सहाना घोष
बच्चों के विकास के लिए पहले 10 साल बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। इस दौरान उसके खानपान, पोषण, स्वास्थ्य, नींद, शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है।
यह एक ऐसा दौर होता है जब बच्चे किसी भी तनाव या सदमे को लेकर बेहद संवेदनशील होते हैं। इस दौरान इन्हें झेल पाने की बहुत अधिक क्षमता उनके मस्तिष्क में नहीं होती और इसलिए जब वे इसकी चपेट में आ जाते हैं तो इसका जीवन में आगे चलकर भी लंबे समय तक तथा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसलिए उनके शुरुआती 10 साल का खास खयाल रखे जाने की जरूरत है।
यह कहना है भारत की एक न्यूरोबायोलॉजिस्ट का, जिनका यह भी मानना है कि यदि देश बाल विकास के संबंध में इन बातों का ध्यान रखता है तो इसकी जनसांख्यिकीय तस्वीर बदल सकती है।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) की वैज्ञानिक विदिता वैद्य और उनके सहयोगी (एस. गैलांडे, सेंटर फॉर एक्सीलेंस इन एपिजेनेटिक्स) बच्चों में तनाव की जटिलताओं को समझने तथा इस पर प्रकाश डालने की कोशिश कर रहे हैं कि क्यों जीवन के शुरुआती दिनों का तनाव वयस्क होने के बाद होने वाले तनाव से अधिक बुरा होता है।
वैद्य ने यहां वेलकम ट्रस्ट/डीबीटी इंडिया अलायंस की ओर से आयोजित 13वें एसाईकॉम वर्कशॉप से इतर आईएएनएस से कहा, "10 साल से कम उम्र में झेले जाने वाले सदमे का जीवन में दूरगामी असर हो सकता है। इस दौरान मस्तिष्क अधिक संवेदनशील होता है।"
मुंबई स्थित टीआईएफआर के जीव विज्ञान (बायोलॉजिकल साइंस) विभाग में प्रोफेसर वैद्य ने चूहे का उदाहरण देते हुए कहा, "चूहे के मस्तिष्क पर पहले दो सप्ताह में आए बदलाव का असर उसके दो साल के जीवन तक रहा। यह बात मानव पर भी लागू होती है, जिसमें किशोरावस्था से पहले का समय यानी जीवन के शुरुआती 10 साल में मस्तिष्क बेहद संवेदनशील होता है।"
यह वह समय होता है जब बच्चे स्कूल में होते हैं। कई बार वे अपने साथियों के बीच किसी तरह का दबाव महसूस करते हैं तो कई बार अपने प्रदर्शन को लेकर चिंता होती है। वे कई अन्य समस्याओं से भी जूझ रहे होते हैं।
ऐसे में अभिभावकों के साथ-साथ नीति-निर्माताओं को भी यह जानने की जरूरत है कि एक वयस्क व्यक्ति अपने जीवन में यदि गंभीर तनाव का सामना करता है तो भी उसका असर उतना दूरगामी या गहरा नहीं होता, जितना जीवन के शुरुआती दिनों में पेश आने वाले छोटे से तनाव या सदमे का हो सकता है।
जीवन के शुरुआती दिनों में झेले जाने वाले तनाव या सदमे के दुष्परिणाम जीवन में आगे चलकर गहरे तनाव, चिंता या नशीले पदार्थो की लत के रूप में सामने आ सकते हैं।
शांति स्वरूप भटनागर अवॉर्ड प्राप्त वैद्य ने कहा, "लोग तनाव या सदमे के नतीजों को इस रूप में नहीं समझते हैं। वे नहीं मानते कि कम उम्र में होने वाले तनाव या सदमे का असर दीर्घकालिक व दूरगामी हो सकता है और यह क्षणिक नहीं होता। इसलिए हम यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर क्यों और कैसे कम समय के लिए होने वाली चीजों का असर दूसरगामी होता है?"
बकौल वैद्य, "मस्तिष्क में कुछ निश्चित तरह के 'एपीजेनेटिक एन्जाइम' (एक तरह का रसायन, जो हमारे शरीर के भीतर होने वाली प्रतिक्रियाओं में उत्प्रेरक के रूप में काम करता है) होते हैं, जो 'जीन एक्सप्रेशन' (एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें प्रोटीन जैसे जीन उत्पादों के निर्माण के लिए जीन खुद में निहित सूचना का इस्तेमाल करता है) को नियमित करता है, जिससे आप प्रोटीन बना पाते हैं। आप कितना प्रोटीन बना पाते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि जीन कितना सक्रिया या निष्क्रिय है और एन्जाइम द्वारा नियमित है।"
वैद्य के अनुसार, जीवन के शुरुआती दिनों के तनाव के आधार पर 'एपीजेनेटिक एन्जाइम' में बदलाव होते रहते हैं। यह चूहे के साथ भी पाया गया, जिसके दो साल तक के जीवन में यह बदलाव देखा गया, जो चूहे की औसत आयु के हिसाब से बहुत अधिक है।
वैद्य और उनके सहयोगियों का यह शोध 'डेवलपमेंट सायकोबायोलॉजी' में 2016 में प्रकाशित हुआ है।
उन्होंने कहा, "विकसित हो रहा मस्तिष्क एक वयस्क मस्तिष्क का केवल छोटा रूप नहीं है। यह पूरी तरह अलग अवस्था होती है, जिसमें 'न्यूरो-सर्किट्स' (तंत्रिकाएं) अपने आसपास के वातावरण में होने वाले बदलावों को लेकर खास तौर से संवेदनशील होता है। इसलिए बच्चों के शुरुआती 10 साल विशेष रूप से महत्वपूर्ण होते हैं।"
उन्होंने कहा, "सरकारों को बच्चों के शुरुआती 10 साल में उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा खास तौर पर सुनिश्चित करनी चाहिए। यदि भारत ऐसा करता है तो यहां की जनसांख्यकीय तस्वीर अलग होगी।"