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Monday, 06 June 2016 00:00

दिल्ली उच्च न्यायालय में सुशील कुमार की याचिका खारिज

नई दिल्ली, 6 जून (आईएएनएस)। दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोमवार को दो बार ओलंपिक पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार की दोबारा ट्रायल की मांग वाली याचिका खारिज कर दी। अदालतन ने कहा कि चयन को अंतिम समय पर चुनौती दिए जाने से चयनित खिलाड़ी नरसिंह यादव की मानसिक तैयारी पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।

सुशील कुमार ने याचिका दायर कर रियो ओलंपिक के लिए भारतीय दल में जगह पाने के लिए 74 किलोग्राम फ्री स्टाइल कुश्ती का ट्रायल फिर से कराने की मांग की थी।

न्यायमूर्ति मनमोहन ने भारतीय कुश्ती संघ (डब्ल्यूएफआई) का निवेदन स्वीकार कर लिया। संघ ने कहा कि नरसिंह यादव का वर्तमान फॉर्म सुशील कुमार से अच्छा है।

न्यायमूर्ति ने इस तथ्य पर भी गौर किया कि सुशील कुमार चयन के लिए 2014 और 2015 में हुए ट्रायल में भाग लेने में विफल रहे। साथ ही उन्होंने 31 दिसंबर 2015 और 1 जनवरी 2016 को हुई राष्ट्रीय प्रतियोगिता व फरवरी 2016 में एशियाई चैंपियनशिप में भी भाग नहीं लिया।

अदालत ने कहा कि सुशील कुमार ने सितम्बर 2014 से अब तक कोई भी राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता नहीं जीती है, जबकि नरसिंह यादव ने दिसंबर 2015 में प्रो कुश्ती लीग में मंगोलिया के पहलवान पुरवाज उनुरबात को हराया था और सितंबर 2015 में हुई विश्व चैंपियनशिप प्रतियोगिता में कांस्य पदक विजेता रहे थे।

सुशील कुमार की ओर से तर्क दिया गया कि प्रशिक्षण के लिए उन्हें 2016 में जॉर्जिया और सोनीपत (हरियाणा) भेजा गया था। इस पर अदालत ने कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि ट्रायल आज कराना आवश्यक है और वह भी इतनी देर से।

अदालत ने इस पर भी ध्यान दिया कि डब्ल्यूएफआई ने चयन से पहले निष्पक्ष और पारदर्शी ट्रायल कराया था। साथ ही खेल संहिता के तहत चयन प्रक्रिया और ट्रायल कराने के निर्णय के संबंध में भारतीय कुश्ती संघ को प्रदत्त स्वायत्तता को भी माना।

अदालत ने कहा, "एक खिलाड़ी की मासूमियत के साथ 'सिर्फ एक ट्रायल' की मांग से हो सकता है कि एक चयनित खिलाड़ी के जीतने की उम्मीद पर पानी फिर रहा हो और राष्ट्रीय हित पर घातक असर पड़ रहा हो। द्वंद्व युद्ध की मांग से देश को घाटा होगा।"

अदालत ने कहा कि प्रतियोगिता होने और याचिका दायर करने में बहुत कम समय का अंतर है। साथ ही ट्रायल में चोटिल होने की आशंका प्रबल है। इसलिए सुशील कुमार का निवेदन स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

अदालत ने कहा कि यह समझ में नहीं आ रहा कि क्यों सुशील कुमार ने नरसिंह यादव को मई, 2016 में द्वंद्व युद्ध के लिए चुनौती दी है जबकि ओलंपिक के आयोजन में सिर्फ ढाई महीने बचे हैं।

अदालत ने फर्जी हलफनामा दायर करने के लिए डब्ल्यूएफआई के उपाध्यक्ष राज सिंह के खिलाफ नोटिस भी जारी किया और पूछा कि झूठी गवाही देने के लिए क्यों नहीं उनके के खिलाफ कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए।

सुशील कुमार को 66 किलोग्राम श्रेणी में 2008 में बीजिंग ओलंपिक में कांस्य और 2012 में लंदन ओलंपिक में रजत पदक मिला था। लेकिन, अंतर्राष्ट्रीय कुश्ती संघ ने 2014 में इस श्रेणी को समाप्त कर दिया।

इसी वजह से कुमार 74 किलोग्राम श्रेणी में शामिल होने के लिए प्रेरित हुए। इस श्रेणी में वह नरसिंह यादव के प्रतिद्वंद्वी बन गए। यादव तब तक इस श्रेणी के शीर्ष भारतीय पहलवान थे।

चोटिल होने के कारण सुशील कुमार (32) ने रियो ओलंपिक के लिए ट्रायल का अवसर खो दिया और देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए नरसिंह यादव को दल में जगह मिल गई।

कुश्ती ट्रायल फिर से कराने के लिए भारतीय कुश्ती संघ से बार-बार निवेदन करने के बाद कुमार ने उच्च न्यायालय से गुहार लगाई थी।

