प्राची साल्वे/आद्या शर्मा
बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली एक संस्था की तरफ से हाल ही में कराए गए अध्ययन से यह बात सामने आई है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (एनसीआर) के आठ वार्डो में पांच से 17 वर्ष के करीब 8,044 बच्चे मजदूरी करते हैं। इनमें से 87 फीसदी घरेलू सहायक के तौर पर और 13 फीसदी लघु वाणिज्यिक इकाइयों में काम करते हैं। इनमें से 82 फीसदी का कहना है कि यदि उन्हें मौका मिले, वे तब भी स्कूल जाना पसंद नहीं करेंगे।
बच्चों के अधिकार पर काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन 'सेव द चिल्ड्रेन' की ओर से कराए गए एक अध्ययन में यह सच्चाई सामने आई है।
घरेलू इकाइयों में काम करने वाले बच्चों में 92 फीसदी का विद्यालयों में दाखिला हुआ है, जिनमें से 22 फीसदी ने कहा कि वे शिक्षा में रुचि नहीं रखते हैं। अड्डों पर काम करने वाले बच्चों का या तो दाखिला नहीं हुआ है या वे स्कूल नहीं जाते हैं।
करीब 78 फीसदी बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के उनके अधिकार की जानकारी है और वे यह भी जानते हैं कि बाल मजदूरी अवैध है। फिर भी 92 फीसदी बच्चों ने कहा कि वे अपने काम से खुश हैं।
बाल मजदूरी के खिलाफ काम करने वाले कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलने से यह मुद्दा केंद्र में आ गया है।
2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में 1.17 करोड़ बाल मजदूर हैं, जो किसी भी देश के आंकड़े से अधिक है।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक, बाल मजदूरों की वैश्विक संख्या अभी 16.8 करोड़ है, जो दुनिया की कुल बाल आबादी का 11 फीसदी है।
अध्ययन के दौरान पाया गया कि दिल्ली के तीन जिलों पूर्वी दिल्ली, दक्षिण दिल्ली और दक्षिण पूर्व दिल्ली में बच्चे मजदूरी करते हैं। कानून की नजर में14 साल से कम उम्र के बच्चे को काम पर रखना गुनाह है।
कपड़ा उद्योग में काम करने वाले ज्यादातर बच्चे उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के हैं। जिन 170 बच्चों से पूछताछ की गई, उनमें 102 लड़कियां हैं। 60 फीसदी से अधिक बच्चे इसलिए काम करते हैं, क्योंकि उनके परिवार की आय काफी नहीं है।
अड्डों पर बाल मजदूरों का सर्वाधिक शोषण होता है। वे 12-14 घंटे काम करते हैं और वहीं सोते हैं। वे साल में एक या दो बार घर जाते हैं।
घरेलू सहायक के तौर पर काम करने वाले बच्चे यदि स्कूलों में दाखिल होते हैं तो तीन से चार घंटे काम करते हैं। यदि स्कूल में दाखिल नहीं होते हैं, तो दिन भर काम करते हैं। इस रूप में काम करने वाले बच्चों में लगभग 92 फीसदी स्कूल जाते हैं।
घरेलू सहायक के तौर पर काम करने वाले अधिकतर बच्चों को प्रति महीने औसतन 500 रुपये पगार मिलता है।
लघु वाणिज्यिक इकायों में काम करने वाले 45 फीसदी बच्चों को ढाई हजार से पांच हजार रुपये प्रति महीने मिलता है। 45 फीसदी अन्य को पांच हजार रुपये से अधिक मिलता है।
अध्ययन में शारीरिक यातना, फटकार या यौन प्रताड़ना के भी मामलों का पता चला।
(आंकड़ा आधारित, गैर लाभकारी, लोकहित पत्रकारिता मंच, इंडियास्पेंड के साथ एक व्यवस्था के तहत। प्राची साल्वे इंडियास्पेंड में नीति विश्लेषक हैं। आद्या शर्मा सिंबियोसिस, पुणे में प्रशिक्षु हैं।)