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Friday, 03 June 2016 10:40

साइबर अपराध में 10 साल में 19 गुना इजाफा

चैतन्य मल्लापुर
भारत में पिछले 10 सालों में (2005-14) साइबर अपराध के मामलों में 19 गुना बढ़ोतरी हुई है। इंटरनेट पर 'दुर्भावनापूर्ण गतिविधियों' के मामले में भारत का अमेरिका और चीन के बाद तीसरा स्थान है।

वहीं, दुर्भावनापूर्ण कोड के निर्माण में भारत का स्थान दूसरा और वेब हमले और नेटवर्क हमले के मामले में क्रमश: चौथा और आठवां स्थान है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े के मुताबिक साइबर अपराधियों की गिरफ्तारी में 9 गुना बढ़ोतरी हुई है। साल 2005 में जहां 569 साइबर अपराधी पकड़े गए थे, वहीं 2014 में इनकी संख्या 5,752 हो गई।

वहीं, इस दौरान भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं का आंकड़ा बढ़कर 40 करोड़ हो गया, जिसके जून 2016 तक 46.2 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है।

2014 में कुल 9,622 साइबर मामले दर्ज किए गए जो कि साल 2013 से 69 फीसदी अधिक है।

इंडियास्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक पेरिस की गैर सरकारी संस्था द्वारा जारी साल 2015 की प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत का स्थान 136वां है, तुर्की का 149वां और रूस का 152वां है।

भारत में साइबर अपराधों में मुख्यत: अश्लीलता, धोखाधड़ी और यौन शोषण शामिल है। आई एक्ट के तहत अश्लीलता के कुल 758 मामले दर्ज किए गए हैं। वहीं, धोखाधड़ी के 1,115 मामले दर्ज किए गए।

2014 में वित्तीय धोखाधड़ी से जुड़े कुल 1,736 साइबर मामले दर्ज किए गए। महाराष्ट्र में सबसे अधिक साइबर मामले साल 2014 में 1,879 दर्ज किए गए, जबकि इससे पिछले साल कुल 907 मामले दर्ज किए गए थे।

उसके बाद उत्तर प्रदेश का स्थान है जहां 1,737 मामले दर्ज हुए। इनके बाद कर्नाटक (1,020), तेलंगाना (703) और राजस्थान (697) का नंबर है।

देश में साइबर अपराध के मामलों में कुल 5,752 लोगों की गिरफ्तारी की गई जिनमें से 8 विदेशी थे। इनमें से 95 फीसदी आरोपियों पर आरोप साबित हुआ, जबकि 276 आरोपी बरी हो गए।

साइबर अपराध के आरोप में उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादा कुल 1,223 गिरफ्तारियां की गई, जिसके बाद महाराष्ट्र (942), तेलंगाना (429), मध्य प्रदेश (386) और कर्नाटक (372) का नंबर है।

2016 के पहले तीन महीनों में 8,000 से ज्यादा वेबसाइटों को हैक किया गया तथा 13,851 स्पैम उल्लंघन की जानकारी मिली है। राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में यह जानकारी दी गई है।

पिछले पांच सालों में फिशिंग, स्कैनिंग, दूर्भावनपूर्ण कोड का निर्माण जैसे साइबर सुरक्षा अपराधों में 76 फीसदी वृद्धि हुई है। साल 2011 में 28,127 से बढ़कर यह 2015 में 49,455 हो गया।

राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में दी गई जानकारी के मुताबिक एटीएम, क्रेडिट/डेबिट कार्ड और नेट बैंकिंग संबंधित धोखाधड़ी के 2014-15 में 13,083 मामले और 2015-16 (दिसंबर तक) में 11,997 मामले दर्ज किए गए।

पिछले तीन वित्त वर्ष, 2012-13 से 2014-15 तक एटीएम, क्रेडिट/डेबिट कार्ड और नेट बैंकिंग से कुल 226 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी की गई।

दिल्ली उच्च न्यायालय की एक समिति की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2013 मेंकुल 24,630 करोड़ रुपये के साइबर अपराध दर्ज किए गए। जबकि विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में कुल 25,12,500 करोड़ रुपये के साइबर अपराध के मामले सामने आए।

(गैर लाभकारी पत्रकारिता मंच इंडियास्पेंड के साथ एक व्यवस्था के तहत)

--आईएएनएस
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Monday, 30 May 2016 00:00

विश्व तंबाकू निषेध दिवस पर विशेष: तंबाकू से देश में हर घंटे 114 लोगों की मौत


संदीप पौराणिक
भोपाल, 30 मई (आईएएनएस)। तंबाकू का सेवन मौत का कारण बनता जा रहा है। देश में हर रोज (24 घंटे) 2800 से ज्यादा लोगों की मौत तंबाकू के उत्पाद अथवा अन्य धूम्रपान का सेवन करने की वजह से हो रही है। इस तरह हर घंटे 114 लोगों की मौत का कारण तंबाकू है। इतना ही नहीं दुनिया में हर छह सेकेंड में एक व्यक्ति की मौत का कारण तंबाकू और धूम्रपान का सेवन है, यही कारण है कि जनजागृति लाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने विश्व तंबाकू निषेध दिवस (31 मई) पर तंबाकू उत्पादों पर चेतावनी को ज्यादा स्थान देने पर जोर दिया है।

तंबाकू उत्पादों और धूम्रपान से होने वाली बीमारियां और मौतों की रोकथाम के ध्यान में रखकर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लयूएचओ) द्वारा वर्ष 2016 की थीम 'तंबाकू उत्पादों पर प्लेन पैकेजिग' रखी गई है। इसका आशय यह है कि समस्त तंबाकू उत्पादों के पैकेट का निर्धारित रंग हो और उस पर 85 प्रतिशत सचित्र चेतावनी हो तथा उस पर लिखे शब्दों का साइज भी निर्धारित मात्रा में हो, इसके साथ ही इन उत्पादों पर कंपनी को केवल अपने ब्रांड का नाम लिखने की आजादी हो।

वॉयस आफ टोबेको विक्टिमस ने डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों का जिक्र करते हुए बताया कि एक सिगरेट जिदगी के 11 मिनट छीन लेता है। तंबाकू व धूम्रपान उत्पादों के सेवन से हमारे देश में प्रतिघंटा 114 लोग जान गंवा रहे है। वहीं दुनिया में प्रति छह सेकेंड में एक मौत हो रही है।

