हमें लम्बा वक्त लगा था . 1989 में बच्चों के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र का दूसरा अधिवेशन हुआ जिसमें लड़का-लड़की दोनों को 18 वर्ष में किशोर माना गया. भारत सरकार ने 1992 में इसे स्वीकार किया और सन् 2000 में 1986 के अधिनियम की जगह एक नया किशोर न्याय कानून बनाया गया. 2006 में इसमें संशोधन किया गया .यह सही है कि किशोर न्याय अधिनियम के तहत बच्चों की उम्र 18 साल करने के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं. इसके दुरुपयोग से भी इनकार नहीं किया जा सकता है, जघन्य अपराधों में किशोरों के इस्तेमाल के मामले सामने आये हैं लेकिन यह तो कोई हल नहीं होगा कि एक ऐसे प्रगतिशील कानून को जिसे हमने अपने ही बच्चों के हित में बनाया है अगर ठीक से लागू नहीं कर पा रहे हैं तो उसे बदल ही डालें, बेहतर तो यह होता कि पहले हम उसे लागू करने की दिशा में आ रही रुकावटों को तो दूर करते. हम हर मामले में अमरीका के माँडल को कॉपी करके अपने आप को धन्य मान लेते हैं भले ही वह कितना भी कचरा क्यूँ ना हो, पूरी दुनिया में अमरीका और सोमालिया केवल दो मुल्क ऐसे हैं जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। अमरीका और इग्लैंड जैसे मुल्क भी यह मानने लगे है कि किशोर अपराध पर लगाम लगाने के लिए कड़े प्रावधानों की व्यवस्था अप्रभावी साबित हुई है, अमरीका में किशोर न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए चलाए जा रहे अभियान,“नेशनल कैम्पेन टू रिफार्म स्टेट जुवेनाइल सिस्टम” के अनुसार वहां बड़ों के जेलों में रहने वाले 80% किशोर जेल से वापस करने के बाद और ज्यादा गंभीर अपराधों में संलिप्त हो जाते हैं. हमें इससे सबक लेते हुए अपनी निष्क्रिय और चरमराई किशोर सुधार व्यवस्था को बेहतर बनाना होगा, इसके दुरूपयोग के संभावनाओं को सीमित करते हुए ऐसे मजबूत व्यवस्था का निर्माण करना होगा जहाँ “विधि विवादित बच्चों” को सजा नहीं बल्कि सुधार और पुनर्वास का मौका मिल सके.सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरे देश के बाल सुधार ग्रहों की स्थिति के अध्ययन के लिए न्यायाधीश मदन बी. लोकर की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गयी थी, जिसकी रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के सरकारी बाल सुधार गृहों में रह रहे 40% “विधि विवादित बच्चे” बहुत चिंताजनक स्थिति में रहते हैं, इन बाल सुधार गृहों की हालत वयस्कों के कारागारों से भी बदतर है. कमेटी के अनुसार बाल सुधार गृहों को “चाइल्ड फ्रेंडली” तरीके से चलाने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जा रहे हैं।

यह हमारी सामंतवादी सनक है जो हमसे न्याय के लिए अपराधी के साथ क्रूरतम बदला लेने की मांग करती है, हमारा राजनीतिक नेतृत्व और मीडिया में यह साहस ही नहीं है कि वह तथाकथित जनभावनाओं के खिलाफ जा सके, दरअसल वे खुद इन जनभावनाओं के परजीवी बन गये है, यह एक खतरनाक प्रवृति है जो अंततः हमें अराजकता की तरफ ले जा सकती है, क्योंकि यह जनभावनायें पहले ही हमारे राजनीति, मीडिया और कार्यपालिका पर हावी हो चुकी है,एक न्यायपालिका ही इससे बची है, अगर यह भावना उस पर भी हावी हो जायें तो स्थितियां गंभीर हो सकती हैं, भारत विविधताओं से भरा देश है इसलिए हमें कितना भी पसंद-नापसंद हो या कैसा भी जनदबाव हो यह सुनाश्चित करना होगा कि कानून से ऊपर कुछ नहीं हो सकता है.
इस बात में कोई शक नहीं कि दिल्ली गैंगरैप तथा इस तरह की दूसरी वीभत्स और रोंगटे खड़ी करने घटनाओं में किशोरों की संलिप्तता एक गंभीर मसला है, लेकिन क्या इस मसले में एक देश और समाज के रूप में हमारी कोई भूमिका नहीं है ? इस तरह के अमानवीय घटनाओं के शामिल होने वाले बच्चे/किशोर कहीं बाहर से तो आते नहीं हैं, यह हमारा समाज ही है जो उन्हें पैदा कर रहा है, इसलिए गंभीर अपराधों में शामिल किशोरों को कड़ी सजा देने से ही यह मसला हल नहीं होने वाला, बाल अपराध एक सामाजिक समस्या है, अतः इसके अधिकांश कारण भी समाज में ही विद्यमान हैं,एक राष्ट्र और समाज के तौर में हमें अपनी कमियों को देखना चाहिए और जरूरत के हिसाब से इसका इलाज भी करना पड़ेगा. कड़ी सजा देना आसन है और पुनर्वास मुश्किल, दुर्भाग्य को हम ने आसान को चुन लिया है.

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