मां होना ही सबसे बड़ा तोहफा (मदर्स डे विशेष)
रीतू तोमर
नई दिल्ली, 7 मई (आईएएनएस)। जब कोई भी बात या किस्सा मां से जुड़ा हुआ हो तो वह खास ही होता है। आठ मई को 'मदर्स डे' पर आप अनूठे तरीके से मां के प्रति अपने प्यार को जता सकते हैं। इस दिन को सेलिब्रेट करने के तरीकों में नित नए प्रयोग किए जा रहे हैं।
ग्रीटिंग कार्ड, फूलों और चॉकलेट के बजाए अब हाईटेक तरीकों से मां के प्रति प्यार को दर्शाने का चलन है। कई कंपनियां और संगठन अनूठे तरीकों से इस दिन को खास बनाने पर कई महीने पहले से ही तैयारी शुरू कर देते हैं।
देश की मैसेंजिंग एप 'हाइक' ने अपने 10 करोड़ उपयोगकर्ताओं के लिए 'मदर्स डे' के दिन विशेष रूप से 'माइक्रोएप' शुरू किया है। इसके जरिए हाइक उपयोगकर्ता तस्वीर लगाने, सामग्री को संपादित करने और अपनी मां के प्रति प्यार दर्शाने के लिए संदेश लिख सकते हैं।
फैशन डिजाइनर प्रीति घई ने आईएएनएस को बताया, "हमने मदर्स डे के लिए खास परिधान कलेक्शन तैयार किया है। सिंपल सूट से लेकर डिजाइनर साड़ियों का संग्रह तैयार है। इसे 'पावर वूमन' संग्रह का नाम दिया गया है। इसमें अनारकली, जिप साड़ी है। कामकाजी महिलाओं से लेकर घरेलू महिलाओं तक के लिए कुछ न कुछ तैयार किया गया है।"
उन्होंने कहा, "हमने ग्राहकों की सलाह पर उनकी मां के पसंदीदा रंगों एवं डिजाइन को ध्यान में रखकर कलेक्शन तैयार किया गया है। इनकी 7,000 रुपये से लेकर 30,000 रुपये तक है।"
अभिनेत्री व कमेंट्रेटर मंदिरा बेदी ने आईएएनएस को बताया, "मदर्स डे अपनी मां के प्रति प्यार दिखाने का दिन है, लेकिन इसे सिर्फ एक दिन की दायरे में नहीं बांधा जाना चाहिए। मां को कसकर एक प्यार की झप्पी दें और उनका ख्याल रखें। इससे बेहतर तोहफा और कुछ नहीं हो सकता।"
गैर सरकारी संगठन 'अस्तित्व' से जुड़े बच्चों ने मदर्स डे के लिए खास क्रोशिए से बने खूबसूरत डिजाइनर स्टॉल तैयार किए हैं। इन प्रिंटेड स्टॉल्स की कीमत 450 रुपये से शुरू हैं। इनकी खास बात यह है कि प्योर जॉर्जेट के प्रिंटेड स्टॉल्स पर कॉटन क्रोशिए धागे का काम किया गया है और इसे हाथों से आसानी से धोया जा सकता है।
'अस्तित्व' की संचालिका अनामिका यदुवंशी ने आईएएनएस को बताया, "इस मदर्स डे पर इन प्यारे स्टॉल्स से बेहतर तोहफा एक मां के लिए और क्या हो सकता है।"
मदर्स डे के मौके पर स्तन कैंसर के बारे में जागरूकता पैदा कर रही 'कैंसर हीलर सेंटर' की निदेशिका दीपिका कृष्णा ने आईएएनएस से कहा, "मांओं को अपने बच्चों से तोहफे की जरूरत नहीं है। वे दिनभर के कामकाज में इतनी व्यस्त होती हैं कि उन्हें स्वयं की सेहत का ध्यान ही नहीं रहता। इस मदर्स डे अपनी मां का पूर्ण चेकअप कराने का प्रण लें।"
फिल्म 'नीरजा' में दिल को छू जाने वाली महिला एवं मां का किरदार निभा चुकीं दिग्गज अदाकारा शबाना आजमी ने आईएएनएस को बताया, "एक मां होना ही महिला के लिए सबसे बड़ा तोहफा है। इस मदर्स डे महिलाओं में बीमारियों के प्रति जागरूकता फैलाएं। सर्वाइकल कैंसर और स्तन कैंसर के मामले महिलाओं में तेजी से बढ़ रहे हैं। इस दिशा में काम किया जाए।"
मदर्स डे हर साल मई के दूसरे रविवार को दुनियाभर में मनाया जाता है और इस एक दिन में ही दुनियाभर की कंपनियां अपनी विशेष सेवाओं से मोटा मुनाफा कमा लेती हैं।
--आईएएनएस
जब सिंहस्थ कुंभ पर बरसी आफत
महाकाल की नगरी यानी सिंहस्थ कुंभ क्षेत्र में आसमान से बरसी आफत ने सब कुछ तबाह कर दिया। आस्था और विश्वास की भूमि क्षिप्रा की गोद में प्रकृति ने आस्थावानों का भरोसा डिगा दिया।
भारी बारिश और तूफान की वजह से जहां सात से अधिक लोग मारे गए, वहीं 80 से अधिक श्रद्धालु घायल हो गए। धार्मिक आयोजनों में प्राकृति और अव्यवस्था का कहर हमारे लिए बेहद पीड़ादायी हैं।
सिंहस्थ कुंभ में 30 फीसदी से अधिक नुकसान हुआ है। शुक्रवार को दूसरा शाही स्नान था। प्रशासन ने इसके लिए काफी तैयारियां की थीं, लेकिन प्राकृतिक प्रकोप के आगे किसी नहीं चली। 30 फीसदी से अधिक तंबू उखड़ गए।
इस चिलचिलाती धूप में देश के अनेक भागों से आए आस्थावान और श्रद्धालु खुले आमसान के नीचे हैं। अब उन्हें बसाने की नई मुसीबत आ गई है। तूफान इतना बेगवान था कि कई धमार्चार्यो के पंडाल उखड़ गए। संतों के पंडाल जलमग्न हो गए। मुख्द्वार धराशायी हो गए हैं। तूफानी बरिश के साथ ओले भी गिरे, जिससे और मुसीबत बढ़ गई। शाही स्नान की वजह से प्रशासन की मुश्किलें अधिक बढ़ गई हैं।