वीओटीवी ने वैश्विक वयस्क तंबाकू सर्वेक्षण (गेट्स) का हवाला देते हुए बताया कि मध्य प्रदेश के 39़ 5 फीसदी वयस्क(15 वर्ष से अधिक) आबादी तम्बाकू का किसी न किसी रूप में प्रयोग करते हैं, जिसमें 58़ 5 प्रतिशत पुरुष और 19 प्रतिशत महिलाएं हैं। वहीं देशभर में 20 प्रतिशत महिलाएं तंबाकू उत्पादों का शौक रखती हैं। सर्वे के अनुसार देश की 10 फीसदी लड़कियों ने स्वयं सिगरेट पीने की बात को स्वीकारा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट ग्लोबल टोबेको एपिडेमिक पर अगर नजर डालें तो पता चलता है कि महिलाओं में तंबाकू के सेवन का आंकड़ा निरंतर बढ़ता जा रहा है। इनमें किशोर व किशोरियां भी शामिल हैं। जो कि मध्य प्रदेश की कुल आबादी का करीब 17 फीसदी है। यह सर्वेक्षण 2010 का है। गेट्स का सर्वे भारत में 2016 में होना प्रस्तावित है।

गेट्स (भारत 2010) के अनुसार रोकी जा सकने योग्य मौतों एवं बीमारियों में सर्वाधिक मौतें एवं बीमारियां तंबाकू के सेवन से होती हैं। विश्व में प्रत्येक 10 में से एक वयस्क की मृत्यु के पीछे तंबाकू सेवन ही है। विश्व में प्रतिवर्ष 55 लाख लोगों की मौत तंबाकू सेवन के कारण होती है। विश्व में हुई कुल मौतों का लगभग पांचवां हिस्सा भारत में होता है।

वायॅस अफ टोबेको विक्टिमस के पैट्रन व मध्यप्रदेश मेडिकल आफीसर एसोसिएशन के संरक्षक डा़ ललित श्रीवास्तव ने बताया कि तंबाकू उद्योग द्वारा तंबाकू के प्रति युवकों को आकíषत करने के प्रतिदिन नए नए प्रयास किए जा रहे हैं। 'युवास्वस्था में ही उन्हें पकड़ो' उनका उद्देश्य है, तंबाकू उत्पादों को उनके समक्ष व्यस्कता, आधुनिकता, अमीरी और वर्ग मानक और श्रेष्ठता के पर्याय के रूप में पेश किया जाता है।

वायॅस आफ टोबेको विक्टिमस के मुताबिक हाल ही में प्रारंभिक शोधों में सामने आया है कि तंबाकू का सेवन करने वालों के जीन में भी आंशिक परिवर्तन होते हैं जिससे केवल उस व्यक्ति में ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों में भी कैंसर होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसके साथ ही इन उत्पादों के सेवन से जहां पुरुषों में नपुंसकता बढ़ रही है वहीं महिलाओं में प्रजनन क्षमता भी कम होती जा रही है।

डा़ श्रीवास्तव ने बताया कि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान (आईसीएमआर) की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि पुरुषों में 50 प्रतिशत और स्त्रियों में 25 प्रतिशत कैंसर की वजह तम्बाकू है। इनमें से 90 प्रतिशत में मुंह का कैंसर होता है।

वायॅस आफ टोबेको विक्टिमस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी संजय सेठ ने कहा कि सरकार को सम्पूर्ण राज्य में कोटपा एक्ट को कठोरता से लागू करना चाहिए ताकि बच्चे व युवाओं की पहुंच से इसे दूर किया जा सके। सभी आधुनिक और प्रगतिशील राज्यों को अपने नागरिकों के लिए एक स्वस्थ वातावरण प्रदान करने के लिए कोटपा कानून को कड़ाई से लागू किया जाना अतिआवश्यक है। कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों की पुलिस ने तंबाकू व अन्य धूम्रपान उत्पादों की खपत को कम करने में सराहनीय भूमिका निभाई है।

उन्होंने बताया कि भारत में 5500 बच्चे हर दिन तंबाकू सेवन की शुरुआत करते हैं और वयस्क होने की आयु से पहले ही तम्बाकू के आदी हो जाते हैं। तंबाकू उपयोगकर्ताओं में से केवल तीन प्रतिशत ही इस लत को छोड़ने में सक्षम हैं।

वीओटीवी की आशिमा सरीन ने बताया कि तंबाकू उत्पादों की बढ़ती खपत सभी के लिए नुकसानदायक है। इससे जहां जनमानस को शारीरिक, मानसिक और आíथक भार झेलना पड़ता है वहीं सरकार को भी आíथक भार वहन करना पड़ता है। इसलिए तंबाकू पर टैक्स बढ़ाने की नीति को निरतर बनाए रखना चाहिए या फिर इस पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।

उन्होंने बताया कि दुनियाभर में होने वाली हर पांच मौतों में से एक मौत तंबाकू की वजह से होती है तथा हर छह सेकेंड में होने वाली एक मौत तंबाकू और तंबाकू जनित उत्पादों के सेवन से होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि सन 2050 तक 2-2 अरब लोग तंबाकू या तंबाकू उत्पादों का सेवन कर रहे होंगे।

--आईएएनएस

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Monday, 30 May 2016 19:30

मौत के नजदीक लाता है सिगरेट का हर कश

डॉ. रजत अरोड़ा
नई दिल्ली, 30 मई (आईएएनएस)। तंबाकू उत्पादों के डिब्बों पर इसके सेवन से होने वाले नुकसान के संदेश चाहे कितने ही डरावने क्यों न हों, इसके बावजूद महिलाओं में धूम्रपान की लत बढ़ती ही जा रही है। 21वीं सदी में सार्वजनिक स्वास्थ्य की एक सबसे बड़ी जिम्मेदारी महिलाओं को धूम्रपान की लत से बचाना होगा।

खतरे वाली बात तो यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के मुताबिक, तंबाकू के सेवन से वर्तमान में दुनिया भर में प्रत्येक साल 50 लाख लोगों की मौत होती है और अनुमान के मुताबिक, धूम्रपान से साल 2016 से 2030 के बीच की अवधि में 80 लाख लोग तथा 21वीं सदी में कुल एक अरब लोगों की मौत होगी।

दुनिया भर में साल 2010 में महिलाओं को सिगरेट के विपणन के साथ लिंग तथा तंबाकू के बीच संबंध स्थापित करने के इरादे से वर्ल्ड नो टोबैको डे शुरू किया गया। यह विषय तंबाकू से महिलाओं व लड़कियों को होने वाले नुकसान से लोगों को जागरूक करने के लिए शुरू किया गया और इसे हर साल मनाया जा रहा है।

