भारत के ग्रामीण और शहरी दोनों स्थानीय निकायों को 2010 से 2015 के बीच धन की भारी कमी झोलनी पड़ी। खासतौर से 2011 और 2012 में आर्थिक सुस्ती के दौरान तो इन्हें धन के लिए कुछ ज्यादा ही तरसना पड़ गया था। स्थानीय निकायोंे को जहां आधी स्वीकृत राशि मिलती थी, वहीं इनका भुगतान भी समय पर नहीं होता था। यह खुलासा नई रिपोर्ट से हुआ है।
केंद्रीय अनुदान शहरी और ग्रामीण स्थानीय निकायों की जीवन धारा होती है। इसी के सहारे गांवों और शहरों में मौलिक जनहित सेवाएं प्रदान की जाती हैं। लेकिन केंद्र से पैसे नहीं मिलने के पीछे स्थानीय निकायों की कमियां भी बहुत हद तक जिम्मेवार हैं। स्थानीय निकायों का चुनाव नहीं होना, धन को ठीक से नहीं संभालना और दस्तावेज दुरुस्त नहीं रखना अनुदान नहीं मिलने के प्रमुख कारण हैं।
इकोनॉमिक और पॉलिटिकल वीकली पत्रिका में इंदिरा राजारमण और मनीष गुप्ता द्वारा लिखित 'प्रिजर्विग दी इनसेंटिव ऑफ स्टेट्यूटरी ग्रांट्स' शीर्षक से छपे लेख में कहा गया है कि स्थानीय निकाय स्थायी विकास को मूर्त रूप देने का मुख्य अंग है। लेकिन इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को बहुत कुछ करना है। क्योंकि पानी और स्वच्छता से संबंधित आंकड़े अच्छी तस्वीर नहीं पेश कर रहे हैं। राजारमण 13वें वित्त आयोग के सदस्य थे जबकि मनीष गुप्ता आयोग में उप निदेशक हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार भारत के 30 प्रतिशत गांवों और 70.60 प्रतिशत शहरों में ही नल का पानी उप्लब्ध होता है। केवल 6 प्रतिशत गांवों और 44 प्रतिशत शहरों में ही बंद नालियां बनी हुई हैं। इतना ही नहीं भारतीय शहरों में सिर्फ 30 प्रतिशत गंदे नाले ही ट्रीटमेंट प्लांट होकर गुजरते हैं।
ऐसा इसलिए है कि स्थानीय निकायों को धन की कमी झेलनी पड़ रही है। 13वें वित्त आयोग ने स्थानीय निकायों के लिए जारी कुल राशि में दो तिहाई बिना शर्त और एक तिहाई को निकायों की उपलब्धि से जोड़ दिया था। लेकिन धन लेने के लिए स्थानीय निकायों के चुनाव को अनिवार्य बना दिया। चूंकि धन उनके कार्यकाल के लिए मिलता था इसलिए केंद्र से राशि जारी होने के बाद पांच दिनों के भीतर निकायों को हस्तांतरित करने का प्रावधान था।
फिर भी निकायों को इन पांच वर्षो में छह फीसदी कम राशि मिली। 2011-12 में तो यह बढ़ कर दोगुनी से भी ज्यादा हो गई थी। केवल कुछ ही राज्यों के स्थानीय निकायों को ही पांच वर्षो में पूरी राशि मिली। केवल आठ राज्य ही समय पर चुनाव करा पाए और शेष राज्यों के निकायों को एक साल तक कोई अनुदान नहीं मिला और वे पहले की राशि भी दूसरे कार्यकाल के लिए नहीं सौंप सके।
इस पर राजारमण कहते हैं कि इस तरह की प्रशासनिक अयोग्यता तब है जब प्रक्रिया जटिल नहीं है। कुछ राज्यों की नौकरशाही के पास तो केंद्रीय नौकरशाही से व्यवहार करने की योग्यता भी नहीं है।
राजरमण ने कहा, "सारी शर्तो को पूरा करने करने बावजूद केंद्र से धन निर्गत कराने का भी कौशल होना चाहिए।" उन्होंने कहा कि केवल कर्नाटक, ओडिशा, राजस्थान, हरियाणा और तमिलनाडु ही शहरी और ग्रमीण निकायों के लिए पांच वर्षो में पूरी अनुदान राशि निर्गत कराने में सफल रहे।
बारहवीं वित्त आयोग ने कुछ शर्तो के साथ अनुदान को स्थाानीय जरूरत के अनुसार उपयोग करने की छूट दी थी। लेकिन 13वें वित्त आयोग ने नियमों को उदार बनाते हुए अनुदान राशि के एक तिहाई भाग को उपलब्धि से जोड़ दिया ताकि सामान्य उत्तरदायित्व की भावना और मजबूत हो।
उपलब्धि अनुदान पाने की योग्यता के रूप में स्थानीय निकायों के खातों के अंकेक्षण कराने और शिकायतों के निपटारा के लिए स्थानीय ओम्ड्समैन की नियुक्ति का प्रावधान किया गया। इसके लिए एक साल का समय दिया गया। यह अवधि पर्याप्त नहीं हो सकती है। लेकिन पांच वर्षो में एक चौथाई उपलब्धि अनुदान निर्गत नहीं हुए। छह राज्यों के ग्रामीण और 11 राज्यों के शहरी स्थानीय निकाय उपलब्धि अनुदान पाने लायक नहीं पाए गए।
खमियां केंद्र और राज्य में दोनों पाई गईं। गैर प्रदर्शन करने वाले राज्यों का भुगतान रोकना 13वें वित्त आयोग की शर्तो का उल्लंघन था इसलिए कहा गया कि गैर प्रदर्शन करने वाले राज्यों के लिए अलग रखी आधी राशि को प्रदर्शन और गैर प्रदर्शन करने वाले राज्यों के बीच बांटा जाएगा।
विशेष: धन की कमी झेल रहे भारत के स्थानीय निकाय Featured
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