संदीप नाईक
ये देश क्या होता है और कितने लोग जानते बूझते है देश, देश प्रेम और देश द्रोह का सही अर्थ, जिस देश में सरकार के कारण रोहित वेमुला को मरना पड़े या एक गरीब छात्र कन्हैया को गिरफ्तार होना पड़े अपने ही विश्व विद्यालय से एक ऐसे कृत्य के लिए जिसमे उसका कोई दोष ही नहीं, बल्कि दोष यह है कि वह चुनी हुई छात्र परिषद् का अध्यक्ष है, उस देश में इससे ज्यादा शर्मनाक नहीं हो सकता. जिसने नारे लगाए उसे पकड़ना छोड़कर निर्दोष को पकड़ना सिर्फ कमजोरी दर्शाता है और हर तरफ से बैकफूट पर आ चुकी सरकार की गहरी हताशा और कुंठा. देश में आजादी के बाद संभवतः यह पहला अवसर है जब मोदी जी को लखनऊ से लेकर दिल्ली तक छात्रों के समूहों का विरोध झेलना पड़ रहा है.
थोडा गहराई में जाए तो हम पायेंगे कि ये समूचा आन्दोलन रोहित वेमुला की मौत के बाद उठे दलित आन्दोलन को कुचलने की परिणिति के तहत उभरा है और अब यह साफ़ है कि जे एन यु के बहाने सरकार दलित आन्दोलन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नकल कसने की जोरदार तैयारी में है. छदम हिंदुवादियों और फासिस्ट ताकतों का गठजोड़, कांग्रेस और वामपंथी दलों का चुप रहना बहुत घातक है इस समय. यह पढ़े लिखे लोगों के खिलाफ कम पढ़े लिखे लोगों के द्वारा अपनी एकमात्र विचारधारा को थोपने और यदि नहीं माने तो जेल से लेकर ह्त्या कर देना या आत्महत्या के लिए उकसाना भी राज्य करवा सकता है यह शायद इस पूरे घटनाक्रम से सीख निकली है जोकि बेहद खतरनाक है.
कितना लाचार है इस सरकार का हताश तंत्र जिसका गृह मंत्री बाकी सारे महत्पूर्ण काम छोड़कर एक विवि में पीछे समय लगा रहा है, और एक फर्जी ट्वीटर के जरिये को विश्वसनीय मानकर इस घटना का समबन्ध हाफिज से बता रहा है. काश कि गृह मंत्री यह समझ पाते कि यदि ऐसा कुछ हुआ भी है तो ये युवा देश के और अपने ही समाज से आये है जिन्हें समझाने की जरुरत है बजाय इस तरह की बयानबाजी करने के वे खुद विवि में जाते और बात सुनने का प्रयास करते. काश कि राजनाथ सिंह यह दम पाकिस्तान के सामने दिखाते तो सच में मोदी जी का छप्पन इंच का सीना दमकता.......दम होता तो जाते और दाउद को ले आते, नवाज शरीफ से पंगा लेते, दिल्ली में हार जाने का अपराध बोध, अरविन्द की लोकप्रियता से जल भुनकर इस हद तक आ गए कि एक गरीब घर के बच्चे को गिरफ्तार कर लिया, ऊपर से दिल्ली के पुलिस कमिश्नर बस्सी और उनकी फौज को इस्तेमाल करके अपनी छबि कब तक चमकाने लग गए.
सन 1991-92 में आडवानी ने रथ यात्रा निकालकर मंडल आयोग की रिपोर्ट को कमजोर किया था और प्रमाणपत्र बांटे थे नागरिकता के, प्रगतिशील लोगों ने तब भी आडवानी से नही माँगा था और आज रोहित की मौत के बाद ये अपनी हताशा और कुछ ना कर पाने की बेबसी को जेएनयू के बहाने समूचे दलित और वंचित आन्दोलन को कमजोर करना चाहते है, गांधी को कितनी बार मारोगे, पूरी दुनिया देख रही है, जो छबि तुमने बनाई थी विकास और गति की वह औंधे मुह पडी है आज गटर में, और यह भी कि दो साल के पहले ही कितना विध्वंस कर दिया देश का और हजार साल पीछे पत्थर युग में ले गए हो.......
गाली गलौज और बदतमीजी से यदि समस्याएं सुलझ सकती तो अमेरिका सिर्फ गालियों का ही आयात निर्यात करता, जब कहता हूँ कि कूढ मगज और अधकचरे दीनानाथ प्रदत्त इतिहास और संस्कृति ज्ञान की रट्टा मार परीक्षाएं पढ़कर आये ज्ञान से और एक विशेष कुंठित विचार धारा से पढ़कर आये शिक्षालयों के प्रोडक्ट ऐसे ही निकलेंगे. भ्रष्ट और हत्यारे सिपहसालार, तुम्हारे मुख्यमंत्री, बलात्कारी मंत्रियों की फौज, जुबान पर काबू खो चुके केबिनेट मंत्रीगण, तुम्हारे उद्योगपति, तुम्हारे नेताओं और मंत्रियों का व्यापमं के बहाने, नक्सलवाद के बहाने, जरुरी वस्तुओं, दवाईयों और पेट्रोल - डीजल के भाव बढाने का खेल या टैक्स चोरी का खेल अब समझ आ रहा है आम आदमी को - इसलिए अपढ़ और लठैत ब्रिग्रेड की बौखलाहट और हताशा जाहिर है सामने आना ही थी.