महिलाएं/लड़कियां धूम्रपान को अभिव्यक्ति की आजादी समझने लगी हैं। यह आवश्यक है कि महिलाओं का सशक्तीकरण जारी रखना चाहिए, महिलाओं के बीच धूम्रपान की बढ़ती लत के संभावित खतरों तथा जिस प्रकार सिगरेट उद्योग कथित सामाजिक परिवर्तन के लिए महिलाओं को लक्षित कर रहा है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

किशोरावस्था में लड़कियां धूम्रपान की शुरुआत करती हैं और साल दर साल इनकी संख्या बढ़ती ही जाती है। इस बात के हालांकि सबूत हैं कि लड़कियों द्वारा धूम्रपान शुरू करने के कारण लड़कों द्वारा धूम्रपान करने के वजहों से अलग है।

बच्चों का मात-पिता से संबंध भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। किशोरों की चाहत माता-पिता, स्कूल व समुदाय से अधिक से अधिक जुड़ाव की होती है। दुर्भाग्यवश, आज के दौर में माता-पिता अपने बच्चों को समय नहीं दे पाते, जिसके कारण उनके बच्चे की उनकी गलत संगति में पड़ने की संभावना अधिक हो जाती है।

आधी सदी पहले फेफड़े के कैंसर से महिलाओं की तुलना में पांच गुना ज्यादा पुरुष मरते थे। लेकिन इस सदी के पहले दशक में यह खतरा पुरुष व महिला दोनों के लिए ही बराबर हो गया। धूम्रपान करने वाले पुरुषों व महिलाओं के फेफड़े के कैंसर से मरने का खतरा धूम्रपान न करने वालों की तुलना में 25 गुना अधिक होता है।

धूम्रपान करने वाली महिलाओं के बांझपन से जूझने की भी संभावना होती है। सिगरेट का एक कश लगाने पर सात हजार से अधिक रसायन संपूर्ण शरीर व अंगों में फैल जाते हैं। इससे अंडोत्सर्ग की समस्या, जनन अंगों का क्षतिग्रस्त होना, अंडों को क्षति पहुंचना, समय से पहले रजोनिवृत्ति व गर्भपात की समस्या पैदा होती है।

अब भी वक्त है, धूम्रपान छोड़ दीजिए। धूम्रपान छोड़ने से लंबे समय तक स्वस्थ रहने व जीने का संभावना बढ़ जाती है।

--आईएएनएस
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Sunday, 29 May 2016 20:20

दिल, दल और दर्द

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
राजनीति में अक्सर दिलचस्प रिश्ते बनते हैं। इसमें दुहाई दिल की दी जाती है लेकिन दल, दर्द और पद लिप्सा के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। एक समय था तब बेनी प्रसाद वर्मा सपा में अमर सिंह के बढ़ते प्रभाव से बहुत नाराज हुए थे। अंतत: इसी मसले पर उन्होंने सपा छोड़ दी थी। दूसरी तरफ अमर सिंह को लग रहा था कि सपा में उनकी उपेक्षा हो रही है। रामगोपाल यादव और आजम खां जैसे दिग्गज उन्हें बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे।

उस समय अमर सिंह को सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के सहारे की बड़ी जरूरत थी, लेकिन ऐसा लगा कि मुलायम सिंह रामगोपाल और आजम पर रोक नहीं लगाना चाहते। दोनों नेताओं ने अमर के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। उस दौरान अमर भावुक हुआ करते थे। वह बीमार थे। विदेश में उनका आपरेशन हुआ। उन्होंने अपने को बीमार बना लिया। अमर के इस भावुक कथन के बावजूद मुलायम सिंह कठोर बने रहे। रामगोपाल और आजम लगातार मुखर रहे। मुलायम की खामोशी जब अमर को हद से ज्यादा अखरने लगी तो वह भी सपा से दूर हो गए।

सियासी रिश्तों का संयोग देखिए बेनी प्रसाद वर्मा और अमर सिंह की सपा में वापसी एक साथ हुई, इतना ही नहीं राज्यसभा की सदस्यता से उनका स्वागत किया गया। कभी सपा में अमर के बढ़ते कद से बेनी खफा थे, अब बराबरी पर हुई वापसी से संतुष्ट हैं। वैसे इसके अलावा इनके सामने कोई विकल्प नहीं था। सियासत में पद ही संतुष्टि देते हैं।

जाहिर तौर पर सपा की सियासत का यह दिलचस्प अध्याय है। सभी संबंधित किरदार वही हैं, केवल भूमिका बदल गई है। बेनी प्रसाद वर्मा को अब अमर सिंह के साथ चलने में कोई कठिनाई नहीं है। एक समय था जब उन्होंने अमर सिंह को समाजवादी मानने से इंकार कर दिया था। रामगोपाल यादव और आजम खां भी अपनी जगह पर हैं। फर्क यह हुआ कि पहले खूब डॉयलॉग बोलते थे, अब मूक भूमिका में हैं। जिस बैठक में अमर सिंह को राज्यसभा भेजने का फैसला हो रहा था उसमें आजम देर से पहुंचे और जल्दी निकल गए। मतलब छोटा सा रोल था जितना विरोध कर सकते थे किया। जब महसूस हुआ कि अब पहले जैसी बात नहीं रही, तो बैठक छोड़कर बाहर आ गए।

चार वर्षो में पहली बार आजम को अनुभव हुआ कि उनकी हनक कमजोर पड़ गई है। पहले वह मुद्दा उछालते थे और मुलायम सिंह यादव ही नहीं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी उसका समर्थन करना पड़ता था। यह स्थिति राज्यसभा के पिछले चुनाव तक कायम थी। बताया जाता है कि दो वर्ष पहले मुलायम सिंह ने अमर सिंह को राज्यसभा में भेजने का मन बना लिया था लेकिन आजम खां अड़ गए थे। मुलायम को फैसला बदलना पड़ा। वह चाह कर भी तब अमर सिंह को राज्यसभा नहीं भेज सके थे। आजम के तेवर आज भी कमजोर नहीं हैं लेकिन मुलायम सिंह पहले जैसी भूमिका में नहीं थे। इस बार वह आजम खान की बात को अहमियत देने को तैयार नहीं थे। आजम ने हालात समझ लिए।

