जावेद अनीस
देश की राजधानी दिल्ली में डॉक्टर पंकज नारंग की मामूली झगड़े के बाद जिस तरह पीट-पीटकर हत्या कर दी गयी वह दहला देने वाला है, इस हत्या को अंजाम देने वालों में चार नाबालिग भी थे. यह हमारे समाज के लगातार हिंसक और छोटी-छोटी बातों पर एक दूसरे के खून के प्यासे होते जाने का एक और उदाहरण हैं लेकिन इस दुखद हत्या के बाद जिस तरह से इसे पहचान आधारित अपराध का रंग दिया गया और इसके बुनियाद पर धार्मिक उन्माद पैदा करने की कोशिश की गयी वह बहुत ही घातक है, अब हम ऐसे दौर में पहुँच गये हैं जहाँ अपराधों का भी समुदायिकरण होने लगा है और हमारी सियासत व समाज के ठेकेदार आग को बुझाने की जगह उसमें घी डालने का काम कर रहे हैं और उन्हें जहाँ भी मौका मिलता है अवाम को बांटने की अपनी कोशिशों में लग जाते हैं. तो क्या समाज के तौर पर भी हम इतने बौने और खोखले हो चुके हैं कि अपने ही बनाये खुदाओं के एक इशारे पर आपसी भिडंत के लिये तैयार हो जाते है बिना ये सोचे समझे कि आखिरकार इसका खामियाजा सभी को मिलजुल कर ही साँझा करना होगा.
इस दौर में सोशल मीडिया जन संवाद के एक जबरदस्त माध्यम के रूप में उभरा है, जहाँ यह लोगों के आपस में जुड़ने का एक मजबूत मंच है तो दुर्भाग्य से इसे नफरतों और अफवाहों को बांटने का ई-चौपाल भी बन दिया गया है, कभी-कभी तो लगता है सोशल मीडिया ने हमारे समाज की पोल खोल दी है और वहां अन्दर तक बैठे गंद को सामने ला दिया है. पिछले कुछ सालों में दंगे, झूठ और अफवाहों को फैलाने में इस माध्यम का जबरदस्त इस्तेमाल देखने को मिला है. डॉक्टर पंकज नारंग के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ है. इस मामले में भी धर्म, वर्ग और क्षेत्रीयता के आधार पर अफवाह फैलाने की कोशिश की गयी,बहुत ही सुनियोजित तरीके से व्हाट्स एप, फेसबुक और ट्विटर पर कई तरह के सन्देश वायरल किये गये जिसमें कुछ लोगों का कहना था कि इस काम को झोपड़पट्टी वालों ने अंजाम दिया है और वे अनपढ़ और अपराधी किस्म के लोग होते हैं जिनके रहते हम सुरक्षित नहीं हैं तो कई लोगों ने हमलावरों को बांग्लादेशी और मुसलमान के रूप में प्रचारित किया.
लेकिन इन सबके बीच नारंग परिवार और पुलिस की भूमिका बहुत सराहनीय रही है. अफवाहों के बाद डॉ पंकज नारंग के भतीजे तुषार नारंग सामने आये और उन्होंने फेसबुक सन्देश पोस्ट करते हुए लिखा कि “किसी भी परिवार के लिए किसी भी सदस्य की मौत बहुत ही दुखद होती है, यह दुख तब और भी बढ़ जाता है जब मौत को राजनीतिक मुद्दा बना दिया जाता है, इस मौत का कारण सांप्रदायिक मतभेद बताया है क्या इस तरह की झुठी अफवाह फैलाना सही है, जिम्मेदार बनिये जब सब ये जानते है कि हिन्दु-मुस्लिम मुद्दा कितना नाजुक है”.
इस मामले में दिल्ली पुलिस के अधिकारियों की भूमिका भी उम्मीद बधाने वाली रही है. इस मामले में एडिशनल डीसीपी मोनिका भारद्वाज के ट्वीट ने अफवाहों के ज्वार को थामने का काम किया है. उन्होंने जब यह खुलासा किया कि अरेस्ट किए गए 9 आरोपियों में से 5 हिंदू हैं और अरेस्ट किया गया मुस्लिम आरोपी यूपी का रहने वाला है ना कि बांग्लादेश से” तो अफवाह फैलाने वालों के मंसूबे धरे रह गये और जिस तरह से उन्होंने सामने आकर लोगों से इस घटना को सांप्रदायिक रंग न देने और शांति बनाए रखने की अपील की है उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है. इसी तरह से दिल्ली पुलिस के ज्वाइंट कमिश्नर का बयान कि “अफ़वाह फैलाने वालों पर कार्रवाई होगी” भी असरदार रहा. एक तरह से इन संवेदनशील और मुस्तैद अधिकारियों ने दिल्ली को दंगों की आग से बचा लिए जिसमें कई लोगों की जान भी जा सकती थी.
कायदे से होना तो यह चाहिए था कि मोनिका भारद्वाज जैसे पुलिस अधिकारी या तुषार नारंग जैसे नागरिक को सावर्जनिक सम्मान किया जाता और समाज इन्हें अपना नायक बनाता जिन्होंने 'खुराफाती दंगाईयों को मात देने का काम करते हुए समाज में अमन और भाई-चारा बनाये रखने की मिसाल कायम की हैं जिसकी हमें आज सबसे ज्यादा जरूरत है. लेकिन हुआ इसका उल्टा है, सोशल मीडिया पर मोनिका भारद्वाज को निशाना बनाया गया है और उन्हें गन्दी व भद्दी गालियां का सामना करना पड़ा है,उनके उनके पोस्ट के जवाब में उन्हें गाली-गलौज से नवाजा गया.
संयोग से डाक्टर पंकज नारंग के हत्यारों में दोनों समुदायों के लोग शामिल हैं और ये लोग बांग्लादेशी नहीं हैं,कल्पना कीजिये अगर ये केवल मुस्लिम या बांग्लादेशी होते तो क्या होता? दरअसल विविधताओं से भरे इस देश में एक दूसरे के हम सॉफ्ट टारगेट बना दिए गये हैं,यह एक ऐसा खेल हैं जहाँ हम सब कठपुतलियां हैं,इस खेल में कोई भी सुरक्षित नहीं है सिवाए उनके जो इसके सूत्र धार हैं. पूरे देश को एक ऐसे बारूद के ढेर पर बैठाने की कोशिश हो रही है जिसे जब चाहे फोड़ा जा सके, ऐसे माहौल में कोई देश कितना मजबूत हो सकता है? इन परिस्थितियों में जॉन एलिया की दो लाईनें सटीक बैठती हैं
“अब नहीं कोई बात खतरे की
अब सभी को सभी से खतरा है”