--आईएएनएस

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Monday, 06 June 2016 00:00

दिल्ली उच्च न्यायालय में सुशील कुमार की याचिका खारिज

नई दिल्ली, 6 जून (आईएएनएस)। दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोमवार को दो बार ओलंपिक पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार की दोबारा ट्रायल की मांग वाली याचिका खारिज कर दी। अदालतन ने कहा कि चयन को अंतिम समय पर चुनौती दिए जाने से चयनित खिलाड़ी नरसिंह यादव की मानसिक तैयारी पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।

सुशील कुमार ने याचिका दायर कर रियो ओलंपिक के लिए भारतीय दल में जगह पाने के लिए 74 किलोग्राम फ्री स्टाइल कुश्ती का ट्रायल फिर से कराने की मांग की थी।

न्यायमूर्ति मनमोहन ने भारतीय कुश्ती संघ (डब्ल्यूएफआई) का निवेदन स्वीकार कर लिया। संघ ने कहा कि नरसिंह यादव का वर्तमान फॉर्म सुशील कुमार से अच्छा है।

न्यायमूर्ति ने इस तथ्य पर भी गौर किया कि सुशील कुमार चयन के लिए 2014 और 2015 में हुए ट्रायल में भाग लेने में विफल रहे। साथ ही उन्होंने 31 दिसंबर 2015 और 1 जनवरी 2016 को हुई राष्ट्रीय प्रतियोगिता व फरवरी 2016 में एशियाई चैंपियनशिप में भी भाग नहीं लिया।

अदालत ने कहा कि सुशील कुमार ने सितम्बर 2014 से अब तक कोई भी राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता नहीं जीती है, जबकि नरसिंह यादव ने दिसंबर 2015 में प्रो कुश्ती लीग में मंगोलिया के पहलवान पुरवाज उनुरबात को हराया था और सितंबर 2015 में हुई विश्व चैंपियनशिप प्रतियोगिता में रजत पदक विजेता रहे थे।

सुशील कुमार की ओर से तर्क दिया गया कि प्रशिक्षण के लिए उन्हें 2016 में जॉर्जिया और सोनीपत (हरियाणा) भेजा गया था। इस पर अदालत ने कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि ट्रायल आज कराना आवश्यक है और वह भी इतनी देर से।

अदालत ने इस पर भी ध्यान दिया कि डब्ल्यूएफआई ने चयन से पहले निष्पक्ष और पारदर्शी ट्रायल कराया था। साथ ही खेल संहिता के तहत चयन प्रक्रिया और ट्रायल कराने के निर्णय के संबंध में भारतीय कुश्ती संघ को प्रदत्त स्वायत्तता को भी माना।

अदालत ने कहा, "एक खिलाड़ी की मासूमियत के साथ 'सिर्फ एक ट्रायल' की मांग से हो सकता है कि एक चयनित खिलाड़ी के जीतने की उम्मीद पर पानी फिर रहा हो और राष्ट्रीय हित पर घातक असर पड़ रहा हो। द्वंद्व युद्ध की मांग से देश को घाटा होगा।"

अदालत ने कहा कि प्रतियोगिता होने और याचिका दायर करने में बहुत कम समय का अंतर है। साथ ही ट्रायल में चोटिल होने की आशंका प्रबल है। इसलिए सुशील कुमार का निवेदन स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

अदालत ने कहा कि यह समझ में नहीं आ रहा कि क्यों सुशील कुमार ने नरसिंह यादव को मई, 2016 में द्वंद्व युद्ध के लिए चुनौती दी है जबकि ओलंपिक के आयोजन में सिर्फ ढाई महीने बचे हैं।

अदालत ने फर्जी हलफनामा दायर करने के लिए डब्ल्यूएफआई के उपाध्यक्ष राज सिंह के खिलाफ नोटिस भी जारी किया और पूछा कि झूठी गवाही देने के लिए क्यों नहीं उनके के खिलाफ कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए।

सुशील कुमार को 66 किलोग्राम श्रेणी में 2008 में बीजिंग ओलंपिक में कांस्य और 2012 में लंदन ओलंपिक में रजत पदक मिला था। लेकिन, अंतर्राष्ट्रीय कुश्ती संघ ने 2014 में इस श्रेणी को समाप्त कर दिया।

इसी वजह से कुमार 74 किलोग्राम श्रेणी में शामिल होने के लिए प्रेरित हुए। इस श्रेणी में वह नरसिंह यादव के प्रतिद्वंद्वी बन गए। यादव तब तक इस श्रेणी के शीर्ष भारतीय पहलवान थे।

चोटिल होने के कारण सुशील कुमार (32) ने रियो ओलंपिक के लिए ट्रायल का अवसर खो दिया और देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए नरसिंह यादव को दल में जगह मिल गई।

कुश्ती ट्रायल फिर से कराने के लिए भारतीय कुश्ती संघ से बार-बार निवेदन करने के बाद कुमार ने उच्च न्यायालय से गुहार लगाई थी।

--आईएएनएस

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Monday, 06 June 2016 00:00

मथुरा हिंसा की सीबीआई जांच पर सुनवाई मंगलवार को

नई दिल्ली, 6 जून (आईएएनएस)। सर्वोच्च न्यायालय मंगलवार को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एक नेता की उस याचिका पर सुनवाई करेगा, जिसमें मथुरा हिंसा की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से कराने की मांग की गई है।