बताया जाता है कि आजम ने इसीलिए अमर सिंह के मामले को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया। वह जानते हैं कि अमर सिंह के साथ जयप्रदा की भी वापसी होगी। जयप्रदा के संबंध में आजम ने जो कहा था उसके बाद शायद दोनों का एक-दूसरे से आंख मिलाना भी मुनासिब न हो लेकिन राजनीति में कुछ भी हो सकता है। मुलायम सिंह इस बार अमर सिंह के मामले में कठोर हो चुके थे। वैसे भी लुका-छिपी का खेल बहुत हो चुका था। पिछले कई वर्षो से वह सपा के मंच पर आ रहे थे।

अमर से इस विषय में सवाल होते थे। उनका जवाब होता था कि वह समाजवादी नहीं वरन मुलायमवादी हैं। इस कथन से वह अपने अंदाज में बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खां, रामगोपाल यादव आदि विरोधियों पर भी तंज कसते थे। ये लोग अमर पर समाजवादी न होने का आरोप लगाते थे। इसीलिए अमर ने कहा कि वह मुलायमवादी हैं। अर्थात जहां मुलायम होंगे, घूमफिर कर वह भी वहीं पहुंच जाएंगे। ये बात अलग है कि यह मुलायम वाद भी सियासी ही था। अन्यथा अमर सिंह विधानसभा चुनाव में मुलायम की पार्टी को नुकसान पहुंचाने में जयप्रदा के साथ अपनी पूरी ताकत न लगा देते। इतना ही नहीं अमर ने यह भी कहा था कि वह जीते जी कभी न तो सपा में जाएंगे न मुलायम से टिकट मांगेंगे। लेकिन वक्त बलवान होता है। कभी मुलायम की जड़ खोदने में ताकत लगा दी थी आज मुलायमवादी हैं। इसी प्रकार बेनी प्रसाद वर्मा ने भी मुलायम के विरोध में कसर नहीं छोड़ी थी, अब साथ हैं।

इस प्रकरण में दो बातें विचारणीय है। एक यह कि बेनी प्रसाद वर्मा, अमर सिंह, आजम खां, रामगोपाल यादव सभी बयानवीर हैं। ऐसे में अब कौन बाजी मारेगा, यह देखना दिलचस्प होगा। दूसरा यह कि अब मुलायम सिंह की मेहरबानी किस पर अधिक होगी। रामगोपाल यादव पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं लेकिन प्रदेश से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर आजम खां बयान जारी न करें। वह अपनी बात सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से प्रारंभ करते हैं। फिर जरूरत पड़ी तो संयुक्त राष्ट्र संघ तक चले जाते हैं। कई बार लगता है कि सपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष और राष्ट्रीय प्रवक्ता के लिए कुछ करने को बचा ही नहीं है। आजम अकेले ही कसर पूरी कर देते हैं अब इस मामले में उनका सीधा मुकाबला बेनी प्रसाद वर्मा और अमर सिंह से होगा। क्योंकि ये नेता भी किसी विषय पर बिना बोले रह नहीं सकते लेकिन इस बार मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह को ही सर्वाधिक तरजीह दी है।

पार्टी के कोर ग्रुप को इसका बखूबी एहसास भी हो गया है। बेनी प्रसाद वर्मा की वापसी और उन्हें राज्यसभा में भेजने का कोई विरोध नहीं था। इसके विपरीत अमर सिंह को रोकने के लिए बेनी प्रसाद वर्मा, आजम और रामगोपाल ने जोर लगाया था, लेकिन मुलायम ने इनके विरोध को सिरे से खारिज किया है। इसका मतलब है कि वह इन तीनों नेताओं की सीमा निर्धारित करना चाहते हैं। यह बताना चाहते हैं कि विधायकों की जीत में इनका योगदान बहुत सीमित रहा है। इन विधायकों के बल पर किसे राज्यसभा भेजना है, इसका फैसला मुलायम ही लेंगे। इस फैसले ने सपा में अमर सिंह के विरोधियों को निराश किया है। समाजवादी पार्टी में इस मुलायमवादी नेता का महत्व बढ़ेगा।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

--आईएएनएस
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Sunday, 29 May 2016 00:00

बुंदेलखंड के दूसरा राजस्थान बनने का खतरा : राजेंद्र सिंह

संदीप पौराणिक
छतरपुर (मप्र), 29 मई (आईएएनएस)। जलपुरुष के नाम से चर्चित और प्रतिष्ठित स्टॉकहोम वाटर प्राइज से सम्मानित राजेंद्र सिंह ने सूखा की मार झेल रहे बुंदेलखंड के दूसरे राजस्थान (रेगिस्तान) बनने की आशंका जताई है।

सूखा प्रभावित क्षेत्रों में चार सामाजिक संगठनों द्वारा निकाली जा रही जल-हल यात्रा में हिस्सा लेने आए राजेंद्र सिंह ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, "राजस्थान तो रेत के कारण रेगिस्तान है, मगर बुंदेलखंड हालात के चलते रेगिस्तान में बदल सकता है। यहां के खेतों की मिट्टी के ऊपर सिल्ट जमा हो रही है, जो खेतों की पैदावार को ही खत्म कर सकती है।"

सिंह ने कहा कि जल-हल यात्रा के दौरान टीकमगढ़ और छतरपुर के तीन गांव की जो तस्वीर उन्होंने देखी है, वह डरावनी है। यहां इंसान को खाने के लिए अनाज और पीने के लिए पानी आसानी से सुलभ नहीं है। जानवरों के लिए चारा और पानी नहीं है। रोजगार के अभाव में युवा पीढ़ी पलायन कर गई है। इतना ही नहीं, नदियां पत्थरों में बदलती नजर आती हैं, तो तालाब गड्ढे बन गए हैं।

उन्होंने कहा कि इन सब स्थितियों के लिए सिर्फ प्रकृति को दोषी ठहराना उचित नहीं है। इसके लिए मानव भी कम जिम्मेदार नहीं है। ऐसा तो है नहीं कि बीते तीन वर्षो में बारिश हुई ही नहीं है। जो बारिश का पानी आया उसे भी हम रोक नहीं पाए। सरकारों का काम सिर्फ कागजों तक रहा। यही कारण है कि बीते तीन वर्षो से यहां सूखे के हालात बन रहे हैं। अब भी अगर नहीं चेते तो इस इलाके को दूसरा राजस्थान बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।

जलपुरुष का मानना है कि अब भी स्थितियों को सुधारा जा सकता है, क्योंकि मानसून करीब है। इसके लिए जरूरी है कि बारिश के ज्यादा से ज्यादा पानी को रोका जाए, नदियों को पुनर्जीवित करने का अभियान चले, तालाबों को गहरा किया जाए, नए तालाब बनाए जाएं। बारिश शुरू होने से पहले ये सारे प्रयास कर लिए गए, तो आगामी वर्ष में सूखा जैसे हालात को रोका जा सकेगा, अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर क्या होगा, यह तो ऊपर वाला ही जाने।