धार्मिक अयोजनों को लेकर सरकारों की तरफ से काफी हो हल्ला किया जाता है। लेकिन जब किसी वजह से अव्यवस्था फैल जाती है तो सारे दावों की पोल खुल जाती है। धार्मिक अयोजन स्थलों पर अव्यवस्था कोई नई बात नहीं है। चलिए, यह प्राकृतिक आपदा ठहरी वरना सियासतबाज मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार और पीएम मोदी को बख्शने से बाज नहीं आते।
लेकिन हमें आयोजनों से पहले इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि हम इस तरह पुख्ता इंतजाम की व्यवस्था करें, जिससे जन की हानि को रोका जाए।
कुंभ धार्मिक मान्यता के अनुसार, चक्रिय व्यवस्था है। 12 साल पर कुंभ लगता है। प्रयाग और हरिद्वार में जहां यह गंगा के तट पर आयोजित होता है, वहीं उज्जैन में क्षिप्रा जबकि नासिक में पवित्र गोदावरी किनारे आयोजित होता है।
हालांकि इस अव्यवस्था के पीछे मानवकृत अव्यस्था नहीं हैं। प्रकृति पर किसी का नियंत्रण नहीं है, इसलिए इन मौतों पर किसी को गुनाहगार ठहराना नाइंसाफी होगी। लेकिन धार्मिक आयोजनों में लापहरवाही और भगदड़ से होने वाला हादसा भी सच है, जिससे हम इनकार नहीं कर सकते।
पिछले दिनों केरल के देवी मंदिर में आतिशबाजी के चलते हुई मौत हमारी आंख खोलने के लिए काफी है। दो साल पहले बिहार की राजधानी पटना में दशहरा उत्सव के दौरान मची भगदड़ में 33 बेगुनाहों की मौत हुई थी। यह घटना अधिक भीड़ और भगदड़ मचने से हुई थी।
इंटर नेशनल जर्नल ऑफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, देश में 79 फीसदी हादसे धार्मिक अयोजनों मंे मची भगदड़ और अफवाहों से होते हैं। 15 राज्यों में पांच दशकों में 34 से अधिक घटनाएं हुई हैं, जिनमें हजरों लोगों को जान गंवानी पड़ी है। दूसरे नंबर पर जहां अधिक भीड़ जुटती हैं, वहां 18 फीसदी घटनाएं भगदड़ से हुई हैं। तीसरे पायदान पर राजनैतिक आयोजन हैं, जहां भगदड़ और अव्यवस्था से तीन फीसदी लोगों की जान जाती है।
नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार, देश 2000 से 2012 तक भगदड़ में 1823 से अधिक लोगों जान गंवानी पड़ी है। 2013 में तीर्थराज प्रयाग में आयोजित महाकुंभ के दौरान इलाहाबाद स्टेशन पर मची भगदड़ के दौरान 36 लोगों अपनी जान गंवानी पड़ी थी, जबकि 1954 में इसी आयोजन में 800 लोगों की मौत हुई थी।
उस दौरान कुंभ में 50 लाख लोगों की भीड़ आई थी। 2005 से लेकर 2011 तक धार्मिक स्थल पर अफवाहों से मची भगदड़ में 300 लोग मारे जा चुके हैं। राजस्थान के चामुंडा देवी, हिमाचल के नैना देवी, केरल के सबरीमाला और महाराष्ट्र के मंडहर देवी मंदिर में इस तरह की घटनाएं हुई हैं।
भारत में धर्म और आस्था को लेकर लोगों का खूब अटूट विश्वास है। धार्मिक भीरुता भी हादसों का करण बनती हैं। हम एक भूखे, नंगे और मजबूर की सहायता के बजाय दोनों हाथों से धार्मिक उत्सवों में दान करते हैं और अनीति, अधर्म और अनैतिकता का कार्य करते हुए भी हम भगवान और देवताओं से यह अपेक्षा रखते हैं कि हमारे सारे पापों धो डालेंगे।
निश्चित तौर पर धर्म हमारी आस्था से जुड़ा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम धर्म की अंध श्रद्धा में अपनी और परिवार की जिंदगी ही दांव पर लगा बैठें। धार्मिक स्थलों पर हादसे हमारी व्यवस्था पर सवाल खड़ा करते हैं।
धार्मिक आयोजनों में बेगुनाहों की मौत अपने आप में एक बड़ा सवाल है। धार्मिक स्थलों पर उमड़ी भीड़ के साथ इस तरह के हादसे दुनिया भर में होते हैं। लेकिन हादसे न हों अभी तक ऐसी कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं हो सकी है, जिससे बेगुनाहों की मौत होती है।
भीड़ को नियंत्रित करने का हमारे पास कोई सुव्यवस्थित तंत्र नहीं है। देश में जाए दिन इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं, जिससे दर्जनों बेगुनाहों की जान चली जाती है। सरकार की ओर से लोगों को मुआवजा देकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर ली जाती है, लेकिन सरकार या व्यवस्था से जुड़े लोगों का ध्यान फिर इस ओर से हट जाता है। यही लापरवाही हमें दोबारा दूसरे हादसों के लिए जिम्मेदार बनाती है।
अखिरकार सवाल उठता है कि धार्मिक उत्सवों और आयोजनों में ही भगदड़ क्यों मचती है? प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए पहले इंतजाम क्यों नहीं किए जाते हैं। उस तरह की पंडालों की डिजाइन क्यों बनाई जाती है। उन्हें मजबूती क्यों नहीं दी जाती है।
मानक के विपरीत भारी भरकम पंडाल कैसे कर लिए जाते हैं। उस पर स्थानीय प्रशासन मौन रहता है, क्योंकि सवाल आस्था से जुड़ा होता है इसलिए सभी के मुंह और आखों पर पट्टी लग जाती है। दूसरी बात यहां की राजनीति धर्म से भी जुड़ी है। इस कारण लोगों को मनमानी करने की खुली छूट मिल जाती है। इस तहर के हादसे कई परिवारों को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करते हैं, जहां से वे पुन: अपनी दुनिया में नहीं लौट पाते।