घटना में दो पुलिस अधिकारियों सहित 29 लोगों की जान चली गई थी और बड़े पैमाने पर संपत्ति को नुकसान पहुंचा था।

न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष तथा न्यायमूर्ति अमिताभ रॉय की अवकाशकालीन पीठ ने मामले की सुनवाई मंगलवार को करने पर सहमति जताई। इससे पहले अधिवक्ता कामिनी जायसवाल ने मामले को उठाते हुए इस पर जल्द सुनवाई की आवश्यकता जताई थी।

हिंसा की यह घटना दो जून की है, जब पुलिस इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर उत्तर प्रदेश में मथुरा के जवाहरबाग में अवैध कब्जा हटाने पहुंची थी। बाग पर स्वाधीन भारत विधिक सत्याग्रह के सदस्यों ने कब्जा कर रखा था।

इस हिंसक घटना में एक पुलिस अधीक्षक और एक थाना प्रभारी (एसएचओ) सहित 29 लोगों की जान चली गई थी, जबकि 23 अन्य पुलिसकर्मी घायल हो गए थे।

भाजपा की दिल्ली इकाई के सदस्य, याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि मथुरा में हुई घटना के मूल कारण और 'कार्यपालिका, विधायिका और उग्रवादी समूह' के बीच संभावित गठजोड़ का पता लगाने के लिए सीबीआई जांच जरूरी है।

याचिका में दलील दी गई है कि केंद्र सरकार घटना की सीबीआई जांच के लिए तैयार है, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार इसकी सिफारिश नहीं कर रही है।

याचिका में कहा गया है कि स्वाधीन भारत विधिक सत्याग्रह, जय गुरुदेव के अनुयायियों से अलग हुए एक समूह से बना था।

उपाध्याय की ओर से अधिवक्ता कामिनी जायसवाल ने अदालत को मीडिया रपटों के आधार पर सबूत नष्ट किए जाने की भी बात कही।

उन्होंने कहा कि इस हिंसा में कई लोगों की जान जाने के साथ ही 200 वाहन भी नष्ट हो गए और बड़े पैमाने पर गैस सिलिंडर भी फट गए।

याचिका में आरोप लगाया गया है कि जय गुरुदेव का अनुयायी रहा स्वाधीन भारत विधिक सत्याग्रह का नेता राम वृक्ष यादव उत्तर प्रदेश सरकार के शक्तिशाली लोगों की मिलीभगत से समानांतर सरकार चला रहा था।

याचिका के मुताबिक, "स्थानीय निवासी मानते थे कि यादव उत्तर प्रदेश सरकार में कुछ मंत्रियों के बेहद करीब था, इसलिए स्थानीय प्रशासन उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं करना चाहता था।"

याचिका में कहा गया है कि यह हिंसा के मामले की जांच सीबीआई को सौंपने के लिए स्पष्ट आधार है।

याचिका में सीबाआई जांच के अलावा ऐसी परिस्थितियों में मृतकों के परिवारों को मुआवजा देने के लिए केंद्र सरकार को एक समान नीति तैयार करने का निर्देश देने की भी मांग की गई है।

--आईएएनएस

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Monday, 06 June 2016 00:00

गुलबर्ग सोसाइटी मामले में सजा का ऐलान अब 9 जून को

अहमदाबाद, 6 जून (आईएएनएस)। अहमदाबाद की एक विशेष सत्र अदालत ने 14 साल पुराने सनसनीखेज गुलबर्ग सोसाइटी हत्याकांड में दोषी ठहराए गए 24 लोगों की सजा का ऐलान सोमवार को टाल दिया। अब इस पर नौ जून को सजा सुनाई जाएगी। अदालत ने इस मामले में दलीलें पूरी नहीं होने के कारण सजा का ऐलान टाल दिया।

यहां गुलबर्ग हाउसिंग सोसाइटी में 28 फरवरी, 2002 को दिनदहाड़े हथियारबंद भीड़ द्वारा आग लगा दिए जाने की घटना में कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी सहित 69 लोगों की मौत हो गई थी। सोसाइटी में अल्पसंख्यक समुदाय के लोग रहते थे।

अहमदाबाद की विशेष सत्र अदालत ने गुरुवार को इस मामले में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के नेता अतुल वैद्य सहित 24 लोगों को दोषी करार दिया था। अदालत ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नगर पार्षद विपिन पटेल सहित 36 आरोपियों को बरी कर दिया था। अदालत ने इस मामले में साजिश से इनकार किया था।

एसआईटी (विशेष जांच दल) की विशेष अदालत में दोषियों की सजा पर पीड़ितों के वकील, बचाव पक्ष के वकील और अभियोजन पक्ष के वकीलों के बीच दलीलों की शुरुआत सोमवार दोपहर हुई।

पीड़ितों के वकील एस.एम. वोहरा ने दोषियों के लिए अधिकतम सजा की मांग करते हुए कहा कि लोगों की नृशंस हत्या की गई। इसे दुर्लभ से दुर्लभतम मामले के रूप में देखा जाना चाहिए।