एक सवाल के जवाब में सिंह ने आईएएनएस से कहा, "अब तक दुष्काल का असर सीधे तौर पर गरीबों और जानवरों पर पड़ता था, मगर इस बार का असर अमीरों पर भी है। हर तरफ निराशा का भाव नजर आ रहा है, जो समाज के लिए ठीक नहीं है। वहीं मध्य प्रदेश की सरकार इससे अनजान बनी हुई है। यहां देखकर यह लगता ही नहीं है कि राज्य सरकार इस क्षेत्र के सूखे और अकाल को लेकर गंभीर भी है।"

देश के चार सामाजिक संगठनों स्वराज अभियान, एकता परिषद, नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) और जल बिरादरी ने मिलकर सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किए गए दिशा निर्देशों से हर किसी को जागृत करने और जमीनी हालात जानने के लिए जल-हल यात्रा निकाली है। यह यात्रा मराठवाड़ा के बाद बुंदेलखंड में चल रही है।

उन्होंने कहा कि मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में उन्हें ऐसा लगा ही नहीं कि राज्य सरकार सूखा के प्रतिबद्घ है। यहां न तो टैंकरों से पानी की आपूर्ति हो रही है, न तो राशन का अनाज मिल रहा है। इतना ही नहीं, जानवर मर रहे हैं। उनके लिए न तो पानी का इंतजाम किया गया है और न ही चारा शिविर शुरू हुए हैं।

उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार को आवश्यक दिशा निर्देश दिए हैं। प्रभावित क्षेत्रों के प्रति व्यक्ति को पांच किलो प्रतिमाह अनाज देने, गर्मी की छुट्टी के बावजूद विद्यालयों में मध्याह्न भोजन देने, सप्ताह में कम से कम तीन दिन अंडा या दूध देने और मनरेगा के जरिए रोजगार उपलब्ध कराने के निर्देश दिए गए हैं। ये निर्देश मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में तो सफल होते नजर नहीं आए।

उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैला हुआ है। मप्र के छह जिले और उप्र के सात जिले इस क्षेत्र में आते हैं, हर तरफ सूखे से हाहाकार मची हुई है। जल स्रोत सूख गए हैं।

--आईएएनएस

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Sunday, 29 May 2016 00:00

विशेष: देश में अब भी 88 हजार कुष्ठ रोगी

चारू बाहरी
उत्तर प्रदेश के एक खेतिहर मजदूर प्रदीप कुमार (24) का इलाज तीन साल से एक ऐसे रोग के लिए हो रहा है जिसे 11 साल पहले बहुत हद तक भारत से भगा दिया गया था। वह रोग कोई और नहीं, बल्कि कुष्ठ है। भारत में अभी भी कुष्ठ रोगियों की संख्या 88,833 है।

कुष्ठ मनुष्य की सबसे पुरानी बीमारियों में एक है। ईसाई धर्मग्रंथ 'बाइबिल' में इसका आमतौर पर उल्लेख किया गया है। यह रोग पीड़ित के रूप रंग खराब करने और बाद में उन्हें समाज से बहिष्कृत किए जाने के लिए कुख्यात है।

1991 में जब भारत में आर्थिक उदारीकरण शुरू किया गया तो यहां प्रति दस हजार जनसंख्या पर 26 कुष्ठ रोगी थे, लेकिन 14 वर्षो के अंदर लगातार प्रयासों और बहुऔषधि उपचार के कारण यह संख्या 25 गुना घट कर प्रति दस हजार एक हो गई।

सन् 2000 में विश्व ने कुष्ठ रोग के वैश्विक उन्मूलन के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन का लक्ष्य हासिल किया।

2001 से 2005 के दौरान जब भारत ने लक्ष्य हासिल किया तो दुनिया में कुष्ठ रोगियों की संख्या 61 प्रतिशत (763,262 से 296,499) कम हो गई। बहुत हद तक ऐसा इसलिए हुआ कि भारत में कुष्ठ रोगियों की संख्या चार गुना (615,000 से 161,457) कम हो गई थी।

विशेषज्ञों का मानना है कि इसके बाद से खास तौर पर विगत पांच साल में भारत में कुष्ठ रोग नियंत्रण के लिए नए दृष्टिकोण नहीं अपनाए जाने से इस दिशा में थोड़ा ठहराव आ गया है। कुष्ठ नियंत्रण में ठहराव के मद्देनजर सन् 2013 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस विषय पर अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन आयोजित था।

वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है कि कुष्ठ रोग सरकार के रडार से उतर गया है। भारत में हर साल पहचान किए जाने वाले 125000 कुष्ठ रोगियों में प्रदीप कुमार भी एक हैं, जबकि दुनिया भर में कुष्ठ रोग के 58 प्रतिशत नए मामले सामने आए।

हालांकि भारत में अभी कुष्ठ रोगियों की प्रचलित दर करीब प्रति दस हजार 0.69 है, अर्थात भारत में कुष्ठ रोगियों की संख्या 88,833 है।

एक गैर सरकारी संगठन भारतीय कुष्ठ मिशन ट्रस्ट के कार्यकारी निदेशक सुनील आनंद के अनुसार यह अधिकारिक आंकड़ा है, जबकि वास्तव में कुष्ठ रोगियों की संख्या दो गुना और यहां तक कि चार गुना भी अधिक हो सकती है।

इस तरह जब भारत में कुष्ठ रोग के खिलाफ लड़ाई में ठहराव आ गया है तो कुष्ठ रोग मुक्त विश्व की दिशा में भी प्रगति रुक गई है।

नए वैश्विक लक्ष्य भारत में कुष्ठ रोग के खिलाफ लड़ाई पुन: शुरू होने की उम्मीद करते हैं।

इस साल के शुरू में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2020 तक की समय सीमा के साथ कुष्ठ रोधी नई रणनीति का खुलासा किया जो भारत को कुष्ठ नियंत्रण की दिशा में आगे बढ़ने के लिए बाध्य करेगी।

