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औसत आय और जीडीपी दर में वृद्धि की हकीकत Featured

संजय पराते 

भाजपा की केन्द्र सरकार और छत्तीसगढ़ राज्य सरकार अर्थव्यवस्था की प्रगति के रूप में प्रति व्यक्ति औसत आय और जीडीपी में वृद्धि का दावा करती है और इन आंकड़ों को आम जनता की खुशहाली के रूप में पेश करती है. वास्तव में यह भ्रम, अर्थशास्त्र में आम जनता की अज्ञानता का फायदा उठाते हुए, अर्थव्यवस्था के दूसरे नकारात्मक पहलुओं को ढंकने के लिए ही किया जाता है.
 
केन्द्र सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, इस समय देश की आम जनता की प्रति व्यक्ति औसत आय 93231 रूपये सालाना है, जो पिछले वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान 86879 रूपये थी और औसत आय में यह वृद्धि 7.3% है. इन आंकड़ों से ऐसा लगता है कि आम आदमी खुशहाल हुआ है. लेकिन यदि महंगाई दर को ध्यान में रखा जाएं, जो कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी लगभग 7-8% रही है, खुशहाली का यह दावा धराशायी हो जाता है, क्योंकि यह बढ़ी हुई महंगाई प्रति व्यक्ति औसत आय में हुई वृद्धि को लील लेती है. स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र के गणित से प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के बावजूद आम आदमी की क्रय-शक्ति में कोई वृद्धि नहीं होती, बल्कि उसका ह्रास ही होता है.
 
लेकिन प्रति व्यक्ति आय में हुई यह वृद्धि भी सबके लिए नहीं है. यह औसत वृद्धि ही है. छत्तीसगढ़ के संदर्भ में इसे समझने की कोशिश करें, जहां हाल ही के बजट में भाजपा सरकार का सर्वेक्षण बताता है कि छग में प्रति व्यक्ति औसत आय वर्ष 2014-15 के 73758 रूपये से बढ़कर वर्ष 2015-16 में 81756 रूपये हो गई है और प्रतिशत में यह वृद्धि लगभग 10.8% है. छत्तीसगढ़ में जीडीपी में वृद्धि के बावजूद प्रति व्यक्ति औसत आय राष्ट्रीय स्तर से पूरे 12.3% नीचे है और यह तो माना ही जा सकता है कि देश के औसत आम आदमी से छत्तीसगढ़ का आम आदमी 12% कम खुशहाल है. लेकिन यदि प्रदेश की औसत महंगाई दर को भी गिनती में ले लिया जाएं, तो बदहाली का प्रतिशत और बढ़ जाएगा.
 
लेकिन ये औसत आय के आंकड़े हैं और राज्य के हर नागरिक के न्यूनतम आय का सूचक नहीं है. वर्ष 2015-16 में छत्तीसगढ़ राज्य का सकल घरेलू उत्पाद 234793 करोड़ रूपये अनुमानित है. आईये, इसके वितरण का विश्लेषण करें. केन्द्र सरकार की सामाजिक-आर्थिक जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, छत्तीसगढ़ में निवास करने वाले 57 लाख परिवारों में तीन आय-समूह है : 33 लाख परिवार ऐसे हैं, जिनकी मासिक आय 5000 रूपये से कम है. लगभग 7 लाख परिवारों की मासिक आय 5-10 हजार रूपये हैं. तीसरा समूह लगभग 17 लाख परिवारों का है, जिसकी मासिक आय 10 हजार रुपये से अधिक है. इसका अर्थ है कि पहले दो समूहों के 40 लाख परिवारों के हिस्से में ढाई-तीन हजार करोड़ रुपयों की आय ही आती है, जो जीडीपी का केवल 1.2% ही है, जबकि 17 लाख परिवारों का 98.8% जीडीपी पर कब्ज़ा है. इसका यह भी अर्थ है कि निम्न आय समूह वाले व्यक्ति की औसत आय से उच्च आय समूह वाले व्यक्ति की औसत आय 77 गुना ज्यादा है. इसलिए छत्तीसगढ़-जैसे राज्य में जीडीपी में वृद्धि का सीधा अर्थ आर्थिक असमानता का बढ़ना भी होता है. अतः प्रति व्यक्ति औसत आय में वृद्धि या जीडीपी में वृद्धि या जीडीपी दर में वृद्धि एक समतापूर्ण समाज की ओर बढ़ने के संकेतक तो कतई नहीं होते.
 