उन्होंने यह भी कहा कि इस मामले के पीड़ित परिवारों को इस पीड़ा से गुजरने के लिए हर्जाना दिया जाना चाहिए।

अभियोजन पक्ष के वकील आर. सी. कोडेकर ने दलील दी कि यदि दोषियों को मृत्युदंड नहीं दिया जाता है तो उन्हें मृत्यु तक आजीवन कारावास दिया जाना चाहिए। दलीलों के दौरान अदालत ने अभियोजन पक्ष से यह स्पष्ट करने के लिए कहा कि आखिर क्यों सजा की अवधि 14 साल से अधिक होनी चाहिए।

वहीं, दोषियों के वकील अभय भारद्वाज ने कहा कि सजा भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि इसे नृशंस हत्या नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गुलबर्ग सोसाइटी पर हमले की शुरुआत पूर्व कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी द्वारा गोली चलाने के बाद हुई।

उन्होंने माना कि हाउसिंग सोसाइटी के बाहर तनावपूर्ण माहौल था, जहां 27 फरवरी, 2002 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस रेलगाड़ी में हुई आगजनी की घटना में 58 लोगों की मौत के विरोध में नाराज लोगों की भीड़ एकत्र हो गई थी।

भारद्वाज ने कहा कि जाफरी ने ऐसी तनावपूर्ण स्थिति में गोली चलानी शुरू कर दी, जिसके बाद भीड़ उग्र हो गई और उसने गुलबर्ग सोसाइटी पर हमला शुरू कर दिया। उन्होंने जाफरी की ओर से चलाई गई गोली में 15 लोगों के घायल होने की बात कही।

उन्होंने अदालत से इस तथ्य पर विचार करने के लिए कहा कि दोषियों ने अपनी जिंदगी में पहली बार अपराध किया और उनका कोई पूर्व का आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है। साथ ही उन्होंने अपनी जमानत अवधि के दौरान भी किसी तरह का अपराध नहीं किया। उन्होंने अदालत द्वारा इस मामले में साजिश के आरोपों को खारिज किए जाने को भी आधार बनाया।

अदालत ने 24 में से 11 लोगों को हत्या का दोषी ठहराया, जबकि 13 अन्य को कमतर अपराधों का दोषी पाया। अतुल वैद्य को धारा 436 के तहत दुकानों एवं घरों को आग लगाने के लिए कमतर अपराधों का दोषी ठहराया गया है। अदालत ने 36 आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया।

बरी किए जाने वालों में भाजपा पार्षद विपिन पटेल के साथ-साथ पुलिस निरीक्षक के.जी. एरडा भी शामिल हैं। एरडा ने इस मामले की प्राथमिकी दर्ज की थी, पर बाद में उनका नाम अभियुक्तों में शामिल कर दिया गया।

--आईएएनएस

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Sunday, 05 June 2016 00:00

बाप-दादा के भ्रष्टाचार की सजा बेगुनाह मासूम को भी

जबलपुर, 5 जून (आईएएनएस)। मध्य प्रदेश के जबलपुर में एक पांच साल के मासूम बच्चे को सिर्फ इसलिए जेल जाना पड़ा है, क्योंकि उसके दादा ने घोटाला किया और इस घोटाले की रकम में उसकी दादी व माता-पिता हिस्सेदार बने हैं। परिवार के इन सभी दोषियों को जब जेल की सजा चुनाई गई, तो न्यायालय ने मासूम को भी मां के साथ जेल में रहने की अनुमति दे दी।

सीबीआई के लोक अभियोजक प्रतीश जैन ने संवाददाताओं को बताया, "पेंशनर्स और मृत सैन्य कर्मचारियों को कर्ज बांटे जाने में हुए घोटाले का खुलासा वर्ष 2010 में हुआ था। सीबीआई ने मामले की जांच की तो पता चला कि तत्कालीन सहायक लेखाधिकारी सूर्यकांत गौर ने 29 पेंशनर्स और मृत सैन्य कर्मचारियों के नाम पर धनराशि निकाली थी। जांच में पाया गया कि गौर ने इस राशि को पत्नी विनीता गौर, बेटा शिशिर गौर व बहू सुनीता गौर के नाम पर कई स्थानों पर निवेश किया है। इसके अलावा जबलपुर में एक मकान भी खरीदा है।"

जैन के अनुसार, सीबीआई ने आय से अधिक संपत्ति की शिकायत पर जुलाई 2010 में गौर के पास से 94 लाख रुपये के निवेश का ब्योरा पाया, जिसमें कई लाख रुपये आय से अधिक थे। इस पर सीबीआई ने प्रकरण दर्ज किया और विशेष न्यायाधीश योगेश चंद्र गुप्त की अदालत में चालन पेश किया।

लोक अभियोजक जैन ने कहा, "इस मामले की सुनवाई के दौरान गौर को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत दोषी करार दिया गया। इस मामले में गौर व उसके परिवार के तीन अन्य सदस्यों को सजा सुनाई गई है।"