अकारण की परिवार का मुखिया, बेटी, पत्नी, मां, या पिता शिकार हो जाते हैं, जिन पर पूरी जिंदगी के सपने टिके होते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिंहस्थ हादसे पर दुख जताया है। केरल हादसे के दौरान वे खुद घायलों को देखने अस्पताल पहुंच गए थे। यह अच्छी बात है। यह उनकी नैतिक जिम्मेवारी भी बनती है। लेकिन सरकार को भी इस तरह के हादसों पर नियंत्रण रखने के लिए मास्टर प्लान तैयार करना होगा।
आयोजन स्थलों पर भीड़ की आमद को भी संयमित और संरक्षित करना होगा, ताकि बेगुनाहों की मौत को रोका जा सके। धार्मिक अयोजनों से पहले हमें मानवीय और प्राकृतिक आपदाओं के सभी पहलुओं पर विचार करना होगा। तभी हम इस तरह के धार्मिक आयोजनों को निर्विघ्न संपन्न करवाने में कामयाब होंगे। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं)
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रूसी पर्यटन विभाग को खल रही अंग्रेजी में अकुशलता
मास्को, 7 मई (आईएएनएस)। रूसी पर्यटन प्राधिकरण का मानना है कि भाषा की समुचित जानकारी के अभाव में विशेष रूप से भारत से आने वाले अंग्रेजी भाषी पर्यटकों की संख्या बढ़ाने में परेशानी आ रही है। ऐसे में विभाग ने अपने कस्टम और इमीग्रेशन (आव्रजन) अधिकारियों से अंग्रेजी बोलने की शैली में सुधार लाने को कहा है।
आव्रजन काउंटर पर अक्सर होने वाली देर और अंग्रेजी की जानकारी न होना रूसी अधिकारियों के लिए खतरे की घंटी बनी हुई है, जबकि रूसी पर्यटन विभाग को उम्मीद है कि 2020 तक भारतीय पर्यटकों से करीब 40 अरब डॉलर का व्यापार होगा।
मॉस्को के डोमोडेडोवा हवाईअड्डे पर ट्रेवल एजेंटों के एक दल को करीब तीन घंटे तक रोके रखने की घटना के मद्देनजर पर्यटन विकास के लिए सेंट पीटर्सबर्ग समिति की उपाध्यक्ष रीमा सखुनोवा ने आईएएनएस को बताया कि कस्टम अधिकारियों की अंग्रेजी की जानकारी की कमी से ऐसी घटना घटी है।
उन्होंने कहा, "हमें इसका खेद है कि पर्यटकों को काफी परेशानी हुई है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि रूसी कस्टम अधिकारियों को अपनी अंग्रेजी में सुधार लानी चाहिए।"
रीमा ने कहा कि हम कस्टम सेवा को अधिकारिक रूप से पत्र लिखेंगे, क्योंकि हमें भारतीय पर्यटन बाजार से काफी उम्मीदें हैं।
पर्यटन विशेषज्ञों को विश्वास है कि रूस पर्यटन के लिए सही मायने में अपने द्वार खोलेगा और यह बेहद जरूरी भी है। हालांकि रूस के लिए यह आसान काम नहीं है, क्योंकि एक ऐसा देश जो हमेशा लोहे की चारदीवारी में बंद रहा हो और अब लोकतंत्र की ओर अग्रसर होते हुए पर्यटन नियमों को सरल बनाने जा रहा है।
भारतीय पर्यटकों को रूस यात्रा में अग्रणी भूमिका निभाने वाली इंडिगो टूर की मरीना सोकोलोव ने कहा कि हमें खुद को बदलने में थोड़ा समय जरूर लगेगा।
मॉस्को पर्यटन कार्यालय से जुड़ी कैटेरीना बोरीसोवा ने आशा जताई कि संघीय सरकार मुख्य पारगमन केंद्रों पर एक पर्यटन कार्यालय स्थापित करने की योजना बना रही है। इससे रूसी कस्टम और आव्रजन काउंटर पर होने वाली अतिरिक्त देर को कम किया जा सकेगा।
उन्होंने कहा, "हम कस्टम और आव्रजन को और खुला बनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इसमें थोड़ा वक्त लग रहा है। आशा है कि जल्द ही हवाईअड्डा, रेलवे स्टेशन के अलावा जहां कहीं भी पर्यटकों की अधिक आवाजाही होगी, वहां पर एक पर्यटन कार्यालय खुल जाएगा।"
सुखोनोवा ने बताया कि शहर की सड़कों और मेट्रो में अंग्रेजी में साइनबोर्ड लगाने का काम चल रहा है।
उन्होंने कहा कि सेंट पीटर्सबर्ग में अंग्रेजी में लिखे और भी साइनबोर्ड लगाए जा रहे हैं। दरअसल, पूरे रूस में एक मात्र सेंट पीटर्सबर्ग ही एक ऐसा शहर है, जहां सभी मेट्रो स्टेशनों पर अंग्रेजी में साइनबोर्ड लगे हैं।
हालांकि भारतीय पर्यटकों की संख्या के विकास में अधिकारियों और जनता में अंग्रेजी की जानकारी की कमी काफी खल रही है। भारतीय रूसी सूचना केंद्र के परेश नवानी का कहना है कि नियमों को यदि ठीक कर दिया जाए, तो भारतीय आसानी से रूस की यात्रा कर सकेंगे।
नवानी का कहना है कि रूसी सरकार पर्यटन को सरल बनाने के लिए अपनी सीमाओं और नीतियों में परिवर्तन कर रही है, जिससे अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में भारतीय पर्यटक आराम से और कम खर्च में रूस की यात्रा कर सकेंगे।
प्रतिवर्ष करीब 50 हजार भारतीय रूस की यात्रा करते हैं, जबकि करीब दो लाख रूसी यात्री भारत में मुख्य रूप से गोवा की यात्रा करते हैं।