आय के इस वितरण को एक और सरल उदाहरण से समझते हैं. माना कि किसी जगह 100 लोग रहते हैं. 65 लोगों के समूह की प्रति व्यक्ति आय 100 रूपये हैं, तो 35 लोगों के समूह की आय 7700 रूपये. इस प्रकार सकल आय बनती है -- 276000 रूपये. आय में औसतन 10% वृद्धि होने पर सकल आय हो जाती है -- 303600 रूपये. पहले समूह के लोगों की आय 110 रूपये और दूसरे समूह के लोगों की आय हो जाती है 8470 रूपये. लेकिन इसके साथ ही दोनों समूह के लोगों के बीच आय का अंतर 7600 रूपये से बढ़कर 8360 रूपये भी हो जाता है. इसे ही संपत्ति का केन्द्रीकरण कहते हैं. इस उदाहरण में केवल इतना ही जोड़ने की जरूरत है कि वास्तविकता में दोनों आय समूह के लोगों की आय में एक समान वृद्धि नहीं होती है और निश्चित रूप से निम्न आय वाले समूह के लिए यह कम और उच्च आय वाले समूह के लिए यह वृद्धि ज्यादा होती है. इसलिए संपत्ति का केन्द्रीकरण और ज्यादा तेजी से होता है.

संपत्ति के केन्द्रीकरण की प्रक्रिया को तथ्यों के आधार पर समझने की कोशिश करते हैं. भारत में डॉलर अरबपतियों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है, हालांकि 125 करोड़ लोगों के देश में इनकी संख्या 125 भी नहीं है. लेकिन इसके साथ ही संगठित क्षेत्र में, जो मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए बाध्य होता है, रोजगार घटा है और स्थायी नियमित मजदूरों की जगह ठेका मजदूरों ने ले ली है. 1999-2009 के दशक में इन ठेका मजदूरों की संख्या 20% से बढ़कर 32% हो गई है. संगठित क्षेत्र के विनिर्माण उद्योग में 1980 के दशक में यदि 100 रूपये का सामान तैयार किया जाता था, तो इसमें मजदूरी का हिस्सा 30 रूपये व कच्चा माल 50 रूपये होता था और 20 रूपये मुनाफा होता था. 2008-09 में 100 रूपये के सामान में मजदूरी का हिस्सा 10 रूपये तथा मुनाफा 60 रूपये हो गया. प्रौद्योगिकी तथा तकनीक में विकास के कारण कच्चे माल की कीमतों में भारी गिरावट आई, लेकिन इसका कोई भी फायदा मजदूरों को नहीं मिला और वह मालिक की तिजोरी में कैद हो गया. उदारीकरण की प्रक्रिया ने जिन श्रम सुधारों को जन्म दिया, उसमे प्रमुख था -- हायर एंड फायर की नीति. इसने मजदूरी को भी नीचे ला दिया. यह मजदूरों के बढ़ते शोषण के साथ ही संपत्ति के केन्द्रीकरण को भी दिखाता है. इस प्रकार देश की जीडीपी वृद्धि में जिन मेहनतकशों का योगदान होता है, उन्हीं लोगों की आय में वृद्धि हो नहीं पाती और वे बदहाली के गर्त में धकेल दिए जाते हैं.
 
सूखे और अकाल के कारण अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र के योगदान में गिरावट दर्ज की गई है और यह गिरावट पिछले वर्ष की तुलना में जीडीपी के 2% के बराबर है. राज्य के उद्योगों का विकास दर राष्ट्रीय औसत से कम है. तो जीडीपी में सकल वृद्धि सेवा क्षेत्र की प्रगति पर ही टिकी है, जो वास्तविक उत्पादन का क्षेत्र नहीं है. अतः जीडीपी में वृद्धि उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि के कारण केवल मौद्रिक वृद्धि बनकर रह जाती है.
 
छत्तीसगढ़ राज्य का बजट पेश करते हुए मुख्यमंत्री ने एक गज़ब का दावा किया है कि सूखे के बावजूद अनाज के उत्पादन में वृद्धि हुई है. इस सरकार को कर्मकांड में विश्वास है और बारिश के लिए सरकारी धन से उसने यज्ञ का आयोजन किया है. अब से उसे ' अकाल-यज्ञ ' करना चाहिए, ताकि प्रदेश के अनाज उत्पादन में और वृद्धि हो.


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