जैन के अनुसार, "न्यायाधीश गुप्त ने गौर के अलावा उनकी पत्नी, बेटा व बहू को शुक्रवार को पांच-पांच साल कैद की सजा सुनाई और सभी पर अलग-अलग ढाई-ढाई लाख रुपये जुर्माना भी लगाया है। गौर के बेटे शिशिर का एक पांच साल का बेटा भी है, जो निर्दोष है, उसे परिजनों के आग्रह पर जेल में रखने की अनुमति दे दी गई है।"

--आईएएनएस

Published in राज्य
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Thursday, 02 June 2016 00:00

गुलबर्ग सोसाइटी हत्याकांड में 24 दोषी, 36 बरी, जाकिया ने कहा 'अधूरा न्याय'

दर्शन देसाई
अहमदाबाद, 2 जून (आईएएनएस)। अहमदाबाद की एक विशेष सत्र अदालत ने गुरुवार को 14 साल पुराने गुलबर्ग सोसाइटी में 69 लोगों के सामूहिक हत्याकांड में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के नेता अतुल वैद्य सहित 24 लोगों को दोषी करार दिया। इस नरसंहार के शिकार कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की विधवा जाकिया जाफरी ने इसे 'अधूरा न्याय' बताया है।

विशेष सत्र अदालत के न्यायाधीश पी.बी. देसाई ने 66 आरोपियों में से 36 को बरी कर दिया।

जाकिया जाफरी इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ले गई थीं। उन्होंने इस फैसले पर दुख जताते हुए कहा है कि यह 'अधूरा न्याय' है। उन्होंने कहा कि इस फैसले के खिलाफ वे गुजरात उच्च न्यायालय में अपील करेंगी।

अदालत ने 24 आरोपियों को दोषी करार दिया जिसमें से 11 पर धारा 302 के तहत हत्या का दोषी पाया गया, जबकि 13 अन्य आरोपियों को कम अपराध का दोषी पाया गया। अतुल वैद्य को धारा 436 के तहत अन्य आरोपियों के साथ घरों और दुकानों को जलाने तथा हमला करने के कम अपराध का दोषी करार दिया गया। कांग्रेस के पूर्व पार्षद मेह सिंह चौधरी भी दोषियों में शामिल हैं।

जिन आरोपियों को बरी किया गया, उनमें भारतीय जनता पार्टी के पार्षद बिपिन पटेल और मेघानिननगर के पुलिस निरीक्षक के. जी. एर्दा का नाम शामिल है। उन्होंने ही इस मामले में पहली एफआईआर दर्ज की थी, लेकिन बाद में कर्तव्य में लापरवाही के आरोप में उन्हें भी आरोपियों में शामिल किया गया।

पटेल असारवा वार्ड के वर्तमान पार्षद हैं। वे 2002 में भी पार्षद थे, जब यह हत्याकांड हुआ।

27 फरवरी 2002 को हिन्दू श्रद्धालु मुसाफिरों से भरी साबरमती ट्रेन को गोधरा स्टेशन के नजदीक आग के हवाले कर दिया गया जिसमें 59 मुसाफिरों की मौत हो गई। इसके एक दिन बाद ही गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार को अंजाम दिया गया।

पटेल ने 2015 में लगातार चौथी बार पार्षद का चुनाव जीता था।

अदालत ने इस मामले में अभियोजन पक्ष के साजिश के आरोप को खारिज कर दिया।

बचाव दल के वकीलों में से एक अभय भारद्वाज ने बताया, "अदालत ने हमारे साजिश नहीं होने के तर्क को स्वीकार किया। यही कारण है कि उन्होंने अभियोजन पक्ष के साजिश के आरोप को खारिज किया। न्यायाधीश ने कहा कि इसमें कोई साजिश नहीं थी। उन्होंने अभियोजन पक्ष से कहा कि वे सबको साथ में न जोड़े और एक-एक आरोपी के बारे में बताएं कि किसने क्या किया। इस तरह अभियोजन पक्ष का साजिश का आरोप खारिज हो गया।"

28 फरवरी, 2002 में अहमदाबाद शहर के मेघानीनगर इलाके में गुलबर्ग हाउसिंग सोसाइटी को हथियारबंद भीड़ ने दिनदहाड़े आग लगा दी थी, जिसमें कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी सहित 69 लोगों की मौत हो गई थी। सोसाइटी में अल्पसंख्यक समुदाय के लोग रहते थे।

आगजनी की इस घटना के बाद सोसाइटी के अंदर से 39 जले शव बरामद हुए थे, जबकि घटना के बाद से लापता अन्य 30 लोगों को विशेष जांच दल (एसआईटी) ने घटना के 12 साल बाद मृत घोषित कर दिया। इन 30 लोगों का उस दिन के बाद कभी कोई सुराग नहीं लगा।

अदालत दोषियों को छह जून को सजा सुनाएगी।

दोषी ठहराए गए 24 में से 11 लोगों को अदालत ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 के तहत हत्या का दोषी पाया और अन्य 13 को इससे कमतर अपराधों का दोषी पाया।