--आईएएनएस

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Sunday, 29 May 2016 00:00

पीएचडी डिग्रीधारक पेट के लिए काट रहा बाल

मनोज पाठक
रांची, 29 मई (आईएएनएस)। एक ओर जहां देश की राजनीति में ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों की शैक्षणिक डिग्री पर सवाल उठ रहे हैं, वहीं झारखंड की राजधानी रांची में पीएचडी डिग्री धारक और कॉलेज में विजिटिंग प्रोफेसर का काम करने वाले एक व्यक्ति को अपने परिवार का पेट पालने के लिए फुटपाथ पर सैलून चलाना पड़ रहा है।

रांची के महात्मा गांधी रोड के किनारे फुटपाथ पर अपनी सैलून चलाने वाले रामनगर निवासी अशरफ हुसैन इस दुकान पर खुद ग्राहकों की दाढ़ी और बाल काटते हैं। नाई का काम करने वाले डा. अशरफ न केवल परास्तानक (एमए) की पढ़ाई पूरी की है, बल्कि 'ए कम्परेटिव एंड एनालिटिकल स्टडी आफ साऊथ उर्दू स्टोरी रायटर इन झारखण्ड' विषय पर शोध भी कर चुके हैं।

अशरफ आईएएनएस को बताते हैं कि वर्ष 2015 से मौलाना आजाद कलेज में बतौर 'विजिटिंग प्रोफेसर' बच्चों को पढ़ा रहे हैं, परंतु कॉलेज से मिलने वाले प्रतिमाह तीन हजार रुपये से घर नहीं चलता इसलिए पैतृक व्यवसाय हजाम का भी काम करना पड़ता है।

क्षेत्र में 'डॉक्टर' के नाम से प्रसिद्घ अशरफ कहते हैं कि वह भले ही फुटपाथ पर दो कुर्सी और एक आइना लेकर दुकान चलाते हों परंतु उनके पास ग्राहकों की कोई कमी नहीं है। उनके पास इतने ग्राहक आ जाते हैं जिनसे मिले पैसे से उनके परिवार का गुजारा चल जाता है।

अशरफ कहते हैं कि अगर वह चाहते तो उन्हें निजी कम्पनी में नौकरी मिल जाती लेकिन नौकरी में सिमट कर रह जाने के डर के कारण उन्होंने विरासत में मिले इस नाई के काम को करना पसंद किया।

अशरफ ने कहा कि बचपन से ही उन्हें उच्च शिक्षा पाने की लालसा थी लेकिन पारिवारिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह बिना कुछ कमाए अपनी पढ़ाई कर सकते थे। इस कारण वह अपने पिता की हजामत की दुकान पर ही अपना जीवन गुजारने लगे लेकिन उनमें पढ़ाई की ललक कम नहीं हुई। काम करते हुए ही उन्होंने 2011 में पीएचडी की उपाधि हासिल की।

इन्होंने अनवरी बेगम और सबूही तारिक जैसी झारखण्ड की महिलाओं पर किताब भी लिखी है। किताब प्रकाशित करवाने को जब उनके पास पैसे नहीं थे तब इन्होंने दोस्तों से मदद मांगी और तब जाकर इस किताब की 500 कॉपी छपवाई गई। अशरफ का दावा है कि इस विषय पर लिखी उनकी यह किताब अपने आप में पहली है।

डी-लिट् की उपाधि हासिल करने की चाहत रखने वाले अशरफ के पिता ने कभी स्कूल का रुख नहीं किया लेकिन अपने बच्चों को अच्छी तालीम दी। 1989 में इंटर की परीक्षा के बाद अशरफ के सिर पर परिवार की जिम्मेदारी आ गई। लगभग दस सालों तक किताबों से नाता टूट गया फिर इन्होंने 2002 में स्नातक किया और फिर तमाम कठिनाइयों का सामना करते हुए पीएचडी तक की।

अशरफ को हिन्दी भाषा से भी बहुत लगाव है। यही कारण है कि वह अपने पुत्र को हिन्दी विषय में शोध कराना चाहते हैं। उन्होंने बताया कि उनका पुत्र अभी मदरसा में रहकर पढ़ाई कर रहा है परंतु वह हिन्दी में उसे शोध कराना चाहेंगे, जिससे घर में उर्दू और हिन्दी का संगम हो सके।

ग्राहक भी अशरफ के पास बाल बनवाकर और सेविंग कराकर खुश होते हैं। ग्राहकों का मानना है कि इतने शिक्षित व्यक्ति से सेविंग करा कर वे खुद गौरवान्वित महसूस करते हैं।

--आईएएनएस

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संदीप पौराणिक
छतरपुर (मप्र), 27 मई (आईएएनएस)। सूखाग्रस्त बुंदेलखंड के लिए मनरेगा किसी वरदान से कम नहीं है, मगर मध्य प्रदेश सरकार इस योजना का लाभ भी यहां के जरूरतमंदों को देने में नाकाम रही है। अप्रैल माह में अनुमान के विपरीत सिर्फ 29 प्रतिशत लोगों को ही मनरेगा के जरिए रोजगार मुहैया कराया गया है, वहीं बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से की स्थिति एकदम जुदा है। यहां अनुमान से ज्यादा, 132 प्रतिशत लोगों को मनरेगा से काम मिला है।

स्वराज अभियान के संयोजक योगेंद्र यादव द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़े बताते हैं कि मध्य प्रदेश के छह जिलों में अप्रैल माह में 18 लाख 81 हजार 296 मानव दिवस रोजगार की संभावना जताई गई थी, मगर रोजगार सिर्फ पांच लाख 47 हजार 136 मानव दिवस का ही मिल सका। इस तरह कुल संभावना का सिर्फ 29 प्रतिशत मानव दिवस का काम ही मिला। ये आंकड़े मनरेगा वेबसाइट से लिए गए हैं।

बुंदेलखंड मध्य प्रदेश के छह जिलों छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, सागर, दमोह व दतिया और उत्तर प्रदेश के सात जिलों झांसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, बांदा, महोबा, चित्रकूट को मिलाकर बनता है। इस तरह बुंदेलखंड में 13 जिले आते हैं।

यादव ने आईएएनएस से कहा, "वे हमेशा यह मानते रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के मुकाबले मध्य प्रदेश की सरकार न केवल बेहतर है, बल्कि काम भी अच्छा कर रही है, मगर जमीनी हकीकत कुछ और ही है। मनरेगा के आंकड़े बहुत कुछ कह जाते हैं।"

मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में संभावना के मुकाबले छतरपुर में 24 प्रतिशत, दमोह में 40 प्रतिशत, पन्ना में 16 प्रतिशत, सागर में 41 प्रतिशत और टीकमगढ़ में 20 प्रतिशत मानव दिवस काम उपलब्ध हो सका है। वहीं उत्तर प्रदेश में अनुमान से 132 प्रतिशत मानव दिवस सृजित किया गया।