--आईएएनएस
लाइब्रेट लैब प्लस यानी ऑनलाइन जांच सुविधा
डॉक्टरों ने बताया कि लैब टेस्ट के झमेले की वजह से 70 प्रतिशत लोग बीच में ही इलाज छोड़ देते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए लाइब्रेट ने यह व्यपारिक फैसला लिया है।
उन्होंने बताया कि लाइब्रेट लैब प्लस की सेवाएं दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरू में शुरू हो गई हैं। अन्य शहरों में भी यह सेवा शुरू होने जा रही है।
पूरे भारत के 80 शहरों में 100000 डॉक्टरों के साथ लाइब्रेट नई किस्म का 30 ऑनलाइन-ऑफलाइन मार्केट प्लेस तैयार कर रहा है।
लाइब्रेट के संस्थापक तथा सीईओ सौरभ अरोड़ा का कहना है, "हमने देखा कि लैब टेस्ट की वजह से ऑनलाइन इलाज में रुकावट आती है और यह डॉक्टर से सलाह लेने का चक्र तोड़ देती है। इसी को ध्यान में रखते हुए हमने लैब टेस्ट को अपने प्लेटफार्म में शामिल करने का फैसला किया।"
उन्होंने कहा कि लाइब्रेट लैब प्लस लोगों तक सीधे ऑनलाइन कंसल्टेशन की सेवाएं पहुंचाकर उन्हें अपनी सेहत के बारे में जागरूक करने की दिशा में एक अहम कदम है। इस सेवा के जरिए टेस्ट की बुकिंग, सैंम्पल पिकअप और डॉक्टर के पास सीधे रिपोर्ट भेजने की सुविधा भी प्राप्त की जा सकती है।
उन्होंने कहा कि उचित समय पर लैब की जांच दिल के रोगों, थायरॉयड, हाइपरटेंशन और डायबिटीज जैसी लंबी बीमारियों का पता लगाने, बचाव करने और उनका इलाज करने में मदद करती है।
सौरभ अरोड़ा ने बताया कि 'लाइब्रेट लैब प्लस' ब्लड शूगर, कंप्लीट ब्लड काउंट, लिपिड प्रोफाइल, लिवर फंक्शन टेस्ट और थॉयरायड प्रोफाइल सहित करीब 2500 लैब टेस्ट उपलब्ध करवाएगा।
लाइब्रेट ने यह प्लेटफार्म जनवरी, 2015 में शुरू किया था, जिसकी मदद से टेक्स्ट चैट के जरिए डॉक्टर से सलाह ली जा सकती है। इसमें बाद में वॉयस और वीडियो कॉल की सुविधा भी दी गई।
लाइब्रेट की हेल्थ फीड के अंतर्गत 400 विषयों पर डॉक्टरों द्वारा सलाह दी जाती है। डॉक्टरों के हेल्थ टिप्स लोगों को रोगों से बचाव के प्रति जागरूक कर रहे हैं और उन्हें स्वस्थ रहने के लिए भी उत्साहित कर रहे हैं।
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मप्र के बुंदेलखंड को भी चाहिए सरकारों की दरियादिली
भोपाल, 6 मई (आईएएनएस)। बुंदेलखंड सूखे और पानी की समस्या से जूझ रहा है। विडंबना है कि दो राज्यों में फैले इस क्षेत्र से सरकारें भी भेदभाव करने में पीछे नहीं हैं। क्षेत्र के लोगों को इंतजार है कि सरकारें कब उन पर भी दरियादिली दिखाएंगी।
उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में खाद्य सामग्री मुफ्त मिल रही है। पानी देने का श्रेय लेने को दो सरकारें टकराने लगी हैं, मगर मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड पर किसी की नजर नहीं है।
बुंदेलखंड में मध्यप्रदेश के छह और उत्तर प्रदेश के सात जिले आते हैं। इस तरह बुंदेलखंड 13 जिलों को मिलाकर बनता है। सभी जिलों की कमोबेश एक जैसी हालत है। सूखे की मार ने किसान से लेकर मजदूर तक की कमर तोड़कर रख दी है। खेत सूखे हैं, तालाबों और कुओं में पानी नहीं है, इंसान को अनाज और जानवर को चारे के लिए जूझना पड़ रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ता मनोज बाबू चौबे का कहना है कि पूरे बुंदेलखंड का बुरा हाल है, कई मामलों में तो उत्तर प्रदेश के हिस्से से ज्यादा बुराहाल मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड का है। पानी के लिए कई कई किलोमीटर का रास्ता तय करना पड़ रहा है।
वे कहते हैं कि गांव के गांव उजड़ गए हैं, रोजगार का इंतजाम नहीं है, मगर राज्य और केंद्र सरकार मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड से बेरुखी बनाए हुए है, जो कई सवाल खड़े कर रही हैं। सरकारों का रवैया यह बताने लगा है कि अब वोट की चाहत सवरेपरि हो गई है।
उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के सात जिलों में समाजवादी पार्टी की सरकार ने अंत्योदय परिवारों के लिए मुफ्त में राशन राहत पैकेट बांटना शुरू कर दिया है, वहीं केंद्र सरकार ने पानी मुहैया कराने के लिए ट्रेन तक भेज दी है, जिसे राज्य सरकार ने स्वीकारने से मना कर दिया है, मगर मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के गरीबों पर न तो राज्य सरकार का ध्यान है और न ही केंद्र सरकार कुछ करती नजर आ रही है। मध्यप्रदेश और केंद्र में भाजपा की सरकार हैं।
बुंदेलखंड के वरिष्ठ पत्रकार रवींद्र व्यास का कहना है कि राजनीतिक दलों को सिर्फ चिंता चुनाव जीतने के लिए वोट हथियाने की रहती है। उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने वाला है, लिहाजा वहां की सरकार ने बुंदेलखंड के गरीब परिवारों को राहत पैकेट बांटना शुरू किया है।