सभी 60 आरोपी सुनवाई के दौरान अदालत में मौजूद थे, जबकि उनके परिजन बड़ी संख्या में अदालत परिसर में एकत्रित थे।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस साल 22 फरवरी को विशेष सत्र अदालत को गुलबर्ग सोयाइटी संहार मामले में तीन माह के अंदर अपना फैसला सुनाने का निर्देश दिया था, जिसके बाद सत्र अदालत ने नियमित आधार पर मामले में सुनवाई की।

गुलबर्ग सोसाइटी हत्याकांड 2002 के गुजरात दंगों के दौरान हुए नौ प्रमुख मामलों में से एक है, जिनकी जांच सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त एसआईटी ने की।

एसआईटी ने इस मामले में 66 लोगों को आरोपी बनाया था। इनमें से नौ पिछले 14 वर्षो से जेल में हैं, बाकी जमानत पर जेल से बाहर हैं।

कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की विधवा जकिया जाफरी ने गुरुवार को कहा कि वह गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड मामले में अदालत के फैसले से संतुष्ट नहीं हैं। उन्होंने कहा कि विशेष अदालत द्वारा बरी किए गए कई लोग साल 2002 में हुए दंगे में शामिल थे।

जाफरी ने कहा कि वह गुजरात उच्च न्यायालय में याचिका दायर करेंगी।

अहमदाबाद में संवाददाताओं से जाफरी ने कहा, "हम अंतिम सांस तक मुकदमा लड़ेंगे।"

उनके पास बचे विकल्प के बारे में पूछे जाने पर जाफरी ने कहा, "तीस्ता सीतलवाड़ तथा दिल्ली के एक मशहूर वकील के साथ मिलकर इस मुकदमे को लड़ना जारी रखेंगे।"

जाफरी ने यह भी कहा कि एक पार्टी के रूप में कांग्रेस ने मामले में कभी हस्तक्षेप नहीं किया।

--आईएएनएस

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Thursday, 02 June 2016 00:00

गुलबर्ग दंगे में अदालत का फैसला 'अधूरा न्याय' : जकिया जाफरी

अहमदाबाद, 2 जून (आईएएनएस)। कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की विधवा जकिया जाफरी ने गुरुवार को गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड मामले में विशेष अदालत के फैसले को 'अधूरा न्याय' करार दिया। उन्होंने कहा कि आरोपियों के बरी किए जाने के खिलाफ वह उच्च न्यायालय में याचिका दायर करेंगी।

जकिया ने कहा कि वह मामले की विशेष जांच दल (एसआईटी) की जांच से संतुष्ट नहीं हैं और फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दायर करेंगी। लेकिन, दंगे में जिंदा बचे लोगों के वकील एस. एम. वोरा ने कहा कि वे अदालत के फैसले से संतुष्ट हैं।

वोरा ने संवाददाताओं से कहा कि फैसले पर जकिया की प्रतिक्रिया उनकी व्यक्तिगत प्रतिक्रिया है।

उन्होंने कहा, "जहां तक मैं समझता हूं, मैं अदालत के फैसले से संतुष्ट हूं। अदालत ने 24 लोगों को दोषी ठहराया है। इनमें से 11 लोगों को धारा 302 के तहत हत्या के लिए तथा अन्य 13 को मामूली धाराओं के तहत दोषी ठहराया है।"

वोरा ने कहा, "हम अदालत से फैसले पर फिर से विचार करने तथा जिन 13 लोगों को मामूली आरोपों के तहत दोषी ठहराया गया है, उन्हें कड़ी से कड़ी सजा देने के अनुरोध करने पर विचार कर रहे हैं। मैं हालांकि यह नहीं कह सकता कि मैं फैसले से असंतुष्ट हूं।"

इससे पहले, अदालत के फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जकिया ने कहा कि एसआईटी ने जांच अच्छी तरह से नहीं की।

जकिया द्वारा मामले को सर्वोच्च न्यायायल के समक्ष उठाए जाने के बाद मामले की जांच के लिए साल 2009 में एसआईटी का गठन किया गया था।

जकिया ने कहा, "आधे से अधिक आरोपियों को बरी कर दिया गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि न तो फैसला पूरा है और न ही जांच को ढंग से अंजाम दिया गया। यह अधूरा इंसाफ है। मैं 15 वर्षो से लड़ाई लड़ रही हूं और अब ऐसा लगता है कि मेरी लड़ाई अभी लंबी चलेगी। मैं अपनी कानूनी लड़ाई जारी रखूंगी। मैं उच्च न्यायालय जाऊंगी।"

एसआईटी के विशेष न्यायालय के न्यायाधीश पी.बी.देसाई ने गुरुवार को 36 आरोपियों को बरी कर दिया, जबकि 24 आरोपियों को दोषी करार दिया, जिसमें एक विश्व हिंदू परिषद (विहिप) का नेता भी शामिल है। छह आरोपियों की सुनवाई के दौरान मौत हो गई।

अहमदाबाद में संवाददाताओं से जाफरी ने कहा, "हम अंतिम सांस तक मुकदमा लड़ेंगे।"

उनके पास बचे विकल्प के बारे में पूछे जाने पर जाफरी ने कहा, "तीस्ता सीतलवाड़ तथा दिल्ली के एक मशहूर वकील के साथ मिलकर इस मुकदमे को लड़ना जारी रखेंगे।"

