अतुल गौड़
आधुनिक दौड़ में विकास की अंधी प्रतिस्पर्धा में हर कोई बस भागना चाहता है। एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ इतनी भयंकर है कि नुकसान क्या हो रहा है और दरअसल मूल क्या छूट रहा है इसका किसी को अंदाजा ही नहीं है। हर वह शख्स जो जिंदगी से विकास का नाता लिए तेजी से बढऩा चाहता है वह यह तो बखूबी जानता है कि मोबाइल बिना रिचार्ज के नहीं चलता, लेकिन जब वहीं इंसान जिंदगी को रफ्तार से जोडऩे के लिए जी-तोड़ भागने की कोशिश करता है तो भूल जाता है कि धरती भी रिचार्जिंग मांगती है। पर्यावरण का बेतहाशा दोहन करने के बाद आज इंसान इस परिस्थिति में आकर खड़ा हो गया है कि अपने आप को कहीं न कहीं बेवस और लाचार समझता है।
दरअसल वह भूल गया था कि उसके वास्तविक आधार उसका पर्यावरण, उसकी धरती और जलवायु ही है। कहते हैं कि सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते, लेकिन देश में ऐसे कितने भूले हैं जो शाम को घर वापस आकर अपनी गलती सुधार लेंगे ? दरअसल विकास करना कोई बुरी बात नहीं है और यहां यह भी नहीं कहा जा रहा कि विकास के लिए भागना या प्रतिस्पर्धा करना गलत है, लेकिन सिर्फ विकास के लिए प्रतिस्पर्धा करते रहना और आसपास नफे-नुकसान को न देखना-टटोलना हमारी सबसे बड़ी गलती साबित हो सकती है।
भारत आने वाले कुछ दिनों में भयंकर पानी के संकट वाला देश बनने जा रहा है, ऐसे में विकास की तेजी के साथ हमारी ये दौड़ हमारे किस काम आएगी यह शायद अभी कोई नहीं बता सकता। कई तरह की जो जानकारियां सामने आईं हैं उसमें आने वाले कुछ सालों में भारत एक जलसंकट वाला देश बनने जा रहा है। देश की जलवायु में आमूलचूल परिवर्तन देखा गया है। दोपहर और रात के तापमान में वृद्धि दर्ज की जा रही है। गर्म दिनों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। बादलों का बरसना लगातार कम होता जा रहा है। पेड़ जंगलों से गायब होते जा रहे हैं, पहाड़ काटे जा रहे हैं, नदिया सिकुंड़ती जा रही हैं और प्राकृतिक जल स्त्रोत एक के बाद एक अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं।
हर तीसरे या चौथे वर्ष या दो वर्षों तक लगातार सूखा पडऩे की स्थिति पैदा हुई है और सूखा पैदा हुआ है। अगर हालात यही रहे तो देश के कई ऐसे हिस्से हैं जो लातूर की तरह नजर आएंगे। पानी की ट्रेन खबरों में बनी तो यही ट्रेन कहां से और कैसे इन हिस्सों में पहुंचाई जाएगी यह भी अभी कोई नहीं बता सकता। लातूर दोबारा कहीं और न बने इसके लिए अब से अभी से कमर कस लेनी होगी और भारतवासी को विकास की इस प्रतिस्पर्धा में भाग लेने के साथ-साथ अपने पर्यावरण, जल, नदिया, तालाब, पहाड़ और जंगलों की न केवल भली-भांति देखभाल करनी होगी बल्कि इनमें इजाफा भी करना होगा।
खास बात यह है कि इस धरती को किसी भी तरह से रिचार्ज करने की आदत डालनी होगी। तभी विकास की सही परिभाषा कही जा सकती है और तभी असल मायने में विकास किया जा सकता है। नदियों को जोडऩे की योजना अच्छी है, लेकिन कहां है? न किसे पता है न कोई हलचल। खैर प्रकृति अगर बोलती, चिल्लाती और बात करती तो सबकुछ आसानी से समझ आता, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि वह अपनी भाषा में जब भी चेतावनी देती है लोग बेवजह हताहत होते हैं और उससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उसकी चेतावनी को फिर अंदेखा कर बचे हुए लोग विकास की प्रतिस्पर्धा में भागे चले जाते हैं। वो बेचारी चिल्लाती, चेताती रहती है पर उसकी कोई नहीं सुनता।
पिछले कुछ समय में लगातार भूकंपों का आना, जापान से लेकर इक्वाडोर, नेपाल आदि में क्या कुछ हुआ कौन नहीं जानता। यह प्रकृति की चेतावनी नहीं तो आखिर क्या है? देश के लगभग 9 राज्य इस समय सूखे के हालातों से गुजर रहे हैं और यह देश देख रहा है जहां पानी है उस इलाके का इंसान भले ही आज खुश हो, लेकिन वह भूल रहा है कि कदम उसकी तरफ बढ़े हैं, आकर ही दम लेंगे गर हम यूं ही अंधे होकर दौड़ते रहेंगे। कहते हैं की बूंद-बूंद से सागर बनता है तो फिर बूंद-बूंद की बचत करने की हमारी आदत कब बनेगी। जब भी गर्मी आती है हम पानी को लेकर सहजता से थोड़े गंभीर हो जाते हैं। गर्मी निकलते ही पानी की जो बर्वादी का तमाशा मैंने और आपने देखा है उसे देखकर यही लगता है कि जब इंसान आंखों पर पट्टी बांधे हुए ऐसे हैं तो फिर सूखा ही अच्छा है, लेकिन मानवता के नाते यह बद्दुआ देना भी अच्छा नहीं है। अच्छा तो यह है कि इंसान होने का हक अदा कीजिए। प्यास गर बाकई बुझानी है तो धरती को रिचार्ज कीजिए।
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और इलैक्ट्रोनिक एवं प्रिंट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार हैं।