वहीं दूसरी ओर, केंद्र सरकार ने राज्य सरकार की मांग के बिना ही पानी की ट्रेन भेज दी, ताकि यहां के लोगों का दिल जीता जा सके, जो विशुद्ध तौर पर राजनीति का हिस्सा नजर आता है। दोनों ही दल राजनीतिक लाभ के लिए अपने को बुंदेलखंड का हितैषी बताने में लगे हैं। वास्तव में किसी को भी बुंदेलखंड के लोगों की चिंता नहीं है, अगर चिंता है तो सिर्फ वोट बटोरने की।
छतरपुर जिले के पंचायत प्रतिनिधि रहे राम कृष्ण का कहना है कि बुंदेलखंड सूखा कई वर्षो से पड़ता आ रहा है। इस बार हालत पिछले वर्षो से कहीं ज्यादा खराब है। ऐसे में सरकारों की जिम्मेदारी है कि वह इस क्षेत्र के लिए आवश्यक कदम उठाए। राजनीतिक लाभ की बजाय सरकारों को इस इलाके के लोगों की परेशानी को बेहतर तरीके से समझना होगा, नहीं तो यही जनता उन्हें सबक सिखाने मे पीछे नहीं रहेगी।
उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के लोगों केा अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सरकार और केंद्र सरकार की पहल ने मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड के लोगों के मन-मस्तिष्क में एक सवाल जरूर खड़ा कर दिया है कि उनके साथ यह भेदभाव आखिर क्यों हो रहा है।
उत्तर प्रदेश सरकार बुंदेलखंड के लिए पानी की ट्रेन लेना नहीं चाहती और केंद्र सरकार जिद किए हुए है, वहीं मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड की केंद्र सरकार चर्चा तक नहीं कर रही। इतना ही नहीं, मध्यप्रदेश की सरकार ने भी कोई ऐसा कदम नहीं उठाया है जो बुंदेलखंड के लोगों के जख्मों को कम कर सके।
--आईएएनएस
भूमि सुधार असफल, 5 फीसदी के पास 32 फीसदी भूमि
सुमित चतुर्वेदी
कृषि जनगणना 2011-12 और सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना 2011 और इस संवाददाता के आंकड़े के मुताबिक देश के 4.9 फीसदी लोगों के पास 32 फीसदी भूमि है, एक बड़े किसान के पास एक सीमांत किसान से 45 गुना अधिक भूमि है, 56.4 फीसदी या 40 लाख ग्रामीणों के पास कुछ भी जमीन नहीं है, जमींदारों से लेने के लिए चिह्न्ति भूमि में से दिसंबर 2015 तक सिर्फ 12.9 फीसदी ही लिए जा सके और दिसंबर 2015 तक 50 लाख एकड़ भूमि 57.8 लाख गरीब किसानों को बांटी जा सकी है।
भूमि पुनर्वितरण कानून 54 साल से अधिक समय पहले बना था।
ग्रामीण विकास मंत्रालय के भू-संसाधन विभाग से सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत मांगी गई जानकारी के मुताबिक, 2002 में जहां ग्रामीण भूमि हीन किसानों को 0.95 एकड़ भूमि दी जा रही थी, वहीं 2015 में यह आकार घटकर 0.88 एकड़ हो गया।
दिसंबर 2015 तक देशभर में 'जरूरत से अधिक' (सरप्लस) के रूप में 67 लाख एकड़ भूमि चिह्न्ति की गई थी। इसमें से सरकार ने 61 लाख एकड़ भूमि हस्तगत की और 57.8 लाख लोगों को 51 लाख एकड़ भूमि बांटी।
1973 से 2002 के बीच हर वर्ष औसतन डेढ़ लाख एकड़ भूमि को सरप्लस घोषित किया गया और 1.4 लाख एकड़ भूमि बांटी गई थी। 2002 और 2015 के बीच हालांकि यह घटकर क्रमश: 4,000 एकड़ और 24 हजार एकड़ हो गया।
लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी (एलबीएसएनएए) के ग्रामीण अध्ययन केंद्र की 2009 की एक रपट के मुताबिक, आंकड़ों का यह अंतर इस विवाद के कारण है कि कितनी जमीन लाई जा सकती है। वहीं अदालत ने कुछ जमीन पुराने मालिक को वापस कर दी और कु़छ जमीन खेती के लायक नहीं थी।
कानूनी विवाद में फंसी सरप्लस भूमि का आकार 2007 से 2009 के बीच 23.4 फीसदी बढ़कर 9.2 लाख एकड़ से 11.4 लाख एकड़ हो गया।
एलबीएसएनएए के अनुमान के मुताबिक, 2015 तक सरप्लस घोषित की जाने योग्य 5.19 करोड़ एकड़ भूमि में से 12.9 फीसदी भूमि ही सरप्लस घोषित की जा सकी। वहीं 5.19 एकड़ भूमि में से 11.7 फीसदी सरकारी कब्जे में ली जा सकी और 9.8 फीसदी वितरित की जा सकी।
उल्लेखनीय है कि देश की 47.1 फीसदी या 57 करोड़ आबादी अब भी कृषि पर निर्भर है।
यह भी उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल ने गोवा के क्षेत्रफल से अधिक भूमि ग्रामीण भूमिहीन किसानों को वितरित की।
पश्चिम बंगाल ने 14.1 लाख एकड़ भूमि सरप्लस घोषित की, जो देश में कुल सरप्लस घोषित भूमि का 21 फीसदी है।
राज्य ने सरप्लस घोषित भूमि में से 93.6 फीसदी या 13.2 लाख एकड़ पर सरकारी कब्जा किया और सरकारी कब्जे का 79.8 फीसदी यानी, 10.5 लाख एकड़ भूमि वितरित की।
राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति के मसौदे में सरप्लस भूमि के वितरण के लिए पश्चिम बंगाल, केरल और जम्मू एवं कश्मीर को सबसे सफल बताया गया है।
(आंकड़ा आधारित, गैर लाभकारी, लोकहित पत्रकारिता मंच, इंडियास्पेंड के साथ एक व्यवस्था के तहत। ये लेखक के निजी विचार हैं)
--आईएएनएस
लड़खड़ाते ट्विटर को भारत दे सकता है नया जीवन : विशेषज्ञ
निशांत अरोड़ा
नई दिल्ली, 5 मई (आईएएनएस)। दस साल पुरानी माइक्रोब्लागिग वेबसाइट ट्विटर के उपयोगकर्ताओं की रफ्तार ठहर सी गई है और राजस्व में भारी गिरावट आ चुकी है। अब इसके खत्म होने की भविष्यवाणी की जाने लगी है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि ट्विटर में अभी बहुत जान बाकी है और सैन फ्रांसिसको की इस कंपनी को भारत में दोबारा जीवन मिल सकता है।
दुनिया भर में 31 करोड़ प्रयोक्ताओं के साथ ट्विटर के भारत में करीब 2.3 लाख उपभोक्ता हैं। अब छह भारतीय भाषाओं में इस पर ट्वीट किया जा सकता है जिसमें हिंदी, बंगाली, गुजराती, कन्नड़, मराठी और तमिल शामिल है। कंपनी ने ना सिर्फ हिन्दी में हैशटैग जारी किया है बल्कि मराठी, संस्कृत, बंगाली, असमिया, पंजाबी, गुजराती, ओड़िया, तमिल, तेलेगु, मलयालम और कन्नड़ समेत नेपाली में भी हैशटैग बनाया जा सकता है।
कंपनी की वेबसाइट का कहना है कि वह उम्मीद करती है कि एक दिन ऐसा आएगा जब ट्विटर के ट्रेंड में भारतीय भाषाओं का बोलबाला होगा। अगर ट्विटर के प्रबंधक ऐसी उम्मीद करते हैं तो उन्हें भारत के विशाल उपभोक्ता आधार को जोड़ने के लिए ट्विटर को महज ब्रेकिंग न्यूज की वेबसाइट से बढ़ाकर संपूर्ण सोशल मीडिया के रूप में बदलना होगा। ऐसा विशेषज्ञों का मानना है।
लखनऊ के डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया रणनीतिकार अनूप मिश्रा का कहना है, "ट्विटर भारत की स्थानीय भाषाओं जैसे हिन्दी आदि के प्रयोक्ताओं को ध्यान में रखकर यहां के लिए अलग से सर्वर लगाने की योजना बना रही है। वे भारत से बहुत उम्मीद लगा रहे हैं। मैं समझता हूं कि ट्विटर धीरे से लेकिन मजबूती से आगे बढ़ रहा है और अगले एक-दो सालों में उनके प्रयोक्ताओं का आधार काफी बढ़ सकता है अगर वे भारत को शीर्ष प्राथमिकता दें।"
ग्लोबल मार्केटिंग कंस्लटेंसी फर्म गार्टनर के शोध निर्देशक विशाल त्रिपाठी के मुताबिक ट्विटर के अपने भारत के सक्रिय प्रयोक्ताओं के आधार पर ध्यान देना चाहिए।
त्रिपाठी ने आईएएनएस को बताया, "ट्विटर के ज्यादातर प्रयोक्ता निष्क्रिय हैं। मैंने हाल ही में पढ़ा कि 40 फीसदी ट्विटर प्रयोक्ता कभी ट्विट नहीं करते और केवल मशहूर हस्तियों को फॉलो करते हैं। उन्हें सक्रिय बनाने की जरूरत है और इसके लिए वेबसाइट पर विज्ञापनों के मुनाफे को प्रयोक्ताओं के साथ बांटने की जरुरत है। इस तरीके से ही ट्विटर ब्रेकिंग न्यूज प्लेटफार्म से आगे बढ़ सकता है।"
हालांकि भारत में ट्विटर की राह आसान नहीं है। उसे लगातार तीन दिशाओं में आगे बढ़ना होगा। प्रयोक्ताओं की संख्या बढ़ाना, विज्ञापनों से राजस्व के नए मॉडल तैयार करना और विविधतापूर्ण सामग्रियों को मुहैया कराना।
रिपोर्ट के मुताबिक, सोशल नेटवर्किग की विशाल कंपनी फेसबुक ने पिछले छह महीनों में भारत में 1.3 करोड़ नए प्रयोक्ताओं को जोड़ा है और इसके औसत प्रयोक्ता 12.5 करोड़ हैं। वहीं, फोटो साझा करनेवाली प्लेटफार्म इंस्टाग्राम के भी भारत में प्रयोक्ताओं की संख्या एक साल में दुगुनी हो चुकी है।
मार्केटिंग रिसर्च एंड कंस्लटिंग फर्म साइबर मीडिया रिसर्च (सीएमआर) के विश्लेषक कृष्णा मुखर्जी बताते हैं, "ट्विटर के लिए डराने वाली बात यह है कि फेसबुक उसे पीछे छोड़ रही है। फेसबुक ने ट्विटर से पहले अपने साइट पर वीडियो की शुरुआत की और ट्विटर ने इसे पकड़ा तब तक बहुत देर हो चुकी थी।"
वहीं, मिश्रा को उम्मीद है कि ट्विटर एक बार फिर आगे बढ़ेगी, "ट्विटर के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि इस पर ट्रेंड होनेवाला टॉपिक समूची मीडिया में ट्रेंड करता है। मुझे लगता है कि ट्विटर को अपने लाखों नकली एकाउंट को हटाने पर जोर देना चाहिए जो उसके राजस्व में सेंध लगाते हैं।"
वे कहते हैं कि ट्विटर को भारत में क्षेत्रीय जरूरतों और सामग्रियों पर जोर देना चाहिए। फिलहाल ट्विटर पर केवल देश के हिसाब से प्रयोक्ताओं के हिसाब से विज्ञापन आते हैं। उसे स्थानीय आधार पर विज्ञापन देने चाहिए।
ट्विटर की सबसे खासियत किसी ट्रेंडिग मुद्दे पर लोगों को जोड़ना है। उसे अपनी इसी खासियत को लाभ में बदलना होगा खासतौर से ऐसे माहौल में जब उपभोक्ताओं की जरूरतें तेजी से बदल रही है।
--आईएएनएस
कुछ महिलाओं को क्यों पैदा होते हैं जुड़वां बच्चे?