गुलबर्ग सोसायटी दंगे में एहसान जाफरी सहित 69 लोग मारे गए थे।

--आईएएनएस

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Thursday, 02 June 2016 00:00

गुलबर्ग सोसाइटी हत्याकांड में 24 दोषी करार, 36 बरी

अहमदाबाद, 2 जून (आईएएनएस)। अहमदाबाद की एक विशेष सत्र अदालत ने गुरुवार को 14 साल पुराने सनसनीखेज गुलबर्ग सोसाइटी हत्याकांड में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के नेता अतुल वैद्य सहित 24 लोगों को दोषी करार दिया।

विशेष सत्र अदालत के न्यायाधीश पी.बी. देसाई ने 60 आरोपियों में से 36 को 'दोषी नहीं' घोषित किया।

अदालत ने इस मामले में अभियोजन पक्ष के साजिश के आरोप को खारिज कर दिया।

28 फरवरी, 2002 में अहमदाबाद शहर के मेघानीनगरइलाके में गुलबर्ग हाउसिंग सोसाइटी को हथियारबंद भीड़ ने दिनदहाड़े आग लगा दी थी, जिसमें कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी सहित 69 लोगों की मौत हो गई थी। सोसाइटी में अल्पसंख्यक समुदाय के लोग रहते थे।

आगजनी की इस घटना के बाद सोसाइटी के अंदर से 39 जले शव बरामद हुए थे, जबकि घटना के बाद से लापता अन्य 30 लोगों को विशेष जांच दल (एसआईटी) ने घटना के 12 साल बाद मृत घोषित कर दिया। इन 30 लोगों का उस दिन के बाद कभी कोई सुराग नहीं लगा।

अदालत दोषियों को छह जून को सजा सुनाएगी।

दोषी ठहराए गए 24 में से 11 लोगों को अदालत ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 के तहत हत्या का दोषी पाया और अन्य 13 को इससे कमतर अपराधों का दोषी पाया।

सभी 60 आरोपी सुनवाई के दौरान अदालत में मौजूद थे, जबकि उनके परिजन बड़ी संख्या में अदालत परिसर में एकत्रित थे।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस साल 22 फरवरी को विशेष सत्र अदालत को गुलबर्ग सोयाइटी जनसंहार मामले में तीन माह के अंदर अपना फैसला सुनाने का निर्देश दिया था, जिसके बाद सत्र अदालत ने नियमित आधार पर मामले में सुनवाई की।

गुलबर्ग सोसाइटी हत्याकांड 2002 के गुजरात दंगों के दौरान हुए नौ प्रमुख मामलों में से एक है, जिनकी जांच सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त एसआईटी ने की।

एसआईटी ने इस मामले में 66 लोगों को आरोपी बनाया था। इनमें से नौ पिछले 14 वर्षो से जेल में हैं, बाकी जमानत पर जेल से बाहर हैं।

--आईएएनएस

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Tuesday, 31 May 2016 00:00

सर्वोच्च न्यायालय ने एआईसीटीई को लगाई लताड़

नई दिल्ली, 31 मई (आईएएनएस)। सर्वोच्च न्यायालय ने संस्थानों को मान्यता प्रदान करने की समय सीमा से संबंधित न्यायालय के आदेश का पालन न करने तथा उत्तर प्रदेश स्थित ए.पी.जे.अब्दुल कलाम प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय को इस संबंध में सूचना न देने के लिए ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन (एआईसीटीई) को मंगलवार को लताड़ लगाई। एआईसीटीई के इस रवैये से हजारों छात्रों का भविष्य अधर में है।

न्यायमूर्ति पी. सी. घोष तथा न्यायमूर्ति अमिताव रॉय की सर्वोच्च न्यायालय की अवकाश पीठ ने कहा, "हम अपने आदेश की अवहेलना से बेहद निष्ठुर तरीके से निपट सकते हैं।" पीठ ने सुनवाई के दौरान ेसंकेत दिया कि संबंधित अधिकारियों के खिलाफ अदालत की अवमानना का नोटिस जारी हो सकता है।

पीठ ने कहा, "हम अधिकारियों को अदालत की अवमानना का नोटिस जारी करने को इच्छुक हैं।"

न्यायमूर्ति रॉय ने कहा, "आपको (एआईसीटीई) नहीं पता कि हम कितने निष्ठुर हो सकते हैं, यदि हम यह तय कर लें कि आपने 608 संस्थानों के छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया है।"

इस बात की ओर इशारा करते हुए कि एआईसीटीई ने मामले में बेहद लचर रवैया अपनाया और न्यायालय द्वारा दिसंबर 2012 की तय समयसीमा को कोई तवज्जो नहीं दी, न्यायालय ने कहा कि समय सीमा के पालन में गंभीर ढिलाई बरती गई।

पीठ ने एआईसीटीई से एक हलफनामा दायर करने को कहा, जिसमें उसे उत्तर प्रदेश में 612 संस्थानों को मान्यता देने के संबंध में ए.पी.जे.अब्दुल कलाम प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय को सूचित करने में हुए विलंब का कारण बताना होगा। न्यायालय ने हलफनामा दायर करने के लिए एआईसीटीई को एक सप्ताह का समय दिया है।