यादव ने कहा कि मनरेगा के यह आंकड़े बहुत कुछ बयां कर जाते हैं। मनरेगा में एक दिन की मजदूरी 167 रुपये है। सूखा प्रभावित लोगों को अगर माह में सिर्फ 10 दिन ही काम मिल जाए तो उनका जीवन चल सकता है, लेकिन मध्य प्रदेश में तो यह भी लोगों को नहीं मिल पा रहा है।

उन्होंने कहा कि एक तरफ पीने का पानी आसानी से नहीं मिल रहा, पशुओं के लिए चारा नहीं है, दूसरी तरफ रोजगार के इंतजाम नहीं हैं। यही कारण है कि बड़ी संख्या में लोगों को पलायन का रास्ता चुनना पड़ा है।

मनरेगा के तहत काम कराने के अनुमान के आधार पर केंद्र से बजट की मांग की जाती है। मध्य प्रदेश सरकार ने रोजगार देने के लिए जो अनुमान लगाया था उसके मुताबिक ग्रामीणों को रोजगार नहीं मिला है। उत्तर प्रदेश ने 6,63,584 कार्य दिवस रोजगार की मांग थी। इसके मुकाबले 8,74,665 कार्य दिवस काम दिए गए। यह मांग की तुलना में 32 प्रतिशत अधिक है, यानी कुल मिलाकर 132 प्रतिशत कार्य हुए।

--आईएएनएस
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रायपुर, 26 मई (आईएएनएस)। छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में भीषण सूखे ने 14 साल बाद लोगों को शिवलिंग के दर्शन कराए हैं। भीषण गर्मी के चलते ब्लॉक के बेलरगांव से 10 किलोमीटर दूर दुधावा बांध के डूब क्षेत्र देवखुंट पारा में प्राचीन पुरातत्व देऊर मंदिर के भीतर स्थापित शिवलिंग के दर्शन 14 साल बाद हो रहे हैं।

शिवलिंग के दर्शन करने बड़ी संख्या में लोग यहां पहुंच रहे हैं। नगरी-सिहावा क्षेत्र में विभिन्न स्थानों पर पुरातत्व महत्व के अनेक प्राचीन मंदिर और प्रतिमाएं मौजूद हैं।

वर्षभर दुधावा बांध के पानी के भीतर देवखुंटपारा का पुरातत्व देऊर मंदिर डूबा रहता है। हर वर्ष यह मंदिर गर्मी के दिनों में लोगों को दिखता जरूर था, लेकिन मंदिर के भीतर गर्भगृह में स्थित शिवलिंग के दर्शन नहीं हो पाते थे। 14 साल बाद इस साल लोगों को भगवान शिव के दर्शन हो रहे हैं। यहां पूरा मंदिर पत्थरों पर एक-दूसरे के ऊपर रखकर बनाया गया है।

मंदिर के विषय में बेलर के शंभु साहू एवं मौर्यध्वज सेन ने बताया कि यह मंदिर 10वीं सदी का है। जनश्रुति के अनुसार छैमासी अंधेरे पक्ष में इसका निर्माण किया गया था।

नगरी क्षेत्र के कर्णेश्वर में स्थित सूर्य मंदिर एवं देवखुंट मंदिर की निर्माण कला में समानता देखने को मिलती है। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों मंदिर एक ही काल में निर्मित हुए होंगे। देऊरमंदिर के पास ही अन्य मंदिर भी थे, जो ढह चुके हैं। उनके अवशेष यहां-वहां बिखरे पड़े हैं।

मंदिर के प्रांगण में ही एक ओर शिवलिंग है, चारों ओर प्राचीन पत्थर बिखरे पड़े हैं, जिन पर कलाकृति एवं नक्काशी का नायब नमूना देखने को मिलता है।

लोगों का कहना है कि धरातल में दबे इतिहास और पुरातात्विक महत्व को आगे लाने के लिए पुरातत्व विभाग को इस दिशा में गंभीरता से प्रयास करना चाहिए।

-- आईएएनएस
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Thursday, 26 May 2016 10:00

कम से कम शुद्ध खाने के लिए तो ईमानदार कानून हो!


ऋतुपर्ण दवे
लीजिए, अब ब्रेड भी खतरनाक हो गई! इसके खाने से कैंसर के खतरे का खुलासा हुआ है! अक्सर भारत में ही खाने-पीने की चीजों को लेकर इस तरह के खुलासे ज्यादा होते हैं? निश्चित रूप से देश में अब इस पर बड़ी बहस होनी चाहिए। खाने के निवाले के साथ भी जहर का व्यापार?

हो सकता है यह सुनने में अटपटा लगे, लेकिन हकीकत यही है कि देश में 2011 से पहले कच्चे खाद्य पदार्थो की जांच का कोई नियम नहीं था। इसी कारण मिलावटखोरों की चांदी रही और मनमानी का रवैया, तब भी था और अब भी बना हुआ है। हालांकि 'भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकार' यानी एफएसएसएआई ने 2011 में नियम बनाया और तय हुआ कि कच्चे माल की भी जांच की जाएगी, एक सूची तैयार होगी जिससे ये पता चल सके कि कहां पर खतरनाक रसायन, खुद-ब-खुद बन सकते हैं और ये किस खाद्य पदार्थ से बनते हैं। ऐसे परीक्षण हर पांच साल में किए किए जाएंगे। लेकिन ऐसा लगता है कि यह कानून अभी अपनी शैशव अवस्था में है, इसे और कठोर बनाकर मिलावट के विरुद्ध, मृत्युदण्ड तुल्य अपराध की श्रेणी में लाया जाएगा, तभी देश के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ रुकेगा।

ब्रेड में कैंसर पैदा करने वाले कथित संभावित रसायन के मिलने से लोगों में जबरदस्त दहशत है। फिलहाल सारे मामले दिल्ली के हैं। जब राष्ट्रीय राजधानी में बिकने वाले नामी ब्रान्डों के ये हाल हैं तो पूरे देश में क्या स्थिति होगी, कहने की जरूरत नहीं। सेंटर फॉर साइंस एण्ड एनवायरमेण्ट यानी सीएसई की पॉल्यूशन मॉनीटरिंग लैबोरेटरी (पीएमएल) ने अपनी जांच में पाया कि दिल्ली में बिकने वाले ब्रेड, पाव, बन, सफेद ब्रेड, तैयार पिज्जा और बर्गर ब्रेड के सैंपलों की जांच में 84 प्रतिशत में पोटेशियम ब्रोमेट और पोटेशियम आयोडेट मिला जो कई दूसरे देशों में खतरानाक घोषित कर प्रतिबंधित हो चुका है। इसे लोकस्वास्थ्य के लिए खतरा बताते हुए दावा किया गया है कि एक रसायन बी2 श्रेणी का कार्सिनोजेन है जबकि दूसरे से थायराइड का विकार बन सकता है।