हालांकि इसकी जानकारी बहुत पहले से है कि अगर किसी महिला के महिला रिश्तेदारों में किसी के जुड़वां बच्चे होते हैं तो उसके द्वारा जुड़वा बच्चों को जन्म देने की संभावना ज्यादा होती है। लेकिन इसके पीछे के जीन का अभी तक पता नहीं चल पाया था।
शोधकर्ताओं में से एक नीदरलैंड के व्रिजे विश्वविद्यालय, एम्सटर्डम के बॉयोलॉजिकल साइकोलॉजिस्ट डोरेट बूमस्मा ने बताया, "लोगों की इस सवाल में बहुत ज्यादा रुचि है कि क्यों कुछ महिलाओं के जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं। इसका जवाब काफी आसान है और हमारे निष्कर्षो से पहली बार उस जीन की पहचान करने में सफलता मिली है।"
यह शोध अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स में प्रकाशित किया गया है।
इन निष्कर्षो से शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि वे एक ऐसा जेनेटिक टेस्ट का तरीका विकसित कर लेंगे, जिससे किसी महिला की ऐसी स्थिति की संभावना की पहचान की जा सके।
--आईएएनएस
इंसान का साथ छोड़ रहे जल और जंगल
मानव जीवन के लिए जल, जंगल और जमीन तीनों प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता नितांत आवश्यक है, लेकिन अफसोस तीनों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
इंसान की आधुनिक विकासवादी सोच जाने हमें कहां ले जा रही है? वह इतना आधुनिक हो चला है कि जिस डाल पर वह बैठा है उसे ही काट रहा है। देश जल और जलंग दोनों के संकट से जूझ रहा है।
दक्षिण भारत के मराठवाड़ा, बुंदेलखंड समेत दस राज्य सूखे की चपेट हैं। मराठवाड़ा और लातूर में इतनी भयावह स्थिति है कि उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती है। मासूम बच्चे अपनी प्यास बुझाने के लिए कीचड़युक्त गंदे पानी को जीप से पी रहे हैं। पानी की तलाश में गहरे कुएं में तक में उतर जा रहे हैं। चहुंओर सूखा ही सूखा।
दक्षिण में जल संकट और उत्तर में जलता जंगल, लेकिन इस विकट स्थिति के समाधान का रास्ता दूर-दूर तक नहीं। पानी के बिना हजारों पशु-पक्षी दमतोड़ चुके हैं। सरकार को इन इलाकों के लिए वाटर रेल चलाना पड़ रहा है। लातूर में धारा 144 लगानी पड़ी है। जल माफिया के कारण जलाशयों पर पुलिस का पहरा बिठाना पड़ा।
जरा सोचिए, जहां कभी दूध की नदियां बहती थी और जिस देश को उसकी नदियों के नाम से दुनिया में जाना जाता है, वह आज जल संकट जैसी भयंकर त्रासदी से जूझ रहा है।
प्रकृति की कितनी बिडंबना है यह। समाधान के नाम पर हमारे पास कुछ नहीं हैं। सरकार असहाय दिखती है। जब जल, जंगल और जमीन ही उपलब्ध नहीं रहेगें, तो इंसान और उसका वजूद क्या सुरक्षित रहेगा? अपने आप में यह बड़ा सवाल है।
ग्रामीण इलाकों की स्थिति तो और भी बुरी है। देश के प्रत्येक पांच घरों में जल संकट विद्यमान है। हम अपनी बात नहीं करते हैं। यह खुद देश के कृषिमंत्री का बयान है। ग्रामीण परिवारों की आबादी करीब 17 करोड़ से अधिक है, जिसमें 25 फीसदी से अधिक यानी 4,41,390 घरों में पेयजल की त्रासदी चरम पर है और 15,345 घरों में सरकार टैंकर से पानी उपलब्ध करा रही है। 13,372 बोरवेल खोदे गए हैं। 44,498 नए बोरबेल पर काम चल रहा है।
यह सरकारी बयानबाजी है, लेकिन धरातलीय स्थिति इससे कहीं और विकट है। इसकी जड़ में हमारी विकासवादी वैज्ञानिक सोच ही है जिसका नतीजा हमें भुगतना पड़ रहा है।
परंपरागत जलस्रोतों का अस्तित्व खत्म हो चला है। गांवों में आज भी कुएं पेयजल का जरिया हैं, लेकिन उनकी स्थिति बद से बदतर है। तालाबों को पाट कर आलीशान मकान बना लिए गए हैं। वर्षा के जल संरक्षण के संबंध में बनाई गई नीति बेमतलब साबित हो रही है।
मनरेगा केवल वोट बैंक का और पंचायतों के लिए लूट का माध्यम बनी है। विकास से इसका वास्ता नहीं रहा। इसके अलावा इंसानी और जंगली जीवों के लिए जंगल सबसे अहम है, लेकिन मानव की भोग लिप्सा ने जंगलों के अस्तित्व पर भी संकट खड़ा कर दिया।
अधाधुंध विकास की परिभाषा ने नई समस्या खड़ी कर दी। उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग हमारे लिए बड़ी चुनौती साबित हो रही है। हम जंगल की आग पर नियंत्रण नहीं पा सके हैं और इस कारण जंगली जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। सूखे के कारण स्थिति और विकट हो चली है। नतीजा, आग का दावानल हर पल नए क्षेत्रों को अपनी चपेट में ले रहा है।
उत्तराखंड के 13 जिलों में यह आग फैल चुकी है। 1500 गांवों पर खतरा मंडरा रहा है। तकरीबन 90 दिन पूर्व जंगलों में लगी आग को अभी तक नहीं बुझाया जा सका है। इससे यह साबित होता है कि आग नियंत्रण को लेकर उत्तराखंड प्रशासन और राज्य का वनमंत्रालय संवेदनशील नहीं रहा। अगर उसने जरा संवेदनशीलता और सतर्कता दिखाई होती, तो आज यह स्थिति न होती।
जंगल में आग लगने की पहली घटना दो फरवरी को संज्ञान में आई थी। वक्त रहते उस पर कदम उठाए जाते, तो आज यह स्थिति न आती। लेकिन सरकार और राज्य प्रशासन चाहे जो बहाना बनाए इस मामले में उसकी घोर लापरवाही सामने आई है। आग की जद में आने से आधे दर्जन लोग इस दुनिया से अलविदा हो गए, जिसमें दो मासूम बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं।