न्यायालय ने कहा कि देश में तकनीकी संस्थानों की नियामक एआईसीटीई के जवाब के आधार पर न्यायालय उस पर जुर्माना करने को लेकर फैसला करेगा।

शीर्ष न्यायालय ने 13 दिसंबर, 2012 के अपने आदेश में संस्थानों को मान्यता देने का आदेश जारी किया था, जिसके पालन में एआईसीटीआई नाकाम रही।

पीठ ने विश्वविद्यालय से संस्थानों को संबद्धता देने या न देने और दाखिला प्रक्रिया पूरी करने की समय सीमा बढ़ाकर 10 जून कर दी।

ए.पी.जे.अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी की तरफ से पेश हुए अमितेश कुमार ने न्यायालय से कहा कि एआईसीटीई को 612 संस्थानों को मान्यता देने के संबंध में सूचना 11 अप्रैल तक देनी थी, लेकिन उसने यह सूचना 25 दिनों बाद सात मई को शाम सात बजे दी।

उन्होंने न्यायालय से कहा कि सात मई को शनिवार था, इसलिए इन संस्थानों को संबद्धता की मंजूरी देने के लिए आवेदनों पर कार्रवाई सोमवार नौ मई को की गई।

संबद्धता की मंजूरी के लिए आवेदन की प्रक्रिया के समय को बढ़ाने की मांग करते हुए अमितेश कुमार ने न्यायालय से कहा कि बाकी बचे छात्रों की नामांकन प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय के 13 दिसंबर, 2012 के फैसले में तय की गई तारीख के अनुसार होगी।

--आईएएनएस

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Monday, 30 May 2016 00:00

मेहता मामले में एएफटी के आदेश पर शीर्ष अदालत ने रोक लगाई

नई दिल्ली, 30 मई (आईएएनएस)। सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को सशस्त्र बल न्यायाधिकरण (एएफटी) के उस फैसले पर रोक लगा दी जिसमें न्यायाधिकरण ने सैन्य आयुध कोर के मेजर जनरल (अब लेफ्टिनेंट जनरल) एन. के. मेहता को ब्रिगेडियर रैंक में पदावनत कर दिया था।

शीर्ष अदालत की अवकाशकालीन पीठ के न्यायमूर्ति पी. सी. घोष और न्यायमूर्ति अमिताव रॉय ने एएफटी के उस आदेश पर भी रोक लगा दी, जिसमें थल सेना अध्यक्ष, रक्षा सचिव और सैन्य सचिव पर 50 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया था।

इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय ने एएफटी की लखनऊ पीठ द्वारा लेफ्टिनेंट जनरल मेहता पर लगाए गए पांच लाख रुपये के जुर्माने पर भी रोक लगा दी।

अदालत ने एटीएफ का दरवाजा खटखटाने वाले मेजर जनरल राठौर को भी नोटिस जारी किया।

सर्वोच्च न्यायालय की अवकाश पीठ एएफटी के 13 मई के फैसले को चुनौती देने वाली केंद्र और लेफ्टिनेंट जनरल मेहता की याचिका की सुनवाई कर रही थी।

न्यायालय ने एएफटी के आदेश में मौजूद उस बात पर भी रोक लगा दी, जिससे उच्चस्तरीय रक्षा अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रपट की जांच करने के केंद्र सरकार के अधिकार पर प्रतिकूल असर हो रहा था।

महान्यायवादी मुकुल रोहतगी ने शीर्ष अदालत की अवकाश पीठ से एएफटी के फैसले पर रोक लगाने का अनुरोध किया, क्योंकि इस तरह के फैसले का सशस्त्र बलों के लिए दूरगामी प्रभाव था।

न्यायमूर्ति रॉय ने जब यह पूछा कि जिस आदेश पर आप रोक लगाने की मांग कर रहे हैं उसके कुछ हिस्सों को अगर अदालत छांट देती है तो क्या बचेगा? इस पर उन्होंने कहा कि ले.जनरल मेहता या तो डूब जाएंगे या तैरेंगे, लेकिन मेजर जनरल राठौर के लेफ्टिनेंट जनरल बनने की कोई उम्मीद नहीं हैं, क्योंकि वे मंगलवार को रिटायर होने जा रहे हैं।

मेजर जनरल राठौर की ओर से बहस कर रहीं वकील एश्वर्या भाटी ने एएफटी के फैसले पर रोक नहीं लगाने के लिए पुरजोर कोशिश की।

एएफटी ने पहले 17 फरवरी, 2016 को अपने फैसले में मेहता की पदावनति का आदेश दिया था जिस पर सर्वोच्च न्ययालय ने 18 मार्च, 2016 को रोक लगा दी थी और न्यायाधिकरण को अपने 17 फरवरी के फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा था।

हालांकि एएफटी ने अपने 13 मई के आदेश में मेहता की पदावनति के आदेश को दोहराते हुए शीर्ष रक्षा अधिकरियों पर 50 लाख रुपये और मेहता पर पांच लाख रुपये का जुर्माना लगाया था।

--आईएएनएस

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