सीएसआई की ओर से यह भी दावा किया गया कि उसने पोटेशयम ब्रोमेट और आयोडेट की मौजूदगी की जांच तीसरी और स्वतंत्र जगह से खुद कराई ताकि अपनी जांच पर भरोसा हो सके, वहां भी 75 प्रतिशत से ज्यादा मामले पॉजिटिव आए। अब सीएसई ने एफएसएसएआई से इनके इस्तेमाल पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने की मांग की है। कुछ इसी अंदाज में घर-घर रसोई में जगह बना चुकी दो मिनट में झटपट मैगी नूडल्स में भी बीते वर्ष जून में खतरनाक तत्व एमएसजी और लेड की पायी गयी अधिक मात्रा को शरीर के लिए खतरनाक कहते हुए इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। उप्र के बाराबंकी से शुरू मामला, देश के कई राज्यों में पहुंचा और मैगी के बुरे दिन आ गए। 5 जून 2015 को 'भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकार' ने प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन उसी वर्ष अगस्त में बंबई हाईकोर्ट ने कुछ शर्तो के साथ मैगी से पाबंदी हटाई, तब 9 नवंबर को दोबारा बाजार में उतारा गया।

देश में खाद्य वस्तुओं में मिलावट, मुनाफाखोरी का सबसे आसान जरिया बन गई है। खाने-पीने की चीजें बिल्कुल सुरक्षित नहीं हैं। बीते वर्ष मुंबई में 64 फीसद खुला खाने का तेल मिलावटी पाया गया था। बड़ौदा में एक विश्वविद्यालय की जांच में दाल और सब्जियों के सैंपल में आर्सेनिक मिला था। उत्तर प्रदेश में एक जांच में 28 प्रतिशत अंडों में ई-कोलाई बैक्टीरिया पाया गया था। हद तो तब हो गई जब देश भर में लगभग 1700 दूध के नमूनों में 69 प्रतिशत, भारतीय मानक के हिसाब से सुरक्षित नहीं थे। अधिक मुनाफे के लिए लौकी और खीरा सहित तमाम सब्जियों का रातों रात आकार और वजन बढ़ाने, ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन का सहारा लिया जा रहा है। सब्जियों के विटामिन्स तो खत्म होते ही हैं, लीवर और किडनी को भी ऑक्सीटोसिन प्रभावित करते हैं। नकली घी, नकली मावा, नकली छेना, मिलावटी खाद्य तेल, इस सफाई से बनाया जाता है कि सर्वसाधारण के लिए पहचानना मुश्किल है।

कई फलों को पकाने, स्वास्थ्य के लिए खतरनाक रसायनों का उपोयग एकदम आम हो गया है। आम पकाने के कैल्सियम कार्बाइड का उपयोग शरीर के लिए बेहद नुकसानदेह सिद्ध हो चुका है। इसी तरह पहले केला भी पकता था, अब तो और भी खतरनाक तकनीक अपनाई जाकर 48 घण्टों में पका लिया जाता है। पेस्टीसाइड की दुकानों में मिलने वाले प्लांट ग्रोथ रेगुलेटरों जो इथरेल या इथीगोल्ड या दूसरे कई नामों से भी मिलते हैं, धड़ल्ले से उपोयग किए जाते हैं।

टबों में पानी भरकर उक्त रसायन मिलाया जाता है, उसमें केले डुबोये जाते हैं फिर एल्युमीनियम शीट से ढककर चैम्बर बनाते हैं और एक निश्चित तापमान से नियंत्रित करते हैं और 48 घंटों में केला पक जाता है, छिलका हरा रहता है। इसमें न कैल्सियम कार्बाइड जैसी बू आती है न ही काला पड़ता है। ऐसे ही पपीते भी पकते हैं। कई जगह सब्जियों को हरा दिखाने, खतरनाक रसायनों के उपयोग की बात भी सामने आई है। ये सब मानव शरीर के विभिन्न अंगों पर बुरा प्रभाव डालते हैं।

लेकिन सवाल फिर वही कि भारत में ही खाने-पीने की चीजों में जब-तब मिलावट का खुलासा क्या बड़ी चिन्ता की बात नहीं? वैसे भी देश में कुपोषण की स्थिति कैसी है, सबको पता है। पौष्टिक चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। गरीबों का सबसे पौष्टिक निवाला, दाल, सातवें आसमान पर है। अब तो हद ही हो गई क्योंकि मिलावट और जहर के घेरे में आम और खास की पसंद और सर्वसुलभ, ब्रेड और उसके उत्पाद, बीमारियों का न्यौता बन गए हैं। इंसान खाएगा क्या?

सवाल फिर वही कि भारत में क्या गरीब, क्या अमीर, सबके निवालों पर ही मिलावट या चटखारे बढ़ाने या जल्द पकाने के लिए प्रतिबंधित रसायनों पर रोक लगाने, कोई तय दिशा निर्देश नहीं है तो ये रुकेगा कैसे? कानून भी ऐसे जो कई विभागों की आपस में गुत्थमगुत्थी और गेंद एक दूसरे के पाले में फेंकने की छूट हैं। ये सब स्वास्थ्य पर कितना भारी पड़ रहा है, इसकी किसी को फिकर नहीं। कई विभाग और सबके अलग अधिकारों का फायदा उठाकर, मुनाफाखोर ऐन-केन-प्रकारेण बच ही निकलता है। हां, पिसता है तो सिर्फ और सिर्फ आम आदमी।

देश में तमाम बेकार और पुराने पड़े कानूनों को समाप्त करने की बात तो ताल ठोंककर की जाती है लेकिन स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने वालों के खिलाफ सारा कुछ एक ही कानून में लाकर समेटने की बात क्यूं नहीं होती? कितना अच्छा हो लोकतंत्र के माननीय इस दिशा में कुछ अच्छा, जल्द से जल्द करते ताकि 65 फीसदी युवाओं का भारत, मिलावट से मुक्ति पाकर दो जून का शुद्ध निवाला तो खा सके! (आईएएनएस)

-- आईएएनएस
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