अगर फरवरी में ही सतर्कता बरती गई होती तो आग इतनी भयानक न होती, क्योंकि उस दौरान ठंड का मौसम था। मौसम में इतनी शुष्कता नहीं थी, लेकिन गर्मी बढ़ने के साथ आग भी बढ़ती गई और राज्य प्रशासन घोड़े बेचकर सिर्फ सरकार बचाने की सियासत में लगा रहा। आग से करीब 1900 हेक्टेयर में फैले जंगल को भारी नुकसान हुआ है। राज्य में 'जिम कार्बेट' समेत तीन पार्क हैं, जिन पर भी बड़ा खतरा मंडराने लगा है।
'जिम कार्बेट' का 200 एकड़ जंगल खाक हो चला है। संरक्षित वन्यजीवों पर भी खतरा बढ़ गया है। वायुसेना को इस काम में लगाया गया है, लेकिन जब चारों तरफ सूखे की स्थिति हो उस दशा में आग पर काबू पाना इतना आसान काम नहीं रहा। सबसे अधिक कुमाऊं और गढ़वाल मंडल प्रभावित हैं।
आग इतनी भयानक है कि एक राष्ट्रीय राजमर्ग को भी बंद करना पड़ा है। राज्यपाल ने 6000 हजार से अधिक लोगों को आग पर काबू पाने के लिए तैनात किया है। पांच करोड़ की राशि मंजूर की गई है। चीड़ के जंगलों में यह आग और अधिक फैलती है। चीड़ के पेड़ जब आग पकड़ते हैं, तो यह पेट्रोल का काम करते हैं। जगंलों में आग कभी-कभी बिजली गिरने और गर्मियों के कारण लगती है। कभी यह मानवीय भूलों और गलतियों से लगती है।
लोग जंगल से गुजरते वक्त धूम्रपान करने के बाद सिगरेट व बीड़ी छोड़ देते हैं, जो सूखे पत्तों आग की जद में आकर दावानल बन जाते हैं। अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो धरती पर औसत सौ बार आसमानी बिजली गिरती है। इस तरह की घटनाएं उत्तरी अमेरिका के जंगलों में अधिक होती हैं।
दूसरी वजह हवा में आक्सीजन की मात्रा अधिक होने से आग अधिक तेज फैलती है, क्योंकि आक्सीजन आग को जलाने में सहायक होती है।
देश में जल और जंगल का संकट हमारे लिए विचारणीय बिंदु है। आजादी के कई वर्षो बाद हमने इस तरह का कोई ऐसा तंत्र नहीं विकसित किया, जिससे इस तरह की आपदाओं से निपटा जाए। हमारी आंख नहीं खुल रही है। हमारे लिए यह सबसे चिंतनीय है।
वक्त रहते अगर हमने होश नहीं ली तो जल, जंगल और जमीन हमारे लिए बड़ी मुसीबत खड़ी करेंगे और इसका समाधान हमारे पास उपलब्ध नहीं होगा। फिर हमें इंसानी जिंदगी को बसाने के लिए आसमान की तलाश करनी होगी, जबकि हमारे विकास, संस्कृति और सभ्यता में सहायक जल और जंगल नहीं होंगे। फिर हमारा अस्तित्व कहां होगा? सोचिए अब वक्त आ गया। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
--आईएएनएस
वनांचलों में लू से बचाता है 'मड़ियापेज'
शहरी क्षेत्रों में तो लोग गर्मी की तपिश से बचने के लिए कोल्ड ड्रिंक्स का सहारा लेते हैं, पर वनांचल क्षेत्रों में आदिवासियों के लिए 'मड़ियापेज' सुरक्षा कवच का काम करता है।
बस्तर सहित छत्तीसगढ़ के वनांचल क्षेत्रों में जहां कोई फिटनेस एक्सपर्ट नहीं है और न ही मल्टीस्पेशिलिटी अस्पताल की सुविधा, ऐसे में प्रकृति ही इनके लिए डॉक्टर है और उसके द्वारा प्रदत्त सौगात दवाएं।
मड़ियापेज वनांचलों के लोगों को भीषण गर्मी और लू से बचाता है। साथ ही लू, डिहाइड्रेशन, शुगर और मोटापा जैसी कई व्याधियों से मुकाबला कर आदिवासियों को जीवन प्रदान करता है।
यह मड़ियापेज लघु धान्य फसल की श्रेणी में आने वाले रागी फसल से बनता है, जो भीषण गर्मी में लू, डिहाइड्रेशन, शुगर और मोटापा जैसे व्याधियों से बचाता है। कृषि वैज्ञानिकों का भी मत है कि आदिवासी क्षेत्रों में गर्मियों में मड़ियापेज ऊजार्दायक पेय (एनर्जी ड्रिंक) के रूप में इस्तेमाल होता है।
आदिवासी पकी लौकी के खोल से खास तरह का वाटर बॉटल भी बनाते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में तुम्बा कहा जाता है। इसी में मड़ियापेज भरकर रखा जाता है, जो लंबे समय तक ठंडा रहता है।
जगदलपुर स्थित गुंडाधुर कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र के कृषि वैज्ञानिक अभिनव साव ने बताया कि रागी कम कैलोरी वाला आहार है। यह लघु धान्य फसल की श्रेणी में आता है। इसका अंग्रेजी नाम फिंगर मिलेट है।
साव ने बताया कि चावल और कनकी के साथ रागी को उबालकर मड़ियापेज बनाया जाता है। पानी की तरह तरल बनाकर आदिवासी इसका इस्तेमाल गर्मियों में एनर्जी ड्रिंक के रूप में करते हैं। मड़ियापेज एक तरह से माड़ की तरह होता है।
लू से आदिवासियों को सुरक्षा प्रदान करने में मड़ियापेज की उपयोगिता पर उन्होंने कहा कि लो-कैलोरी आहार होने के चलते रागी से बनने वाला मड़ियापेज धीरे-धीरे शरीर में ऊर्जा प्रदान करते रहता है। इसके साथ-साथ यह तरलपेय शरीर के लिए ठंडा भी होता है।
साव ने बताया कि रागी खरीफ फसल है। इसके पौधे 120 दिनों में तैयार हो जाते हैं। इसमें काबोहाइड्रेड, फाइबर, प्रोटीन, कैल्शियम, वसा, खनिज की भी प्रचुरता होती है। इसके साथ ही रागी डायबिटीज (शुगर) को नियंत्रित करती है।
वनांचल में रहने वाले सीताबाई, मेहतरीन बाई व रिपुसूदन ने मड़ियापेज बनाने और उसके इस्तेमाल के बारे में कहा कि एक कटोरी रागी का आटा रातभर भिगोकर सुबह उसे कनकी या चावल के साथ उबाला जाता है। इसमें पानी की मात्रा चारगुना होती है।
दिनभर की गर्मियों से राहत और थकान दूर करने के लिए वे बरसों से इसका इस्तेमाल करते आ रहे हैं। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के जनसंपर्क अधिकारी कृष्ण कुमार साहू ने भी मड़ियापेज को शरीर के बहुत फायदेमंद बताया। उन्होंने कहा कि यह बहुत ठंडा और सुपाच्य होने के साथ-साथ पौष्टिक भी होता है।
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खरी बात
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