जे एन यु देश का एकमात्र विश्व विद्यालय है जिसकी छबि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है जहां दुनिया के कोने कोने से छात्र पढ़ने आते है और यहाँ अंतर्राष्ट्रीय विकास राजनीती और समाज विज्ञान का अध्ययन होता है. कब तक यह सरकार और मानसिकता भारतीय विश्वविद्यालयों को माखनलाल पत्रकारिता भोपाल में बिठाई चोकडी की तरह कब्जा करके हथियाने के ख्वाब संजोती रहेगी, ये सरकार कब तक आम लोगों को जरुरी चीजों से महरूम रखेगी, कब तक अघोषित आपातकाल लगाकर कांग्रेस के साठ साला शासन को कोसकर समय माँगते रहेगी, गांधी के हत्यारे गोडसे के जश्न मानाने वालों को छुट देकर वल्लभ भाई पटेल की मूर्ती बनाने का काम करती रहेगी, असलियत सामने है और लोग तय करेंगे.....
सरकार की मंशा यह है कि जे एन यु को इस तरह से बदलना चाहते है जैसे काशी विवि के मुख्य द्वार से सञ्चालन निकलता है ठीक उसी की तरह से जे एन यु भी बदल जाए. मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह लगता है कि यह सब राजनाथ सिंह का किया धरा बवाल है जो अब प्रधान मंत्री बनना चाहते है और इसलिए बाकि सारे काम छोड़कर इनकी इच्छाएं बलवती हो रही है. जानते है ना कि आडवाणी कभी बन ही नही पाएं और समझ गए है कि 2019 में वापिस आने की संभावना कम है।
भाजपा के अंदर की अंतर्कलह सामने है और मोदी जी को जितना खतरा पाक से नही जितना भाजपा से है तभी वे अमित शाह के अलावा किसी और पर विश्वास नही करते, खैर राजनाथ ने अभाविप के द्वारा लगाये पाक जिंदाबाद नारों को उनके मित्र हाफिज सईद से जोड़ा है और उसके ट्वीटर अकाउंट का हवाला दिया है वह उनकी योग्यता और कुशलता का प्रमाण है। उप्र भाजपा से लगभग निष्कासित राजनाथ के पांसे उलटे पड़े है. देश की बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, गरीबी, महिला हिंसा से लड़ो........दम है तो शिक्षा में बदलाव लाओ......कब तक मुद्दों से भटककर उद्योगपतियों को मदद करते रहोगे, कब तक दलितों को कुचलने के कुत्सित प्रयास करते रहोगे?
क्या यह सही समय नही जब हम जैसे लोगों को सब छोड़कर सड़कों पर आना चाहिए और जलेस, प्रलेस, जसम, और समान विचारधारा के लोगों को सामने आकर लोगों को बताना चाहिए। हमारे कई साथी पक्की सरकारी नोकरी, बैंक, कार्पोरेट्स, पी एस यु आदि में रहकर दुदुंभी बजाते है और बाहर आकर रुदालियों की तरह से गीत गाते है, जन के लिए कविता- कहानी लिखते है, और जनपक्षधरता की बात करते है। असल में दोमुंहापन वाम दलो और प्रगतिशीलों का जीवन चरित्र बन गया है और ऐसे समय में जब सब कुछ नष्ट हो रहा है तो क्यों नही इन्ही की तरह सड़कों पर आते है ? दिक्कत यह है कि इन्ही गाली देने वाले वामियों ने इसी सरकार से अरबो रुपयों की जमीन हासिल की है और मठ बनाकर बैठे है, बड़ी संस्थाएं को हथियाकर बैठे है, विश्व विद्यालयों में पद और पीठों पर आसीन है और वाम की छाती पर पैर रखकर वे सत्ता का भोग कर हवाई यात्राओं से लेकर जीवन की लक्ज़री बटोर रहे है और पद्म पुरस्कारों की होड़ में है।दर्जनों लोगों को मैं जानता हूँ जो नासूर है और वाम की रोटी खाकर वाह वाही लूट रहे है और धन बटोर कर आने वाली सात पीढ़ियों को कुबेर बना दिए है। वाम दलों को अपना आत्म मन्थन करना चाहिए ताकि दूसरों से लड़ने के पहले खुद "ताकत" प्राप्त करें।
विश्व विद्यालयों को ज्ञान और खुलेपन का प्रतीक होना चाहिए जहां हजार प्रकार के विचार जन्में, सैंकड़ों प्रयोग हो, नवाचार हो और छात्रों को नित नया ज्ञान मिले और वे देश हित के लिए अपनी मानसिकता बना सकें. यदि शिक्षा के मंदिरों में पुलिस राजनीती, कूटनीती और छदम बुद्धिजीविता प्रवेश कर जायेगी तो फिर सीखने को बचेगा क्या, लोकतंत्र की खूबसूरती ही यह होती है कि वह सब तरह की विचारधारा प्रयोग और नवोन्मेषी विचारों को स्थान देता है. आईये इन सारे संदर्भो और प्रसंगों को देखते हुए 'जनशिक्षा" को पुनः परिभाषित करें और व्याख्या करते हुए नई इबारतें लिखें ।